अच्छाई / खलील जिब्रान / सुकेश साहनी

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(अनुवाद :सुकेश साहनी)

एक निर्जन पहाड़ पर दो साधु रहते थे। वे दोनों ईश्वर की पूजा करते और एक दूसरे को बहुत चाहते थे। उनके पास मिट्टी का एक कटोरा था और यही उनकी पूँजी थी।

एक दिन बूढ़े साधु के मन में कुछ आया और वह छोटे साधु के पास आकर बोला, "हम लोगों को साथ-साथ रहते बहुत समय हो रहा है, अब हमें अलग हो जाना चाहिए। हमें अपनी पूंजी बाँट लेनी चाहिए।"

सुनकर छोटा साधु उदास हो गया, उसने कहा, "आपके जाने की बात सोचकर ही मुझे कष्ट हो रहा है, फिर भी यदि आपका जाना ज़रूरी है, तो कोई बात नहीं।" इतना कहकर वह कटोरा उठा लाया और बड़े साधु को देते हुए बोला, "भैया, इसे हम बाँट नहीं सकते, आप ही रख लो।"

बड़े साधु ने कहा, "मुझे भीख नहीं चाहिए, मैं केवल अपना हिस्सा लूँगा, इसे बाँटना ही चाहिए।"

छोटे साधु ने दोहराया, "मैं वही लूँगा जो न्यायपूर्वक मेरे हिस्से में आता है, मैं यह नहीं चाहता कि न्याय को भाग्य भरोसे छोड़े दें। यह प्याला बाँटा ही जाना चाहिए।"

इस पर छोटे साधु को कोई उत्तर नहीं सूझा। थोड़ी देर बाद उसने कहा, "अगर आपको कोई विकल्प मंजूर नहीं है तो क्यों न इस झगड़े की जड़ कटोरे को तोड़कर नष्ट ही कर दें।"

यह सुनकर बड़ा साधु आग बबूला हो गया, "ओ नामर्द! कायर! तू मुझसे झगड़ता क्यों नहीं!"