अग्नि परीक्षा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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संस्कृत पढ़ने के दिनों में मेरी जो अग्नि परीक्षा हुई और उसमें जो मैं पूर्णतया उत्तीर्ण हुआ उसका मुझे अभिमान है। मैं मानता हूँ कि बाधाएँ मुझे विचलित नहीं कर सकती है, यदि मैं किसी काम के लिए दृढ़ संकल्प कर लूँ। वेद, वेदांग और दर्शनों को मथ डालने का तो मैंने संकल्प कर ही लिया था। उसी बीच पूर्वोक्त बाधाएँ आई। उनका सामना करता रहा।

बीच-बीच में खुश्की हो जाती और सिर में दर्द होने लगता। असल में काशी के जलवायु का यह दोष है कि वह खुश्क है, खास कर गंगा जी का जल। इसीलिए बहुत से लोग सुबह-शाम बाहर चले जाते और कुएँ का जल पिया करते हैं। इससे खुश्की से बचते हैं। मगर मुझे तो दम मारने की फुर्सत न थी। फिर बाहर कई मील दूर जाता कैसे?यह भी बात थी कि एक बार रूखा-सूखा खाने से और मस्तिष्क का काम ज्यादा करने से खुश्की सताया करती थी। काशी में पढ़नेवाले ही इस रोग के शिकार प्राय: होते हैं और सूखी खाँसी में फँस जाते हैं। मेरी भी यही हालत कभी-कभी हो जाती थी। पर, करता क्या?भोगता रहता और पढ़ने में डँटा था।

आखिर एक पंजाबी 'अवधूत' जी कहे जानेवाले विरक्त और केवल लँगोटीधारी साधु ने मेरे लिए काशी के ही एक वैश्य को कह के शाम के लिए दूध का प्रबंध करवा दिया। वही खुश्की से बचानेवाला हो गया।'अवधूत' जी सिर्फ एक लँगोटी रखते, शहर से बाहर गंगा पार में रहते और जाड़े में एक मामूली चादर रखते थे। मैंने उन्हें बराबर ऐसा ही देखा। लगातार बहुत वर्षों तक कोई लोभ-लालच या चसका उनमें कभी न पाया। दिन में शहर आ जाते और कुछ सज्जनों के यहाँ और कभी मेरे यहाँ बैठ कर शाम को चले जाते। एक सच्चे साधु को मैंने माने गाँव में पाया था और दूसरे ये थे। इन्हें मैं भूल नहीं सकता।

गर्मियों के दिनों में मैं रहता फूटेगणेश पर, भोजन करता सरायगोवर्धन मुहल्ले में दोपहर को, जो वहाँ से एक मील से कम नहीं और फिर लौट कर थोड़ी देर बाद एक मील पर बंगाली टोले के आगे सोनारपुरा में न्याय पढ़ने जाता था। यह मेरी दिनचर्या न जाने कितने दिनों तक रही। दूसरे-दूसरे पंडितों के घर पाठशालाओं में भी पढ़ने जाना पड़ता था। लेकिन इसमें आनंद आता था।

मुझे नव्यन्याय के दो अच्छे पंडितों से काशी में और एक तीसरे से मिथिला में काम पड़ा था। तीनों ही अपने ढंग के निराले थे। एक थे बंगाली श्री शंकर भट्टाचार्य दूसरे थे मैथिल श्री जीवनाथ मिश्र। तीसरे पंडित श्री बालकृष्ण मिश्र दरभंगे में मिले थे। कुछ दिन उनसे भी बाधा, सत्प्रतिपक्ष आदि नवीन न्याय के ग्रंथ मैंने पढ़े थे। ऐसे तो औरों से भी काम पड़ा था। मगर इन तीनों ने मुझे बहुत आकृष्ट किया। ज्यादा ग्रंथ तो मैंने भट्टाचार्य जी से ही पढ़े थे। उनके समझाने की रीति निराली थी। वे ग्रंथ के आशय को हृदयंगम कराने में सारी शक्ति लगा देते थे। यही बात कमवेश पं. बालकृष्ण मिश्र में पाई गई।

