अछूत / प्रदीप कुमार साह
एकबार किसी कस्बा में सत्संग-प्रवचन आयोजित हुआ। ईशकथा रस प्रेमी श्रोता बड़े उत्साह से प्रवचन सुनने आए। बड़े से मंच से एक सुप्रसिद्ध कथा वाचक भगवान श्रीराम के कथा कह रहे थे। उनके द्वारा माता के आज्ञापालन हेतु स्वेच्छा से वनस्थ जीवन अंगीकार किये राजकुमार श्रीराम द्वारा निषादराज के आतिथ्य एवं दीन-हीन भीलनी शबरी के बेर सादर, सस्नेह ग्रहण करने के प्रसंग कहे गये। उनके द्वारा सामाजिक समरसता, नैतिकता एवं सांस्कृतिक मुल्यों पर बिल्कुल मार्मिक विचार रखे गये। श्रोता उनके प्रवचन से काफी प्रभावित हुए. श्रोता कथा-समापनोपरांत बेहद आदर एवं श्रद्धा से कथा वाचक को सप्रेम भेंट अर्पित करते हुए उनके चरण स्पर्श करने लगे। कथा वाचक भी सस्नेह भेंट स्वीकार कर रहे थे। तभी प्रवचन स्थल की सफाई करने वाला कथा-प्रेमी व्यक्ति (भंगी) भी श्रद्धा से कथा वाचक के पैर छूये। किंतु इस बार कथा वाचक बिफर पड़े, "अछूत, मुझे छूने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई!"
वैसा सुन व्यक्ति आवाक् रह गया कि वह महानुभाव वही हैं जो मंच से अभी समरसता की बातें कर रहे थे। किंतु वस्तु-स्थति के मद्देनजर उसने हाथ जोड़ कर विनती करना ही उचित समझा और कहने लगा, "क्षमा महाराज, मेरे मन में आपके प्रति आदर एवं प्रेम इतना अधिक था कि मेरे छूने से आपके भावी कष्ट का पूर्वानुमान मुझे बिल्कुल ही नहीं हुआ।"
इसपर कथा वाचक रुष्ट होकर वहाँ उपस्थित कथा-प्रेमी श्रोता से कहने लगे, "इस अछूत ने मुझे छूकर अपवित्र करने की चेष्टा की है। कोई सज्जन इसे इसके सीमाओं का बोध करा सकता है!"
वह व्यक्ति भयाक्रांत हो क्षमा याचना करते हुए कहा, "महाराज, समदर्शी भगवान की सौगंध! ईश्वर कण-कण में, चराचर में समरस व्याप्त हैं। वैसा समझ कर सर्वत्र उनके अनुभूति, प्रेम एवं उनके दर्शन प्राप्ति हेतु सतत् चेष्टा करनी चाहिये। उस बात की उत्प्रेरणा आपके प्रवचन से हुआ।उसी चेष्टा में मुझसे भूलवश वह गलतियाँ बन गई.कृपया नादान समझ कर मुझे क्षमा करें।"
किंतु कथा वाचक के क्रोध शांत न हुआ। उसने कहा, "यह तो उतनी ही जहरीली बातें कहता है, जितना दूध पीकर सर्प।"
वह सब देख एक सज्जन बढ़कर कथा वाचक से उनके क्रोध शांति हेतु प्रार्थना किया, "आप दया के सागर और विशाल हृदय महापुरुष हैं।वह (भंगी) भावातिरेक में बहने वाला एक नासमझ, वैसा समझ कर उसे क्षमा प्रदान करें।"
उससे भी कथा वाचक की संतुष्टि न हुई.उसने कहा, "धर्म भ्रष्ट लोगों से कुछ कहना ही व्यर्थ है।"
"महाराज, वह भूमि धन्य हो जाती है, जहाँ कुछ समय सत्संग होते हैं। वह इसलिये कि कथा सुनने से प्रेम, सद्भावना, समरसता और सांस्कृतिक एवं मानवीय मुल्यों का समझ आता है। वैसे पवित्र भूमि पर भेदभाव और विद्वेष के बीज बोना सर्वथा अनुचित है। फिर व्यर्थ क्रोध करना तो कतई उचित नहीं है।"श्रोता हाथ जोड़कर निवेदन किये।
"यह समय का दोष है कि लोगों के चरित्र इतने गिर गये हैं कि उन्हें एक मर्मज्ञ और अछूत में अंतर समझ नहीं आता।" कथावाचक भिनभिनाये।
"किसी इंसान के वचन, विचार और आचरण को उसके पेशा के आवरण में ढ़क देना उचित नहीं है।फिर कोई अछूत है, इस बात का विनिश्चय किस तरह किया जाये? वह जो शास्त्रोक्त वचन केवल कहते हैं किंतु स्वयं उन बातों को हृदय से लगाते नहीं, जिस कारण उनका मन पवित्र नहीं हो पाता फिर स्वयं अछूते ही रह जाते हैं। वह जो शास्त्रोक्त आचरण कहते हैं किंतु अपनाते नहीं।अथवा उन्हें जिनके मन, वचन, आचरण और व्यवहार से हृदय पवित्र हैं और स्वच्छता हेतु सफाई कर्म भी करते हैं?"ईश-कथा रस प्रेमियों के प्रश्न सुनकर कथा वाचक हक्का-बक्का रह गया।