अच्छी कुंठा रहित इकाई / रवि रंजन

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“आज यदि हम जीवन के गौरव की रक्षा करना चाहते हैं तो हमें परखने और मुकाबला करने की शक्ति को संगठित करना होगा, हमें एक आलोचक राष्ट्र का निर्माण करना होगा ।...आलोचना से अनुभूति में व्यापकता और गहराई आती है और बिना गहरी अनुभूति के संस्कृति संभव नहीं है।” ---अज्ञेय

“अज्ञेय की कलात्मक अनुभूति में सांस्कृतिक दृष्टि है, पर वह कलात्मक अनुभूति के दर्पण में ही है।” --–शमशेर बहादुर सिंह

छायावादोत्तर रचनात्मक परिदृश्य पर विचार करते हुए नामवर सिंह ने लिखा है कि “सन् 1936 के बाद का हिन्दी साहित्य प्रगतिशील आन्दोलन के सचेत और संगठित हस्तक्षेप का फल है और उसे हम चाहें तो वाल्टर बेन्जामिन के शब्दों में ‘इतिहास के नैरन्तर्य में विस्फोट’ की संज्ञा दे सकते हैं। उस समय साहित्य में ‘प्रगति’ से प्रगतिशील लेखकों का यही आशय था। समाज और संस्कृति के समान ही साहित्य भी संकट के दौर से गुजर रहा था। विकास की गति रूद्ध थी। आवश्यकता थी सृजन की शक्तियों के उन्मोचन की। यह उन्मोचन ही प्रगति है।” (वाद विवाद संवाद, पृ.96)

रचनाकारों के वैज्ञानिक यथार्थवादी रूझान की दृष्टि से यदि हम सन् 1936 से 1951 तक के काल को प्रगतिशील आंदोलन का स्वर्ण काल कहें तो अत्युक्ति न होगी। कारण यह कि इस बीच समाजवादी यथार्थवाद को अपनी रचना-दृष्टि बनाकर लेखकों द्वारा साहित्य की तमाम विधाओं में व्यापक स्तर पर लेखन हुआ, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने रचनाकारों को मंच प्रदान किया तथा प्रगतिशील समीक्षकों ने उनका मूल्यांकन किया।

