अज्ञात-गमन / बलराम अग्रवाल
चौराहे के घंटाघर से दो बजने की आवाज़ घनघनाती है। बंद कोठरी में लिहाफ के बीच लिपटे दिवाकर आँखेंखोलकर जैसे अँधेरे में ही सब-कुछ देख लेना चाहते हैं—दो जवान बेटों में से एक, बड़ा, अपनी शादी के तुरंत बाद हीबहू को लेकर नौकरी पर चला गया था। राजी-खुशी के दो-चार पत्रों के बाद तीसरे ही महीने—पूज्य पिताजी, बाहररहकर इतने कम वेतन में निर्वाह करना कितना मुश्किल है! इस पर भी, पिछले माह वेतन मिला नहीं। हो सके तो, कुछ रुपए खर्च के लिए भेज दें। अगले कुछ महीनों में धीरे-धीरे लौटा दूँगा…लिखा पत्र मिला।
रुपए तो दिवाकर क्या भेज पाते। बड़े की चतुराई भाँप उससे मदद की उम्मीद छोड़ बैठे। छोटा उस समय कितनाबिगड़ा था बड़े पर—हद कर दी भैया ने, बीवी मिलते ही बाप को छोड़ बैठे!
इस घटना के बाद एकदम बदल गया था वह। एक-दो ट्यूशन के जरिए अपना जेब-खर्च उसने खुद सँभाल लिया थाऔर आवारगी छोड़ आश्चर्यजनक रूप से पढ़ाई में जुट गया था। प्रभावित होकर मकान गिरवी रखकर भी दिवाकरने उसे उच्च-शिक्षा दिलाई और सौभाग्यवश ब्रिटेन के एक कालेज में वह प्राध्यापक नियुक्त हो गया। वहाँ पहुँचकरवह अपनी राजी-खुशी और ऐशो-आराम की खबर से लेकर दिवाकर ‘ससुर’ और फिर ‘दादाजी’ बन जाने तक कीहर खबर भेजता रहा है। लेकिन वह, यहाँ भारत में, क्या खा-पीकर जिन्दा हैं—छोटे ने कभी नहीं पूछा।
…कल सुबह, जब गिरवी रखे इस मकान से वह बेदखल कर दिए जाएँगे—घने अंधकार में डबडबाई आँखें खोलेदिवाकर कठोरतापूर्वक सोचते हैं…अपने बेटों के पास दो पत्र लिखेंगे…यह कि अपने मकान से बेदखल हो जाने औरउसके बाद कोई निश्चित पता-ठिकाना न होने के कारण आगे से उनके पत्रों को वह प्राप्त नहीं कर पाएँगे।