अग्नि परीक्षा और सफलता / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
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उस रास्ते में त्रियुगी नारायण की एक विकट चढ़ाई पहले पड़ती है। हालाँकि उससे भी विकटतर और विकटतम आगे पड़ती है। खूबी यह थी कि त्रियुगी नारायण की चढ़ाई में दिनभर खाने को न मिला। हम ऐसे ही चलते रहे। तुर्रा यह कि हमारे साथी भी रास्ते में पेशाब के बहाने पीछे रुक गए और बहुत देर करने पर भी न आए। पीछे पता लगा कि वे जान बूझ कर साथ छोड़ना चाहते थे। उनकी बातें पहले से ही कुछ ऐसी हो रही थीं। करना क्या?अकेले ही चले। हालाँकि, कष्ट के समय एकांत और भी अखरता है। लोग तो रात में त्रियुगी नारायण में ठहरते हैं। मगर हमने जब खाने की कोई सूरत न देखी तो आगे चलना ही निश्चय किया। कहीं बीच में ही, देर होने से अशक्त हो कर, रह न जाए यह भय जो लगा था। उस दिन बहुत चले और गौरी कुंड आ कर ठहर गए शाम होते न होते। वहाँ से चढ़ाई भीमगोड़ा तक छ:-सात मील बहुत ही बेढ़ब है। भीमगोड़ा के बाद की चढ़ाई की तो पूछिए मत। सीढ़ियाँ बनी हैं। उन्हीं पर चढ़ना होता है। लेकिन शायद दो-तीन मील के बाद ही समतल भूमि मीलों मिलती है जो बर्फ से ढँकी रहती है। उसी बर्फ पर ही चलना पड़ता है। उसी के बाद केदार जी का मंदिर आ जाता है। इसी आशा में हम हिम्मत कर के पानी पी-पी कर किसी प्रकार गौरीकुंड पहुँच के सो रहे।

दूसरे दिन सवेरे ही रवाना हो गए और बड़ी कठिनाई से भीमगोड़ा पहुँच पाए। रात में यात्री लोग यहीं ठहरते हैं। यहाँ से केदार नजदीक है। केदार में तो बर्फ से लदे होने के कारण रात में न तो ठहरने का स्थान ही है और न हिम्मत ही होती है। बर्फ में कौन मरे?लोग भीमगोड़े से आगे बढ़ चुके थे और बढ़ रहे थे। यह देख हमने भी हिम्मत की। लेकिन हालत बुरी थी। दो-चार सीढ़ियाँ चढ़ते किसी प्रकार, और चक्कर खा के गिर पड़ते। फिर चढ़ते, फिर इसी तरह गिरते। इस प्रकार चढ़ते, गिरते राम-राम कर के हमने वह चढ़ाई खत्म की और लंबे बर्फानी मैदान में पहुँचे। अब तो हिम्मत हो गई। ज्यादा संकटों का सामना करने के बाद कम कष्टों में काफी हिम्मत होई जाती है। यह भी सोचा कि अब तो केदार जी निकट है। बर्फ पर पाँव देते ही वह सन्न हो जाता और भारी तकलीफ होती थी। साथ ही, सर्दी से देह में बल भी हो आया। सर्दी का कुछ ऐसा प्रभाव होता ही है। लेकिन थोड़ी देर बाद पाँव सून से हो गए और सन्न-सन्न लगना बंद हो गया।

अंत में मंदिर के पास आ गए। देखा कि बगल में बर्फ पिघल-पिघल के एक नदी बह रही है और लोग उसमें स्नान कर रहे हैं। यह वही गंगा की धारा थी जिसके किनारे-किनारे आए थे। यहीं से शुरू होती थी। चारों ओर सफेद बर्फ से लदे पहाड़ थे। न कहीं पेड़ और न कोई गाँव-गिराँव।

इतने में ही एक गृहस्थ ने आ कर हमसे कहा कि “महाराज भोजन कीजिए” यह शब्द था या अमृत?हम तो दिल से उसके आभारी हुए और कहा कि स्नान और दर्शन के बाद खाऊँगा। वह इंतजार करने लगा और हम फौरन नहाने गए। जो पानी में हाथ डाला तो सुन्न! कमंडलु उठाना असंभव! तो भी जैसे-तैसे स्नान किया और जल ले कर मंदिर में गए। भीतर बर्फ की ऊँची शिलाएँ पड़ी-पड़ी गल रही थीं। बाबा केदारनाथ का दर्शन किया, जल चढ़ाया और वापस आए।देखा कि हमारा अन्नदाता एक पूड़ी बनानेवाले के पास खड़ा है, जहाँ लोग ताजी-ताजी पूड़ियाँ ले कर खाते जाते हैं। भोज पत्र के पेड़ की हरी-हरी लकड़ियाँ जल रही थीं और कड़ाही के घी में पूड़ियाँ पकती थीं। यदि ये लकड़ियाँ न जलें तो लोग भूखों मर ही जाए। वहाँ सूखी लकड़ी मिले कहाँ?वह भी तो नीचे से लाई जाती है। हम भी वहीं पहुँच गए और खूब अघा के पूड़ियाँ खाईं। हमारा ख्याल है कि एक सेर पक्की से कम न खाई होंगी। केवल पूड़ी मिल सकती थी। साग-तरकारी कहाँ मिले?वह भी तो गनीमत थी।