अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल
उसने चिल्लाना चाहा लेकिन वह चिल्लाई नहीं। मन हुआ कि दौड़ जाए परन्तु वह दौड़ी भी नहीं। जब भी वह अखिलेश के विषय में सोचती है, तो प्रायः उसे ऐसा महसूस होता है। उसने कितनी बार चाहा कि निर्वसन हो कर ठंडे-ठंडे फर्श पर लेट जाए परन्तु एक...दो...तीन का भय उसे ऐसा करने से रोक देता था....।
सुषमा ने मेज पर पड़ी पुस्तकों पर से मिट्टी झाड़ी-पोंछी। जब कभी वह इन पुस्तकों को देखती है, तो वह उन्हें उलटे-पलटे बिना न रह पाती। जाने उसे इन पुस्तकों से क्या सन्तुष्टि मिलने लगी है। अब भी उसका ध्यान एक पुस्तक पर अटक गया है- किसी चुम्बकीय शक्ति से आकर्षित सा। उसके माथे पर रेखाएं उभरने लगी हैं। वह विद्रूप हंसी हंसे जा रही है। समय की स्लेट पर वह घटना उघड़ आई है।
अखिलेश की बहन उठ कर चाय बनाने लगी। एकान्त... पूर्ण एकान्त। क्षण भर के लिए वातावरण घुटा सा था, उसी भांति जैसे तूफान आने के पूर्व सागर शांत हो जाता है। मानसिक तनाव ढीला पड़ गया। अखिलेश बोले बिना नहीं रह सका था।‘ सुषमा आपको पढ़ने का बड़ा चाव है’। इतना ही कह पाया था वह। है तो सही- प्रत्युत्तर दिया सुषमा ने। दोनों चुप। एक युग बीत गया। बात आगे बढ़ी। उपन्यास अधिक पसन्द करती हो या कहानियाँ? यह भी कोई प्रश्न है- सोचा था सुषमा ने। प्रकाश में बोली- दोनों का अपना-अपना स्थान है। वैसे मुझे कहानियाँ अधिक पसन्द हैं। फिर दूसरे ही दिन अखिलेश ने उसके हाथ में एक कहानी संग्रह थमा दिया था। उसने दो शर्तें भी लगाई थीं। एक तो यह कि सब कहानियों को पढ़े, दूसरे यह कि वह पुस्तक वापिस नहीं लेगा। सुषमा मान गई थी। परिचय अभी नया था इसलिए उसने तर्क करना उचित नहीं समझा। अखिलेष द्वारा लगाई गई शर्तों को सोच-सोच कर खूब हंसी आ गई थी।
शर्तों में बन्धी गांठें जब खुलीं तो सुषमा को आश्चर्य भी कम नहीं हुआ। उसने चाहा था कि वह वीणा से बात करे। अखिलेश की शरारत वह छुपाना नहीं चाहती थी। उसे दिखाएगी वह कहानी जो अखिलेश द्वारा दी गई पुस्तक में प्रकाशित थी.... नायक-नायिका का नाम अखिलेश-सुषमा ही था। संयोग मात्र ने अखिलेश को भावुक बना दिया था। कहानी की मुख्य पंक्तियां उसने रेखाअंकित कर रखी थीं। सुषमा ने बार-बार कहानी को पढ़ा था। पता नहीं क्यों उसने वीणा को यह सब नहीं बताया। शायद इस आशंका से कि वीणा को यदि पता चला तो वह सचमुच ऐसा ही न समझ बैठे। शायद इसका कारण उसका संकोच था। मन ही मन उसे गुदगुदी हुई थी कि अखिलेश उसे चाहता है। इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा कर कर आया है। शीघ्र ही बड़ी सी नौकरी पर लग जाएगा। देखने में सुन्दर है। स्वस्थ है। सुशील है। फिर उसे यह जान कर हैरानी हुई थी कि अखिलेश को इतना पढ़-लिख लेने पर भी कोई नौकरी नहीं मिल पा रही थी। वास्तव में तुम नौकरी करना ही नहीं चाहते- सुषमा ने कहा था। मैं तुम्हारी नौकरी करने को भी प्रस्तुत हूं- सुषी, फिर यह बेकार इंजीनियरों के आंकड़े दिखा देता।
वह फफक-फफक कर रो पड़ी। दम घुटा-घुटा सा लगा था उसे। मन का गुब्बार निकल पड़ा था अश्रु- जल धारा बन कर। किसी से कुछ न कहा, उसे अपने पिता को बता ही देना चाहिए था- आज तक तो। तुम्हारा गला घोंट दूंगा, सुषमा तुम.... तुम मेरी पुत्री नहीं- नागिन निकली। मैं तुम्हें जीवित नहीं रख सकता। तुम्हें जीवित रखता हूं तो मैं नहीं रह सकता। उसका पिता पागलों की भांति रो पड़ा। सुषमा ने अपने पिता के पैर पकड़ लिए। उसका पिता एकदम पीछे हट गया। सुषमा के हाथ से पुस्तक नीचे गिर पड़ी। वह चौंक गई। हकबकाई सी खड़ी रही क्षण-भर के लिए। नॉर्मल हुई तो काम में लग गई क्योंकि बेकार बैठती है तो सोचा करती है कह नहीं पाती- भय जो है एक....दो....तीन का।
‘सुषमा, अभी तक कमरा साफ नहीं हो पाया।’ सुषमा की मां माया ने कहा परन्तु सुषमा ने सुना-अनसुना कर दिया। क्षण-भर को चैन भी तो नहीं मिलता। किस-किस की बात सुने वह मन की बातें समाप्त होने नहीं आती छिड़ जाएं तो चींटियों के ढेर सी बिखर जाती हैं। वह तो स्वयं भी बिखर-बिखर जाती हैं। ‘सुषमा-सुनाई नहीं दिया।’ मां फिर चिल्लाई।
सुषमा ने शून्य आंखों से अपनी मां की ओर देखा, अपने-आपको समेट लिया सुषमा ने। ‘‘मां, जो आपने कहा वह सुन तो लिया मैंने परन्तु उसमें ऐसी बात ही कौन सी थी, जिसका उत्तर दिया जाए।’’
‘‘ तू तो मुंहफट होती चली जा रही हैं।’’ माया बुड़बुड़ाती रही। आजकल जो लड़कियों के नाक में जल्दी नकेल डाल देनी चाहिए। नहीं तो मां-बाप को घूर-घूर कर देखा करती हैं- मानों कह रही हों- तुम हो हमारे दुःखों का कारण। दुख पूछो तो कहेंगीं- मेरा दम घुटा जा रहा है। मैं मरी जा रहीं हूं- घबरायी सी, अजनबी सी। सब परिचित चेहरे धोखा हैं। माया का मन लैक्चर देने को हुआ परन्तु जानती थी कि सुषमा कड़ा उत्तर देगी।
