अछूत : दलित जीवन का अन्तर्पाठ / मुकेश मानस

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


1 दया पवार मराठी दलित साहित्य में एक सुपरिचित नाम है। आधुनिक मराठी दलित साहित्य के बरक्स दलित साहित्य को खड़ा करने में जिन दलित साहित्यकारों ने भारी ज़द्दोज़हद का सामना किया, उनमें दया पवार का नाम कभी न भुलाया जा सकने वाला नाम है। मराठी के जिन दलित साहित्यकारों ने अपनी रचना-धर्मिता और सृजनशीलता के बल पर भारतीय साहित्य के पैमाने पर अपनी पहचान बनाई है, ऐसे साहित्यकारों में दया पवार पहली पंक्ति में खड़े नजर आते हैं।

दया पवार के 1974 में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘कोंडवाड़ा’ (कांजी हाउस) ने न सिर्फ उनको दलित साहित्य आंदोलन में स्थापित किया अपितु उनके कविता संग्रह से मराठी दलित लेखन भी चर्चा में आया। कोंडवाड़ा और कुछ नहीं महारवाड़ा का ही पर्याय है। महारवाड़ा के लोग, उनके दु:ख और तकलीफ़ें, उनकी निराशाएं और छटपटाती वेदनाएं ही कोंडवाड़ा की अंतर्वस्तु हैं। कोंडवाड़ा एक ऐसा अदृश्य घेरा है जिसके भीतर भारत की जातिव्यवस्था के अभिशाप से ग्रस्त असंख्य निराशाएं और वेदनाएं छटपटाती नजर आती हैं। यह काव्यगत सृजन की ऐसी संवेदना और शिल्प है जो शब्दों की सीमा से बाहर आकर उसकी भयावह वेदना, अपमान और शोषण को साकार करता है।

अछूत (बलुत)1979 में पहली बार मराठी में प्रकाशित हुआ था। ‘अछूत’ दलित साहित्य का पर्याय ही बन गया। ‘अछूत’ दलित साहित्य में आत्मकथात्मक लेखन का प्रस्थान बिंदु है। दलित जीवन की असहनीय और बेवाक अनुभूतियां इसमें से झांक-झांक पड़ती हैं। ‘अछूत’ ने दया पवार को मराठी दलित साहित्य का ही नहीं, भारतीय दलित साहित्य का भी इतिहास पुरुष बना दिया। अछूत के बाद 1983 में उनके ‘विटाल’ और बाद में ‘चावड़ी’ शीर्षक से कहानी संग्रह भी आए। उन्होंने भगवान बुद्ध के ‘धम्मपद’ से कुछ गाथाओं का मराठी में अनुवाद भी किया है। देखा जाए तो उनकी साहित्यिक रचनाओं की संख्या बहुत कम है मगर वे इन्हीं के बल पर आज भी दलित साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्रोतत बने हुए हैं।

2 “कैसे बताया जा सकेगा सीधे-सीधे। वह सारा क्या एक दिन का है। पूरे चालीस साल की जिंदगी कर जीवंत इतिहास है...वैसे मैं बड़ा भुलक्कड़ हूं। विस्मरण की आदत के कारण ही जीवित रह सका नहीं तो सिर फटवा कर मरने की बात थी।”

‘अछूत’ में दया पंवार ने अपने चालीस साल की जीवन-यात्रा का बयान लिखा है। उनकी जीवन यात्रा का जो वृतांत ‘अछूत’ में मिलता है वह बहुत ही छोटा है। लेकिन अछूत के दगडू मारुति पवार के जीवन के छोटे से आत्म-वृतांत का फलक बहुत ही व्यापक है। इस मामले में ‘अछूत’ सिर्फ दगडू मारुति पवार की जीवन यात्रा का लेखा-जोखा ही नहीं हैं बल्कि ‘अछूत’ महारवाड़ा के हजारों-हजार महार युवकों, प्रौढ़ और वृद्ध पुरुषों, स्त्रियों की अछूत गाथा है। दगडू मारुति पंवार की जीवन यात्रा इन लोगों के संदर्भोंस्मृतियों और दारुण जीवन स्थितियों के साथ चलती है। महारवाड़ इस गाथा का प्रस्थान बिंदु है तो कावाखाना इसकी परिणति। महारवाड़ा और कावाखाना के दीन-हीन परिवेश में दगडू मारुति पंवार के जैसी सैकड़ों अभिशप्त जिन्दगियां हैं जिनसे अछूत गाथा की एक समूची करुण गाथा साकार होती है।

दगड़ू मारुति पंवार ने जब आंख खोलकर अपने आस-पास की दीन-हीन और अभिशप्त दुनिया को समझने की उमर पाई तो उसने खुद को बम्बई की एक बदनाम बस्ती ‘कवाखाना’ में पाया। भारत के अछूतों का जीवन कहीं से भी शुरू हो मगर उसका प्रस्थान बिंदु महारवाड़ा या चमारवाड़ा ही रहता है। वे कहीं भी जन्म लें, कहीं भी पलें-बढ़ें महारवाड़ा की अभिशप्त छाया हमेशा उनके साथ रहती है। कावाखाना बम्बई का शहरी महारवाड़ा ही है। महारवाड़ा उपेक्षा, गरीबी, बेकारी और बेरोजगारी की जिस मार से पीड़ित है लगभग वही मार उसे शहर के कावाखाना में भी भुगतनी पड़ती है। बल्कि शहर में कुछ नई समस्याएं इसमें और जुड़ जाती है। दगडू के पिता बम्बई शहर में कमाई की खातिर आए थे। यहां उन्हें मिला गोदी में हमाली और गोदी की भटटी में खुद को झुलसाने का काम। अन्य महारों की तरह वह भी शराब और रंडीबाजी जैसी बुरी आदतों के शिकार हो जाते हैं। दगडू मारुति पवार का परिवार घटिया आवास व्यवस्था के साथ-साथ अभावहीनता में जीवन-यापन करता है। मगर दगडू के पिता के मन में बेटे को पढ़ाने की चाह है। इसलिए दगडू का दाखिला शहर पालिका के स्कूल में करवा दिया जाता है। कुछ साल कावाखाने में दीन-हीन जीवन बिताने के बाद दगडू का परिवार वापस महारवाड़ा में अभिशप्त होने को पहुंच जाता है।

महारवाड़ा में रोजगार नहीं है। अस्पृश्यता की मार के अलावा बेरोजगारी और बेबसी की मार से परिवार की आर्थिक दशा दयनीय ही रहती है। दगडू का पिता लकड़ी चीरने का काम करके जैसे-तैसे घर चलाता है। लोकल बोर्ड के स्कूल में दगडू को भर्ती करा दिया जाता है। पिता की शराब की लत यहां भी नहीं छूटती। गांव में ही पिता की मृत्यु हो जाती है। जाने कैसे दगडू में पढ़ने की इच्छा बनी रहती है और उसकी मां भी उसको रोकती नहीं है। वह मेहनत मशक्कत करके घर चलाती है। गांव के स्कूल में अध्यापकों की जातीय मानसिकता उसे बेचैंन करती रहती है। अंग्रेजी में गेzस मार्क्स पाकर वह तालुका के स्कूल में आता है। यहां आकर उसे जातीय वंचना से मुक्ति का अहसास होता है मगर यह एहसास ज्यादा देर नहीं रहता। एकाध प्रगतिशील अध्यापकों को छोड़कर बाकी शिक्षकों की ऊंच-नीच की मानसिकता उसे हतोत्साहित करती है मगर वह हार नहीं मानता। एक अध्यापक की सलाह पर वह सगनेर पुणे छात्रावास में दाखिला पाता है। यह छात्रावास डा. अम्बेडकर की प्रेरणा से महार छात्रों के लिए बनाया गया था। मगर यहां आकर उसे दलित युवकों में अपने ही बिरादर भाइयों और स्त्रियों के प्रति उनकी ऊंच-नीच और पितृसत्ता की मानसिकता का पता चलता है। वह इससे बड़ा दु:खी होता है। जगह खाली होने पर उसकी मां और बहन भी छात्रावास में खाना पकाने जैसे काम के लिए छात्रावास में आती हैं। यहां उसकी मां और बहन का भयानक शोषण होता है। अपनी मां और बहन के प्रति छात्रावास के लड़कों का गुलामों सा व्यवहार और पितृसत्तावादी रुख परेशान करता है।

इस बीच उसके जीवन में बानू, गऊ जैसी लड़कियां आती हैं। बानू से उसे प्लेटोनिक लव हो जाता है। मगर उसके बाप की उच्च जाति और आर्थिक हैसियत उसके इस प्लेटोनिक लव को जल्दी ही मिट~टी में मिला देती है। गऊ को वंश चलाने के नाम पर पिता की उम्र के बहन के पति से ब्याह दिया जाता है। गरम लोहे की सलाखों से दागी जाने वाली सीता, यौंन विकृति का शिकार टांकी, मंदिर की सीढ़ियों को लात मारने वाला पागल, हरि का कोढ़ी बाप जैसे महारवाड़ा के सैकड़ों चरित्रा और उनकी दारुण और विषमतापूर्ण जीवन परिस्थितियां, महारवाड़ा की पतित मूल्य-मान्यताएं उसे लगातार अभिशप्त करती रहती हैं। वह महारवाड़ा से लगातार खुद को काटा-सा महसूस करता है। महारवाड़ा के अभिशप्त जीवन से खुद की मुक्ति की कामना उसे लगातार प्रोत्साहित करती रहती है।

तालुके के स्कूल में दगडू कविताएं लिखना शुरू करता है। दगडू का कविताएं लिखना एक तरह से महारवाड़ा से मुक्ति और महारवाड़ा की मुक्ति का ही रचनात्मक प्रतिफलन है। उसकी कविताओं में महारवाड़ा की दारुण परिस्थितियां और उनसे मुक्ति की कामना झलकती है। इसी बीच में उसे नाटक का शौक लग जाता है लेकिन प्रिंसिपल की नेक सलाह पर वह केवल पढ़ाई-लिखाई पर अपना ध्यान केंन्द्रित करता है। इसी बीच उसकी इच्छा के विरुद्ध सई से विवाह तय हो जाता है। वह एस.एस.सी. के इम्तहान में फेल हो जाता है। लेकिन दृढ़ निश्चयी दगडू पढ़ाई पर अपना ध्यान केंन्द्रित कर पास हो जाता है। उसे गांव के स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल सकती है फाइनल पास करके वह शहर में नौकरी करने की सोचता है। उसे लगता है कि देहात तो अस्पृश्यता रूपी बिच्छू डंकों का अंबार है। वहां रहकर वह जीवन भर अभिशप्त रहेगा।

