अज्ञेय के साथ कन्हैयालाल नंदन का संवाद / कन्हैयालाल नंदन

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अज्ञेय से अन्तरंग भेंट
संवाद:कन्हैयालाल नन्दन

प्राय: ऐसा सुनने को मिलता है कि अज्ञेय जी बहुत कम बोलने वाले, हास-परिहास से परे अपने नाम की तरह ‘अज्ञेय’ रहना पसन्द करते हैं। मेरा व्यक्तिगत अनुभव अज्ञेयजी के साथ इसके बिलकुल विपरीत रहा है। यह सही है कि वे उन्मुक्त ठहाकों वाले आदमी नहीं हैं, लेकिन वे हास-परिहास से बिलकुल विमुख रहते हैं, ऐसा बिलकुल सही नहीं है। बातचीत में निकटता स्थापित कर लेने के बाद उनके व्यक्तित्व में इन पहलुओं का भी भरपूर आनन्द द्रष्टा से प्राप्त हो सकता है। आभिजात्य और सम्भ्रान्तता दोनों शब्द यदा-कदा उनके साथ चस्पाँ कर दिये जाते हैं। सम्भ्रान्तता के सन्दर्भ में उन्होंने एक बार कहा था,

"सम्भ्रान्त शब्द पर मुझे थोड़ी हँसी आती है। हम लोगों ने यह शब्द बांग्ला से ले लिया जहाँ ‘सम्भ्रान्त महिलाएँ’ बहुत होती थीं। शायद मान लिया जाता था कि कुलीन होंगी तो बराबर सम्भ्रम में रहती होंगी। मुझे कोई विशेष सम्भ्रम नहीं है। यह कह लीजिए कि मैं विशेष सम्भ्रम में नहीं रहता। यों बहुत-सी बातें मैं कहता नहीं तो ऐसा नहीं है कि उसके अस्तित्व की जानकारी मुझे नहीं होती। जो कुछ जानता हूँ, सब कहता नहीं। सब कहना आवश्यक भी नहीं है। सर्जक का काम कूड़ेदान उलटना नहीं है। न कूड़ेदान को समाज के बीच में लाकर उलट देना ही एकमात्र यथार्थवाद है। वैसी प्रदर्शनकारी प्रवृत्ति अपरिपक्वता का ही लक्षण है और भाषा की अमूल्य और अपार निधि मनुष्य को आखिर मिली किसलिए है? उसकी प्रतिभा ने रची किसलिए है? एक संकेत से जितना बड़ा यथार्थ दिखाया जा सकता है, उतना दिखाने में बड़ी से बड़ी पोथी भी असमर्थ है। मैं यही चाहता हूँ कि मानव की प्रतिभा ने जितने भी साधन उपलब्ध किये हैं उनका श्रेष्ठ उपयोग करूँ और मितव्ययिता सर्जनाशक्ति की एक सहज प्रवृत्ति है।"

एक बातचीत में उनके कहे हुए उनके शब्दों के साथ यहाँ प्रस्तुत बातचीत के दो अंश उनके व्यक्तित्व और उनके चिन्तन के साथ सामाजिक दायित्वों पर प्रकाश डालते हैं। उनके द्वारा स्थापित वत्सल न्यास, जिसे उन्होंने ज्ञानपीठ पुरस्कार के रूप में प्राप्त एक लाख रुपये के अतिरिक्त एक लाख अपनी ओर से डालकर नियोजित किया है, हिन्दी साहित्य की एक अभूतपूर्व घटना है।


नन्दन : आज का पाठक अपने लेखक के बारे में और भी बहुत कुछ जानने को उत्सुक हैं—उसका स्वभाव, उसका रहन-सहन, व्यक्तिगत रुचियाँ-अरुचियाँ, लेखन-प्रक्रिया, अनुभवों के दायरे-बहुत कुछ जानना चाहते हैं पाठक। प्राय: होता यह है कि बहुत सारे लेखक अपने व्यक्तिगत जीवन की बहुत-सी बातें बताना नहीं चाहते, पूछने पर भी उनको गोल कर जाते हैं। खासकर आपके व्यक्तित्व के बारे में तो एक मिथ-सी बनी हुई है कि वे सचमुच ‘अज्ञेय’ हैं। यह मिथ है या इसमें कुछ सच्चाई भी है?

अज्ञेय : यों मैं तो समझता हूँ कि यह ज़रूरी नहीं है कि लेखक के बारे में पाठक बहुत कुछ जाने। रचना से ही उसका सम्बन्ध होना चाहिए। रचना से ही लेखक की पहचान होनी चाहिए। मिथ की बात मुझे मालूम है कि ऐसा मिथ मेरे बारे में है। कुछ लोगों ने बनाया है और कुछ समझिए कि मैंने भी बन जाने दिया है क्योंकि ऐसी दूरी अगर बनी रहती है और पाठक रचना के जरिए ही लेखक तक जाता है तो अच्छा ही है, इसमें बुरा क्या है? आखिर प्राचीनकाल के लेखकों के बारे में अगर हम कुछ नहीं जानते तो ऐसा तो नहीं है कि उनका साहित्य हम नहीं पढ़ सकते।

नन्दन : लेकिन प्राचीन काल के और आज के पाठक में बड़ा फ़र्क़ है। और अब लेखक और पाठक के बीच, इस धरातल पर भी, दूरी क्यों रहनी चाहिए?

अज्ञेय : साहित्य का रसास्वादन करने के लिए , या कि उसका मूल्यांकन करने के लिए यह ज़रूरी तो नहीं है। उस समय भी लोग साहित्यकार के बारे में जानना जरूर चाहते रहे होंगे।

नन्दन : उस समय के लेखक, हमें लगता है, खुली किताब की तरह रहते थे कि जो कोई जो कुछ जानना चाहे, जाकर देख ले। ऋषि-मुनियों का-सा जीवन था। आज के लेखक के साथ यह सम्भव नहीं है कि पाठक आये और किताब की तरह आपको पढ़ जाए।

अज्ञेय : अगर ऋषि-मुनियों वाली बात भी ठीक मान लें, जो कि मैं नहीं समझता कि तब भी साहित्यकार ऋषि-मुनियों की तरह रहते थे। जितना कुछ पढऩे और जानने को मिला है, उनके बारे में, उससे तो ऐसा नहीं लगता। लेकिन अगर वह बात ठीक भी मान लें तो भी साहित्यकार को सोचने-पढऩे-लिखने और अपना काम करने के लिए समय भी चाहिए, एकान्त भी चाहिए और इन दोनों से बढक़र वास्तव में जिसे ‘प्राइवेसी’ कहते हैं वह भी चाहिए। और आज का हमारा समाज सारा समाज सबसे पहले उसी को नष्ट करने की ओर प्रवृत्त होता है। खासकर अखबार और पत्रिकाएँ यही सबसे पहले करती हैं।

नन्दन : समाज की इस प्रवृत्ति से आपकी ‘प्राइवेसी’ में जब खलल पड़ता है तो आपको नाराजगी होती है?