‘‘मां जो बना दे, वही बन जाऊंगी।’’ अधिक नहीं बोली सुषमा। कुछ काम किया जाए। काम कोई हो भी न। मां को ऐसे ही बोलने की आदत है। कुछ पढ़ा जाए। एक पत्रिका उठाई। ऊं हूं पढ़ने वाला है ही क्या। खिड़की में से देखा उसने- आकाश में बना हुआ इन्द्रधनुष। स्वप्निल रंग। संध्या उतर रही थी। इन्द्रधनुष पर कालिमा पुतती चली जा रही थी- रात्रि के आलिंगन-पाश की सूचक। धुंधियाया-सा वायु-मण्डल। अनेकों कीट-पतंग। वह सिहर गई। उसे भूलता नहीं वह समय जब उसने अखिलेश से कहा था- अन्धकार हम दोनों को समेट लेता है- भटकाने के लिए। अशान्ति की दीवार प्रतिदिन खड़ी हो जाती है। प्रकाश में मिल लेते हैं- हम दोनों निर्भय। प्रकाश-अन्धकार। इन दोनांे में एक खाई। यह खाई, अखिलेश, अभी और कितनी देर बनी रहेगी? तो उसने उत्तर दिया था। अन्धकार पर प्रकाश हॉवी होने ही वाला है। प्रकाश होगा- हम दोनों के मिलन का, प्रभात फूटेगी नए सपने संजो कर.... इसके लिए प्रतीक्षा अपेक्षित है।
वह बिस्तर पर फैल गई। उसे अपना शरीर अधिक स्थान घेरता हुआ लगा। थकी-थकी सी आंखें बन्द होती जा रही थीं। वीणा पास होती तो हंसा-हंसा कर मार देती। उससे सारी बातें कह के मन हल्का किया जा सकता था। परन्तु वह जो यहां से ऐसे गई कि वापिस ही न आना हो। फिर सुषमा को लगा कि वह ठीक से नहीं सोच पा रही। वीणा को गए अभी एक ही सप्ताह हुआ है। वह उसे तब भी बता सकती थी। बता देती तो अच्छा ही था। शायद वह बुरा मानती। बुरा मानना स्वाभाविक ही था। मैं जो फंस गई हूं। इधर भय बना रहता है- एक....दो...तीन का। अखिलेश मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकती। किसी भी मूल्य पर नहीं छोड़ सकती। मैंने तुम्हें अपना सब कुछ, सब कुछ, समझा है। तुम सब कुछ मेरे हो। जो तुम कहोगे वैसा ही करूंगी लेकिन उसका साथ छोड़ दो। मैं उसे सहन नहीं कर सकती- अखिलेश। माना वह मेरे से अधिक सुन्दर है (क्योंकि तुम ऐसा कहते हो)। उसके अंग मेरे से अधिक गठित हैं परन्तु..... एक बात बताओगे? यदि तुम्हें कल इससे भी अधिक सुन्दर स्त्री दिखाई पड़े तो क्या तुम इसे भी छोड़ दोगे? तुम्हारा ऐसा करना उचित होगा? तुम... तुम तो वही हो जो कभी मुझे कहा करते थे- परमात्मा ने खूब बनाया है तुम्हें। तुम किसी कवि की कल्पना का साकार रूप हो- सच्। तुम झूठ कहते हो- अखिलेश। सुषमा बोली।‘‘ विश्वास से बड़ी कोई बात नहीं। तुम्हारे साथ इतने दिन घुमता रहा हूं, कुछ घुटन सी अनुभव होने लगी थी। इसके साथ तो मैं शूगल में घूमता रहा हूं। मेरा मन तुम्हारा है। मन की शुद्धि से बड़ी होती है।’’ अखिलेश ऐसा कह कर चल दिया है। सुषमा का नारी-सुलभ हृदय तड़प उठा है- सर्प दंश समान। पुकारती है- अखिलेश? तुम... तुम.... मुझे क्यों छोड़ रहे हो। अखिलेश ऽऽऽऽ !