नौकरी की तलाश में वह बम्बई आता है। लेकिन शिक्षा व्यवस्था की अन्तरनिहित कमजोरियां उसे सालती हैं। बम्बई में आकर वह नौकरी की तलाश में रोजगार दफ्तर के चक्कर काटता रहता है और एक लंबा समय बेरोजगारी में काटता है। मां बम्बई में मेहनत-मशक्कत करके घर को चलाती है। यह बात उसे सालती रहती है। कावाखाने का अभिशप्त जीवन उसकी मुक्ति के स्वप्न को चकनाचूर कर देता है। यहां आकर भी महारवाड़ा उसका पीछा नहीं छोड़ता है। महार होने के कारण आरक्षण व्यवस्था के तहत उसकी चमड़ा फैक्टरी में नौकरी लगती है। हालांकि यह नौकरी उसे फिर उसी जातीयता के दंश से अभिशप्त रखती है जिससे वह मुक्ति पाना चाहता है मगर आर्थिक अभाव उसे यह नौकरी करने पर मजबूर कर देता है।

इसी बीच दगडू की शादी साई से हो जाती है। उसका हनीमून एक दु:स्वप्न की तरह गुजरता है। लेकिन दगडू थमता नहीं। वह रूपारेल कालेज में पढ़ने लगता है। लेकिन कालेज और नौकरी की भागमभाग के कारण उसे लगातार एक अंतरद्वन्द्व से गुजरना पड़ता है। सई की सुंदरता और व्यवहार उसे सई पर शक करने को मजबूर कर देता है। सीता, जमना मौसी, गऊ, परित्यक्ता चाची और अपनी मां-बहन के दु:खों से सहानुभूति रखने वाला दगडू अंतत: पुरुषवादी मानसिकता का शिकार होकर अपनी पत्नी का परित्याग कर देता है। काफी समय तक उलझन और ऊहापोह से गुजरता हुआ वह दुबारा शादी कर लेता है। इसी बीच उसकी मन मुताबिक नौकरी लग जाती है। बस इतनी सी कथा है दगडू मारुति पंवार की जिसमें वह हमें दु:ख झेलता, अपमान सहता, टूटता और आगे बढ़ने का निश्चय करता हुआ मिलता है।

दगडू मारुति पवार का जीवन महारवाड़ा के हजारों-हजार नवयुवकों के जीवन का पर्याय है। यह जीवन जातीयता और अपमान के दंश से निर्मित होता है और गरीबी और आर्थिक अभाव की मार सहता हुआ समाज व्यवस्था की विषमता से टूटता, अपनी ही कमजोरियों से पस्त होता हुआ आगे बढ़ता है। इस समूची गाथा में हमें दगडू मारुति पवार के चरित्रा की तमाम कमजोरियों और विशेषताओं का वेबाक बयान मिलता है। यही ‘अछूत’ की विशेषता है। यह आत्मकथा अंत से शुरू होती है। शुरुआत में हम पाते हैं कि दगडू मारुति पवार एक सुखी आदमी है। मगर वह दु:खी नजर आता है। वह दु:खी नजर आता है क्योंकि वह खुद तो सुखी है। उसको तो किसी हद तक मुक्ति मिल गई मगर वह दुखी है क्योंकि उसका महारवाड़ा अभी भी वहीं ना वहीं है।

3 “गांव और मेरे बीच आज भी एक अदृश्य दीवार है। वे उस पार-मैं इस पार। गांव और महारवाड़ा से सीधे एक रास्ता जाता है। वही गांव और महारवाड़ा का बार्डर है।....... एक टीले पर महारवाड़ा है-गांव के निचले हिस्से पर। ऐसा कहते हैं कि हवा और नदी का पानी उच्च-जातियों को शुद्ध मिले, इसीलिए गांव की रचना प्राचीनकाल से इसी तरह की है।”

भारत के अधिकतर गांवों की यह बनावट आज भी इसी रूप में देखने को मिलती है। एक तरफ गांव और दूसरी तरफ महारवाड़ा। महारवाड़ा- यानी महारों का मुहल्ला, ठीक उत्तर भारत के चमारवाड़े जैसा। गांव में भूमिसम्पन्न, समृद्ध उच्च-जातियों के परिवार रहते हैं। महारवाड़ा में भूमिहीनता, दरिद्रता, छुआछूत और बेगार की मार झेलने वाली महार जैसी निचली जातियों के परिवार रहते हैं। दोनों के बीच जमीन-आसमान का फर्क देखने को मिलता है। एक अदृश्य दीवार दोनों के बीच की सामाजिकऔर आर्थिक विषमता को रेखांकित करती है। यह अदृश्य दीवार एक ऐसा बाWर्डर है जिसके बीच किसी मेल की कोई गुंजाईश नहीं है। कहना चाहिए कि दोनों के बीच की विषमता की खाई सदियों से बढ़ती आई है।

महाराष्ट्र की अकोला तहसील के घामड़ गांव का महारवाड़ा समूचे देश के भीतर शोषित और उत्पीड़ित लाखों महारवाड़ाओं का प्रतिनिधि है। महारवाड़ा देश के बहुतायत दलितों के सामाजिक और आर्थिक शोषण का नंगा चित्रा है। यही महारवाड़ा दया पवार की आत्मकथा ‘अछूत’ का केन्द्रीयय आधार है। ‘अछूत’ की अछूतगाथा इसी महारवाड़ा के इर्द-गिर्द घूमती है। ‘अछूत’ का दगडू मारुति पवार दरिद्रता और छुआछूत की सतत मार से अभिशप्त इसी महारवाड़ा में पैदा होता है और अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा इसी में गुजारता है। उसके समूचे जीवन का संघर्ष इसी महारवाड़ा के अभिशाप से मुक्ति का संघर्ष है। ‘अछूत’ के लेखक और नायक की तरह यह महारवाड़ा भारत के करोड़ों-करोड़ अछूतों को जीवन पर्यंत अभिशप्त रखता है। अब तक प्रकाशित लगभग हर दलित आत्मकथा में इसी महारवाड़ा के विविध रूपों में दर्शन होते हैं।

‘अछूत’ के इस महारवाड़ा में महारों-दलितों के शोषण की तीन व्यवस्थाएं देखने को मिलती हैंµ महारकी, येसकर पाटी और बलुत। महारकी यानी उच्च-जातियों द्वारा महारों से ली जाने वाली बेगार की परंपरा और व्यवस्था। इसका न कोई निश्चित रूप है और न कोई बंधा हुआ वक्त। गांव का सारा लगान तालुके में पहुंचाना, गांव में आए बड़े अधिकारियों के घोड़ों के साथ दौड़ना, उनके जानवरों की देखभाल करना, चारा-पानी देना, ढ़िढोरा पीटना, मौत की सूचना गांव-गांव पहुंचाना, मरे ढ़ोर खींचना, लकड़ियां फाड़ना, गांव के मेले में बाजा बजाना, दूल्हे का नगर द्वार में स्वागत करना जैसे और न जाने कितने अनगिनत काम महारों के हिस्से पड़ते हैं। इसके अलावा येसकर पारी के रूप में गांव की चौकीदारी।

इन सब बेगारों के बदले में महारवाड़ा को मिलता है-बलुत। वैसे बलुत दलितों से लिए जानेवाले बेगार के बदले मिलने वाली मजदूरी है। मगर असल में यह किसी भी मायने में मजदूरी नहीं है। यह एक तरह की भीख है जो उन्हें उनसे लिए गए बेगार के बदले में नहीं मिलती बल्कि उनकी जाति की नीचता और उनकी दरिद्रता पर तरस खाकर उन्हें दी जाती है। दलितों को गांव भर में द्वार-द्वार पर जाकर बलुत मांगना पड़ता है। बलुत के रूप में प्राय: उन्हें बासी रोटियां मिलती हैं या फसल के मौके पर थोड़ी बहुत उपज, खाद्यान्न। दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं होता कि लोगों से काम भी लिया जाए और उनका मेहनताना भी न दिया जाए और मिल तो ऊपर से अपमान भी किया जाए। बलुत एक प्रकार की अमानवीय प्रथा है। यह दलितों के मानवीय सम्मान और आत्मविश्वास को अमानवीय ढंग से ठेस पहुंचाती है।

बलुत और महारकी की पंरपराएं प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। ये परंपराएं जाति व्यवस्था का परिणाम हैं। मनु की तथाकथित महान जातिव्यवस्था ने दलितों से तमाम माननीय, सामाजिक और आर्थिक अधिकार छीन लिए। दलितों को भूमिहीन और संपतिहीन बनाया, उन्हें ज्ञान से वंचित करके लगातार एक घ्रणित गुलाम के रूप में विकसित किया गया। जाति व्यवस्था ने दलितों के सामाजिक सम्मान को तो छीना ही, उन्हें उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादन के साधनों से वंचित करके उनका आर्थिक शोषण भी किया। उनकी तरक्की के सारे मार्ग बंद कर दिए। आज भी गांवों में दलितों की बहुतायत आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जीने को अभिशत है। इस तथाकथित महान जाति व्यवस्था के कारण दलितों ने दोहरी मार झेली है। उनका आज का अभिशत जीवन इसी व्यवस्था का परिणाम है।

यह महारवाड़ा की विडम्बना ही है कि वह जिस जाति व्यवस्था की मार को निरंतर झेलता आया है, उसी जाति व्यवस्था का वह खुद भी शिकार है। छुआछूत और ऊंच-नीच की व्यवस्था उनके भीतर भी विभाजन और विषमता का कारण है। महारवाड़े के भीतरी विभाजन को ‘अछूत’ के लेखक ने बड़ी ईमानदारी के साथ पूरे यथार्थपूर्ण ढंग से रखा है। चमार और ठाकर आदिवासी उच्च जातियों के ऊंच-नीच पूर्ण व्यवहार को झेलते हैं और बदले में महारों के साथ छुआछूत का व्यवहार करते हैं। उत्तर भारत की दलित जातियों में भी एक-दूसरे के प्रति छुआछूत बरतने का व्यवहार देखने को मिलता है।

