अजनबी शहर में / वंदना मुकेश

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौसम आज फिर बेहद उदास था। सूरज देवता रजाई में ऐसे दुबके थे कि पूरा सप्ताह बीत गया। यहाँ सुबह लगभग आठ बजे तक अँधेरा ही रहता था। चेहरे को बर्फ बनाती, तीखी हवाओं का सामना करते हुए ही सुभाष को काम पर निकलना होता था। दो शनिवार-रविवार मिलाकर अब तीसरा सप्ताहांत दस्तक दे रहा था। कमरे में काफी अँधेरा था, उसे महसूस हुआ कि वह काफी देर से जागा हुआ है। उसने रजाई में से हाथ निकालकर अंदाज़ से टेबल पर से फोन उठाया। घड़ी में सिर्फ छ बजकर पाँच मिनिट।

उसे कुछ निराशा-सी हुई। वास्तव में जगा हुआ था उसकी आँखे पूरी तरह खुली थीं और ज्ञानेंद्रियाँ एकदम सचेत। शनिवार की सुबह...छ बजकर पाँच मिनिट... कौन उठता है इतनी सुबह?

वैसे भी, सप्ताह तो जैसे-तैसे निकल जाता है लेकिन सप्ताहांत तो इइइइतना लंबा हो जाता है कि... उसने आँखें कसकर बंद कर लीं। इतनी कस कर कि उसे महसूस हुआ कि उसका चेहरा सिकुड़ गया है।


माथा सहलाता मम्मी का हाथ, फिर पीठ दबाते मम्मी के हाथ... और फिर गाल थपथपाते हुए एक लाड़ भरी आवाज़, "उठ बाबू, उठ। चाय बना रही हूँ, जल्दी उठ, पढ़ ले, सुबह का समय है" , उसे यह सब अक्सर सपने की बातें लगती थीं। मम्मी चली जातीं, पता नहीं, मम्मी जगाने आती थीं कि सुलाने। सुबह-सुबह गहरी नींद में सोये सुभाष को इसके बाद कुछ याद नहीं रहता।

"बेटा उठ जाओ, अब आठ बज गये हैं तुम्हें उठना नहीं है क्या" "यह पुकार कानों में पड़ने से पहले ही विलीन हो जाती। रजाई को कस के दबा कर इसके बाद जो नींद सुभाष को आती, उसका कोई मुकाबला ही न था। फिर मम्मी की दूसरी आवाज़ आती।" ओ राजकुमार, उठ जा, कितनी देर सोयेगा..." इसके प्रत्युत्तर में तो एक हुंकारा बिना जान-समझे ही निकल जाता था।

मम्मी की तीसरी चौथी आवाज़ पर आँखें मींचे-मींचे बड़ी मुश्किल से एक कोने से आँख खोलने की कोशिश करता। ऐसा लगता मानो आँखों में गोंद लगा हो, आँखें खुलने को तैयार ही न होतीं। लेकिन जब पाँचवी ... छटवीं...आवाज़ के बाद मम्मी के सुर बदल जाते तो वह सप्रयास मनो मस्तिष्क को जगाता और आँखें बंद किये कुर्सी पर बैठ जाता।


सुभाष ने फिर फ़ोन में समय देखा। छह बजकर पंद्रह मिनिट, उसने रजाई उपर खींच ली। उजाला अब भी नहीं हुआ था। अभी तो पू...रा दिसम्बर बाकी है। उसकी अँगुलियाँ महीने गिनने लगीं। अभी तो पूरे दस महीने बाकी हैं

तीन सप्ताह हो चुके थे। उसने इस टापू का चप्पा-चप्पा छान डाला था। अंगरेज़ ही अंगरेज। उन्हें देखकर वह अपने और भीतर घुसने का नाकाम प्रयास करता। पहले तो खुद होकर कोई बात नहीं करता था। दूसरी बात उसे उनकी अंगरेज़ी समझ में नहीं आती थी। ऐसा नहीं कि सिर्फ़ उसे ही उनकी अंगरेज़ी नहीं समझ में नहीं आती थी। उन्हें भी उसकी अंगरेजी समझ में नहीं आती थी। उसकी नौकरी इन दोनों समस्याओं का पूरा हल थी। आय। टी. टैक्निकल सपोर्ट टीम में तो गूँगा भी चल सकता है। फिर ईमेल तो था ही। वहाँ बातचीत को था भी क्या? चाची कैसी हैं, टुन्नू की परीक्षा कब है...? वह आँखें मींचे ही उदास हो गया। कोई भी दोस्त नहीं बन पाया इन तीन हफ्तों में। सो सुभाष कछुआ बनता जा रहा था।