अज्ञेय : देखिए, यह स्वाभाविक है। हम अगर घर में रहते हैं तो यह चाहते हैं कि हमारा आँगन है, हम इसमें शान्ति से बैठें, तो यह न लगे कि चारों तरफ़ से लोग देख रहे हैं कि हम क्या कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि हम कुछ चोरी कर रहे हैं या कि कोई बुरा काम कर रहे हैं, लेकिन यह होना चाहिए कि यहाँ जब हम हैं तो हम अपने साथ हैं। खामखाह किसी की निगरानी में नहीं बैठे हैं। लेखक के लिए यह चीज़ और भी ज्यादा ज़रूरी होती है।

नन्दन : कुछ ऐसी भी बातें होंगी जिन पर आप इस निगरानी से भी ज्यादा रिएक्ट करते होंगे यानी, कौन-सी चीज़ ऐसी है जिससे आपको सबसे ज्यादा, सख्त नफरत है?

अज्ञेय : सख्त नफरत तो क्या बताऊँ, मुझको बातचीत में सामाजिक शिष्टाचार में पाखंड से बहुत खीज होती है; तिलमिलाहट होती है।

नन्दन : आप उस तिलमिलाहट को बाहर व्यक्त भी करते हैं या पी जाना ठीक समझते हैं?

अज्ञेय : पी जाना ज़रूरी नहीं है। कभी-कभी व्यक्त भी करता हूँ। लेकिन पाखंड से तकलीफ बहुत होती है।

नन्दन : अगर एक तरफ़ मैंने यह पूछा है तो दूसरी तरफ़ यह भी जानना चाहूँगा कि ऐसी कौन-सी चीज़ है जो आपको सबसे ज्यादा बाँधती है?

अज्ञेय : यह तो मैं जानता भी नहीं हूँ, इस तरह से सोचता भी नहीं हूँ। तुरन्त इसका जवाब नहीं दे सकता।

नन्दन : अगर सोच के देने को हो तो कुछ दिन बाद पूछ लेंगे... वैसे आपके लेखन में ऐसा कोई पात्र है जिसके प्रति आप कभी भी ऐसा महसूस करते हैं कि उसके साथ आप न्याय नहीं कर सके। या जो कुछ भी लिख सके अभी भी ऐसा महसूस करते हैं कि उसमें और बहुत कुछ है जो उसके बारे में लिखा जा सकता है—या कहीं वह ‘हांट’ करता है?

अज्ञेय : ऐसा होता है कि लेखन में दो तरह के पात्र आते हैं। एक तो वह जो कि कहना चाहिए कि बिलकुल रचे गये या गढ़े हुए पात्र। कुछ पात्र, विशेष अपने परिचय में आये हुए लोगों पर आधारित होते हैं या उनसे सम्बद्ध किसी समस्या के कारण बनते हैं। और इस तरह के पात्रों का लेखन में आना एक तरह से उनके उस प्रभाव से मुक्त हो जाना होता है, उसकी हांटिंग से मुक्ति। हांट तो वही करते हैं जो कि अभी तक सामने नहीं आये।

नन्दन : कोई ऐसा पात्र जिसको प्रस्तुत करके आपको सबसे अधिक सन्तुष्टि मिली हो?

अज्ञेय : मेरा नया उपन्यास, जो अभी प्रकाशित नहीं हुआ, लिखकर मैंने रोक लिया थोड़ा परिवर्तन के लिए, उसमें वह पात्र वास्तव में आता तो नहीं है लेकिन एक पात्र को लेकर जो बीसियों बरस तक मेरे मन में समस्या रही है, वह आती हैं। जब मैं क्रान्तिकारी संगठन में था तब हमारे एक साथी थे, जिन्होंने यह इच्छा प्रकट की थी कि अगर कभी पुलिस से लड़ाई में उनकी मृत्यु हो जाए जिसकी सम्भावना तो बराबर रहती थी, तो उनका शरीर बेचकर और उससे जो भी आय हो वह आन्दोलन के काम में लगा दी जाए। जब यह बात सुनी थी तब भी कुछ अजीब-सी लगी थी, लेकिन संयोगवश ऐसा हुआ कि पुलिस से मुठभेड़ में उनको गोली लगी और उनकी मृत्यु हो गयी। तब यह सवाल सामने आया कि क्या उनकी इच्छा, जो उन्होंने घायल होने के बाद भी प्रकट की थी, उसे पूरा किया जाए? आप जानते हैं कि जिसे अन्तिम इच्छा कहा जाता है उसके प्रति किस तरह का भाव हमारे समाज में है। यह बात एक नैतिक संकट के रूप में सामने आयी। अन्त में उसकी उपेक्षा ही की गयी और उनका दाह-कर्म विधिवत् जो हो सकता था, हो गया। लेकिन इस बात को लेकर एक समस्या मेरे मन में बनी रही, उसकी नैतिकता को लेकर। जो मर जाता है वह तो एक तरह से इस सब झमेले से मुक्त हो जाता है लेकिन बाकी लोगों के लिए समस्या बनी रहती है।

‘शेखर’ के तीसरे भाग में एक पैरा में इस घटना का उल्लेख था लेकिन समस्या वही बनी रही और यह जो उपन्यास है यहीं से इसी बात से शुरू होता है। पूरा उपन्यास इसी के आसपास बुना गया है। यह एक उदाहरण है ऐसी चीज़ का जो कहना चाहिए कि हांट करती है।

नन्दन : ‘शेखर’ और ‘नदी के द्वीप’ के बाद आपने जो उपन्यास का अपना ढाँचा रखा वह बिलकुल बदला हुआ है। कोई कारण?