दलित जातियों के भीतर एक-दूसरे के प्रति मौजूद छुआछूत की भावना को रेखांकित करते हुए दया पवार ने लिखा है-“चमार लोग हमारे कुंए का पानी कभी न पीते। वे महार के पानी से छुआछूत मानते। चमार परिवारों की औरतें मराठों के कुंओं पर घंटों एक घड़ा पानी के लिए भीख मांगती बैठी रहतीं। मन में बड़ी उथल-पुथल मचती।” वह आगे चलकर लिखता है-“ वैसे ठाकर थे आदिवासी ही। स्वयं को महादेव का वंशज समझते। हमसे छुआछूत मानते। पानी तक ऊपर से पिलाते।” ठाकरों के व्यवहार में जातीयता आई कहां से? इस तरह के और भी कई उदाहरण देखने को मिलते हैं। मसलन मराठों द्वारा अपमानित होने वाला नाई भी महार लड़कों से छुआछूत और उनके बाल काटने से इंकार करता है।

ब्राह्मणवाद दलितों में आपसी विभाजन और फूट पैदा करके ही हजारों सालों से उनका शोषण करता और फलता-फूलता आया है। यह दलितों की विडम्बना ही है कि जिस ब्राह्मणवाद का मुकाबला उन्हें एकजुट होकर करना चाहिए वह उनके भीतर भी समा गया है। दलित जातियां इसी ब्राह्मणवाद का शिकार होकर अपने जातीय-बंधुओं से घृणा करते हैं। जाति व्यवस्था से अभिशप्त महारवाड़ा की आन्तरिक रचना की यह कटु सच्चाई है। यह आज के दलित संघर्ष का एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु है। इस सच्चाई से आंखें नहीं मूंदी जा सकती हैं।

जाति व्यवस्था और गरीबी की मार से अभिशप्त महारवाड़ा से बाहर निकलने के लिए दगड़ू मारुति पंवार को एक ही रास्ता दिखता है-शिक्षा का रास्ता। वह बार-बार शिक्षा को मुक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में देखता है। डा.अम्बेडकर ने भी जीवन भर शिक्षा पर बार-बार जोर दिया था। मगर भारतीय शिक्षा व्यवस्था भी जाति के राक्षस से अभिशप्त है। स्कूल-कालेज व्यवस्था और शिक्षक भी इसके शिकार हैं। जाति-व्यवस्था ने दलितों को शिक्षा-ज्ञान का अधिकार कभी नहीं दिया। उत्पादन व आर्थिक संसाधनों पर अधिकार के साथ-साथ ज्ञान की व्यवस्था पर भी उच्च-जातियों का ही कब्जा बना रहा है। शिक्षा प्रगति और उन्नति का मार्ग है। इसलिए उच्च-जातियों ने निम्न जातियों को शिक्षा के अधिकार से लगातार वंचित किया। यदि कभी किसी दलित ने शिक्षित होने की कोशिश की तो उसके इस प्रयास को परंपरागत मूल्यों और समाज व्यवस्था पर प्रहार माना गया। शंबूक वध, एकलव्य आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं। आजाद भारत में शिक्षा का दरवाजा प्रत्येक भारतवासी के लिए खुलने के बावजूद उस पर उच्च जातियों का ही कब्ज बना रहा। उन्होंने दलितों के शिक्षित होने के मार्ग में तमाम तरह के अवरोध पैदा किए और उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने की साजिशें कीं। आज भी स्थिति में कुछ खास बदलाव देखने को नहीं मिलता है।

‘अछूत’ का दगड़ू पवार गांव और तालुके स्तर पर शिक्षा व्यवस्था में निहित जातीय विषमता के दंशों को लगातार झेलता है। इस बारे में दया पवार ने लिखा है-“ब्राह्मण मास्टर कक्षा में हमारा छुआछूत मानते हैं, यह महसूस न होता। परन्तु घर पर मास्टर बहुत ही अलग तरह का व्यवहार करते।..... स्कूल के मास्टर और घर के मास्टर में बहुत अंतर दिखाई पड़ता। ऐसा लगता कि घर आकर उन्होंने खूंटी पर टंगी अपनी जाति का जनेऊ फिर से चढ़ा लिया हो।”

ऐसे शिक्षक न तो प्रगतिवादी मूल्यों के पोषक हैं और न वे महारवाड़ा के लिए प्रेरणा स्रोत हो सकते हैं। मगर महारवाड़ा की यह विडम्बना ही है कि अधिकतर शिक्षक इसी तरह के हैं। ये लोग कदम-कदम पर दलित विद्यार्थियों को हतोत्साहित करते हैं और उनका महीन रूप में शोषण करते हैं। कुल मिलाकर इन तथाकथित ऊंची जातियों के शिक्षकों का चरित्र सड़े-गले मूल्यों वाली व्यवस्था के पोषक और पैरोकार की ही बनती है। दलित विद्यार्थियों के मामले में ये ठेठ जातिवादी ही हैं।

स्कूलों और छात्रावासों में दलित छात्रों के प्रति ऊंची जातियों के छात्रा छुआछूत का बर्ताव करते हैं। स्कूलों का पूरा माहौल उन्हें प्रोत्साहित करने की बजाए लगातार अपमानित करता हैं। शिक्षा का ब्राह्मणदी, सामंतवादी मूल्यों का पोषक और जीवन से हटा पाठयक्रम और उसकी भाषा उनके लिए दुरूह साबित होते हैं। दलित माता-पिता भी इस व्यवस्था के शिकार हैं दलितों में शिक्षा की परंपरा और उसके प्रति सम्मान की भावना न होने के कारण वे अपने बच्चों की मदद कर पाने में असमर्थ रहते हैं। कुल मिलाकर शिक्षा का समूचा चरित्र दलित विद्यार्थियों की मदद करने की बजाए उन्हें हतोत्साहित ही करता है। अपने समग्र रूप में दलित विरोधी शिक्षा व्यवस्था दलितों को अशिक्षितों की भीड़ की तरफ धकेलती है। अशिक्षित रहकर वे आर्थिक और सामाजिक तरक्की से भी वंचित रह जाते हैं। ‘अछूत’ का दगड़ू मारुति पवार इसी शिक्षा व्यवस्था में लगातार संघर्ष करता हुआ महारवाड़ा से बाहर निकलने का प्रयास करता है। मगर यह शिक्षा व्यवस्था सकारात्मक रूप में उसके व्यक्तित्व को बहुत ही कम प्रभावित कर पाती है।

इस शिक्षा व्यवस्था का एक और नकारात्मक पहलू है- शिक्षार्थी को उसके समाज से काट देना। वैसे इस शिक्षा व्यवस्था की पूरी कोशिश यही रहती है कि दलित शिक्षित न हो पाए। अगर कोई शिक्षित हो भी जाता है तो यह उसे उसके समाज से काट देती है। दगड़ू मारुति पंवार भी अपने व्यक्तित्व में इसी तरह की फांक देखता है-“जैसे-जैसे मुझमें समझ आती गई, मैं अकेला होता गया।¸ और आगे वह लिखता है- गांव में रहते हुए भी मैं बचपन से गांव से कटा-सा रहता¸ ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था की घटिया संरचना में भी उसे मुक्ति की आशा दिखाई पड़ती है। स्कूल पहुंचने पर मेरा मन दूर आकाश में किसी पक्षी के पहाड़ की चोटी पर उड़ान भरने-सा रोमांचित हो उठता। मुक्ति का आनन्द मिलता। तालुके के सही स्कूल में मुझे अपने सही व्यक्तित्व की पहचान हुई। मुझमें कोई कमी नहीं। गांव के कांजी हाउस से बाहर निकलना ही चाहिए। उसके लिए पढ़ना जरूरी है।”

गांव के कांजी हाउस से बाहर निकलने के लिए पढ़ना जरूरी है। मगर यह पढ़ाई-लिखाई एक तो उसे महारवाड़ा से काट देती है दूसरे उसे कदम-कदम पर आतंकित करती रहती है। दगड़ू शिक्षा में मुक्ति देखता है मगर यह मुक्ति व्यक्तिगत मुक्ति है। अपने समाज से काट देना इस शिक्षा व्यवस्था की अंतिम परिणति है। फाइनल का रिजल्ट आने के बाद वह लिखता है-“फाइनल के बाद यदि थोड़ी भी कोशिश करता तो बड़ी सहजता से मास्टर बन सकता था परन्तु सारी उम्र देहात में खपने की इच्छा न थी। और देहात- वह था मात्रा बिच्छू डंकों का अंबार। जिन्दगी भर मनस्ताप होता।” अलगाववादी शिक्षा व्यवस्था अंतत: दगड़ू मारुति पवार में व्यक्तिगत मुक्ति की चाह जगाकर उसे महारवाड़ा से काट देती है। इस तरह व्यक्तिगत मुक्ति की चाह में महारवाड़ों, चमारवाड़ों और दलितवाड़ों में मौजूद दगड़ू मारुति पवारों की संख्या लाखों में है जो लौटकर महारवाड़ा की मुक्ति के लिए कुछ नहीं करते।

लेकिन महावाड़े से कटने वाले सिर्फ़ पढ़े-लिखे लोग ही नहीं हैं,अनपढ़ भी हैं।गांव की व्यवस्था उन्हें कोई रोजगार और सम्मान नहीं देती उल्टे उनसे बेगार लेकर उनका शोषण करती है, उन्हें गरीब से गरीब बनाती है। बेगार, जातिगत प्रवंचना और से मुक्ति की तलाश में लोग हजारों की तदात में शहरों की तरफ पलायन करते हैं-“येसकर पारी गई, बलुत गया बित्ता भर जमीन हडिडयां पोसने के काम आती थी, वह भी नाम मात्रा पैसों के लिए जमींदारों के पास गिरवी है। इस कारण उजड़ा पड़ा है। पेट का गडढ़ा भरने के लिए सब शहर भाग रहे हैं।”

१९७९ में पहली बार मराठी में प्रकाशित अछूत में दया पवार ने लिखा है-

“मैंने बचपन में जो महारवाड़ा देखा था, वह अब उजड़ गया है। परन्तु बचपन में वहां के देखे चित्रा मैं कैसे पोंछ सकता हूं। वे सतत् मेरी आंखों के आगे घूमते हैं।”

मगर इसके बावजूद महारवाड़ा नहीं उजड़ता। वह जस का तस बना रहता है। उसमें कुछ परिवर्तन बाहर से दिखाई पड़ते हैं मगर भीतर से वह जस का तस बना रहता है। उसका बलुत, उसकी येसकर पारी, उसके तीज-त्योहार, उसके मूल्य-मान्यताएं थोड़े बहुत बदलाव के साथ बने रहते हैं क्योंकि गांव बना रहता है। जाति व्यवस्था बनी रहती है, उच्च-जाति के लोगों का वर्चस्व बना रहता है।