प्रगतिशील काव्यधारा के मूर्धन्य कवियों की काव्य-यात्रा पर विचारने से स्पष्ट होता है कि इनकी रचना-यात्रा के बीच में ही ‘प्रयोगवाद’ एवं ‘नयी कविता’ के आंदोलन उठ खड़े होते हैं जिनकी जनविरोधी प्रवृत्तियों से ये कवि टकराते हैं तथा ‘नयी कविता’ के अवसान के बाद फिर जब जनवादी कविता का दौर आरंभ होता है तो इन सब की पुनर्प्रतिष्ठा होती है। इस संदर्भ में ध्यान देने की बात यह कि प्रगतिशील कवि न तो काव्य-क्षेत्र में प्रयोगधर्मिता के विरोधी थे और न ही उनका विरोध पूरी की पूरी "नयी कविता" से था। वस्तुत: उनकी असहमति ‘प्रयोगवाद’ एवं ‘नयी कविता’ की उस जनविरोधी आधुनिकतावादी भावधारा से थी जो रचनाशीलता के क्षेत्र में ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ के नाम पर सामाजिक यथार्थ का तिरस्कार कर रही थी। प्रयोगवाद एवं नयी कविता के ऐसे कवियों की बद्नीयत की पृष्ठभूमि में निहित राजनीतिक संदर्भों का पर्दाफ़ाश करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं कि “सन् 1951-52 के अनन्तर साहित्य क्षेत्र से, विशेषकर काव्य क्षेत्र से, प्रगतिवादी विचारधारा को खदेड़कर बाहर करने के लिए नयी कविता के बुर्ज़ से शीतयुद्ध की गोलन्दाजी की गयी थी। यह शीतयुद्ध, मेरे लेखे विश्व में चल रहे राजनैतिक शीतयुद्ध की साहित्यिक शाखा के रूप में था।” गौरतलब है कि सन् 1950 मे जब बम्बई में यूरोपीय पूँजीवादी तथा अमरीकी साम्राज्यवादी ताकतों के सांस्कृतिक संगठन “सोसायटी फॉर कल्चरल फ्रीडम” की शाखा स्थापित हुई तो अज्ञेय उसके संगठक मनोनीत हुए। उस जमाने में इस संगठन द्वारा वैज्ञानिक यथार्थवादी विचारधारा एवं रचनाशीलता के खिलाफ बुर्जुआ लेखकों को एक झंडे तले जमाकर रचनाकारिता के क्षेत्र में ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ का" दमामा पीटा जा रहा था। अज्ञेय जब ‘हरी घास पर क्षण भर’ की भूमिका में लिखते हैं –‘अकारण लोगों को चिढ़ाता रहूँ, इतना अवकाश ही मुझे कभी नहीं मिला, पर संसार में उद्यानों की कमी के कारण जो जहाँ-तहाँ बची हरी घास की थिगलियों को भी उखाड़ फेकना चाहें, उनके कुंठित अकरूण मन का शासन क्यों मान्य हो?’ - तो प्रकारान्तर से वे उसी ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की वकालत करते हैं जिसके बारे में कहने की जरूरत नहीं है कि प्रभुत्व प्राप्त होते ही वह कैसे स्वतंत्रता से निरंकुशता में बदल जाता है । याद आते हैं मुक्तिबोध, जो ‘व्यक्तिवाद’ को ‘पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का मूल नियम’ मानते थे और जिसका निषेध करते हुए उन्होंने लिखा है : ‘कविता में कहने की आदत नहीं पर कह दूँ ........पूँजी से जुड़ा ह्रदय बदल नहीं सकता / स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी छल नहीं सकता / मुक्ति के मन को, जन को ।’ इस पंक्ति का रामविलास शर्मा –कृत भाष्य दिलचस्प है : ‘अर्थात व्यक्ति-स्वातंत्र्य के वादी सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन गजानन माधव मुक्तिबोध के मन को छल नहीं सकते ।’

व्यंग्य-विनोद के लिए ‘प्रगतिवाद’ को ‘प्रतिगतिवाद’ कहने वाले अज्ञेय के व्यक्तित्व का दूसरा पहलू वहाँ दिखाई देता है जहाँ वे भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद सरीखे क्रांतिकारियों के साथ ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ जैसे गुप्त क्रांतिकारी संगठन के सदस्य के रूप में सक्रिय थे । इतना ही नहीं, उन्होंने मेरठ के किसान आंदोलन एवं फासिस्ट विरोधी आंदोलन में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, अपनी शक्ति और सीमा में ‘तारसप्तक’(1943), ‘दूसरा सप्तक’ (1951), ‘’तीसरा सप्तक’(1959) के साथ ही ‘पुष्करिणी’ एवं ‘रूपाम्बरा’ के संपादक के रूप में हिन्दी कविता के इतिहास की धारा का नियमन किया और मनुष्य की स्वतंत्रता की पुरजोर वकालत करते हुए अनेक श्रेष्ठ कविताएँ लिखीं : ‘एक मृषा जिसमें सब डूबे हुए हैं / क्योंकि एक सत्य जिससे सब ऊबे हुए हैं/.....स्वातंत्र्य के नाम पर मारते हैं, मरते हैं / क्योंकि स्वातंत्र्य से डरते हैं ।’ इसी प्रकार ‘नानक नन्हे ह्वै रहो, जैसी नन्ही दूब’ -जैसी मध्ययुग में रचित पंक्तियाँ आधुनिक संवेदना से संस्कारित होकर अज्ञेय के यहाँ इस प्रकार अभिव्यक्त हुई हैं : ‘छंद है यह फूल पत्ती प्रास / कौन-सा वह अर्थ जिसकी अलंकृति कर नहीं सकती / यही पैरों तले की घास ।’ याद आ सकते हैं शमशेर, जिनका कहना है कि “अज्ञेय में सबसे अधिक चीज जो मुझे मोहती है, वह है उनकी व्यापक और गहरी सुरुचि, जिस पर भरोसा किया जा सकता है । और भावों की सच्ची गंभीरता, और अभिव्यक्ति में कुछ सादगी-सी, जो एक उस्ताद शिल्पी के यहाँ मिलती है ।...अज्ञेय में जो चीज मुझे खटकती और साथ ही आकर्षित करती रही, वह है उनका सदैव अपनी भावनाओं के प्रति सचेत रहना । कभी वह अपने को भूल नहीं सकते, खो नहीं सकते ।...ऐसा आर्टिस्ट निरंतर ऊपर उठता जाएगा – अगर प्रज्ञावान है और विनम्रता और क्षमा उसका आतंरिक स्वभाव है ।”

