अजी वाह ! क्या बात तुम्हारी…… / गिरीश तिवारी गिर्दा
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लेखक:जगमोहन रौतेला
‘गुल हुई जाती है अफसुर्दा सुलगती हुई शाम।
धुल के निकलेगी अभी चश्म ए महताब से रात . . .’
जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ का नाम आते ही जेहन में एक फक्कड़ और बेपरवाह से आदमी की छवि घूम जाती है। गिर्दा से हालांकि मेरी ज्यादा मुलाकातें नहीं हो पाई थीं, लेकिन आठ-दस जो भी मुलाकातें हुई, उसमें हर बार उनको कुछ अलग ही देखा और पाया।
आज के चाटुकारिता और चरण वंदना वाले भीषण दौर में गिर्दा अपने आप को इन सब से बड़ी शालीनता के साथ बचा ले गए। ऐसा नहीं है कि आज के दौर के शक्तिशाली नेता उन्हें जानते या गिर्दा उन्हें पहचानते न हों, लेकिन गिर्दा ने कभी भी उसे ज्यादा घनिष्ठता में तब्दील नहीं होने दिया। गिर्दा शायद इस बात को भली-भाँति जानते और समझते थे कि सत्ता के लोगों के साथ जरूरत से ज्यादा घनिष्ठता कई बार न चाहते हुए भी राह का रोड़ा बन जाती है। इसी कारण गिर्दा की दोस्ती या पहचान सत्ता वाले लोगों के साथ बस उतनी ही थी, जितनी कि एक सामाजिक जीवन के लिए जरूरी होती है।
सत्ता के लोगों से थोड़ा दूरी बनाकर रखने की अपनी आदत के कारण ही गिर्दा जनांदोलनों में सक्रियता से हिस्सेदारी ही नहीं करते थे, बल्कि सत्ता के दलालों और चाटुकारों के खिलाफ अपने जनगीतों में तीखे शब्दों का प्रयोग बड़ी आसानी और सरलता से कर जाते थे। नदी व घाटियों को पनबिजली परियोजनाओं के नाम पर औने-पौने दामों पर बाजार के हवाले कर देने और आम जन से उसके नैसर्गिक अधिकारों को छीनने के खिलाफ जब 2008 में पूरे उत्तराखण्ड में ‘नदी बचाओ’ वर्ष के रूप में आन्दोलन शुरू किया गया तो गिर्दा की आवाज निम्न शब्दों के माध्यम से हुंकार कर बैठी थी-
अजी वाह क्या बात तुम्हारी
तुम तो पानी के व्यापारी
खेल तुम्हारा तुम्हीं खिलाड़ी
बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी
सारा पानी चूस रहे हो
नदी समंदर लूट रहे हो
गंगा यमुना की छाती पर
कंकड़ पत्थर कूट रहे हो
उफ तुम्हारी ये खुदगर्जी
चलेगी कब तक ये मनमर्जी
जिस दिन डोलेगी ये धरती
सर से निकलेगी सब मस्ती
महल चौहारे बह जाएंगे
खाली रौखड़ रह जाएंगे
बोल व्यापारी तब क्या होगा
बूंद बूंद को तरसोगे
दिल्ली देहरादून में बैठे योजनकारी
तब क्या होगा
वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी
तब क्या होगा?