इतने विस्थापनों और पलायनों के बावजूद महारवाड़ा शांत नहीं रहता है। दगड़ू मारुति पवार भले ही कावाखाना आकर बस जाते हैं मगर डॉक्टर अम्बेडकर के संघर्ष की गूजें वहां तक पहुंचती हैं। दलित आंदोलन की शिरकत और सक्रियता का असर वहां दिखाई पड़ने लगता है। परिवर्तन की लहर महारवाड़ा में उठने लगती है। मगर ऐसा नहीं है कि दलित आंदोलन से पहले महारवाड़ा में विद्रोर और संघर्ष दिखाई नहीं पड़ता। हजारों सालों से महारवाड़ा जातिव्यवस्था का विरोध अपने ही तरीके से करता आया है। मगर यह विरोध बड़े ही धीमे और स्वत: स्फूर्त ढंग से आगे बढ़ाता आया है। इस संघर्ष का एक रूप महारकी और बलुत के विषय में विकसित दंत कथाओं में देखने को मिलता है। इन गाथाओं में महारों का मेहनती और ईमानदार स्वभाव अपनी पराकाष्ठा में अभिव्यक्त हुआ है। मसलन् बादशाह की रूपवती कन्या को जंगल के रास्ते उसकी मंजिल पर पहुंचाने से पहले अपना लिंग काटकर बादशाह के पास रखकर जाने वाले महार नवयुवक की दंत कथा। बादशाह के बुर्ज को खड़ा करने के लिए अपने बहू-बेटे की बलि देने वाले येसाजी नायक की गौरव गाथा। बदले में महारों को मिलता है- महारकी के ५२ अधिकारों का तोहफा। दलितों को अपमानित करने के लिए महारों पर थोपी गई महारकी और बलुत की व्यवस्था को उन्होंने अपने अधिकार की व्यवस्था में बदल डाला। दलित जीवन में निरंतर घटित होने वाली अवमानना और शोषण से उत्पन्न निराशा और अवसाद से बचने और उसे गौरवपूर्ण रूप देने के लिहाज से ही शायद महारों ने इन दंत कथाओं को विकसित किया होगा।

इन दंत कथाओं के अलावा कुछ और भी ऐसी बातें हैं जिन्हें दलितों ने मौखिक तौर पर लगातार आगे बढ़ाया। इन बातों में दलितों के इतिहास की कड़िया छुपी हैं। इन बातों में दलितों के गौरवपूर्ण इतिहास दर्शन होते हैं। मसलन झुनझुने की लाठी का इतिहास। दया पवार ने लिखा है-

“रोटी मांगने अक्सर स्त्रियां जातीं। जिस घर में स्त्रियां न होती, उस घर से कोई बूढ़ा व्यक्ति झोली लेकर जाता। जाते समय वह झुनझुने की लकड़ी ले जाना न भूलता। इस लकड़ी की भी महारों में एक परंपरा है। कोई कहता इस लकड़ी में पहले झंडा भी होता था। हम राज्यकर्त्ता थे। युद्ध में हार गए”

उच्च जातीय शासकों और ब्राह्मणदी व्यवस्था के पैरोकारों ने उनके झंडे और हथियार छीनकर उन्हें गुलामी की निशानी के रूप में लाठी थमा दी। पता नहीं इन बातों में कितनी वास्तविकता है। मगर महारों ने अपने जीवन में कुछ ऐसी बातों को मौखिक तौर पर बनाए रखा जिसमें उनके विद्रोह की भावना दिखाई पड़ती है। वैसे अगर दलित शोद्यार्थी अगर मेहनत करें तो इन अनगिनत कड़ियों को जोड़कर दलितों के इतिहास की रचना की जा सकती है।

तरह-तरह की दंत कथाओं के विकास और ऐतिहासिक स्मृतियों को जीवित रखने के अलावा दलित-महार अपनी वर्तमान जीवन परिस्थितियों में कुछ यथार्थपूर्ण संघर्षों को अंजाम देते हैं। ब्राह्मणदी मंदिरों और कुओं पर बरती जाने वाली छुआछूत के चलते महारों ने अपने ही ढंग की उपासना पद्धति और कुओं का निर्माण किया। उन्होंने देवी-देवताओं और पीरों की समाधियां बनाकर उनकी पूजा आरंभ कर दी। हालांकि ‘अछूत’ का लेखक सामान्य प्रवृत्ति से थोड़ा आगे बढ़कर इस तरह के पूजा पाठ का भी विरोध करता दिखाई पड़ता है। महारों ने ब्राह्मणदी मानसिकता से ग्रसित और छुआछूत की भावना से अभिशप्त तीज-त्यौहारों के विरोध स्वरूप अपने ही तरह के तीज-त्योहारों को विकसित किया है। उन्होंने अपने ही तरह के खेल-कूद और आमोद-प्रमोद के तरीके बनाए हैं। इसके अलावा वे बलुत और मजदूरी के लिए संघर्ष करते हैं। ऊंची जाति के लोगों द्वारा कुएं के साथ लगे रास्ते को अस्पृश्यता के डर से महारों के लिए बंद कर दिए जाने पर पूरा महारवाड़ा इसके खिलाफ संघर्ष करता है। बेहतर रोजगार अवसरों की तलाश में गांव से पलायन भी उनके संघर्ष का ही एक रूप है। महारवाड़ा में अपने मानवीय सम्मान को बनाए रखने और बेहतर सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के लिए वे समय-समय पर संघर्ष करते हैं। मगर ये संघर्ष ज्यादातर स्वत: स्फूर्त किस्म के होते हैं जो धीरे-धीरे सांगठनिक रूप लेते जाते हैं। महारवाड़ा का लक्ष्मण और दादा साहब गायकवाड़ का आंदोलन सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर महारों के संघर्ष को ठोस रूप देता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘अछूत’ में ‘महारवाड़ा’ दलित जीवन का एक व्यापक चित्रा प्रस्तुत करता है। महारों के जीवन की विडम्बनाएं और उनके संघर्षों का एक समग्र रूप ‘अछूत’ में देखने को मिलता है। इस महारवाड़ा में दलित जीवन की दरिद्रता और अस्पृश्यता के अभिशाप की तमाम परतें दिखाई पड़ती हैं। इस महारवाड़ा का अपना इतिहास है, अपनी परंपराएं हैं। इसकी अपनी निराशाएं, कुंठाएं और अवसाद हैं तो उनसे बचे रहने के लिए गढ़ी गई महार गाथाएं भी हैं। इसमें एक तरफ महारकी है, बलुत है, येसकर पारी है तो दूसरी तरफ इनके खिलाफ उठता संघर्ष भी है जो शिक्षा और संघर्ष के प्रकाश से उदित हो रहा है। इसमें अभिशप्त, थकी और बोझिल छायाएं हैं तो दूसरी तरफ मुक्तिकामी अदम्य, दृढ़निश्चयी आंखें और बाजू भी हैं।

4

“गांव के काम बंद हो गए थे। इस कारण बलुत बंद। गांव में मजदूरी भी न मिलती। ग्राम व्यवस्था की उठा-पटक में उत्पादन-साधनों का कोई हिस्सा न था। रोटी पानी के लिए सब बम्बई में खो गए।”

गांव का अभिशप्त माहौल और रोजगार के अवसरों का अभाव महारों को बम्बई जैसे शहरों की ओर धकेलता है। मगर जैसे गांव की संरचना में महारवाड़ा उनके हिस्से में आता है ठीक वैसे ही बम्बई में उनके हिस्से में आता है-कावाखाना! ‘कावाखाना’-यानी गरीब और निम्न जातीय ग्रामवासियों का शहर में रहने का ठिकाना। शहर की आधुनिक जीवन शैली, चकाचौंध और आर्थिक सम्पन्नताओं से उपेक्षित एक बदनाम बस्ती। कावाखाना बम्बई का निचले स्तर का आधुनिक महारवाड़ा ही है। कावाखाना बम्बई शहर का अपने ही ढंग का महारवाड़ा है। महाराष्ट्र के अनगिनत महारवाड़ों का बम्बई शहर में मुक्ति की तलाश में आया और कावाखाना में बसने वाला हिस्सा। मगर महारवाड़े की त्रासदी यहां थी उसका पीछा नहीं छोड़ती बल्कि कावाखाने में वह नया रूप ले लेती है- शोषण और वंचना के नए तरीकों के साथ।

कावाखाना महारवाड़ा से विस्थापित महारों के सामने नई समस्याएं उत्पन्न करता है। जिन समस्याओं से मुक्ति की तलाश में महारवाड़ा शहर आता है वह नए सिरे से दूसरी समस्यों से कावाखाने में रूबरू होता है। रोजगार का अभाव, बदहाली, आवासीय सुविधाओं का अभाव ऐसी ही कुछ समस्याएं हैं जिन्हें महारवाड़ा कावाखाने में निरंतर झेलता है। कावाखाने में महारों की त्रासद जीवन परिस्थितियों के बारे में लेखक लिखता है-

“महार लोगों के मकानों की व्यवस्था बड़ी घटिया थी। एक-एक दड़बे में दो-तीन उप किराएदार। बीच में लकड़ी की पेटियों का पार्टीशन। लकड़ी के इन्हीं संदूकों में उनका सारा संसार। पुरुष हमाली करते। किसी मिल या कारखाने में जाते। औरतें भी खूब खटतीं।”

‘महार लोगों के मकानों की व्यवस्था बड़ी घटिया थी’- इस वाक्य के ‘घटिया’ शब्द में कावाखाने में रहने वाले महारों की पूरी ‘जीवन परिस्थिति’ के हालात का यथार्थ छिपा हुआ है। महारवाड़ा में महारों की स्थिति जैसी थी लगभग वैसी ही स्थिति कावाखाने में है। कावाखाने में भी उनके हिस्से बदहाली पूर्ण जीवन और निम्न स्तर के काम ही आते हैं। कावाखाने में भी वे बदहाल और वंचित जीवन जीने को अभिशप्त रहते हैं। बम्बई शहर आर्थिक सम्पन्नता की ऊंचाईयां छूते हुए उन्हें उपेक्षित ही रखता है।

महारवाड़े की जातीय प्रवंचना से बचने और रोजगार की तलाश में दगड़ू मारुति पवार के पिता बम्बई शहर में आते हैं। उन्हें गोदी में हमाली का काम मिलता है और कावाखाने में सिर छिपाने की जगह। लेखक लिखता है-“शुरू-शुरू में अकेले पिताजी ही गोदी में काम करते थे। बाद में उन्होंने एक-एक करके सबको गोदी में चिपका दिया।” धीरे-धीरे उसके परिवार के अन्य सदस्य भी कावाखाने में घुसते जाते हैं। फिर लेखक और उसकी मां को भी वहां बुला लिया जाता है-“कावाखाने में हमारे रिश्तेदारों का एक छोटा द्वीप ही था। बारिश में ज्यों आदमी अपना कोट समेट लेता है। ठीक उसी तरह ये सारे रिश्तेदार एक दूसरे के साथ रहते। उनका प्रेम और द्वेष साथ-साथ चलते।”