ज्ञानरंजन ने ‘पिता’ कहानी में लिखा है कि ‘पूरा शहर, कभी नहीं सोता या मरता। बहुत से सोते हुए जान पड़नेवाले भी संक्षिप्त ध्वनियों के साथ या लगभग ध्वनिहीनता के बीच जगे होते हैं।’ प्रयोगवाद के दरम्यान प्रगतिशीलता बिल्कुल समाप्त हो गयी हो, ऐसा नहीं था। उस दौर में भी प्रगतिशील कविताएँ लिखी जा रही थीं । सच तो यह है कि उस युग में प्रगतिशील रचनाकार एक तरह से विपक्ष के कवि की तरह सतत रचनारत थे और उनकी इस भूमिका का मूल वस्तुत: अज्ञेय की उन घोषणाओं में था जिनमें तमाम मानवीय सक्रियताओं के सम्बंध में निर्णय लेने के लिए फ्रायड का निकष इस्तेमान करने पर बल दिया जा रहा था। "वर्ग-भावना-सटीक" कविता में अज्ञेय ने लिखा था :

“हमलोगों का एकमात्र श्रम है-सुरति श्रम
उस अन्त्यज का एकमात्र सुख है-मैथुन सुख”

यह बात वैज्ञानिक यथार्थवादी कवि-लेखकों को कतई स्वीकार्य नहीं हो सकती थी। ऐसे भी, सुविधाभोगी वर्ग का श्रम न तो कभी ‘सुरति श्रम’- मात्र रहा है और न आज दुनिया के किसी भी देश-समाज में वैसा रह गया है। ठीक यही बात किसान-मजूर आदि के संदर्भ में भी लागू होती है। इस संदर्भ में विचारणीय है कि क्या यह टकराव माक्र्स एवं फ्रायड का टकराव था, जो उस युग में हिन्दी साहित्य में अपना रूप बदलकर उतर आया था। दूसरी बात यह कि उस युग में पश्चिम में मानवीय सक्रियताओं के सम्बंध में निर्णय लेने के लिए फ्रायड का निकष इस्तेमाल करनेवाले रचनाकार भी जहाँ मानव स्वभाव के यथार्थ को पकड़ने का दावा कर रहे थे, जिस पर कि राजनीतिक अर्थवाद से जुड़े लेखकों द्वारा काफी जोर दिया जाता था, वहीँ प्रयोगवादी हिन्दी कविता के प्रवक्ता मानव स्वभाव के नियामक बिन्दु को पकड़ने की बात कर रहे थे ।

कहना न होगा कि प्रयोगवाद के सारे शिल्पगत तत्त्व न केवल प्रगतिवाद से पहले की हिन्दी कविता में बीज रूप में विद्यमान थे, बल्कि बहुत सारी प्रगतिशील कविताऔं में तो वे पुष्ट आकार तक ले चुके थे, जिनका इस्तेमाल प्रयोगवाद ने किया और जहाँ तक मानसिकता का प्रश्न है, प्रयोगवाद की यौनकुण्ठावादी मानसिकता को सहारा देने के लिए उस जमाने में बच्चन जैसे कवियों का ‘हालावाद’ अपने पूरे जोशोखरोश के साथ खड़ा था जिसका मानसिक धरातल वस्तुत: मध्यवर्गीय स्वेच्छाचार और लोक-मर्यादा को चुनौती देने वाले जन-विरोधी और सामान्य जन से असहमत व्यक्तित्व का धरातल है, जिस पर निराशावाद से ग्रस्त एकांत और मयखाने का दर्शन ही उभरता है। हिन्दी कविता के इतिहास में व्याख्या का यह भी एक अन्तराल है जिस पर नये सिरे से विचार किया जाना अपेक्षित है।