पं. जीवनाथ मिश्र जरा तेजी से बातें कहते जाते थे। हालत यह थी कि सव्यभिचार और सामान्य निरुक्ति जब उनसे पढ़ता था तो उनकी घुड़दौड़ चलती थी। वे क्या बोलते हैं मैं यही याद रखता था। उन कठिन ग्रंथों की पंक्तियों पर रुक के यदि वहीं ठीक-ठीक समझने लगता तो पीछे पड़ जाता, और वे छलाँग भर के आगे निकल जाते। इसलिए उनकी बातें दिमाग में नोट कर लेता और रात में उसी दिमागी नोट के आधार पर सामान्य निरुक्ति आदि जैसे क्लिष्टतम ग्रंथों को ठीक समझ लेता। कभी समझने में गड़बड़ी न हुई। इसमें मुझे लाभ यह हुआ कि शीघ्र ही वे ग्रंथ पढ़ सका। पीछे तो सभी बातें कागज पर नोट कर लेता। अन्य पंडितों की भी बताई सभी बातें हू-ब-हू पीछे नोट कर यदि कभी-कभी उन्हें दिखाता तो आश्चर्य करते।

साहित्य के ग्रंथों को पढ़ने में मेरी ज्यादा रुचि न थी। कारण, प्राय: उनमें अश्लीलता ज्यादा होती है। फिर भी शिशुपाल वधा, किरातार्जुनीय और नैषधा आदि पढ़ ही गया। इनमें ऐसी बातें कम पाई जाती हैं। नैषधा ने तो मुझे सबसे ज्यादा आकृष्ट किया। मैं श्रीहर्ष की अलौकिक प्रतिभा पर मुग्ध हो गया। काव्य प्रकाश आदि के पढ़ने में तो अध्यापक ने कृपा कर के अश्लील वाक्यों के स्थान पर दूसरे श्लोक आदि के दृष्टांत दे कर मुझे पढ़ाया। अत: मैं उनका आभारी रहा। पर, मेघदूत जैसे भ्रष्ट ग्रंथों को पढ़ने की हिम्मत न कर सका।

व्याकरण और नवीन न्याय के पढ़ने की भी सारी सुविधाएँ काशी में थीं। मगर प्राचीन न्याय, मीमांसा, योग और सांख्य के पढ़ने में जिस संकट का सामना करना पड़ा वह मैं ही जानता हूँ। इन विषयों के योग्य अध्यापक बहुत ही कम थे। जो थे भी वह पढ़ाने से अलग रहना चाहते थे। यह उस काशी की बात है जिसे संस्कृत विद्या की नगरी कहते हैं। वेदांत का पाठ तो फिर भी चलता था मगर मीमांसा और प्राचीन न्याय की बुरी दशा थी। आपोदेवी, न्याय प्रकाश और अधिकरण रत्नमाला को ही मीमांसा नहीं कहते हैं। असल मीमांसा ग्रंथ तो है शाबरभाष्य, श्लोकावार्तिक, तंत्रवार्तिक आदि। इन्हें कोई पढ़ाता न था। केवल प्रथमोक्त दो-तीन को ही पढ़ा कर इतिश्री कर लेते थे।

श्री पार्थ सारथि मिश्र की जो टीका कुमारिल भट्ट की टुप्टीका पर तंत्र रत्न के नाम से बनी है वह तो आज तक छपी भी नहीं। मैंने दरभंगे में वह अपने हाथों लिखी। प्रभा कर के मत के ग्रंथ तो कोई जानते भी न थे। शाबरभाष्य जो छपा है अशुद्धियों से भरा है। उसे शुद्ध करनेवाले कोई नहीं! यही दशा प्राचीन न्याय-दर्शन के भाष्य, उसके वार्त्तिक और उस पर श्री वाचस्पति मिश्र की लिखी तात्पर्य टीका आदि ग्रंथों की है। सभी के सभी अशुद्धियों से भरे हैं। न्याय कुसुमांजलि और आत्मतत्त्व विवेक को भी यथार्थत: पढ़ना असंभव सा था। आत्मतत्त्व विवेक तो अत्यंत कठिन होने के कारण बहुत ही अशुद्ध छपा है। उसका थोड़ा अंश, जो वहाँ की संस्कृत-परीक्षा में हैं, टीका-टिप्पणी के साथ छपा है सही। लेकिन बाकी को कौन पूछे?