कावाखाने में महारकी नहीं हैं, न येसकर पारी और न बलुत। यहां हमाली है और मजदूरी है- नगद। गोदी है, गोदी की तपती भटटी है और मेहनताना है। मगर यह मजदूरी और मेहनताना इतना नहीं है कि महारों को उनकी गरीबी और बदहाली से मुक्ति दिला दे उन्हें आर्थिक रूप से सम्पन्न बना दे। घर चलाने के लिए घर की औरतों को भी तरह-तरह से खटना पड़ता है। साथ ही, नौकरी छूट जाने और आर्थिक तंगी की तलवार उनके सिर पर लटकती रहती है। नौकरी छूट जाने पर फिर उसी महारवाड़ा में अभिशप्त होने वापस लौट जाते हैं जहां से मुक्ति की तलाश में भागकर आए थे। यह आना-जाना महारवाड़ा से पूर्ण संबंध विच्छेद होने या मृत्यु होने तक चलता रहता है।

कावाखाने में गांव जैसी साफ तौर पर दिखने वाली छुआछूत नहीं है मगर एक अदृश्य किस्म का सामाजिक भेदभाव है जो आर्थिक तौर पर काफी स्पष्ट दिखता है। अमीर और सुविधासंपन्न बम्बई, गरीब और सुविधाहीन कावाखाना। कारखाना और दफ्तर मालिक बम्बई, हमाल और मजदूर कावाखाना। कावाखाना बम्बई शहर को अपना श्रम बेचता है और अपनी गुजर-बसर करता है। मगर महारवाड़ा की तरह कावाखाना में भी आगे बढ़ने की इच्छा है और सम्पन्न होने की चाहत। इसे पूरा करने के लिए सीधे तरीकों के अलावा चोरी, जेब तराशी जैसे उल्टे तरीके भी अपनाए जाते हैं। कावाखाना में महारों की आर्थिक स्थिति में तो थोड़ा बहुत बदलाव दिखता है मगर सांस्कृतिक परिवेश और पारिवारिक संबंध ज्यों के त्यों बने रहते हैं- खास तौर से औरतों और बच्चों के मामले में। कावाखाने के महार पुरुष शराब और रंडीबाजी जैसी पैसा लुटाने वाली लतों के शिकार होकर अपनी बदहाल जिन्दगी को और बदतर बनाते हैं।

‘कावाखाना’ दगड़ू मारुति पवार को महारवाड़े की तरह अभिशप्त रखता है। लेकिन बम्बई शहर उसे लगातार आकर्षित करता है। बम्बई उसे ‘मुक्ति का शहर’ लगता है। उसके बचपन का कुछ हिस्सा कावाखाने में गुजरता है और युवा होने तक वहां के चक्कर लगाता रहता है। युवा होने पर महारवाड़ा छोड़कर वह यहीं बस जाता है। अपनी शिक्षा पूरी करके वह रोजगार की तलाश में बम्बई आता है। और कावाखाने में अपने रिश्तेदारों के द्वीप में उसके लिए जगह बन जाती है। मगर नौकरी उसे इतनी आसानी से नहीं मिलती-“बम्बई में कदम रखते ही नौकरी मिलना संभव न था...... रोजगार दफ्तर की सीढ़ियां-चढ़ता उतरता था। निराश मन लिए घर आता था। शैडयूल्ड कास्ट की अलग लिस्ट होती। आज सी गंभीर परिस्थिति उन दिनों नहीं थी। काल भी आती परन्तु इंटरव्यू में मैं साफ उड़ जाता।”

रोजगारहीनता युवाओं में कुंठाएं पैदा करती है, उन्हें कदम-कदम पर हतोत्साहित करती है। पढ़ने-लिखने के बाद पढ़ने-लिखने वाली नौकरी मिलनी चाहिए। यह चाहत शिक्षित दगड़ू मारुति पवार को मजदूरी भी न करने देती। वह मां की मजदूरी पर पलता है और शर्मशार होता रहता है। इसी बीच मां और रिश्तेदारों के जोर देने पर सई से उसका विवाह होता है। उसका हनीमून एक दु:स्वप्न की तरह गुजरता है। मां और बीबी के झगड़े उसके उत्साह को तोड़ते हैं। अंत में उसे नौकरी मिल जाती है- बीमार जानवरों के गोबर की जांच और जानवरों की चीड़-फाड़ करने वाले विभाग में। यह नौकरी उसके महार होने की वजह से उसे मिलती है। नौकरी पाकर उसे खुशी कम कोफ्त ज्यादा होती है। अपने आक्रोश को स्वर देता हुआ लेखक लिखता है-“विचारों के तनाव से सिर फटने को होता। लगता, साला इतना पढ़-लिख गए, फिर भी बापजादों का धंधा ही अपने हिस्से क्यों आया।” जाति की मानसिकता से ग्रस्त भारतीय समाज की यह विडम्बना ही है कि जिन गंदे कामों से मुक्ति के लिए दलित शिक्षित होता है, शिक्षित होकर भी वही काम उसके हिस्से आते हैं।

लेकिन इसे दगड़ू मारुति पवार के चरित्रा की खूबी की कही जाएगी कि वह लगातार इस व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह और आक्रोश प्रकट करता है और आगे बढ़ने के रास्ते खोजता रहता है। यहां भी आगे बढ़ने का एकमात्रा रास्ता उसे शिक्षा ही लगती है। वह रूपारेल कालेज जाने लगता है। नौकरी और कालेज में किसी तरह संतुलन बनाए रखकर वह बी.ए. करता है। अंतत: उसे एक मनमुताबिक सरकारी नौकरी मिल जाती है। तनावों और अन्तरद्वंद्वों से किसी हद तक मुक्ति मिल जाती है।

उम्र के चालीसवें पड़ाव पर उसे एक सुखी जीवन जीने का अहसास होता है। वह एक प्रसिद्ध दलित साहित्यकार और आफिसर के रूप में स्थापित होता है यहां आकर वह लिखता है

“मैंने एक सुखी आदमी की शर्ट पहन रखी है। सात-आठ सौ की सरकारी नौकरी है। माई-बाप सरकार ने, किराए का ही सही, सबर्ब में मकान दिया है। पत्नी पढ़ी लिखी है। दो लड़कियां पढ़ रही हैं। अपना नाम चलाने के लिए पांच-छह साल का लड़का हाथों-कंधों पर फुदक रहा है। बड़ी लड़की की शादी हो गई। पिछले साल ही उसे लड़का भी हो गया है। यानी मैं उम्र के चालीसे में ही नाना बन गया। कुल मिलाकर बेल ऊपर चढ़ती हुई फल-फूल रही है।”

5 यूं तो ‘अछूत’ दगड़ू मारुति पवार के चालीस साल की संघर्ष गाथा है और इसका केन्द्रीयय पात्रा भी वह खुद ही है। महार ‘अछूत’ से गुजरने के बाद लगता है कि अछूत का केन्द्रीयय पात्रा दगड़ू मारुति पवार नहीं है बल्कि ‘महारवाड़ा’ और ‘खावाखाना’ हैं। लगता है कि जैसे अछूत ‘महारवाड़ा’ और ‘खावाखाना’ की ही अभिशप्त गाथा। इन दोनों के इर्द-गिर्द सैकड़ों ऐसे पात्रा और उनकी त्रासद जीवन परिस्थितियां हैं जो कहीं न कहीं जाकर इनके व्यापक रूप का ही प्रतीक मात्रा हैं।

महारवाड़ा और कावाखाना के बीच पिसते, घुटते और सिसकते सैकड़ों ऐसे चरित्रा हैं जो इन्हीं के बीच उभरते हैं और इन्हीं की सीमाओं के भीतर समाप्त हो जाते हैं। ‘अछूत’ का एक छोर महारवाड़ा है तो दूसरा कावाखाना। इन दोनों के बीच केन्द्रीय चरित्रा दगड़ू मारुति पवार है और उसके इर्द-गिर्द सैकड़ों अभिशप्त चरित्रा हैं। महारवाड़ा और कावाखाना ग्रामीण और शहरी त्रासद दलित जीवन का समूचा चित्रा बनाते हैं। इस चित्र में दगड़ू मारुति पवार की संघर्ष गाथा तो है ही उसके अलावा सैकड़ों ऐसी गाथाएं हैं जिनका आधार महारवाड़ा और कावाखाना के सैकड़ों छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे दलित पात्र हैं।

दगड़ू मारुति पवार के जीवन में बहुत-सी स्त्रियां आती हैं। कुछ उसके जीवन से सीधे जुड़ी हैं। कुछ से उम्दा पारिवारिक संबंध है। कुछ ऐसी स्त्रियां भी हैं जो न उसके जीवन से सीधे जुड़ी हैं और न उनके साथ उनके पारिवारिक संबंध हैं। वह उसकी गाथा की सतहों पर समय-समय पर दिखाई पड़ती हैं और लुप्त हो जाती हैं। लेकिन ये सारी की सारी स्त्रियां उसकी जीवन गाथा के परिवेश में जूझती, हताश होती और शोषित होती दिखाई पड़ती हैं। ये स्त्रियां दोहरे अभिशाप से पीड़ित हैं। वह स्त्री होने के कारण घर के भीतर शोषित होती हैं और एक अछूत स्त्री होने के कारण बाहर भी उत्पीड़ित होती हैं। अछूत में जो स्त्रियां हमें घूमती दिखाई पड़ती हैं उनका व्यक्तित्व आधा-अधूरा ही है। वह अपने समूचे चरित्रा के रूप में हमारे सामने नहीं आती हैं। यही उनकी त्रासदी है, यही उनकी विडंबना है।

महारवाड़ा में अछूतपन की सीधा शिकार दलित, स्त्रियां ही हैं। अस्पृश्यता और ऊंच-नीच की जातीय मानसिकता का सबसे ज्यादा शिकार वहीं होती हैं। यह जानकर पुरुष की दलित चिंतकों को धक्का लगेगा कि बलुत और जूठन की जिस परंपरा के अभिशाप के बारे में वे बढ़-चढ़ कर अपनी आत्मकथाओं में लिखते आए हैं, उस अभिशाप का पहला शिकार दरअसल दलित समाज की स्त्रियां ही होती हैं। बलुत और जूठन मांगने जैसे नीच काम को उन्हें ही करना पड़ता है। वह अपने पतियों और परिवार के सदस्यों द्वारा तो सताई जाती ही हैं बल्कि उनकी निचली जाति और गरीबी का फायदा उठाकर ऊंची जाति के पुरुष भी उनका दैहिक शोषण करते हैं।