उत्तराखण्ड के हर जनांदोलन में गिर्दा की भागीदारी अपने गीतों और कविताओं के माध्यम से इसी तरह होती थी। उनके इन्हीं धारदार शब्दों ने उनके अन्दर जिजीविषा को हमेशा बनाए रखा। जीवन के आखिरी कुछ वर्षों में गिर्दा को बीमारियों ने घेर लिया था। जैसे हर आदमी में कई अच्छाइयों के साथ कुछ खराब आदतें भी होती हैं। गिर्दा भी थे तो मानव ही, तो मानव की कुछ कमजोरियाँ उनके अन्दर भी थीं। उनकी सबसे बड़ी कमजोरी रात्रि के समय बोतल से कुछ घूँटें गले से नीचे उतारने की थी। हालांकि उनके स्वास्थ्य को देखते हुए डॉक्टरों ने उन्हें इस बारे में मना किया था और जब वे नैनीताल से बाहर किसी कार्यक्रम में जाते तो शेखर दा और राजीव दा (राजीव लोचन साह) अकसर उनके साथ होते थे। इन लोगों का प्रयास यह होता था कि शाम होते ही गिर्दा को बोतल से दूर कैसे रखा जाये ? पर, गिर्दा तो गिर्दा ठहरे! अपने लिए बोतल और उसे पीने का जुगाड़ शेखर दा और राजीव दा को चकमा देकर निकाल ही लेते थे।
मुझे याद है जब 25 मार्च 2007 को उमेश डोभाल स्मृति समारोह रामनगर में हुआ था तो समारोह में शामिल होने के लिए काफी पत्रकार साथी 24 मार्च 2007 को ही रामनगर पहुँच गए थे। उनमें शेखर दा और राजीव दा के साथ गिर्दा भी थे। मैं भी नेपाली फार्म (देहरादून) से उसी दिन शाम को रामनगर पहुँच गया था। रात में 8 बजे के लगभग जब खाने का समय हुआ तो हम सभी लोग खाने के लिये एकत्र हुए। उनमें नरेन्द्र सिंह नेगी भी थे। खाने के दौरान शेखर दा को गिर्दा नहीं दिखाई दिए तो उन्होंने कई लोगों से गिर्दा के बारे में पूछा। किसी को गिर्दा के बारे में इसके अलावा और कोई जानकारी नहीं थी कि
‘‘अभी थोड़ी देर पहले तो यहीं थे।’’ यही शब्द शेखर दा और राजीव दा के भी थे। पूछताछ के इसी दौर में अचानक नेगी जी बोल उठे,
‘‘अरे! भइया गिर्दा गए अपने जुगाड़ में, सभी को चकमा देकर।’’
बाद में नेगी जी की बात सही निकली। खाना खाने के बाद गिर्दा और नरेन्द्र सिंह नेगी ने जिस अंदाज में अपनी जुगलबंदी प्रस्तुत की, उसने वहाँ मौजूद सभी लोगों को वाह! वाह! करने को मजबूर कर दिया।
उत्तराखण्ड की हलचलों पर उनकी गहरी नजर रहती थी। कभी-कभार उनसे टेलीफोन पर बात होती तो उनका पहला सवाल यही होता कि यार! जगमोहन तुम लोग अस्थाई राजधानी के नजदीक हो। बताओ तो क्या-क्या हो रहा सत्ता की नगरी में! जनमुद्दों पर युगवाणी, नैनीताल समाचार, उत्तराखण्ड प्रभात और दूसरी पत्र-पत्रिकाओ में लिखे हुए मेरे लेखों, रिपोर्टों पर यह जरूर कहते कि अपनी धार कभी कुंद मत होने देना यार जगमोहन! गिर्दा के ये अपनत्व, आशीर्वाद व आशा भरे शब्दों से एक नई ऊर्जा हमेशा मिलती रही है।
युगवाणी (पत्रिका) के संस्थापक – सम्पादक आचार्य गोपेश्वर कोठियाल जी के जन्म शताब्दी समारोह में 13 फरवरी 2010 को उन्हें भी देहरादून आमंत्रित किया गया था, लेकिन स्वास्थ्य ठीक न होने से वह नहीं आ पाए। यदि वे आते तो नरेन्द्र सिंह नेगी के साथ उनकी जुगलबंदी का कार्यक्रम था। स्वास्थ्य खराब होने के बाद भी फोन पर उन्होंने कहा कि यदि शरीर ने थोड़ा भी साथ दिया तो वह अवश्य कार्यक्रम में आएँगे, लेकिन वे नहीं आ पाए और उसके बाद उनसे कभी मुलाकात नहीं हो पाई। अगस्त 2010 में उनके पहले बीमार होकर हल्द्वानी मेडिकल कॉलेज में भर्ती होने और फिर 22 अगस्त 2010 को उनके असामयिक निधन का दुःखद समाचार ही मिला। गिर्दा भले ही हमारे बीच न हों, लेकिन नई पीढ़ी के लिए हमेशा प्रेरणा स्रोत थे और रहेंगे। एक बार फिर विनम्र श्रृद्धांजलि!
नैतीताल समाचार से साभार