यह अज्ञेय की विवशता थी कि उन्होंने प्रयोगवाद के आरंभ को ‘तारसप्तक’ द्वारा संसूचित करने के लिए ऐसे कवियों को अपने सम्पादन में लिया जिनमें से अधिकांश वामपंथी रुझान के थे। ‘तारसप्तक’ में प्रकाशित कवियों के वक्तव्यों से गुजरते हुए उनकी मानसिकता का पता चलता है। अपने वक्तव्य में नेमिचन्द्र जैन ने साफ लिखा था कि ‘साहित्य की प्रगतिशीलता में मेरा विश्वास है और उसके लिए सचेष्ट प्रयत्न का मैं पक्षपाती हूँ। किन्तु कला की सच्ची प्रगतिशीलता कलाकार के व्यक्तित्व की सामाजिकता में है, व्यक्तित्वहीनता में नहीं।’ इसी प्रकार भारतभूषण अग्रवाल की भी स्पष्ट मान्यता थी कि ‘यदि कविता का उद्देश्य व्यक्ति की इकाई और समाज की व्यवस्था के बीच के सम्बंध को स्वर देना और उसको शुभ बनाने में सहायता करना है तो हिन्दी के कवि को समाज से नाराज होकर भागने की बजाय समाज की उस शोषण सत्ता से लड़ना होगा, जिसने उसे कोरा स्वप्नाभिलाषी और कल्पनाविलासी बना छोड़ा।’ इन सारी बातों को जानने-समझने के बावजूद यदि हम सपाट ढंग से प्रयोगवाद को प्रगतिवाद की प्रतिक्रिया बताने लगें तो विचारणीय होगा कि ‘तारसप्तक’ के साथ हम क्या सलूक कर रहे हैं।

सच तो यह है कि अज्ञेय ने जब ‘तारसप्तक’ निकालने की योजना बनायी थी तब शायद उन्हें खुद ज्ञात नहीं था कि उनको आगे चलकर ‘नयी कविता’ तक आना होगा। वस्तुत: यह ‘प्रयोगवाद’ के एक प्रवक्ता कवि की योजना थी जिसके सारे रुाोत अमेरिका से आ रहे थे। इनमें विलियम कैर्लोस विलियम् की तरह के तमाम ऐसे कवि शामिल थे जिन्होंने नयी पीढ़ी के विरोध में यांत्रिक वादों की कविताएँ लिख रखी थीं (इस संदर्भ में अज्ञेय की "इतिहास की हवा’ तथा "आ तू आ’ जैसी कविताएँ द्रष्टव्य हैं.) और इन लोगों में ई.कमिंग्स इसलिए सबसे ऊँची चोटी पर चल रहे थे क्योंकि उनकी कविताओं को समझने के लिए एक नये पाठक वर्ग को जन्म लेना पड़ा था। दूसरे शब्दों में, ‘एक्सपेरिमेंट’ के आरंभिक चरण में यदि विलियम कैर्लोस विलियम्स थे, जो कविता को ‘एक छोटी-सी शब्द मशीन’ कहा करते थे और उसके स्थापत्य की तुलना भवन निर्माण कला से किया करते थे, तो एक्सपेरिमेंट की चरमता पर ई. कमिंग्स थे। इसके बीच एक बहुत बड़ा ग्राफ है इससे प्रभावित ‘प्रयोगवाद’ की कविता थी। किन्तु, हिन्दी में ‘तारसप्तक’ के आयोजन को सफल बनाने के लिए अज्ञेय को प्रगतिशील शिविर के कवियों से समझौता करना पड़ा जिसके तहत उन्होंने सर्वप्रथम अपने पूर्वाग्रह को तोड़ा और वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में शामिल हुए। लगभग एक वर्ष तक ‘वाचफुल’ या ‘सहयोगी सदस्य’ के रूप में रहने के बाद सन् 1938 में वे बकायदा प्र.ले.सं. के सदस्य बने तथा सन् 1939 के आसपास से ‘तारसप्तक’ की तैयारी में लग गये, जो कि अन्तत: प्रगतिशील शिविर के कवियों के सहयोग से ही सफल हो पाया। इसके बाद अचानक एक तीखा मोड़ आता है जब अज्ञेय प्र.ले.सं. से इस्तीफा दे देते हैं और साम्यवाद विरोधी लेखक के रूप में उनकी पहचान कायम होने लगती है। कदाचित् प्र.ले.सं. से अपने इस्तीफे का औचित्य सिद्ध करते हुए उन्होंने लिखा था :