अज्ञेय : नहीं, ऐसी बात नहीं है। न तो मैंने यही सोचा कि जैसे उपन्यास मैंने पहले लिखे हैं, वैसे ही मुझे लिखने हैं, न यह सोचा कि उससे भिन्न लिखने हैं। लेकिन अगर हर उपन्यास अपने पहले के उपन्यास से कुछ भिन्न लगता है या भिन्न दिशा में जाता लगता है तो उसको अच्छा ही समझना चाहिए। एक जो अन्तर इससे पहले के उपन्यासों में और ‘अपने-अपने अजनबी’ में हुआ, उसका कारण बिलकुल बाहरी है। ‘अपने-अपने अजनबी’ लिखाया गया है और पहले वाले उपन्यास लिखे गये।

नन्दन : लिखाया गया से क्या मतलब? मेड टू ऑर्डर?

अज्ञेय : जी नहीं, सारा डिक्टेशन करके। और इसका मतलब यह है कि उपन्यास जब रचा जा रहा था उस समय मैं अपनी ही आवाज, अपने ही बनाये हुए वाक्य साथ-साथ सुन भी रहा था। मैं समझता हूँ कि इसका भी प्रभाव होता है। इसका भाषागत जो प्रभाव पड़ा वह ऐसा पड़ा कि भाषा को साधारण समाज के निकटतर ले जाए। इसके पहले के उपन्यास भाषा की दृष्टि से संस्कृतनिष्ठ हैं।

नन्दन : आपका यह जो नया उपन्यास है यह दिमाग से ज्यादा जिलाएगा या भावना से ज्यादा जिलाएगा?

अज्ञेय : मैं तो समझता हूँ इसमें दोनों हैं। और अगर उसको पढऩे के बाद आप यह नतीजा निकालें कि उसके लेखक में फिर दिमाग और दिल का एक सन्तुलन आ गया तो अच्छा ही है।

नन्दन : जब आप सैनिक जीवन जी रहे थे तो उस वक्त आप यह समझते थे कि इन सारे अनुभवों को लेखन के लिए इस्तेमाल करना है? यानी वैरायटी ऑफ एक्सपीरियेंस के लिए गये थे।

अज्ञेय : नहीं, ऐसा तो नहीं था कि मैं सोच रहा हूँ कि अनुभव संग्रह इसलिए कर रहा हूँ कि इनसे बाद में मुझे काम लेना है। अपने अनुभवों के प्रति इस तरह का मेरा मनोभाव कभी नहीं रहा। मैं जानता हूँ कुछ लेखक ऐसा करते हैं कि चलो कुछ नया अनुभव संग्रह कर आएँ। और ऐसे दो-एक लेखकों से परिचित भी हूँ जो सोचते हैं कि चलो कहीं एक नया प्रेम-प्रसंग हो जाए तो कहानी के लिए सामग्री मिल जाएगी। दरअसल मैं इसको जीवन के प्रति एक तरह की बेईमानी समझता हूँ। जो अनुभव सहज ढंग से जीते हुए आएँ, उन्हीं के प्रति उन्मुक्त रहना चाहिए। उनमें से जो लिखने के काम के भी हों, उनके बारे में लिखा जाए, वह दूसरी बात है। लेकिन सिर्फ इस तरह का अनुभव संग्रह करने के लिए जिएँ, ऐसा लेखक मैं नहीं हूँ।

नन्दन : किसी हिन्दी लेखक से उसके प्रेम-प्रसंगों की चर्चा चलाएँ तो वह कतराकर निकल जाना चाहता है, बताने में डरता है। आत्मस्वीकृतियों का वह खुलापन हिन्दी में नहीं के बराबर मिलता है। बाहर के लेखकों की बातचीत, आत्मकथाएँ पढ़ते हैं तो बड़ा खुलापन मिलता है उनमें। अपने यहाँ आत्म-स्वीकृतियों का माहौल क्यों नहीं बनता?

अज्ञेय : मैं यह बात नहीं मानता कि विदेश में लोग बड़ी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं। दोनों बातें होती हैं— वहाँ भी और यहाँ भी। जो सच है वह भी बताएँगे क्योंकि उनके साथ बहुत गहरा सम्बन्ध नहीं हुआ, सतही सम्बन्ध रहा है और यह भी समझिए कि उन्हें एक मौका मिला है कि कुछ गढक़र सुना दें। क्योंकि, खासकर प्रेम-प्रसंगों के बारे में व्यक्ति का अहंकार ऐसा है कि उसे सोचना अच्छा लगता है और दूसरे को यह मनवाना अच्छा लगता है कि मेरे पास इतने अधिक अनुभव हैं। पश्चिम में जिन लोगों ने आत्मकथाएँ भी लिखी हैं, तो यह तो प्रमाणित भी है कि उन्होंने झूठे, बिलकुल कल्पित प्रेम-प्रसंग लिखे हैं, बहुत अच्छी जो आत्मकथाएँ हैं जैसे कैसानोवा की आत्मकथा है, उसमें कैसानोवा के बारे में जब एक बार प्रसिद्ध हो गया कि वह एक ऐसा दिलफेंक व्यक्तित्व है, आज के मुहावरे में कहें कि अपना बिम्ब उसने ऐसा बना लिया तो उसके बाद उसने अपनी आत्मकथा में बहुत से कल्पित प्रेम-प्रसंग भी जोड़ दिये। इतिहासकारों ने बाद में पता लगाया कि वास्तव में ये घटनाएँ ऐसी हुई नहीं थीं। एक बात और...

भारतीय समाज और पश्चिम के समाज में थोड़ा-सा अन्तर है कि वहाँ विश्लेषण की प्रवृत्ति ज्यादा है। यहाँ पर साधारणतया नहीं होगी। अपने यहाँ समाज में भी इस तरह की बात को आत्मस्वीकार नहीं, बल्कि आत्मप्रदर्शन माना जाता है। ऐसा नहीं कि पूरा समाज इसे नहीं स्वीकार करता, या कर नहीं सकता। लेकिन समाज की अधिकांशतया स्थिति यही है।

नन्दन : आपसे अगर कोई आपके प्रसंगों के बारे में पूछे तो मैं मानता हूँ कि न आप उसे गढ़ के बताना चाहेंगे, न छिपाना चाहेंगे। फिर भी कहीं न कहीं मेरे मन में दुविधा है कि यहाँ वह ईमानदार आत्मस्वीकृति की स्थिति चूँकि पैदा ही नहीं हुई, इसलिए...

