अछूते फूल / अज्ञेय
मीरा वायुसेवन के लिए चली जा रही थी, लेकिन उसका सिर झुका था, आखें अधखुली थीं। और उसका ध्यान अपने आसपास की चीज़ों की ओर, पथ के दोनों ओर बिखरी हुई और आत्मनिवेदन करती हुई-सी ‘संस्कृत’ प्रकृति की ओर बिलकुल नहीं था।
मीरा की आयु छब्बीस वर्ष की हो गयी थी। इन छब्बीस वर्षों में, व्यस्क हो जाने के बाद मीरा ने अपने कॉलेज के चार वर्ष पूरे करके बी.ए. की डिग्री प्राप्त कर ली थी, और उसके बाद क्रमशः राजनीति में हिस्सा लिया था, जेल भी हो आयी थी, ‘सोसायटी’ में, सभ्य समाज में भी मेल-जोल बढ़ाया था और अपना स्थान बनाया था, बीमा की एजेन्सी भी की थी। कहा जा सकता था कि उसने अपने समाज में सफलता प्राप्त की थी।
पुरुषों पर प्रभाव डालने की उसमें कुछ विशेष शक्ति थी। उस शक्ति को प्रतिभा कहें, तो अनुचित न होगा। मीरा के हमजोली सभ्यों की भाषा में कहा करते थे - ‘शी हैज़ ए वे विथ मेन।’ अब भी, घूमते समय अपना ध्यान आसपास के सौन्दर्य से खींचकर अपने ही भीतर समेटे, मीरा इसी बात को सोच रही थी। जहाँ तक उसकी याद जाती थी, अपने पिछले दस-एक वर्षों में, जबसे उसने होश सँभाल कर आत्मनिर्णय का अधिकार पाया और विद्यार्थी-समाज के स्वच्छन्द वातावरण में पैर रखा, तबसे उसे एक भी पुरुष ऐसा नहीं मिला था जो उसके सम्पर्क में आया हो और अप्रभावित रहा हो। पुरुष आते थे, कोई झुककर, कोई अकड़ कर, कोई लोलुप भाव से, कोई कठोर उपेक्षा से, लेकिन फिर मानो उन पर कोई सम्मोहिनी-सी छा जाती थी, मानो उनके पंख भीग जाते थे और फड़फड़ाना बन्द हो जाता था-या यों कहें कि किसी फैंसी नस्ल के पालतू कुत्ते की तरह वे मीरा के पीछे-पीछे दुम हिलाते हुए चल पड़ते थे। मीरा उनसे खेलती थी, उन्हें नचाती थी, उनसे काम लेती थी। कुत्तेपन के कारण वे सेवा करते थे, यद्यपि फैंसीपन के कारण वे मुँह-लगे भी होते थे और मानो थोड़ी-सी दुलार-पुचकार के भूखे भी। मीरा इस बात को जानती थी और इसकी अनदेखी भी नहीं करती थी।
लेकिन इतना होने पर भी मीरा ने पुरुषों से एक विशेष दूरी क़ायम की थी, एक अलगाव स्थापित रखा था। इतने पुरुषों के सम्पर्क में आकर, उनसे मिल-जुल कर, उनसे ‘मिक्स’ करके भी वह अछूती रह गयी थी - अछूती ही नहीं, अस्पृश्य भी। उसे इसका अभिमान भी था। स्त्री के लिए पुरुष-समाज में आकर भी उससे बचे रहना एक बड़ी बात होती है, और फिर भारत के ‘नव-संस्कृत’ समाज में, जिसमें आचार के पुराने शास्त्र नष्ट हो गये हैं और नये ‘स्टैंडर्ड’ बन नहीं पाये, स्त्री के लिए अपने शील की रक्षा करते हुए चलना तो बहुत ही बड़ी बात है। मीरा ने यही महान कार्य बड़ी सफलता से किया था, और उसका अभिमान अनुचित नहीं था।
इस समय टहलने के लिए घर से निकल कर पैदल घूमती हुई मीरा इसी बात पर विचार कर रही थी। मन-ही-मन एक-एक करके उन लोगों को गिन रही थी, जो उसकी अर्दली में आये थे, जो उसके जीवन की रंगशाला में अपना पार्ट अदा कर रहे थे, कोई नाचकर, कोई झल्लाकर, कोई हँसकर, कोई रोनी सूरत बनाकर, और जिन्हें एक-एक करके उसके मंच पर से हटा दिया था। अवश्यमेव वह अपनी सफलता के लिए अपने को बधाई दे सकती थी। ‘कीच में कमल’ की उपमा शायद एक अनुचित डींग हो, लेकिन वह अपनी तुलना उस मधुमक्खी से अवश्य कर सकती थी, जो भाँति-भाँति के फूलों का रस लेकर मधु संचय करती है, पर अपने पँख कभी उसमें नहीं लिपटाने देती।