‘आरंभ में प्रगतिशील लेखक संघ में विभिन्न प्रवृत्तियों के लोग थे, जिनको साथ मिलानेवाली भावना वस्तुस्थिति के प्रति एक संदेह की भावना थी। सुधारवाद, या कि प्राचीन संस्कृति की पुन:स्थापना का स्वप्न पर्याप्त नहीं है, और इससे अधिक भी कुछ होना चाहिए, लेखक को भी नेताओं का मुँह न जोहकर स्वयं कार्यात्मक रूप से कुछ करना चाहिए, सामान्यत: ऐसा माननेवाले सभी लेखक प्रगतिशील आंदोलन की ओर आकृष्ट हुए, क्योंकि वह आंदोलन उनकी उदात्त भावनाओं के लिए नया क्षेत्र प्रस्तुत करता जान पड़ता था। किन्तु क्रमश: प्रगतिशील आंदोलन में ‘शील’ का स्थान ‘वाद’ ने ले लिया। जिनके नाम और प्रतिष्ठा के आधार पर प्रगतिशील लेखक संगठित हुआ और पनपता रहा, वे एक-एक-कर उससे अलग हो गये या अलग कर दिए गए।’

कहना न होगा कि अज्ञेय का यह लंबा वक्तव्य सचाई से कोसों दूर है,क्योंकि थोड़े-बहुत मतभेद के साथ स्वदेशज् आधुनिकता एवं समाजवाद में आस्था रखनेवाले लेखकों के उस व्यापक मोर्चे के मूल में वस्तुस्थिति के प्रति संदेह की ऐसी कोई भावना नहीं थी । अपने एक अन्य वक्तव्य में अज्ञेय का स्पष्ट कहना था कि “राजनैतिक स्वार्थ साधने की कोशिश ‘प्रतिबद्धता’ के नाम परविचारधारा वाले करते हैं । वैचारिक प्रतिबद्धता का प्रश्न मुझे कई बार रंगा हुआप्रतीत होता है । अधिकांश लेखक कहीं न कहीं मार्क्सवाद के प्रभाव में लिख रहे हैं। समाजवादी समाज के निर्माण ले लिए, जितने भी मूल्य निर्धारित किये गए हैं, उनपर बात करना मैं जरूरी नहीं समझता ।” एक कविता में भी उन्होंने क्रान्तिको जीवन की कोई स्थायी प्रक्रिया मानने का निषेध किया है :

‘क्रान्ति है आवर्त, होगी भूल उसको मानना धारा ....
जो नहीं उपयोज्य वह गतिशक्ति का उत्पात-भर है
स्वर्ग की हो - मांगती भागीरथी भी है किनारा ।’