अज्ञेय : मैं समझता हूँ कि इससे ठीक उलटा, कम से कम तर्क के लिए तो निश्चय ही, उदाहरण दे सकता हूँ। कोई लेखक अपने प्रेम-प्रसंगों के सन्दर्भ में अपने बारे में कुछ कहे या आत्मस्वीकार करे, यहाँ तक तो मैं मानता हॅूँ लेकिन उसके जीवन में दूसरे जिन लोगों से उसका परिचय या सम्बन्ध रहा, उन व्यक्तियों के बारे में वह किस आधार से कुछ भी कह सकता है, बिना यह जाने कि इससे उस व्यक्ति को कैसा लगेगा। बिना उसकी अनुमति या अस्वीकृति के कोई कैसे इस तरह की बातें अपने बारे में कह सकता है। पश्चिम में जो लोग आत्मकथा लिखते हैं या तो वे उसके साथ यह शर्त कर देते हैं कि इसका प्रकाशन अमुक व्यक्ति की अनुमति के बिना नहीं होगा या कि अमुक-अमुक व्यक्तियों के जीवनकाल में नहीं होगा। इसका मतलब है कि आत्म-स्वीकार करते हुए भी वे सीमा का उल्लंघन नहीं करते। लेकिन यहाँ जो दो-एक आत्मकथाएँ लिखी गयी हैं उनमें लोगों ने दूसरों के बारे में ऐसी बातें कह दी हैं जिनसे स्वाभाविक है कि दूसरी दृष्टि से देखा हो। कुछ के बारे में तो मैं जानता हूँ कि मैंने उन्हीं घटनाओं को देखा तो उसी दृष्टि से नहीं देखा, जिस दृष्टि से लेखक लिख रहा है। यह जानता हूँ कि उससे कई लोगों को कष्ट होगा तो किस अधिकार से, बल्कि किस अहंकार से आदमी ऐसी बातें कह जाए जिनमें दूसरों पर आरोप है। जिनके जवाब देने का मौका उनको नहीं है।

नन्दन : आप अकेले रहने के आदी रहे हैं, विदेशों में भी रहे। ऐसी स्थिति में स्वयंपाकी होना अनिवार्य होता है।

अज्ञेय : रहा हूँ। खाना बना लेता हूँ। अच्छा भी बना लेता हूँ। ऐसा भी था कि मेरे कुछ मित्र थे जो आपस में एक-दूसरे को निमन्त्रित करते थे और कहते थे कि आप सब आओ, हमारे यहाँ खाना खाओ, वात्स्यायन आकर खाना बनाएगा। लेकिन अब तो समय कम मिलता है।

नन्दन : सबसे अच्छी क्या चीज़ बनाते थे?

अज्ञेय : जिसने खाया हो वही बताए।

नन्दन : अध्ययन करने में आप किसी विशेष स्थिति में विशेष तन्मय हो जाते हैं? कुछ लोग खड़े-खड़े किसी किताब को पढऩे में अधिक तन्मय हो जाते हैं। आपके साथ ऐसी कोई...

अज्ञेय : यह तो मेरे साथ लिखने में भी होता है। मैं खड़े-खड़े लिखता भी हूँ। पढऩे में कोई चीज़ अच्छी लगे तो कोई ठिकाना नहीं कि खड़े-खड़े या बैठे-बैठे, बस में बैठे हुए या सडक़ पर चलते हुए भी यह क्रम चल सकता है।

नन्दन : कैसी चीज़ें आपको पढऩे में ज्यादा जँचती हैं? कविता, आत्मकथाएँ, चिन्तनप्रधान लेख, दार्शनिक विवेचन... कहानियाँ...।

अज्ञेय : कविता में तो कभी-कभी कविता छोटी होती है इसलिए उस स्थिति से उद्धार भी जल्दी हो जाता है। बाकी उपन्यासों में प्राय: होता है, काफ़ी लम्बे उपन्यास भी बड़े तन्मय भाव से पढ़ सकता हूँ। निबन्ध भी पढ़ सकता हूँ। जीवनियों में तो प्राय: ऐसा नहीं हुआ। बहुत कम ऐसी जीवनियाँ मिली हैं।

नन्दन : आपने खुद ही इशारा किया कविता छोटी होती है इसलिए जल्दी उद्धार होने की बात होती है। कम समय लगता है इसलिए तो यह छोटी चीज़ें पढऩे का ज्यादा रिवाज चल पड़ा है। उससे आपको ऐसा नहीं लगता कि बड़ी चीज़ें लिखने का रिवाज धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा।

अज्ञेय : नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगता। छोटी चीज़ें पढऩे वाले लोग बहुत हैं। उसके साथ उनमें भी शायद कुछ लोग ऐसे हों जो पहचानते है कि हमने मनोरंजन के लिए छोटी चीज़ पढ़ी, लेकिन जो मूल्यवान चीज़ है वह शायद इससे ज्यादा विस्तार माँगती है, मैं तो समझता हूँ कि बड़े उपन्यास के लिए अभी क्षेत्र है और आगे और भी बड़े-बड़े उपन्यास लिखे जाएँगे।

पिछले एकाध साल में कोई ऐसी औपन्यासिक कृति आपकी दृष्टि में आयी जिसे पढक़र आपको लगा हो कि सन्तोष हुआ?

अज्ञेय : हिन्दी में तो नहीं, विदेशी उपन्यासों में कुछ अच्छे लगे। एक युगोस्लाव उपन्यासकार के उपन्यास मुझे पिछले दिनों बहुत अच्छे लगे। यों अच्छा कवि, वास्तव में ऐसा दहला देने वाला कवि दस-बीस-पचास साल में एकाध होता है। उपन्यासकार भी पीढ़ी में एकाध हो तो काफ़ी मानना चाहिए।

नन्दन : कभी-कभी एक कविता पूरे उपन्यास से ज्यादा बड़े कैनवास को ढकती मालूम होती है, किसी बड़े से बड़े उपन्यास के समकक्ष खड़ी भी हो सकती है और उससे ज्यादा दहला देने वाली हो सकती है।

अज्ञेय : हाँ, यह हो सकता है लेकिन ज़रूरी भी नहीं है कि इस क्षमता के बावजूद वह याद रहे।

नन्दन : पिछले दिनों ‘न्यास’ की बात आपने जो उठायी है, यह बात आपके मन में कब पैदा हुई? ज्ञानपीठ से एक लाख की पुरस्कार-प्राप्ति के वक्त कि इस राशि के उपयोग का क्या होगा? या पहले ही आपके मन में ऐसी कोई परिकल्पना थी?