जब उसे यह प्रोजेक्ट मिला तो सुभाष सातवें आसमान पर था। घर में सब; चिन्नी, मम्मी-पापा बहुत खुश हुए थे। इक्कीस साल की उम्र...में नौकरी लगी और छह महीने भी नहीं हो पाये कि कंपनी ने उसके काम से खुश होकर नये प्रोजेक्ट का जिम्मा देकर विदेश भेजने का निर्णय ले लिया। ...लंदन से भी आगे, जर्सी-गर्न्सी आयलैंड्स। यों तो लोग विदेश जाने के लिये वीसा मिल जाये, इस बात के लिये मनौती माँगते हैं। लेकिन सुभाष के जीवन में यह इतना अकस्मात हुआ कि वह कुछ समझ पाता उससे पहले वह गर्न्सी पँहुच गया था। कभी-कभी उसे खुद पर यकीन नहीं आता था। सारी व्यवस्था कंपनी ने की थी। उसके आने-जाने और पहले तीन हफ्ते ठहरने की।


परिवार का पहला लड़का, जिसके कदम विदेश में... बधाई देनेवालों का ताँता लग गया। मम्मी ने स्कूल से छुट्टी ले ली थी। आखिर इतनी तैयारियाँ जो करनी थीं। लखनऊ से मौसी-मौसाजी, भोपाल से मामाजी, ग्वालियर से बुआजी और दिल्ली से चाचाजी भी आये थे। ताईजी तो मुंबई में ही रहतीं थी, सो सारे मेहमानों का यह काफिला उस रात मुंबई में ताईजी के यहाँ रुका। पुणे से शाम को निकले थे, क्योंकि मध्य रात्रि की उड़ान थी। हिदायतों का अंबार... सुब्बी, पासपोर्ट अंदर की जेब में रखना, सुब्बी, पैसे हेंड-बेग में रखना। सुब्बी नये लोगों से बात नहीं करना। ... मसाले निकाल दो, 'रेडी-मील' के पैकेट रख दो। वजन ज्यादा हो जायेगा...सब मिलता है... स्काइप पर बात रोज़ करना। सुब्बी, शेविंग का सामान बड़े सूटकेस में डालना। कमला, तेल रख दो, कहाँ परेशान होगा जाते ही, मंजन मत भूल जाना...

सुब्बी ये करना, सुब्बी वह मत करना, सुब्बी शराब मत पीना। सुब्बी


सब खड़े थे। पापा की हँसी फीकी थी। सदा चहकनेलाली चिन्नी भी अपेक्षाकृत शांत थी। मम्मी का चेहरा उसकी आँखों के सामने आ गया। आँखें नम..., मुस्कराने की नाकाम कोशिश करते होठ। पापा-मम्मी और चिन्नी का चेहरा देखकर उसके पेट में एकदम मरोड़—सी उठी। काश, वह स्थिति को नकार पाता या स्वीकार ही कर लेता। एकदम से उसे इच्छा हुई कि वह एयरपोर्ट से भाग कर मम्मी की उस टेबल नीचे जाकर छुप जाए, जहाँ वह बचपन में अक्सर छुप जाया करता था। ... उसका मन खट्टा हो गया। उसने करवट बदल ली।


बाहर गहरा सन्नाटा था। वह झटके से उठ गया। उसे खुश रहना है। हाँ खुश रहना है, चलो आज सैर पर निकल जाता हूँ। बाहर अब भी अँधेरा था। उसने परदा हटाकर खिड़की पर हाथों का झरोखा-सा बनाकर आँखे गड़ाईं। अंधेरे में देखने की एक नाकाम कोशिश। खिड़की का काँच एकदम ठंडा था। लेकिन कमरा गर्म था। उसे यहाँ कमरे में स्वेटर पहनने की जरूरत नहीं पड़ी इन तीन हफ्तों में। उसे कुछ अच्छा लगा। वहाँ घर पर तो बिना स्वेटर बहने बिस्तर से निकल ही नहीं सकते थे। उसने तौलिया उठाई और बाथरूम में घुस गया। मंजन करते-करते उसने शावर चला दिया ताकि उसके बाथटब में घुसने से पहले गरम पानी आने लगे। वहाँ मम्मी कह-कह कर हार जाती थीं। दो-तीन बार तो गरम किया पानी ठंडा हो ही जाता था। वह क्यों नहा रहा है इतनी सुबह? उसे कौनसा किसी के यहाँ कथा पढ़ने जाना था जो इतनी सुबह नहाने घुस गया? सोचकर उसे अकस्मात ही खुद पर हँसी आ गई। लेकिन यहाँ कौन चिन्नी बैठी थी उसके साथ हँसने के लिए। वह चुप हो गया। गरम पानी की बौछार ने तन-मन दोनों को प्रफुल्लित कर दिया। उसे थोड़ा और अच्छा महसूस हुआ। टेबल के कोने में रखे हनुमान जी को प्रणाम किया। टी-शर्ट पहनते-पहनते उसने अपने चौड़े कंधे देखे, हनुमानजी को फिर से प्रणाम किया।