अज्ञेय के इस अचानक परिवर्तित रूख कारण कुछ और था। उस दशक में दुनिया के दूसरे मुल्कों के कवि-लेखकों की सक्रियताओं पर नज़र दौड़ाने से पता चलता है कि तकरीबन 1933 के आसपास अँग्रेजी एवं अन्य भाषाओं के पश्चिमी कवि-लेखकों की एक जमात कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुई थी। कई वर्षों तक विभिन्न देशों में घूमते हुए वे रचनाकार अपने हित में उन संभावनाओं की तलाश करते रहे जो उनके लेखन के साथ माक्र्सवाद के समीकरण से पैदा हो सकती थीं और अंतत: राजनीतिक रस्साकशी के बीच सन् 1940 के आसपास उन तमाम लेखकों ने साम्यवाद के विरूद्ध सामूहिक बयान प्रकाशित कर कम्युनिस्ट पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। ‘दी गौड दैट फेल्ड : सिक्स स्टडीज इन कम्युनिज्म’ नामक मिलजुलकर लिखित उनकी उस पुस्तक का सार यह था कि जिस माक्र्सवाद को दलित देशों की जनता ने अपने उद्धारक देवता के रूप में स्वीकार किया था, वह विनष्ट हो चुका है। इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह कि इस पुस्तक के सब लेखक (आर्थर कोइस्लर, स्टीफन स्पेंडर, आंद्रे जींद, इग्नेजियो सिलोने तथा रिचर्ड राइट) अज्ञेय के अत्यंत प्रिय रहे हैं। उन्होंने इनमें से कुछ पर अलग से हिन्दी में लिखा है और अपने निबंधों में उन्हें यथास्थान उद्धृत भी किया है। प्र.ले.सं. से अज्ञेय के त्यागपत्र को इन पश्चिमी कवि-लेखकों की गतिविधियों से जोड़कर देखने पर यह बात आसानी से समझ में आ सकती है कि जिन अज्ञेय ने कभी स्वीकार किया था कि “व्यक्तित्व के टुकड़े कर देनेवाली पूँजीवादी जीवन-व्यवस्था, हमारी जिजीविषा के टुकड़े नहीं कर पाती यह सही है, परन्तु उसे व्यर्थ कर देती है।” ... वे ही क्यों ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की आड़ में प्रगतिशील जीवन मूल्यों का शिकार करते हुए पूँजीवादी ताकतों की हिमायत करने लग गये :

अच्छी कुंठा रहित इकाई
साँचों ढले समाज से
अच्छा अपना ठाठ फकीरी
मँगनी के सुख साज से।

याद आते हैं मुक्तिबोध, जिन्होंने ‘समीक्षा की समस्याएं’ शीर्षक निबंध में लिखा है : “जिस समाज में हर चीज खरीदी और बेची जाती है, जहाँ बुद्धि बिकती है, और बुद्धिजीवी वर्ग बुद्धि बेचता है, अपने शारीरिक अस्तित्व के लिए, जहाँ उदारवादी की जगह उदरवादी हुआ जाता है, जहाँ स्त्री बिकती है, श्रम बिकता है, वहाँ अंतरात्मा भी बिकती है ।.....जहाँ व्यक्ति-स्वातंत्र्य सिमटकर, केवल अपने घेरे में सिमटकर, अपनी स्वयं की मनोलीन विचारणा बन जाता है, .... वहाँ हम लोगों के लिए वास्तविक व्यक्ति-स्वातंत्र्य –रक्षा का युद्ध, अपनी अंतरात्मा की रक्षा का युद्ध, अपने भौतिक-जैविक अस्तित्व – अपने पारिवारिक अस्तित्व – की रक्षा के युद्ध में परिणत हो जाता है ।’ ‘तार सप्तक’ के द्वितीय संस्करण के ‘पुनश्च’ शीर्षक वक्तव्य में भी मुक्तिबोध ने लिखा है कि ‘व्यक्ति-स्वातंत्र्य की वास्तविक स्थिति केवल उनके लिए है जो उस स्वातंत्र्य का उपयोग करने के लिए सुपुष्ट आर्थिक आधार रखते हों। ”

‘तारसप्तक’ के आयोजन के पीछे नीयत चाहे जो भी रही हो और भले ही उसे हिन्दी कविता के क्षेत्र में ‘प्रयोगवाद’ के प्रतिनिधि संकलन के रूप में स्वीकार कर लिया गया हो किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उसमें यदि एक ओर रामविलास शर्मा जैसे प्रतिबद्ध कवि शामिल हैं तो दूसरी ओर मुक्तिबोध की ‘पूँजीवादी समाज के प्रति’ जैसी कविता भी मौजूद है, जिसमें कवि की बड़ी ईमानदार अभिव्यक्ति है:

तू है मरण तू है रिक्त तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।

स्पष्ट ही कवि की दृष्टि में पूँजीवाद के संहार में समाजवाद के निर्माण की संभावनाएँ निहित हैं।

‘तारसप्तक’ में अधिकांश कवि वामपंथी रुझान वाले थे पर ‘नयी कविता’ की भूमिका के साथ अवतरित होनेवाले ‘दूसरा सप्तक’ में शमशेर जैसे कुछ मुलायम किस्म के माक्र्सवादी कवियों को ही शामिल किया गया। यह वह समय था जब कि रघुवीर सहाय भी माक्र्सवादी कहे जाते थे। पर आगे चलकर उन्होंने राममनोहर लोहिया की विचारधारा को स्वीकार कर एक ‘सोशल डेमोक्रेट’ कवि के रूप में अपनी अलग पहचान बनायी। विचारधारात्मक प्रतिबद्धता की दृष्टि से रघुवीर सहाय भले माक्र्सवादी न हों पर उनकी रचना-यात्रा की परिणति के मद्देनजर इतना तो तय है कि अंत-अंत तक वे विदेशज आधुनिकतावाद की बजाय स्वदेशज आधुनिकता-बोध के ही प्रवक्ता रहे ।

‘तारसप्तक’ से लेकर ‘तीसरा सप्तक’ तक में संकलित कविताओं पर शिल्प की दृष्टि से विचार करने पर उनमें जो नवीनताएँ दिखाई पड़ती हैं उनके उदाहरण प्रयोगवाद से पहले की कविताओं में भी प्राप्त होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रयोगवादियों द्वारा खुद को नये रूपों का उद्भावक घोषित करना अपने-आप में महज एक नारा था जिसकी ओर सन् 1946 में ही शमशेर ने इशारा किया था : “मौलिक रूप से तारसप्तक के प्रयोग अन्यत्र और कवियों के इससे पहले के संग्रहों में मिल जाएंगे। प्रथमत: निराला में ही न केवल तारसप्तक के लगभग सभी प्रयोग बल्कि उससे भी कहीं अधिक, दूसरे पंत जी में उनकी अतुकांत और मुक्त छंद की रचनाओं में लगातार ‘ग्रंथि’ से ‘युगवाणी’ तक फिर नरेन्द्र शर्मा ने भी अपनी कतिपय वर्णनात्मक अतुकांत मुक्त छंद की कविताओं में अपनी एक विशिष्ट शैली का परिचय दिया है (मसलन् “वासना की देह में” -पलाशवन), यद्यपि यह उनकी सामान्य धारा नहीं। उनकी एक कविता “बटनहोल” भी पाठकों को अपरिचित न होगी।”

शिल्प की दृष्टि से साहित्यिक रचनाशीलता में होनेवाले अंत:संघर्ष पर एक नज़र डालने से स्पष्ट होता है कि लोक संस्कृति से संबंधित जनपक्षधर रचनाशीलता पर प्राय: पूँजीवादी साम्राज्यवादी सांस्कृतिक शक्तियाँ मुख्यत: मनोविज्ञान पर आधारित नागरिक संस्कृति के शिल्प को हथियार बनाकर हमला करती हैं। मुक्तिबोध की विशेषता यह है कि उन्होंने काव्य-क्षेत्र में प्रतिगामी ताकतों द्वारा प्रयुक्त तमाम तकनीकों को जज्ब कर बड़ी ही प्रवीणता के साथ उनका उपयोग वैज्ञानिक यथार्थवादी रचनाधारा के पक्ष में किया है। बहुत हद तक यही बात शमशेर- काव्य के संदर्भ में भी लागू होती है।