अज्ञेय : नहीं, जिस तरह का काम सोचता हूँ, उसकी तो कल्पना थी कि कुछ ऐसा काम होना चाहिए, साधन उसके लिए जहाँ से भी उपलब्ध हों उस पुरस्कार की घोषणा हो गयी तब यह भाव तो मन में था ही कि इस राशि को इस वक्त अपने काम में नहीं लगाऊँगा। और तब यह बात उसके साथ अपने आप जुड़ गयी कि अपने काम में अगर नहीं लगाता हूँ, तो फिर जिस तरह के काम सोचता हूँ कि होने चाहिए, उसमें लगाना चाहिए। फिर यह बात भी मन में उठी कि वह यह तो होगा कि पुरस्कार हमने नहीं लिया, इस काम में लगा दिया लेकिन अगर नहीं लिया तो अपनी तरफ़ से क्या किया? तो हमने सोचा कि... और जोड़ देना चाहिए।

नन्दन : मेरा खयाल है, आप इस मामले में समर्थ भी थे और शायद आप ही यह काम कर भी सकते थे। एक साहित्यकार के जरिये इतना बड़ा काम पहले मर्तबे हो रहा है या इसके पहले भी और कभी ऐसी कोई चीज़ आपके देखने में आयी है, जो आपका मॉडल बन सके इस काम के लिए?

अज्ञेय : पता नहीं, साहित्यकारों में तो नहीं, बल्कि यह कभी-कभी सोचा करता था कि साहित्यकारों ने ऐसा काम क्यों नहीं किया। करना चाहिए जो समर्थ थे, सम्पन्न थे और जिनके ऊपर दूसरी कोई जिम्मेदारियाँ बहुत ज्यादा नहीं थीं वे भी क्यों नहीं ऐसा काम करते, ऐसा तो सोचता था।

नन्दन : मतलब मैं अपनी जानकारी के लिए चाहूँगा कि ऐसे साहित्यकारों में किसे आप मानते थे कि कुछ लोग कर सकते थे, जिनके पास इतना पैसा था यानी एक लाख रुपया एक साथ होना या निकाल सकना, यह सहज बात तो नहीं लगती?

अज्ञेय : सहज न सही लेकिन समझता हूँ असम्भव तो नहीं थी।

नन्दन : तो ऐसे लोग थे हिन्दी साहित्य में जो?

अज्ञेय : इस दृष्टि से भी लीजिए कि जिनको यह पुरस्कार मिला और उन्हें यह न भी मिला होता तो उन पर ऐसा कोई आर्थिक बोझ नहीं था। यानी अगर इसके बिना भी उनका काम चलता था तो इसको तो वे दूसरे काम में भी लगा सकते थे।

नन्दन : सुना है कि कुछ लोगों ने ऐसी इच्छाएँ व्यक्त की थीं। ऐसा नहीं कि बीच-बीच में सुनने में आता था कि वे इस पैसे को इस रूप में इस्तेमाल करेंगे, मगर यह बात शायद बहुत श्रेयस्कर है कि जितना पैसा आपको वहाँ से मिला, उतना ही अपनी तरफ़ से जोडक़र; जिसके लिए मेरा खयाल है कि आगे वाली पीढिय़ाँ आपको निश्चित रूप से साधुवाद देंगी। इनकी योजना में कौन-सी चीज़ें आपने सम्मिलित की हैं?

अज्ञेय : अभी योजना को व्यापक रखा है। जो रखा है, यह तो इसलिए था कि अगर साधन हों तो इनमें से कोई भी काम करने में कठिनाई न हो। क्योंकि एक बार न्यास का रजिस्ट्रेशन हो जाने के बाद तो उसमें कोई परिवर्तन सम्भव नहीं होता। इसलिए यह तो इसलिए रखा गया कि यह सब काम मेरी समझ में करने लायक हैं। इनमें से जब जो सम्भव हो वह करें तो इस कारण कोई कठिनाई न हो कि इसकी व्यवस्था ही नहीं की गयी थी। लेकिन इस क्रम में सोचता हूँ, तो सोचता हूँ कि व्याख्यानमाला और शिविर की व्यवस्था सबसे पहले करनी चाहिए और मेरा खयाल है कि 1981 में ये दो तो शुरू हो जाएँगे।

नन्दन : यह जो व्याख्यानमाला की परिकल्पना है आपकी, यह अलग-अलग जगहों में होने को है, एक जगह क्यों नहीं रखना चाहते आप, जैसे कि किसी एक यूनिवर्सिटी में?

अज्ञेय : स्थान उसका बदलता रहे तो मुझे तो लाभ उसमें दिखते हैं। एक तो व्याख्यान पुस्तक-आकार छपने के लिए हैं, इसलिए जो एक तरह का लाभ तो सारे देश को हो ही सकता है, कहीं भी, कोई भी उसको पढ़ सकेगा। लेकिन स्थानीय संयोजन अगर अलग-अलग जगह होता तो एक तो न्यास के ऊपर व्यवस्था का बोझ कम हो जाएगा और अलग-अलक इला$कों के लोगों को इस काम के बारे में कुछ पता लगेगा। इसमें भी उनकी रुचि बढ़ेगी। मैं तो चाहता हूँ कि अधिक लोग इसके साथ अपने को जुड़ा हुआ मानें।

नन्दन : मगर जैसे मान लीजिए, चंडीगढ़ में टैगोर सीट बना दी गयी, वहाँ उसकी एक व्यवस्था, निश्चित ढंग से स्थायी रूप से चलती रहती है। केवल आदमी बदलता रहता है। उसका एक इम्पैक्ट खासतौर से स्थायी रूप से भी पड़ता रहता है। इसमें क्या दिक्कत महसूस करते हैं आप?

अज्ञेय : नहीं, उसमें दिक्कतें नहीं हैं। वह भी सम्भव होता है तो तब होता है कि अगर आप योजना विश्वविद्यालय को दे दें। फिर उससे आगे सारी व्यवस्था उस पर छोड़ दें। क्योंकि वैसे नहीं कर रहे हैं, इसलिए उसकी उपयोगिता इससे कुछ अधिक तो नहीं जान पड़ती।

नन्दन : मगर उससे न्यास का काम थोड़ा बढ़ जाएगा, बजाय इसके कि व्यवस्था कम हो; जैसा आप सोच रहे हैं। जैसे कि हर बार के लिए अलग स्थान की तलाश करनी होगी?