यही सब सोचती हुई मीरा टहलने चली जा रही थी। लेकिन वह प्रसन्न नहीं थी। वह अपने को बधाई देती जा रही थी, लेकिन उसका मन मुरझाया हुआ था। उसके बधाई के शब्द मानो, अर्थहीन थे, वह उन्हें दुहरा-दुहरा कर भी उनसे ज़रा-सा सन्तोष या आनन्द नहीं खींच पाती थी। उसके पैर पथ पर क्रमानुसार पड़ते जा रहे थे, यही उसका टहलना था।
2
मीरा का रास्ता पूर्णतया निर्विघ्न नहीं था। साँझ घिरती आ रही थी, और अधिकांश सैर करने वाले मुख्यतया बूढ़े, औरतें, बच्चे-अपने-अपने घर-घोसलों की ओर चल दिये थे। फिर भी जब-तब उस सँकरी सड़क पर कोई साइकिल पर सवार नवयुवक सैलानी आ निकलता और मीरा के पास से सर्राता हुआ चला जाता, तब मीरा को चौंककर एक ओर हटना पड़ता। उस ढंग के सैलानी प्रायः बिना रोशनी के घर से निकलते हैं, और फिर वक्त तंग पाकर खूब तेज़ी से घर की ओर साइकिल दौड़ाते हैं। घंटी बजाना या ब्रेक लगाना उनके लिए महापाप का गौरव प्राप्त कर लेना है, और जो जरा और मनचल होते हैं, वे हैंडल को हाथ से छूना भी अनुचित समझते हैं। तब एक अवस्था ऐसी आती है कि सतयुग से हमारा युग बढ़ता जाता है। सतयुग में लोग परलोक की तलाश में फिरते थे और वह लभ्य नहीं होता था, अब परलोक ही मुँह बाये फिरता है और पैदल चलनेवाले लोगों को अपनी जान बचाकर भागना पड़ता है।
यह बात नहीं थी कि मीरा को इस ढंग के लोगों पर क्रोध आता हो - साहसिक वृत्ति उसमें पर्याप्त मात्रा में थी और खतरे का नशा वह खूब पहचानती थी। लेकिन उस समय उसे अकारण क्रोध आया हुआ था। वह भीतर-ही-भीतर कुढ़ रही थी, उसके मन में बार-बार एक खुजली-सी उठती थी कि किसी से कठोर व्यवहार करे, किसी से लड़े, बुरी तरह पेश आये, किसी को चोट पहुँचाये, किसी चीज़ को बिगाड़े। क्यों, किसे, कैसे, यह सब उसके आगे स्पष्ट नहीं था, पर उसका मन मनुष्य-मात्र के प्रति एक तीखी अप्रीति से लबालब भर रहा था और छलका पड़ता था।
सामने से जो लोग साइकिलों पर आते, मीरा घूरकर उन्हें देखती। जो कुरूप होता, वह उसके रोष से बच जाता, लेकिन औरों पर वह दृष्टि ऐसे पड़ती, मानो उन्हें भस्म कर डालेगी। ...प्रत्येक ऐसे आगन्तुक के साथ उसका रोष बढ़ता ही जाता। अन्त में एक अवस्था ऐसी आयी कि उसका इस सुलगते हुए अप्रीति-भाव को दबाना असम्भव हो गया, और वह मानो कार्य में परिणत होकर फूट निकलना चाहने लगा।
दूर ही से साइकिल की घंटी सुनकर मीरा कुछ चौंकी, फिर उसने पथ पर से एक छोटी-सी टूटी हुई डाल उठा ली। सामने ही सड़क का मोड़ था। शायद इसीलिए आते हुए साइक्लिस्ट ने घंटी बजायी थी। धुँधलके में मीरा उसे तब तक न देख सकी, जब तक कि वह बहुत ही पास न आ गया। तब एकदम से उसने वह छोटी-सी डाल साइकिल के पहिये की ओर फेंक दी।