पश्चिमी योरोपीय आधुनिकतावादी शिल्प में रचित स्वदेशज आधुनिकताबोध से लैस जनपक्षधर कविताओं के उदाहरण प्रयोगवाद-काल की अपेक्षा ‘नयी कविता’ के अनेकानेक कवियों की कृतियों में ज्यादा मौजूद हैं । ‘नयी कविता’ ने जब पहचाना कि इस शताब्दी के मध्य तक सभ्यता के विकास की समीक्षा के क्रम में मानवीयता के जो सुरक्षा-कवच टूट गये हैं और उनकी परवाह न करने वाले लोग जनविरोधी हैं तो नरेश मेहता की “समय देवता” शीर्षक कविता में वह भावना सिमट कर आ गयी।

कहना न होगा कि ऐसी तमाम कविताओं का शिल्प प्रगतिशील-जनवादी मिलिटेंट कविता का शिल्प नहीं है। किन्तु विचारणीय है कि हिन्दी में पश्चिमी योरोपीय आधुनिकतावादी शिल्प में अपनी प्रवीणता के लिए विख्यात अज्ञेय की कविताओं से इन कविताओं की अर्थध्वनि, संदर्भ एवं रचना-दृष्टि बिल्कुल भिन्न है। इस सन्दर्भ में अज्ञेय की ‘साँप’ शीर्षक प्रसिद्ध कविता दृष्टव्य है -

साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछूँ - (उत्तर दोगे ?
तब कैसे सीखा डंसना -
विष कहाँ पाया ?

वरिष्ठ हिन्दी कवि एवं नवगीतकार राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने बहुत पहले एक निबंध ‘अग्रज कवियों की अभ्यर्थना : समझ और सीख’ ( ऋतुगंध-5, पृ.47.) में उल्लेख किया था कि अनुवाद प्राय: इस कविता का मूल संस्कृत में बारहवीं सदी में आचार्य शेखर द्वारा प्रणीत संकलन (सूक्ति संग्रह: सर्प वर्ग ) में मौजूद है -

“रे सर्प नैव त्वमभू खलु सभ्यजन्तु:
नैवं भविष्यसि तथा नगरेपि वसतुम्
जानासि नैव यदि दास्यसि सत्यमुत्तरं
दंश: वचचाच् शिक्षि वचचा पिवै विषम् ?”

हिन्दी पाठकों के बीच ‘साँप’ कविता की प्रचलित व्याख्या या अर्थ की लीक से हटकर देखने की बात यह भी है कि अपने जातीय साहित्य से प्रेरणा एवं प्रभाव ग्रहण करने के बावजूद अज्ञेय के कवि की आधुनिकतावादी रचना-दृष्टि यहाँ इस कदर प्रबल है कि वे तथाकथित आधुनिक समाज द्वारा असभ्य और अनागरिक कहे जाने वाले लोगों और आदिम जीवन-स्थिति में रहने के लिए मजबूर समुदायों पर ब्याज-शैली में आरोप चस्पाँ करने से नहीं चूकते ।

किन्तु, जब नरेश मेहता लिखते हैं –“दिशा वधू की नथ का मोती चील ले गयी”- तो अज्ञेय के विपरीत उनकी समाजालोचन संबंधी दृष्टि जन-पक्ष में सक्रिय है जिसके तहत वे कहना चाहते हैं कि सही दिशा की खोज में संक्रमण की दशा से गुजरते निर्णय के चौराहे पर खड़े समाज की मर्यादा (नथ का मोती) को पूँजीवाद-साम्राज्यवाद (चील) ने कैसे ध्वस्त कर दिया है।

सच तो यह है कि ‘प्रयोगवाद’ के बाद ‘नयी कविता’ के दौर में भी प्रगतिशीलता तथा पहले से चली आ रही आत्म केन्द्रित प्रयोगशीलता से विकसित आधुनिकतावादी प्रवृत्तियों के बीच द्वन्द्व की स्थिति थी। किन्तु कालांतर में औपनिवेशिक आधुनिकतावादी काव्य-प्रवृत्तियों तथा परिमल-प्रकोष्ठ के सदस्यों की यथास्थितिवादी रचनाशीलता को प्रगतिशील कविता ने बहुत हद तक हाशिए पर ला दिया।