स्त्रियों को दोहरे शोषण की मार जीवन भर झेलनी पड़ती है। मुक्ति का शहर लगने वाले बम्बई शहर के कावाखाने में भी अछूत स्त्रियों की ही दुर्दशा ज्यादा होती है। उन्हें कहीं मुक्ति नहीं मिलती, न महारवाड़ा में और न कावाखाने में। कावाखाने में आकर भी दलित स्त्रियों को दलित पुरुषों की पुरुषवादी मानसिकता का शिकार होना पड़ता है। कावाखाने में आकर उन्हें जूठन और बलुत मांगने जैसी नीच काम नहीं करना पड़ता मगर उनका शोषण कम नहीं होता। घर में खटने के बाद दलित स्त्रियों को पतियों की बुरी लतों के कारण उत्पन्न आर्थिक अभावों के कारण घर चलाने के लिए छोटे-मोटे धंधे भी करने पड़ते हैं। लेखक लिखता है-“औरतें भी खूब खटतीं। सड़कों पर पड़ी चिंदियां, कागज, कांच के टुकड़े, लोहा, लंगर, बोतलें बीनकर लाना, उन्हें कांट-छांट की अलग करना और सुबह बाजार में ले जाकर बेचना यही उनका धंधा था। कुछ औरतें पास के वेश्यालयों में वेश्याओं की साड़ियां धोती।” फिर भी उनकी कमाई पर उनका हक नहीं होता। वह अपनी कमाई खुद पर खर्च नहीं कर सकती बल्कि घर गृहस्थी में ही यह खर्च होती है। जबकि आदमी अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा शराब और रंडीबाजी जैसी अपनी बुरी लतों में खर्च करता है।

महारों-दलितों में किसी शक के बिना पर, बच्चा न पैदा होने की स्थिति में, या फिर अकारण ही अपनी औरतों को छोड़ देने की परंपरा घर कर गई है। यह उनकी पुरुषवादी सोच का ही नतीजा हैं। महारवाड़ा अगर उनसे बेगार करवाता है तो वह अपनी स्त्री को भी अपने बंधुआ मजदूर के रूप में ही इस्तेमाल करते हैं। जब तक चाहते हैं उसका हर संभव शोषण करते हैं और जब चाहे छोड़ देते हैं। अछूत में ऐसी हुई परित्यकता स्त्रियां हैं जो अपने पतियों द्वारा बदहाल और लाचार स्थिति में छोड़ दी जाती हैं। उनमें से कइयों को वेश्यालय में ठिकाना मिलता है जहां वे प्रतिदिन अपने जमीर और जिस्म का सौदा करती हैं और तिल-तिल मरने को अभिशप्त रहती हैं। सारी अच्छी बुरी दलित मूल्य-मान्यताओं और लोकाचारों का दुष्परिणाम भी उन्हीं को झेलना पड़ता है। दलित पुरुष हर कदम पर और हर रूप में उनका शोषण करते दिखाई पड़ते हैं।

महारवाड़ा में दगड़ू मारुति पवार की परित्यक्ता चाची की दुर्दशा उसके बालमन पर अभिट छाप छोड़ जाती है। चाचा अपनी औरत को छोड़कर शहर में दूसरी शादी कर लेता है। दगड़ू का पिता घर में स्त्री होने के बावजूद वेश्यालय में जाता है और रंडीबाजी करता है। उसका चाचा खेल दिखाने वाली औरत का लंबे समय तक मुफ्त दैहिक शोषण करता है। बम्बई में उसकी जमना मौसी को वेश्यालय नसीब होता है और वह वहीं तिल-तिल जीवन जीते हुए मर जाती है। बड़ी बहन के बच्चा न होने पर सीधी-साधी गऊ को अपने ही जीजा से ब्याह दिया जाता है। वह अपनी ही बहन की सौत बनकर जीने को अभिशप्त करती है। महारवाड़ा की एक जवान औरत का पति बम्बई कमाने जाता है। उनका ससुर उससे दुष्कर्म करने की कोशिश करता है। पंचायत लगती है तो उसका पति अपनी पत्नी पक्ष लेने की बजाए उसे अपने और अपने बाप के साझे की स्त्री बनाता है। बेटे की पत्नी ससुर की रखैल बनने को मजबूर होती है। यौंन विकृति की मारी सीता को इज्जत बचाने के नाम पर बड़े ही अमानवीय ढंग से दागा जाता है।

स्त्रियों के प्रति महारवाड़ा के पुरुषों जैसा ही बर्ताव खुद दगड़ू मारुति पवार में भी देखने को मिलता है। अपनी परित्यकता चाची और सीता के प्रति अपनी सहानुभूति दर्ज करने वाला दगड़ू अपनी स्त्री सई का दूसरे मर्द के साथ संबंध होने के शक करता है और उसे छोड़कर दूसरा विवाह कर लेता है। यह दया पंवार की लेखकीय और व्यक्तिगत ईमानदारी ही कही जाएगी कि उन्होंने ‘अछूत’ के तमाम स्त्री पात्रों की त्रासद जीवन परिस्थितियों को पूरे यथार्थपूर्ण ढंग से अपनी आत्मकथा में रखा है।

दगड़ू मारुति पवार की मां सखू का समूचा जीवन एक दलित स्त्री की त्रासद गाथा है। बचपन में शादी हो जाती है। पति शराबी और रंडीबाज निकलता है। वह रो-धोकर अपने पति के साथ अपने जीवन का एक हिस्सा गुजारती है और पति के मर जाने के बाद बाकी जीवन अपने बेटे के साथ। उसे कदम-कदम पर परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। पति के मर जाने पर पेट में गर्भ ठहर जाने पर उसका खुद का बेटा उस पर शक करता है। वह किसी तरह उसे विश्वास दिलाती है। लेकिन धीरे-धीरे उसका संघर्षशील व्यक्तित्व उजागर होता है जो एक दलित स्त्री की महानता और साहसिक उच्चता का ही पर्याय है। डा. अम्बेडकर का संदेश किसी रूप में उनके कानों तक पहुंचता है-“महारन के मन में अपने बेटे के लिए कौन से सपने होते हैं। यही कि वह चपरासी हो या सिपाही। पर ब्राह्मणी की इच्छा होती है उसका बेटा कलक्टर बने। ऐसी इच्छाएं महार की मां को क्यों नहीं होती।” शायद इसी भाषण का अनजाने में उस पर असर हो गया होगा इसीलिए अपने बेटे को पढ़ाने के लिए वह हर कष्ट उठाने को तैयार हो जाती है। गांव में मेहनत-मजदूरी करके घर चलती है। छात्रावास की नौकरी करके दिन रात खुद को भटटी में तपाती है। अपनी मां के पुरुषार्थ के बारे में लेखक लिखता है –“मां ने मर्दों-सी कमर कस ली। जिंदगी भर तूफानी कष्ट उठाए। उनके सामर्थ से मैं चकाचौंध हो गया।” कावाखाने में बेटे के साथ आकर भी वह छोटे-मोटे धंधे करती रहती है। अंत में महारवाड़ा में आकर उनकी जीवन लीला समाप्त हो जाती है। जिस मुक्ति के लिए दगड़ू निरंतर बेचैन और संघर्षशील रहता है वह मुक्ति उसकी मां के संघर्ष के बिना संभव नहीं हो सकती थी।

‘महारवाड़ा’ अछूत के नायक दगड़ू मारुति पवार को जीवन पय±त अभिशप्त रखता हैं। वह निरंतर महारवाड़ा के अभिशाप से ग्रस्त मुक्ति की तलाशता में छटपटाता है मगर कावाखाना में आने के बाद उसे नौकरी मिल जाती हैं। अंत में उसे सरकारी नौकरी भी मिल जाती है। इस प्रकार जिस मुक्ति के लिए वह निरंतर छटपटाता है, वह उसे किसी हद तक मिल भी जाती हैं। उम्र के चालीसवें पड़ाव में आकर वह लगभग एक सुखी जीवन जीता है।

मगर महारवाड़ा और कावारखाना के बीच सैकड़ों ऐसे दलित पुरुष पात्र हैं जिनकी जिन्दगियों में यह सुख नसीब नहीं होता। वह महारवाड़ा और कावाखाना के अभिशप्त घेरे के बीच छटपटाते हुए जीवन गुजारते हैं और अंत में उसी में मर भी जाते हैं। महारवाड़ा के हरि का कोढ़ी बाप घृणा का कारण बनता है। उसका बेटा उनकी खूब सेवा करता है और इस सेवा का परिणाम यह होता है कि हरि को भी कोढ़ हो जाता है। अपने बाप के कोढ़ को हरि जीवन पर्यत ढोता है। यौंन विकृति का शिकार रामू ऊंची जात वालों की घोड़ियों के साथ संभोग करके अपनी बेगार और घृणा के बर्ताव का बदला लेता है और पूरे महारवाड़ा के भीतर ‘घोड़ी-चोद’ के रूप में बदनाम होता है। नौजवान शंकर किसी सनक में मंदिर की सीढ़ियों पर लात मारता है और पागल करार दे दिया जाता है। धीरे-धीरे वह पागल हो भी जाता है। लावण नामक तात्याबा शिंदे शहर के थियेटर परदे खींचकर अपना जीवन गुजारता है। जावजी बुआ और उनका लड़का बबन शराब की लत का शिकार होकर अपनी जर्जर काया के साथ अपनी जीवन लीला समाप्त करते हैं। दगड़ू के बचपन का साथी महादू जुए की लत का शिकार होकर बर्बाद हो जाता है। शराब की लत खुद दगड़ू के पिता को भी बर्बाद कर देती है। महारवाड़ा में नाटकों में अच्छा अभिनय करके प्रसिद्धि पानेवाला सदासिव घटिया दलित राजनीति का शिकार होकर अपने दु:खांत पर पहुंचता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि विविध कारणों से महारवाड़ा के महार पुरुष घनघोर दरिद्रता और पतित मानवीय विकृतियों की मार से अभिशप्त होते हैं। कुछ महारवाड़ा में ही जीते मरते हैं, कुछ भागकर कावाखाना पहुंचते हैं और उनकी जीवन लीला वहीं समाप्त होती है। कुछ बदहाली की हालत में महारवाड़ा वापस लौटते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। यूं तो ‘अछूत’ दगड़ू मारुति पवार की जीवन गाथा है मगर उसमें हमें सैकड़ों ऐसे अनेक दलित पात्रा दिखाई पड़ते हैं जो महारवाड़ा की त्रासद अमानवीय परिस्थितियों में अमानवीयता की हद तक पहुंचते हैं और मिट~टी में मिल जाते हैं। दरअसल ये सारे दलित पात्र समग्रता में एक दलित जीवन का चित्रा प्रस्तुत करते हैं जिन्हें महारवाड़ा का दंश कदम-कदम पर डसता है। उनकी निराशाएं, कुंठाएं, छटपटाहटें सबकी सब दलित जीवन की अन्तर वेदनाएं हैं जो उनके साकार रूप में हमें अछूत में दिखाई पड़ती हैं। ये सारे के सारे दलित पात्रा एक ऐसे अभिशप्त दलित जीवन को साकार करते हैं जिसमें दु:ख ही दु:ख हैं, सुख की कोई आशा नहीं है, जिसमें पतन ही पतन है, उत्थान की कोई राह नहीं है। सबके सब जाति, दरिद्रता और पतनशील सांस्कृतिक माहौल वाले महारवाड़ा में पैदा होते हैं और उसी में मर जाते हैं।