साइकिल तीव्र गति से जा रही थी। डाल की लकड़ी पहिये की सलाइयों में अड़ गयी, साइकिल लड़खड़ायी और एकदम से रुक गयी। सवार उस पर से उछल कर छः-सात फुट दूर जाकर औैंधे-मुँह गिरा। एक बाँह से उसने शायद अपना मुँह बचाया था, पर उसका सिर सड़क के किनारे के एक पेड़ से टकरा गया।
साइकिल क्षण-भर बिना सवार के ही खड़ी रही, फिर कुछ इंच आगे सरककर एक ओर गिर गयी।
3
विद्युत्-गति से हो जाने वाली इस घटना की पहली प्रतिक्रिया मीरा के मन में एक तीव्र आनन्द के रूप में प्रकट हुई-वह आनन्द, जो विजय के बाद होता है, जब बहुत दिनों की अनेक असफलताओं के बाद एक दिन एकाएक सफलता मिल जाती है। एक दूसरे ही क्षण उसने जाना, वह उल्लास जीत का नहीं है, कुछ काम कर लेने का नहीं है; उल्लास का कारण यह है कि अब सामने कुछ काम करने को है। कैदी को जब मुक्ति मिलती है, तब एक तरह का आनन्द उसे होता है, पर इस समय मीरा को आनन्द हो रहा था, जैसा कि बहुत दिनों से कालकोठरी में निकम्मे पड़े हुए कैदी को उस समय होता है, जब उसे मशक़्कत दी जाती है - फिर वह चाहे पत्थर कूटना या ‘जगाई’ या कोल्हू ही क्यों न हो...
मीरा लपककर उस आदमी के पास पहुँची। वह सड़क पर फैला हुआ पड़ा था। उसके शरीर में किसी तरह की गति नहीं थी। मीरा ने कलाई पकड़कर देखा, वह नब्ज भी नहीं पा सकी। उसने युवक का सिर उठाया, वह भारी जान पड़ा और एक ओर लुढ़क गया।
तब मीरा एकाएक घोर चिन्ता से सिहर उठी। आँखें फाड़-फाड़कर वह देखने लगी, कभी युवक की ओर, कभी साइकिल की ओर, कभी अपने उस हाथ की ओर जिसने वह डाल पहिये में अटकायी थी।
बहुत शोर के बाद अगर एकाएक मौन हो जाय, तो हमारे भीतर से ही मानो कोई चीख उठता है और नीरवता नहीं होने पाती। मीरा के भीतर भी कोई एकाएक पुकार उठा कि सड़क पर कोई नहीं है, आस-पास कहीं कोई नहीं है, सैर का समय खत्म हो गया है।
और बरसों बाद अब मीरा की नयी शिक्षा उसके काम आयी-उसने बिना किसी प्रकार के संकोच या झिझक के उस बिलकुल अजनबी नवयुवक को घुमाकर सीधा किया और ‘ओह, लार्ड!’ कहते हुए बाँहों में उठा लिया। बोझ बहुत काफ़ी था, लेकिन परिताप में दानवी शक्ति होती है।
लगभग डेढ़ फ़र्र्लांग चलकर मीरा एक चौराहे पर पहुँची, जहाँ एक बेंच पड़ी हुई थी। मीरा ने ‘हुफ्फ़’ कहकर युवक को उस पर डाला, फिर कुछ बढ़कर एक ताँगे वाले को पुकारा और उसकी मदद से युवक को ताँगे में लादकर कहा, “चलो अस्पताल!”
4
कानकशन ऑफ द ब्रेन। कानकशन। कानकशन ऑफ द ब्रेन। ब्रेन। कानकशन-ऑफ-द-ब्रेन।
अस्पताल के दुर्घटना-वार्ड के बाहर के बरामदे में मीरा बैठी है। उसे वैसे ही बैठे हुए लगभग पौन घंटा हो गया है। बेंच पर वह बिलकुल सीधी बैठी है, मुख पर जरा भी मलिनता नहीं है, किसी तरह की गति नहीं है; वह आँख भी नहीं झपकाती है; लेकिन इतने काल का वह निश्चल तनाव ही प्रकट करता है कि उसके भीतर कैसी अशान्ति भर रही है। मीरा मानो अपने नाड़ी-स्पन्दन के साथ ताल देती हुई गिनती जा रही है कि उस घटना को कितनी देर हो गयी है, प्रति सेकेंड कितनी और देर होती जा रही है...