घड़ी में सात बज रहे थे। उसने खिड़की का परदा हटा दिया। बल्ब की रोशनी और बाहर की रोशनी मिलकर भी कमरे में उजाले का कोई खास इज़ाफ़ा नहीं हुआ था। तो यह क्या, सुबह थी? सूरज महाशय का कहीं कोई अता-पता न था। वे भी अंगरेज़ों की तरह वीकेंड मना रहे होंगे। दिन की ऐसी अंधकार भरी, मनहूस–सी शुरुआत। अरे कहाँ हो सूरज भाई तुम य़ोड़ी देर तो आ जाओ ना बाहर। कम से कम मन को अच्छा लगेगा। खिड़की पर बारिश की बूँदें चिपकी थीं पर बारिश बंद हो चुकी थी। बाहर सड़क गीली, उसके मन की तरह।


उसने ओवरकोट पहना, टोपा–दस्ताने पहने, मफलर मम्मी ने बुना था। जूते पहनते-पहनते उसने सोचा, जाऊँ या नहीं ... बारिश कभी भी हो सकती है और ठंड? वह तो यहाँ लगता है शाश्वत विराजमान है। फिर सोचा, चला ही जाता हूँ, इस अँधेरे कमरे में रहकर भी क्या होगा? अभी तो पूरा शनिवार और फिर पहाड़-सा, पूरा का पूरा रविवार। अचानक उसे घुटन महसूस होने लगी। वह झटके से कमरे के बाहर हो गया, मानो रुकने से इरादा बदल जायेगा।


पिछली रात की बारिश से फुटपाथ गीला था। अब इक्का-दुक्का गाड़ियाँ भी सड़कों पर आने-जाने लगी थीं। कुछ कदम चलने पर महसूस हुआ कि वास्तव में ठंड उतनी नहीं थी जितने उसने कपड़े पहने थे। उसने टोपा उतार दिया। मफलर भी ढीला कर दिया। मुँह को पुचकारती ठंडी हवा उसे अच्छी लगी। उसने भी मन ही मन हवा को एक चुंबन दे डाला। फुटपाथ पर उसके चलने से जूतों की पिच्च-पिच्च, पिच्च-पिच्च की आवाज़ आने लगी तो नीचे देखा। फुटपाथ पर भूरी, बदरंग और गीली पत्तियों की जाजम बिछी थी। अचानक वह सावधान हो गया। एक-एक पैर जमाकर चलने लगा। फिसलन भरा फुटपाथ। जहाँ तक नज़र जाती थी पत्तियाँ ही पत्तियाँ। गंदी। गिचपिच-भरी, भूरी बदरंगी। जूतों में उसकी अंगुलियाँ भिँच गईं। फिर पेड़ों की आखिरी फुनगी तक होते हुए आसमान तक नज़र दौड़ गई। अरे, यह क्या? पेड़ एकदम नंगे! पर बेशर्म नहीं। अपनी पत्र-विहीनता के बाद भी उनपर चिड़ियों के कुछ घोंसले सुभाष को नज़र आए। उसे वे वृक्ष बड़े भले लगे। क्या अजीब-सी बात थी। सुभाष दार्शनिक होने लगा। उसे लगा कि उसने आज तक इतनी बारीक़ी से कभी न पत्तियाँ देखीं न पेड़। प्रकृति की गोद में मनुष्य सब कुछ भूल-सा जाता है। वह भी आनंद लेने लगा। सूरज का अब तक कोई अता-पता न था। उसने फिर घड़ी देखी, साड़े आठ बज गये थे। धीरे-धीरे होती बूँदाबाँदी धीरे-धीरे बढ़ गई। इतनी कि उसे चश्मे से धुँधला नज़र आने लगा। लेकिन न ही चश्मा उतारने का मन हुआ न टोपी पहनने का। भीगता हुआ, वह आगे बढ़ा जा रहा था। बारिश बढ़ गई थी। लेकिन अब वह अकेला न था। जब बूँदें धरती पर पड़तीं तो कदमों की ताल पर। वह बहुत ध्यान से उसमें छुपे संगीत को सुनने की कोशिश करने लगा। लेकिन अब सड़क पर गाड़ियों की आवाजाही बढ़ गई थी। जिसके कारण वह उस संगीत को नहीं सुन पा रहा था। लेकिन उसकी चाल बदल गई थी। वह लययुक्त हो गई थी। अचानक उसे पत्तियों में तरह-तरह के रंग नज़र आने लगे। सामने से आता, सफेद झबरा कुत्ता अपने मालिक के साथ बड़ा इतराता हुआ चल रहा था। सुभाष भी उसकी नकल करते हुए चलने लगा। इसका अहसास उसे तब हुआ जब कुत्ते के मालिक ने उसे घूर कर देखा। वह एकाएक रुक गया। आँखे नीची कीं तो देखा वह छोटा-सा कुता भी अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से सुभाष के घूर रहा था। मानो वह भी समझ गया हो। सुभाष को समझ नहीं आया कि अपने बचकानेपन पर हँसे या एकदम गंभीर मुद्रा बना कर शर्मिंदगी दिखाए। बारिश एकदम से तेज़ हो गई और सब आगे बढ़ गए।