6

“जिन आंदोलनों के बीच मैं बड़ा हुआ, वहां राजनीति और समाज सेवा की रेखाएं आपस में उलझ चुकी थीं। पैदा होते ही पार्टी का कार्ड मिलता है। सोशल फोर्स ही इतना था कि आप अलग पार्टी में जाने की इच्छा रखते हुए भी उसका चुनाव न कर सकते। जिन्होंने ऐसा किया, वे बहिष्कृत हुए।”

अछूत में राजनीति के कई आयाम देखने को मिलते हैं।एक तरफ महारवाड़ा के स्वत: स्फूर्त और संगठित आंदोलन हैं तो दूसरी तरफ दलितों के नाम पर सत्ता की राजनीति करने वाली पार्टियाँ है। एक तरफ सत्ता के संस्थागत चरित्र और उसके सरोकार में बदलाव चाहने वाली राजनीति है तो दूसरी तरफ संस्थागत सत्ता के विकल्प के लिए संघर्षशील समाजवादी और साम्यवादी राजनीति है। दया पवार हिंदुस्तान के दलितों की उस पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं जो पैदा तो हुई उपनिवेशवादी भारत में और पली-बढ़ी आजाद भारत में। आजाद भारत में इस पीढ़ी ने कांग्रेस के सामंतवादी-ब्राह्मणदी और पूंजीवादी चरित्र की मार झेली और संपूर्ण मुक्ति के लिए संघर्षशील वाम राजनीति में अपनी मुक्ति की चाह देखी। मगर दलित मुक्ति के प्रश्न पर इन दोनों की असफलता और संकीर्णता ने उन्हें अपना ही आंदोलन खड़ा करने को मजबूर कर दिया। आजाद भारत में संगठित दलित राजनीति का उभार हुआ। दलित राजनीति ने देश भर के लाखों-करोड़ों दलितों को उनकी मुक्ति की इच्छा शक्ति पैदा की। मगर दलित राजनीति की यह विडम्बना ही है कि वह जिस प्रश्न को लेकर सत्ता के मैदान में उतरी थी, वह उसी सत्ता के खेल में मशगूल हो गई।

1947 में अंग्रेज हिंदुस्तान छोड़कर चले गए और हिंदुस्तान की सत्ता कांग्रेस के हाथों में आ गई। स्वतंत्राता आंदोलन के दौर में कांग्रेस का मजबूत संगठन, देश के लगभग हर तबके में उसकी पकड़ और स्वतंत्राता आंदोलन में उसकी व्यापक सक्रियता आदि ऐसी वजहें थी जिनके चलते सत्ता उसके हाथों में आ गई। मगर कांग्रेस अपने समग्र रूप में सामंतवादी, ब्राह्मणदी और पूंजीवादी शक्तियों के गठजोड़ का केन्द्र थी। 1947 के बाद भी उनका यह गठजोड़ जस का तस बना रहा। सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने देश के विकास का जो रास्ता अख्तियार किया, उससे देश के मजलूमों, गरीबों, उत्पीड़ितों और वंचितों के हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया। दया पंवार ने इस बारे में लिखा है-

“स्वतंत्रता की जलेबी चौथी कक्षा में मिली। एक चमकदार बिल्ला मिला जिसमें भारत-माता की प्रतिमा अंकित थी। बड़े गर्व से छाती पर लगाकर उसे घूमता। परन्तु स्वतंत्राता मिली अर्थात वास्तव में क्या हुआ वैसे जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन याद नहीं।”

वामपंथी राजनीति ने कांग्रेस के परंपरागत गठजोड़ का असली रूप उजागर किया। भारत की जनता में अपने व्यापक समर्थन के बावजूद वामपंथी आंदोलन कांग्रेस की सत्ता को उलट पाने में नाकाम रहा। दलित प्रश्न को लेकर वामपंथी आंदोलन की ऊहापोह और उसकी संकीर्णता ने दलितों में उनके व्यापक आधार में दरारें पैदा कर दीं। इस बारे में दया पवार ने ‘अछूत’ में लिखा है-

“उस समय के वामपंथियों को इस बात की तनिक भी जानकारी नहीं थी कि अस्पृश्यों की अपनी अलग समस्याएं हैं। जेड. पी. शक्कर के कारखाने और महाराष्ट्र की राजकीय सत्ता के हाथों में रहने के बाद भी अनजाने में इन्होंने ब्राह्मण संस्कृति की तरफदारी की.......। इनकी मानसिकता पारंपरिक ही थी। गांव का धनवान आदमी, चाहे वह समाजवादी हो या कम्युनिस्ट अस्पृश्यों की मजदूरी-समस्या की ओर पहले सा ही मगरूर होकर देखता।”

दलित प्रश्न पर कांग्रेस की असफलता और वामपंथी राजनीति की संकीर्णता के कारण एक स्वतंत्र दलित आंदोलन का उभार हुआ। डा. अम्बेडकर ने अपने अथक प्रयासों से एक सशक्त और व्यापक दलित आंदोलन को पैदा किया। डा. अम्बेडकर ने दलित समस्या को सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्तर पर ही नहीं देखा, उन्होंने इस समस्या के आर्थिक और राजनीतिक पहलू पर भी ध्यान दिया। उन्होंने जीवन भर दलितों के शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक उत्थान के बारे में सोचा और इस दिशा में भरपूर मेहनत की। एक तरफ उन्होंने सत्ता के सांस्थानीकत ढांचे में दलितों की भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए संविधान बनाने जैसा महत्वपूर्ण कार्य किया तो दूसरे स्तर पर दलित संघर्ष को संगठित रूप देने की लगातार कोशिश की। उनका निजी व्यक्तित्व अपने आप में एक ‘संघर्षशील व्यक्ति’ की अप्रतिम मिसाल था। पंवार ने उनके बारे में लिखा है-

“अम्बेडकर ने आंदोलन की दाहकता सिखाई।”

संविधानिक स्तर पर दलित हितों के रक्षात्मक उपाय सुनिश्चित करा लेने के बावजूद उन्होंने आजाद भारत में रिपब्लिकन पार्टी आWफ इंडिया की स्थापना की। मगर उनकी मृत्यु के बाद आर.पी.आई. न सिर्फ उनके सिद्धांतों से नीचे उतर गई बल्कि उसमें विखराव भी पैदा हो गया और वह कई हिस्सों में विभाजित होकर लगभग शक्तिहीन सी हो गई।

डा. अम्बेडकर की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र में सत्ता के दशक में एक जबरदस्त सामाजिक-राजनीतिक दलित आंदोलन का उभार हुआ। महारवाड़ा के दादासाहब गायकवाड़ के राजनीतिक आंदोलन ने दलित प्रश्न पर एक नई दिशा दिखाई। महारवाड़ा में लक्ष्मण गायकवाड़ जैसे सामाजिक कार्यकत्र्ताओं और ‘दलित पेंथर’ जैसे आंदोलन ने दलित आंदोलन को एक व्यापक सक्रिय और जुझारू संघर्ष में तब्दील कर दिया। महारवाड़ा के समाज सुधार आंदोलन के कार्यकत्र्ता गांव-गांव पहुंचते। वे दलितों के आत्म सम्मान और आत्मविश्वास को पुनर्जाग्रत करने के लिए दलितों को सामूहिक तौर पर गंदे कार्य छोड़ने के लिए तैयार करते। इससे महारवाड़ों में एक भारी हलचल उत्पन्न हुई। सदियों से शोषित महार संगठित होकर अपने आत्म सम्मान, रोजगार व शिक्षा के अधिकार के लिए संघर्षरत होने लगे।

डा. अम्बेडकर के बाद दादासाहब गायकवाड़ महारवाड़ा के ऐसे जुझारू नेता के रूप में सामने आए जिन्होंने समूचे महारवाड़ा के दलित युवकों को काफी प्रभावित किया। दलितों को आर्थिक तौर पर उठाने के लिहाज से उन्होंने भूमि अधिकार आंदोलन की शुरुआत की। इससे दलित आंदोलन को संघर्ष को एक वास्तविक आयाम मिला। दया पंवार ने दादासाहब गायकवाड़ के इस कदम की काफी सराहना की है। कावाखाने पहुंचकर जब दगड़ू मारुति पवार नौकरी पाने के लिए मंत्री बन चुके दादासाहब के पास मदद के लिए पहुंचता तो उनके परिवर्तित व्यवहार से वह उदास होता है और उसका व्यक्तिगत स्तर पर मोभंग होता है हालांकि सामाजिक स्तर पर वह दादासाहब गायकवाड़ के योगदान को महत्वपूर्ण मानता है। दया पंवार ने लिखा है-“आज भी मेरा उनके प्रति जो प्रेम है, वह आंदोलनों वाले दादासाहब पर है जिसने विद्रोह करना सिखाया।”