अज्ञेय : नहीं, न्यास का काम तो होगा कि व्याख्यानों के लिए किसी व्यक्ति को निमन्त्रित करे, यह काम वह करेगा। और बाकी स्थानीय शोध-संस्थाओं की जो व्यवस्थाएँ होती हैं—लोगों को आमन्त्रित करना, बैठना, हॉल वगैरह का प्रबन्ध करना—ये सब काम कोई भी संस्था खुशी से करेगी। मैं तो आश्वस्त हूँ कि ऐसी संस्थाएँ होंगी जो चाहेंगी कि व्याख्यान उनके यहाँ हों।

नन्दन : इतने सारे काम के लिए आप समझते हैं दो लाख रुपये स्थायी निधि के रूप में जमा करना पर्याप्त होगा? या आप अपनी तरफ़ से कुछ-न-कुछ जोड़ते चले जाएँगे? यानी उसके अलग ढंग से जुटाने की क्या व्यवस्था होगी?

अज्ञेय : उसके बारे में ‘हाँ-ना’ तो कुछ नहीं कह सकता कि मैं अभी और क्या करूँगा, लेकिन योजना यह भी थी कि न्यास के मित्रों का एक मंडल हो और उनसे एक राशि आजीवन सदस्यता शुल्क के रूप में ली जाए और इसके जो प्रकाशन हैं, वे सब उनको उसके बाद मुफ्त मिलते रहें। जो उनके आयोजन हों, उनकी सूचना और उनके निमन्त्रण भी उनको मिलते रहें। तो इसमें भी एक तरफ़ यह धारणा है कि इस तरह से कुल जो निधि है, वह बढ़ जाएगी और इसमें रुचि रखने वाले लोगों का संग्रह बराबर होता रहेगा। मैं चाहता हूँ कि फिर इसके बाद उचित समझें तो जैसा वे चाहें, उसको चलाएँ भी, यह तो उन्हीं की निधि है।

एक बिलकुल विपरीत तरीके की बात, कहना चाहिए कि शंका की बात कर रहा हूँ। जब इस तरह के मित्र तलाशने शुरू होते हैं तो बहुत सारे लोगों के मन में कुछ शंकाएँ भी पैदा होने लग जाती हैं। लोग मानने लग जाते हैं कि ठीक है साहब, मैंने पैसे दे दिये, अब बाकी क्या हो रहा है और उसका काम कैसे कर रहे हैं, कुछ पता नहीं। लोगों के चुनाव के सन्दर्भ में भी इन तरह की शंकाएँ भी पैदा न हों, इसके लिए भी कुछ व्यवस्था मन में है? क्योंकि आगे चलकर कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ आती ही हैं।

मैं तो यह समझता हूँ कि काम फूलता है। और बाकी भविष्य में जो भी शंकाएँ हो सकती हैं जो भी गलत हो सकता है, उस सबकी व्यवस्था हम करने चलें या समझें कि हम आज कर सकते हैं, तो इसको तो मैं कहता हूँ, और प्राय: कहता हूँ, कि यह भगवान बनने का खेल मुझे पसन्द नहीं है। निष्ठापूर्वक काम किया जाए और विवेक के साथ किया जाए, तो ऐसा नहीं है कि लोग देखते नहीं हैं।

असल में पुरस्कारों की सुविधाएँ देने की जहाँ-जहाँ भी स्थितियाँ बनी हैं, वहाँ ऐसा देखने में आया है कि व्यक्ति के चुनाव में यह तो थोड़ा-बहुत माना जा सकता है कि इस व्यक्ति को नहीं लिया जाता, उस व्यक्ति को लिया जाता है या इस मर्तबे नहीं लिया गया, अगले मर्तबे लिया जाएगा। मगर प्राय: ऐसा देखा गया है कि वैचारिक धरातल पर कुछ ग्रुप्स जैसे बनने शुरू हो जाते हैं, बन जाते हैं। तो न्यासधारी मंडल जो हैं, उसमें जितने नाम मैंने देखे हैं, उनमें नई पौध को पकडऩे, उसे जाँचने की क्षमता में हो सकता है कि अभी नहीं, आगे चलकर लोग शंका करने लग जाएँ या उनकी क्षमता में शंकाएँ करने लग जाएँ, ऐसा मेरे मन में वे नाम देखने से आता है!

तो उसका उपाय भी तो वही करेंगे। और यह गुंजाइश तो है ही कि उस काम को आरम्भ करने के लिए वे देखें कि कितने न्यासधारी हो गये। वे अपनी संख्या तो बढ़ा ही सकते हैं।

क्या यह उचित नहीं कि नयी जनरेशन से भी, जिन्हें आप उचित समझते हैं, बिना किसी भेदभाव के कम से कम एकाध नाम उसमें सम्मिलित कर सकें।

मुझे नहीं मालूम कि इसके क्या औचित्य हैं और कोई सहायता कर सकता है तो उसकी क्या बाधा है, बिना न्यास का सदस्य हुए; यह भी मैं नहीं जानता।

ना, बाधा तो कुछ नहीं होती मगर अपनी तरफ़ से एक तरीके का खुला हुआ संकेत तो नयी पीढ़ी को मिलता। कोई आपकी आकर मदद करे तो इसमें किसी को बाधा तो नहीं होगी और मेरा खयाल है कि न्यास का उसमें भला ही होगा। मगर इस तरह की चीज़ अगर न्यास की तरफ़ से भी होती तो क्या बुराई थी।

सिद्धान्तत: कोई बुराई नहीं है, लेकिन जो भी, जिस व्यक्ति को भी कोई न्यास सौंपा जाए तो उसकी पात्रता का कुछ संकेत तो होना ही चाहिए। नहीं तो जो न्यासाधिकारी हैं वे किसी युवा व्यक्ति को इस योग्य समझेंगे या उसमें कोई लक्षण या प्रमाण देखेंगे इस बात के कि, वह यह काम कर सकता है तो मुझे आशा है, ज़रूर ऐसा करेंगे। लेकिन नया या अनुभवहीन होना अपने आप में गुण नहीं है।