आखिर डॉक्टर ने आकर आश्वासन देते हुए कहा, “अब कोई चिन्ता की बात नहीं है।”
“क्या-”
डॉक्टर ने अपने स्वर में कुछ घनिष्ठता, कुछ वात्सलय लाकर पूछा, “आपके कोई सम्बन्धी हैं क्या?”
मीरा ने जल्दी से कहा, “नहीं, सड़क पर एक दुर्घटना हो गयी वहीं-”
डॉक्टर ने कुछ बदले हुए दैनिक व्यवहार के, यद्यपि अब भी दया-भरे स्वर में कहा, “कोई फ़िक्र नहीं। बच जाएगा।”
मीरा बेंच पर से उठकर एकदम चल दी। डॉक्टर की विनयपूर्ण प्रशंसा को स्वीकार करने या सुनने के लिए भी वह नहीं रुकी -”आपकी सहृदयता-”
5
घर।
मीरा लौटकर सीधी ऊपर अपने कमरे में चली गयी और धड़ाके से द्वार बन्द कर खिड़की के पास बैठ गयी। खिड़की खुली थी, आधी दूर तक लगा हुआ रेशमी छींट का परदा हल्का हवा के झोंके से मदमाता-सा झूम रहा था, कभी भीतर की ओर, कभी बाहर की ओर। दूर घने नीले स्वच्छ आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। मीरा को याद आया, जब उसने घोर आकांक्षा से भर कर उस बेहोश युवक की बन्द पलकों को खोलकर भीतर झाँका था, तब उसमें का स्वाभाविक आलोक बुझा हुआ-सा था। आत्मा के वे द्वार बन्द नहीं हुए थे। पर उनके आगे एक झीना परदा-सा छाया हुआ था। उस फीके पड़े हुए चेहरे में वे जबर्दस्ती खोली हुई आँखें ऐसी लगती थीं, मानो-
लेकिन वह नहीं चाहती उस युवक की बात सोचना। उसे क्या अब उस युवक से? वह उसे अस्पताल पहुँचा आयी है, वह ठीक है अब। मर नहीं जाएगा।
लेकिन उसका चेहरा मीरा की आँखों के आगे फिरने लगा।
नहीं। मीरा ने अपने ओठ ज़रा से काट लिये। वह नहीं देखेगी वह चेहरा, वह पीड़ा से सिकुड़ा हुआ शरीर। वह नहीं देखेगी-
लेकिन क्या नहीं देखेगी, यह दुहराते हुए तो वह बार-बार उसे देखती ही जा रही है। उसने फिर ओठ काट लिया, मुट्ठियाँ घोंट लीं-
एक मुट्ठी में अभी तक वह फूल दबा हुआ था, जो उसने टहलते समय राह के किनारे लगी क्यारी में से तोड़ लिया था। अब वह उसे मुट्ठी में ही लिये हुए थी!
मीरा का शरीर ढीला पड़ गया, उसका देर का संचित तनाव मिटने लगा। वह स्थिर अनदेखती दृष्टि से उस फूल की ओर देखने लगी।
मुरझाया हुआ, कुचला हुआ, गर्मी और पसीने और दबाव से अपनी सफेदी खोकर काला पड़ा हुआ फूल।
उसे अपनी डींग याद आयी। ‘पंक में पंकज तो नहीं, पर हाँ, वह मधुमक्खी अवश्य, जो अपने संचित किये हुए मधु में अपने पंख नहीं लिपटाती, फँसती नहीं, मुक्त ही रहती है... अछूती। अस्पृश्य...’
अब उसने फिर अपने ओठ काट लिये - अब की बार कुछ भुलाने के लिए नहीं। इस बार केवल उस एक शब्द के उच्चारण को रोक देने के लिए, जो उसकी सारी विदेशी शिक्षा और सभ्यता और संस्कृति का निचोड़ बन कर उसके ओठों तक आया था - “डेम!”
तब एकाएक उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। शब्दहीन, लेकिन बड़े-बड़े गोल-गोल आँसू।
(गुरदासपुर, अगस्त 1937)