डा. अम्बेडकर के बाद जो दलित नेता उभरे वे सभी दादासाहब जैसे न थे। उनमें से अधिकतर आगे चलकर दलित समाज पर बोझ ही साबित हुए। इनमें से अधिकतर नेता सुधारवादी नेता थे और मध्यम वर्ग से आए थे। उनमें से अधिकतर मध्यवर्ग की जानी-पहचानी कमजोरियों की मिसाल थे। बहुतों की मानसिकता पुरातन मूल्यों की पोषक और समझौतावादी मानसिकता ही थी। ये सभी सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक पतित हो सकते थे। डा. अम्बेडकर के बाद आर.पी.आई. नेतृत्व पर हावी हुए बहुत से दलित नेता विकृत सामाजिक मानसिकता से ग्रस्त थे। इन लोगों ने डा. अम्बेडकर की बाहरी बातों की हूबहू नकल की। मगर सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर ये लोग विकृत मानसिकता के लोग थे। यह कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों ने दलित आंदोलन की व्यापकता और दाहकता को काफी नुकसान पहुंचाया। देखा जाए तो आज भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं है। दया पंवार ने ऐसे नेताओं के बारे में लिखा है-

“इनमें से अधिकांश नेता बाबासाहब की हूबहू नकल करते। बाबासाहब कुत्ता पालते तो ये भी पालते। बाबासाहब कीमती पेन रखते, ये भी रखने लगे। सूट पहनना आम बात हो गई थी।...... देहातों में जनता रास्तों पर धूल में पत्तलें बिछाकर लपसी खाती है और ये नेता अपने घरों में मुर्गी-शराब में मस्त। यह विसंगति बहुत खटकती। निश्चित ही इनके ये शौक लोगों के चंदे से पूरे होते।........ अनुयायियों के साथ गुलामों सा व्यवहार करने में उन्हें शर्म न आती।”

राजनीतिक स्तर पर ये नेता और इनका दृष्टिकोण बाबासाहब के चिंतन और संघर्ष के स्तर तक ही सीमित हो गया। बाबा साहब मरते दम तक दलित उत्थान के लिए अपने सिद्धांतों और व्यावहारिक रणनीति में काफी पेफर बदल करते रहे थे। बाबा साहब दलित आंदोलन को मंदिर प्रवेश, कुंआं साझीदारी और धार्मिक स्तर पर समानता से आगे ले आए थे। उन्होंने दलित समस्या के राजनीतिक और आर्थिक पहलू पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया था। इससे पहले कि वे इस बारे में कोई ठोस पहलकदमी कर पाते उनकी मृत्यु हो गई। आर.पी.आई. के सत्तावादी और सुधारवादी मानसिकता के नेताओं ने दलित आंदोलन के वैचारिक पक्ष में कुछ खास इज़ाफा नहीं किया। उन्होंने बाबासाहब को देवता बना डाला। उनके चिंतन को अपरिवर्तनशील संपूर्ण। वे सामाजिक विकास के लिए स्तर पर और खासतौर पर आजादी के बाद दलित समाज के सामने आ रहीं चुनौतियों और समस्याओं को सुलझाने में नाकाम रहे। कहना चाहिए कि ऐसे लोगों ने दलित समस्या की जटिलता की गतिशीलता की पहचान को रणनीति बनाने की बजाए, उसे और उलझा दिया। दया पंवार ने इस बारे में लिखा है-

“सुधारवादी नेता आकर्षक नारे देने में बड़े निपुण थे। ‘पार्टी का हाथी चुनाव चिहन फिर वापिस लाना है। एक ऐसी ही आकर्षक घोषणा थी। देश की संपूर्ण बुद्ध गुफाएं हमारे अधिकार में हो’। सारा भारत बुद्धमय करना है।” उ

नकी यह घोषणाएं उनकी पिछड़ी राजनीतिक समझ को ही उजागर करती हैं। यह कहने में कोई गुरेज नहीं होता कि ये लोग सत्तावादी और समझौतावादी किस्म के लोग हैं जो दलित आंदोलन जो काफी नुकसान पहुंचा रहे थे। उन्हें दलितों की आर्थिक समस्याओं से कुछ लेना देना नहीं था। दलित आबादी से प्रतिनिधित्व पाकर अपना ही पेट भरने वाले लोग परंपरागत मूल्य मान्यताओं की पोषक, दलित और जन विरोधी राजनीतिक सत्ता के पैरोकार ही हैं। दया पवार ने ‘अछूत’ में इन लोगों का बड़ा ही यथार्थपरक चित्र खींचा है। उन्होंने ऐसे नेताओं को काफी करीब से देखा। उनकी व्यक्तिगत विकृतियों और राजनीतिक विसंगतियों पर दया पंवार ने ‘अछूत’ के आखिरी भाग में बड़ी बेबाक टिप्पिणयां की हैं। दलित राजनीति की विसंगतियों और सीमाओं को शायद दया पंवार ने ही काफी साफ तौर पर रेखांकित किया है।

7 भारतीय साहित्य में आत्मकथात्मक लेखन एक आधुनिक व्यवहार का प्रतिपालन है। आधुनिकता ने मनुष्य को व्यक्ति के स्तर पर स्वतंत्रा किया। उसके विवेक, उनकी जीवनाभूतियों और व्यक्तित्व को समाज के स्तर पर मान्यता मिली। आधुनिकता ने मनुष्य को तो नई दृष्टि दी ही मगर वह खुद भी साहित्य और समाज के केन्द्र में आ गया। मगर वह आधुनिक मनुष्य की कई तरह की सीमाओं में जकड़ा रहा है। इन सीमाओं ने उनकी विवेकशीलता और रचनाधर्मिता को कई स्तरों पर प्रभावित किया है। दलित आत्मकथात्मक लेखन इस मायने में मनुष्य की आधुनिक जकड़बंदियों से मुक्ति का पर्याय बनकर सामने आया है।

वैसे भारतीय साहित्य में ‘आत्मकथा लेखन’ बहुत कम हुआ है। मगर आधुनिक भारतीय साहित्य में जितनी आत्मकथाएं लिखी गई हैं उन्होंने आत्मकथा लेखन के कुछ मापदंड तो बना ही दिए हैं। मसलन आत्मकथा लेखन के बारे में अक्सर यह सुनने में आता है कि यह जीवन के अंतिम पड़ाव पर जीवन के तमाम अनुभवों के निचोड़ के रूप में लिखी जाने वाली कोई चीज है। लेकिन दलित साहित्यकारों ने इस मापदंड को चुनौती देते हुए जीवन के बीच के पड़ावों तक के अपने अनुभवों पर आत्मकथाएं लिखी हैं।

आत्मकथा लेखन के बारे में एक और बात सामने आती है। अक्सर आत्मकथा लिखते वक्त लेखक व्यक्तिगत स्तर पर थोड़ा सीमित और रोमानी हो जाता है। वह अक्सर अपने जीवन के ऐसे अनुभवों की चर्चा ही ज्यादा करता है जो उसे एक श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में दिखाते हैं। लेकिन दलित आत्मकथा लेखन ने साहित्य की इस परंपरावादी और अभिजात्यवादी मानसिकता को तोड़ा है। उन्होंने आत्मकथा लेखन में एक व्यक्ति के तौर पर अपने जीवन की व्यक्तिगत निराशा, कुंठा, अवसाद और अवमाननाओं की वेबाक अभिव्यक्ति की है। कहा जाता है कि दलितों का जीवन एक दु:ख भरी कहानी है। इसलिए आत्मकथाओं में इस दु:ख की, इस त्रासदी का बार-बार आना लाजमी है। मगर दलितों का यह दु:ख, यह त्रासदी व्यक्तिगत न होकर सामाजिक है। यह भारत के बहुतायत दलितों के शोषित, वंचित, कुंठित जीवन की पर्याय है। इस मामले में दलित आत्मकथाएं दलित जीवन की दु:ख भरी त्रासदी का पर्याय हैं। दया पवार के ‘अछूत’ में दगड़ू मारुति पवार के व्यक्तिगत जीवन की करूणगाथा महारवाड़ा के शोषित वंचित और उपेक्षित करूणगाथा का प्रतिनिधित्व करती है। ‘अछूत’ अकेले दगड़ू मारुति पवार की जीवन की गाथा नहीं है बल्कि वह हजारों-हजार दगड़ूओं की त्रासद जीवन गाथा है। इस मामले में दलित आत्मकथाएं सामूहिक और सामाजिक आत्मकथाएं हैं।

दलित आत्मकथाओं के बारे में अक्सर कहा जाता है कि उसमें दलितों द्वारा अतीत में झेली गई प्रवंचनाओं, उपेक्षाओं और दु:खानुभूतियों का ही ज्यादा दर्शन होता है, वर्तमान जीवन की विसंगतियों के बारे में वह बहुत ही कम अभिव्यक्त कर पाती हैं। दलितों का वर्तमान जीवन अतीतकालीन जीवन की दु:खद स्मृतियों और गाथाओं की निर्मित है। दलित मुक्ति की राह भूतकाल के जीवनानुभवों को जानकर ही बनाई जा सकती है। भविष्य की दिशा अतीत से तय होती है। उनके वर्तमान जीवन के यथार्थ का आधार अतीत से ही निकलकर आता है। दलित आत्मकथाएं दरअसल अतीतकालीन जीवन की करूण और यथार्थपरक जीवन परिस्थितियों की जटिलताओं को खोलती हैं। इसलिए वे इस मामले में परंपरागत आधुनिक साहित्य के आदर्शवादी ढांचे के बरक्स एक यथार्थपरक अन्तर्वस्तु और भाषा में रची गई आत्मकथाएं हैं। तमाम संघर्षों और आंदोलनों के बावजूद परंपरागत आधुनिक साहित्य मध्यवर्गीय रूझानों और सीमाओं में फंसकर अपने जनवादी चरित्रा को खोता रहा है और किसी हद तक वह ठहर सा गया है। दलित आत्मकथाओं ने इस मामले में भारतीय साहित्य लेखन को एक नई दिशा दिखाई है। दलित साहित्य आधुनिक भारतीय साहित्य की सीमाओं और जकड़वंदियों से उसकी मुक्ति का आगाज़ बनकर सामने आया है। इस मामले में ‘अछूत’ एक बेमिसाल कृति है।

कुल मिलाकर ‘अछूत’ दलित साहित्य की एक श्रेष्ठ और सशक्त रचना है। इसने दलित साहित्य को न सिर्फ स्थापित किया है बल्कि अपनी समग्र अंतर्वस्तु और शिल्प के माध्यम से आधुनिक परंपरागत साहित्य की सीमाओं और जकड़बंदियों को जबरदस्त चुनौती पेश की है। ‘अछूत’ दलित जीवन की त्रासदी का ही पर्याय नहीं है, वह भारत की बहुतायत आबादी के शोषित, वंचित, उपेक्षित जीवन और त्रासद जीवन परिस्थितियों का पर्याय भी है।

अपेक्षा, जुलाई-सितम्बर 2003 में प्रकाशित