मगर दुर्गुण भी नहीं होना चाहिए।

हाँ।

एक और खतरे की तरफ़ से आगाह करना चाहता हूँ कि ऐसी स्थितियों में पुरस्कार प्रदान करने या इस तरीके की सीट देने में एक चारा डालने वाली सिचुएशन न बन जाए! इसके लिए भी कोई न कोई व्यवस्था रहनी चाहिए।

मैं तो यह मानकर नहीं चलता कि जो भी काम जिनको सौंपा जाए, सबसे पहले इसकी व्यवस्था की जाए कि उनमें हमको सन्देह है तो उसकी क्या काट की जाए। यह आप कहें कि किसी आदमी को कोई काम देने से पहले विचार कर लिया जाए, वह ठीक है। लेकिन जिसको जो काम सौंपा, उस पर फिर विश्वास करना चाहिए कि वह निष्ठा के साथ करेगा।

यह असल में मैंने इसलिए कहा, जैसे मान लीजिए, सरकारों के जो पुरस्कार दिये जाते हैं तो अकसर वह एक तरीके से चारा जैसा डालना हो गया है... जो अधिकारीगण हैं उनके आसपास चक्कर लगाइए... तो इस तरीके की चीज़ें नहीं पनपें। उसकी प्रतिष्ठा ज्यों की त्यों, जिस उद्देश्य से शुरू की गयी है वही रहे। उसका उद्देश्य और वही उसकी प्रतिष्ठा भी बने, इसकी तरफ़ संकेत कर रहा हूँ।

मान लीजिए किसी को फेलोशिप दे रहे हैं, तो कुछ फेलोशिप तो ऐसी हैं, जिनमें फेलोशिप दे दी गयी, उसमें पुस्तक लिखी गयी और वह पुस्तक न्यास की बन गयी और न्यास ने उसको छापा। क्या यह ज़रूरी होगा कि इस तरह के फेलोशिप देने के बाद कोई बाइंडिंग लगायी जाए कि यह काम वह करे ही।

बिलकुल! यह काम तो वह करे ही। करेगा ऐसा विश्वास होगा, लेकिन करे ही, इस तरह की कोई शर्त उसके साथ नहीं होगी।

मतलब यह कि फेलोशिप अनुभव-संचय मात्र के लिए भी दी जा सकती है?

दो तरह के लक्ष्य हैं। एक तो ज्ञानवृद्धि के लिए अनुभव-संचय के लिए कोई-कोई काम करना चाहता है। उसके लिए जानकारी प्राप्त करने के लिए दस्तावेज देखने के लिए या कोई विशेष समाज भी देखने के लिए उपन्यास के लिए, आवश्यक हो सकता है। किसी एक स्थान में जाकर रहे तो उसके लिए भी उसमें गुंजाइश रहेगी और किसी ने इस तरह का संचय कर लिया हो और वह चिन्ताओं और व्यावधानों से मुक्त होकर शान्ति से लिखना चाहे तो उसके लिए भी व्यवस्था हो सकेगी।

कुछ भवन-निर्माण वगैरह की व्यवस्था नहीं है? जैसे मान लीजिए दिल्ली में कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ बाहर का कोई साहित्यकार आकर और बिना किसी वैचारिक धारा से जुड़े या कटे, सहज साहित्यिक मात्र होने के नाते, कहीं ठहर सके। बन सके कोई ऐसी चीज़, यह इस योजना में सम्मिलित नहीं?

नहीं, कोई किसी तरह का भवन-निर्माण करने की तो योजना मेरी नहीं है और सोचता हूँ कि यह काम दूसरे लोग भी कर सकते हैं और करना भी चाहिए और शायद उनको इस तरह के काम में मेरी अपेक्षा ज्यादा रुचि भी होगी। मैं सोचता हूँ तो ऐसे स्थान की बात जरूर सोचता हूँ जहाँ कुछ संग्रह करके रखा जा सके, जो कि ट्रस्ट के सम्भाव्य उद्देश्यों में एक संग्रह का भी काम है, उसके लिए जगह मिल जाए। लेकिन ज़रूरी नहीं कि उसके लिए भवन बनाया ही जाए। उसके लिए अगर रियायती किराये पर भी जगह मिल जाए, तो भी मैं उससे बिलकुल सन्तुष्ट हूँ।

जो आरकाइव बनाने की योजना है जिसकी तरफ़ शायद आप संकेत कर रहे हैं, उस आरकाइव के लिए मात्र कहना चाहिए कि लिखित साहित्य की ही व्यवस्था होगी, या जो वाचिक परम्परा में जुड़ा हुआ साहित्य है, उसकी भी?

ऐसा मैं कई वर्षों से सोचता रहा कि ऐसी भी जगह होनी चाहिए जहाँ वाचिक के टेप बनवाकर सुरक्षित रखे जाएँ, लोग सुन भी सकें उनको। पांडुलिपियों में पुरानी पांडुलिपियाँ नहीं, जो आज लोग लिख रहे हैं उनको। इस तरह ये चीज़ें भी अगर उपलब्ध हों तो उनको भी संग्रह करके रखा जाए, इस सबके लिए कोई उपयुक्त जगह हो।

इसमें साहित्य ही मात्र लक्ष्य रहेगा, या अन्य कलाओं को भी उसमें आप सम्मिलित करना चाहते हैं?

यह तो जो न्यासधारी होंगे, उनकी समझ में जो आएगा, उसकी सीमाओं के भीतर वे करेंगे।

वैसे आपकी परिकल्पना में क्या ऐसा भी है कि साहित्येतर विषय की कलाओं को इसमें शामिल किया जा सके। मान लीजिए कि आप किसी को छात्रवृत्ति देना चाहते हैं या फेलोशिप देना चाहते हैं तो किसी चित्रकार को भी यह छात्रवृत्ति या फेलोशिप दी जा सकती है?

नहीं, इतने तो साधन नहीं हैं, इसलिए वैसा विस्तार तो बहुत ठीक नहीं समझता। साहित्य से जुड़ी हुई कोई बात हो तो इतना ही कह सकता हूँ कि वह त्याज्य नहीं होगी। लेकिन शुद्ध चित्रकला, संगीत या मूर्तिकला वगैरह के लिए मेरा विचार नहीं है।

मगर कई बार ऐसा होता है कि कुछ विधाएँ एक-दूसरे को काटती हुई भी चलती हैं या अनुभव-संचय की जो बात आपने की है। अगर इस तरीके से इस न्यास का क्षेत्र व्यापक कर दिया जाए, तो हर्ज क्या है इसमें?