अब साढ़े नौ ही बज चुके थे। सड़कें लोगों से भरने लगी थीं। फिर कमरे पर जाना होगा। उसका चेहरे पर उदासी छा गई। सूरज भाईसाहब भी थोड़ी बहुत ताका-झाँकी की मस्ती में लग रहे थे। कुछ भूख-सी भी लगने लगी थी। लेकिन बाज़ार के बेस्वाद सैंडविच के बारे में सोचते ही उसका मुँह का स्वाद ही बिगड़ गया! और फिर पैसे...घर जाकर ही खा लेगा कुछ। फिर दिन कैसे निकलेगा, अभी तो रविवार भी...कमरे पर तो जाना ही था उसके कदम सुस्त हो गए। वह खुद को ढोकर घर की तरफ धकेलने लगा। चेहरे पर कई मन उदासी छा गयी।


सुभाष सुस्त कदमों से बढ़ा जा रहा था कि अचानक उसको अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ। उसकी धड़कनें इतनी तेज़ हो गईं कि वह उन्हें साफ़-साफ़ सुन सकता था। उसने सहम कर एकबारगी अपने आस-पास देखा कि कहीं किसी ने उसकी धड़कनें तो नहीं सुन लीं। उसे लगा कि उसका दिल उछल कर हाथ में आ जाएगा हो। सामने से आता व्यक्ति साँवले रंग का था। गोरों के देश में इतने दिनों बाद अपने रंग के व्यक्ति का दिख जाना एकदम चमत्कार की भाँति लग रहा था। हो न हो यह भारतीय ही होगा।

वह उत्साह से भर गया था। उसे अनुभव हुआ कि अब तक तनी हुई उसकी शिराएँ एकदम ढीली हो गईं। उसकी उदासी कब रफूचक्कर हो गई। मुस्कान की एक पतली-सी रेखा उसके होठों और बंद आँखों पर सहज तैर गई। वह आदमी एक गली में मुड़ गया। सुभाष भीड़ चीरता हुआ बढ़ चला उसके पीछे-पीछे। उसकी आँखें उसी आदमी का पीछा कर रही थीं। वह काफ़ी दूर था। वह नहीं चाहता था कि उसकी खुशी उससे ओझल न हो जाए। एक दो आदमियों से टकरा भी गया किंतु उसकी आँखों ने उसका पीछा न छोड़ा।


"सुनिये" , सुभाष की आवाज़ सुनकर वह पलटा।

"क्या आप भारतीय हैं" , सुभाष ने अंगरेज़ी में पूछा।

"नहीं" , उसने सर हिलाया

सुभाष का चेहरा एकदम बुझ गया। वह बिजली के बल्ब की तरह फुक्क हो गया।

"क्या आप भारतीय हैं?" , उस आदमी ने पूछा।

सुभाष को सहसा अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। वह हिन्दी में पूछ रहा था!

सुभाष ने पलटकर देखा, सुभाष की गर्दन अविश्वसनीयता में ही "हाँ" में हिली।

फिर उसने उसी अविश्वसनीयता में, ही गौर से उस आदमी का निरीक्षण–सा किया, "लगता है भारतीय ही है शायद मुझे बुद्धू बना रहा है" उसकी बुझे हुए चेहरे पर एक बार फिर चमक–सी आई

"क्या आप सच बोल रहे हैं? आप हिन्दी में कैसे बोल रहे हैं?" उसका असमंजस उसकी आवाज़ में साफ़ झलक रहा था।

वह मुस्कराया, "मैं भारतीय नहीं हूँ, लेकिन हिन्दी आती है मुझे। मैं मॉरिशस से हूँ। मेरे पूर्वज भारतीय थे"।

"अच्छा" । कॉफी?

"..." ...

"..." ...

"..." ...

कितनी ही बातें की दोनों ने। पूरा दिन दोनों साथ-साथ घूमे।


सुभाष जब अपने कमरे की ओर निकला तो अँधेरा हो चुका था। आज इतने दिनों में पहली बार गुनगुना रहा था।

कमरे में घुस कर उसने बत्ती जलाई और कमरे में रोशनी ही रोशनी हो गई। वह बिस्तर पर पसर गया।