अच्छाई / सुकेश साहनी
मयखाने के सामने उन दोनों का सामना हो गया।
"कैसी हो?" पहली ने पूछ लिया।
"तुम! यहाँ!" दूसरी ने उसे देखकर बुरा-सा मुँह बनाया, "हमारे इलाके में आने की तुम्हारी जुर्रत कैसे हुई?"
"जरा आँखें खोलकर देखो..." पहली ने विनम्रता से कहा, "मैं तो हर कही हूँ।"
"चल...जा, वह जमाने लद गए." दूसरी ने ललकारा, "अब तो हर कहीं मेरा ही बोलबाला है। हिम्मत है तो भीतर चल, अपनी आँखों से ही देख ले।"
पहली ने मूक सहमति दे दी।
'बार' के भीतर दोनों एक मेज के नजदीक ठिठक गईं, जहाँ तीन युवक बैठे बीयर पी रहे थे।
"अमाँ यार, अब और कितना इंतजार करवाओगे? जल्दी बताओ, कैसी रही फर्स्ट नाइट?" पहला पूछ रहा था।
"और सुन, ..." दूसरे ने मित्र को आगाह किया, "कुछ भी सैंसर किया, तो साले तेरी खैर नहीं।"
यह सुनकर मेज के पास खड़ी दूसरी ने पहली की ओर देखकर खिल्ली उड़ाने के अंदाज में आँखें नचाईं।
तीसरे ने बीयर का बड़ा-सा घूँट हलक के नीचे उतारा, फिर बोला, "छोड़ो भी यारो! तुम लोग नहीं समझोगे, कोई और बात करो।"
"वाह बेट्टा!" पहले ने चिढ़कर कहा, "अपनी बारी आई तो बिदक रहे हो।"
"हमने तो तुम्हें 'सबकुछ' बता दिया था।" दूसरा बोला।
"कोई दूसरी दिक्कत है तो भी कह डाल, यारों से क्या शरमाना?" पहले ने चिढ़ाया।
"नहीं यारो!" तीसरे युवक का गंभीर स्वर, "ऐसी कोई बात नहीं है। दरअसल जब मैं उसके पास पहुँचा,तो वह किसी अबोध शिशु की तरह गहरी नींद में सो रही थी। आँखों की कोरों पर आँसू की बूँदें मोती की तरह ठहरी हुई थीं। शायद माता-पिता से बिछोह के कारण कुछ देर पहले तक रोती रही थीं। मैंने उसे नहीं जगाया...सोने दिया। बस इतना ही।" कहकर वह चुप हो गया।
उसकी बात सुनकर वहाँ चुप्पी छा गई. किसी से कुछ बोलते नहीं बना।
यह देखकर पहली ने दूसरी की तलाश में नजरें दौड़ाईं़-
उसकी नजर थोड़ी दूर बैठे उस युवक पर पड़ी, जिसने जरा-सा पानी छलक जाने पर अपने पिता समान बूढ़े वेटर के गाल पर तमाचा जड़ दिया था।