अजीब-चमक / विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
Gadya Kosh से
दीपावली के अगले दिन अलसुबह जब मैने दो बच्चों को अपने घर के बाहर चले हुए पटाखों के कचरे में कुछ ढूँढ़ते हुये देखा, तो मेरा माथा चकरा गया। मैंने पूछा-हे बच्चों! तुम सुबह-सुबह यहाँ क्या कर रहे हो, वह डर कर जाने लगे। मैंने उन्हें रोका और कहा-डरो मत, बताओ, तो वह कहने लगे, अंकल जी-'पटाखे ढूँढ़ रहे हैं।' बेटे-तुम्हें, इस कचरे में क्या मिलेगा? क्या तुमने कल रात पटाखे नहीं चलाये? वे बोले-नहीं, अंकर जी हमारे पापा गरीब हैं। परन्तु ये देखो, हमने अबतक पाँच-छ: मकानों के सामने से ये पटाखे बीन लिये हैं। दोनों बालक अपनी-अपनी जेब से बीने हुये पटाखे निकाल कर बताने लगे।
देखो, ये दो चकरी, तीन छोटे पटाखे, ये अधजला अनार। मुझे उन बालकों के चेहरों पर एक अजीब-सी चमक दिखाई दे रही थी परन्तु पता नहीं, मेरे चेहरे की चमक को क्या हो गया था ...