कोई हर्ज नहीं। उसके लिए साधन तो हों। लेकिन राइटर के लिए अनुभव-संचय की बात है तो यह अनुभव, जो कि राइटर के लिए आवश्यक है,वह तो इसमें आ ही जाएगा।

साहित्य में ही मान लीजिए जो अनेक विधाएँ हैं—कविता, कहानी, उपन्यास या नाटक—इसमें भी कोई सीमा रेखा रहेगी या?

नहीं, इसमें कोई सीमा रेखा नहीं है बल्कि यह प्रश्न भी स्पष्ट किया गया है कि राइटर का अर्थ उदार से उदार जितना लिया जा सकता है वह होगा और ये सब साहित्यिक विधाएँ हैं ही, इनमें तो कोई कठिनाई होनी नहीं चाहिए।

वैसे इसमें पुरस्कार की भी योजना है कि पुरस्कार भी दिया जाए अच्छी कृतियों को?

नहीं।

आजकल मिलने वाले पुरस्कारों के बारे में आपका क्या खयाल है?

क्या जरूरत है उसके बारे में अलग से खयाल बताने की। उनमें यह खयाल है और इतना कहना संगत भी है कि अगर उनकी प्रतिक्रिया गोपन न हो, जो निर्णायक हैं उनके नाम भी सामने आएँ और जो उनकी प्रशस्तियाँ हैं वे भी सामने आएँ, तब मैं समझता हूँ कि पुरस्कार की प्रतिष्ठा बढ़ेगी। क्योंकि जैसा मैंने बार-बार कहा है कि पुरस्कारों का महत्त्व इस बात से नहीं होता कि उसके साथ रकम या सुविधा क्या मिलती है, इन बातों से होता है कि किन लोगों के निर्णय से वह पुरस्कार दिया गया और निर्णय में उन्होंने उसमें क्या गुण देखे और उनकी दृष्टि कहाँ तक प्रामाणिक है। इसी से पुरस्कार का सम्मान बनता है।

कुछ पुरस्कार तो ऐसे मिलने लगे हैं जहाँ कि कहना चाहिए सदाव्रत जैसे बाँटा जाता है। इससे पुरस्कार की महिमा घटती है; यहाँ तक कि पुरस्कार स्वीकार करने वाले की भी महिमा उसमें घटती है। ऐसे पुरस्कारों के बारे में आपका क्या खयाल है?

यह तो आपने राय दे ही दी

नहीं, अगर आप उससे सहमत हैं तो मैं भी मानूँ कि मेरी राय ठीक है मैं इसलिए आपसे जाँचना चाहता हूँ।

ऐसे पुरस्कार तो ज्यादातर सरकारी संस्थाओं के द्वारा दिये जाते हँ। उनको यह समझना चाहिए कि सरकार रुपये बाँट रही है और रुपये की एक उपयोगिता है, बस!

न्यास की तरफ़ से कोई पत्रिका निकालने की भी योजना पर आपने विचार किया?

अभी तो मैं कहूँगा कि विचार कर रहे हैं। उसे पत्रिका कहें या पुस्तक जैसी कोई चीज़ कहें। वर्ष में एक या दो बार एक ऐसा प्रकाशन हो, जिसका उद्देश्य कृति साहित्य सामने लाना उतना नहीं जितना कि उसके लिए एक प्रतिमान उपस्थित करना हो। इस समय तो हिन्दी में एक भी साहित्यिक पत्रिका नहीं है और इसलिए कोई प्रतिमान स्थापित किया जा रहा हो या कोई साहित्यिक निकष हो, ऐसा भी नहीं है। मुझे लगा कि इस परिस्थिति में लिखा तो जा रहा है, लेकिन उसके परीक्षण और मूल्यांकन के लिए मानदंडों की स्थापना का काम नहीं हो रहा है। मुझे इसकी उपयोगिता ज्यादा मालूम हुई कि ऐसा कोई प्रकाशन हो। अब वह नियतकालिक हो या अनियतकालिक हो, इसका उतना महत्त्व नहीं है और बहुत ज्यादा अंक उसके एक साल में निकलेंगे तो शायद उसके लिए सामग्री भी नहीं मिल पाएगी। इसलिए मैं सोचता हूँ कि एक या दो का आयोजन करना चाहिए और अभी जो खोज हो रही है, उसमें यह भी है कि अगर किसी प्रकाशक से इस तरह का सहयोग हो जाए कि प्रकाशन के लिए सामग्री हम संपादित करके दे दें और उसके बाद जितना जो व्यवसाय का पक्ष है, वह सँभाल ले, तो न्यास के ऊपर बहुत अधिक बोझ नहीं होगा और काम भी सब आसानी से हो जाएँगे। लेकिन कहना चाहिए कि अभी यह पड़ताल की ही स्थिति में है।

मैं यहाँ मानूँ कि वह प्राय: आलोचना की या समीक्षा की किताब होगी। किताब कहना ही उचित समझेंगे। जो छह महीने में या साल में एक बार निकलेगी।

आलोचना की या आलोचनाशास्त्र की भी।

मगर क्या उससे बेहतर यह नहीं होगा कि जिन कसौटियों को आप निर्धारित कर रहे हैं, उन्हीं कसौटियों पर खरा उतरने वाला साहित्य भी उसमें जुड़ता चला जाए?

यह भी हो सकता है, लेकिन जितना-जितना काम सम्भव हो उसको शुरू करके बढ़ाया जाए, तो ठीक है।

मगर जब कसौटी निर्धारित की जा रही है तो उसी सन्दर्भ में समकालीन लेखन को स्थापित भी करते चलें या उस में स्थान भी देते चलें, तो शायद उन लोगों के लिए भी वह पत्रिका या बुलेटिन या जर्नल महत्त्वपूर्ण हो सकेगा, जो मात्र समीक्षा में या मात्र कसौटी के बारे में जानकारी लेने में दिलचस्पी नहीं रखते, जो उस साहित्य को, कृति साहित्य को, पढऩा चाहते हैं उनके लिए भी वह उतना ही उपयोगी हो सकता है?

ना, इतना स्थान भी नहीं होगा और साल में एक या दो बार आपने कुछ ऐसी रचनाएँ उपस्थित कर भी दीं, तो उसका उतना असर नहीं होगा। सम्भावना ज्यादा यह होगी कि जैसे रचना साहित्य की पत्रिका में आलोचना या समीक्षा होती है, तो वैसी वह हो।