सुषमा इतने ज़ोर से चिल्लाई कि नम्बर दो दौड़ा आया। हरि ओम्! लड़कियों को अपने मां-बाप की भी शर्म नहीं रही। माँ बेटी को तरेरती हुई बोली- अभी क्या बक रही थी- सारा घर सिर पर उठा दिया। सुषमा ने कहा कुछ भी तो नहीं। मैं तो सो रही थी। सपना याद करके वह घबरा गई। उसका मुख पीला पड़ गया। सहम गई- खरगोश की तरह।
नम्बर एक-क्रोध-सर्प फुँफकार रहा था। कौन है अखिलेश। बोलती क्यों नहीं। नहीं बोलेगी? मैं पूछ रहा हूं- तुमने किसका नाम लिया।
नम्बर तीन बीच में ही बोल पड़ा- इसे बन्द रखो कमरे में, नहीं तो घर की इज्जत को चार चांद लगा देगी। पहले ही बहुत कुछ सुन चुके हैं।
सुषमा चुप आज तीनों बरस पड़े। मन हुआ कि कह दे कि तुम्हें फुर्सत हो तब न। उसने घूर कर इधर-उधर देखा। उसका पिता लाल-पीला हुआ जा रहा था। धप्प्.... धप्प्। सुषमा सन्न रह गई। उसका बाप यहां तक पहुंच सकता है- नहीं सोचा सुषमा ने। इतने दिन से दबती-दबाती चली आ रही सुषमा फूट पड़ी- तुम मुझे मारते हो। तुम कंजर-कंजरियां हो। तुम बाप नहीं दुश्मन हो। तुम्हारा हो जाए सबका सत्यानाश। मैं तुम्हारी जवान बेटी हूं न। पूरे सत्ताईस वर्ष की। इतनी बड़ी को मारते तुम्हें शर्म नहीं आती। सुषमा हंसने लगी- एकाएक। अखिलेश की ही तो माया- कहीं धूप कहीं छाया। उसने गा कर कहा। मूर्खो सूनो- मीरा के देवर ने उसे तंग करके घर से निकाल दिया था- शायद वह स्वयं बाहर निकल आई थी- लोकलाज को तिलांजलि देकर। वह तुम जैसों के मुंह पर थूकती थी। भगवान् ने उसे शरण दी। वह उसी में एकाकार हो गई। पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे- नाचीऽऽऽरे।
उठो बेटा- माया ने कहा। सुषमा गाने से रूकती ही न थी।
बड़ी आई है बेटी वाली। कुलच्छनी कहीं की। मुझे कहते हैं- अखिलेष कौन हैं? वह तुम्हारा बाप हैं, बाप। तेरा खसम। हां, तुम्हारा ही नहीं मेरा भी खसम हैं खसम। नम्बर एक और तीन तो दौड़े अपने कमरे की ओर। नम्बर दो कांप गया। ऐसा भी हो सकता है- उसने नहीं सोचा था। सुषमा समझदार है। कभी आंख ऊंची करके नहीं देखती। तीनों की बैठक हुई। विचार-विमर्श हुआ। सुषमा को आपस में पागल घोषित कर दिया गया। नम्बर एक ने तो कहा था- चरित्र रचती हैं। कहो तो मरम्मत कर देता हूं। न, न-पुकार उठे नम्बर दो और तीन। तीनों में समझौता हो गया। परन्तु किया क्या जाए? नम्बर दो ने सुझाया- सुषमा का विवाह कर दो। नम्बर तीन ने स्वीकृति में सिर हिलाया। नम्बर एक ने प्रतिक्रिया व्यक्त की- आजकल तो सभी देर से लड़कियों के विवाह करते हैं। और फिर कौन सी यह बूढ़ी हो गई।
‘‘विवाह समय पर कर दिया जाए तभी उचित हैं।’’ मां बोली।
‘‘समय नहीं मिलता तो उस समय ख्याल करना चाहिए था, जब एक के बाद दूसरा बच्चा पैदा करते चले गए।’’
‘‘कुदरत जो चाहती है, वही होता है।’’
सुषमा को आती देख नम्बर तीन तो भाग गया था।
‘‘ तो मैं तुम्हें प्रार्थना करने आई थी कि मुझे पैदा करो। मुझे दुनिया की रोशनी दिखाओ। तुम दोनों नरक के कीड़े हो, जो.... जो और कीड़े पैदा किए जाते हो। फिर कीड़े तो स्वेच्छा से रेंग भी सकते हैं।’’ सुषमा बोली।
भंयकर जीव, सागर की गहराई। दो प्राणी सहम-सहम गए। उन्हें पता नहीं था कि सुषमा उनकी बातों को सुन रही हैं। कोहरे में दुनिया डूब गई। उन्हें अन्धेपन की गर्मी महसूस हुई।
एक रबड़ की गुड़िया को सहारा देकर बिठाया गया है। नई चूनर ओढ़ायी गई है। गोटा-तिल्ला मढ़ा हुआ। शरीर में उभार दिया हैं। तुम वीणा हो- हो न। कृष्ण की वीणा। ऐसी वीणा जिसको चटखा दिया गया हो। नहीं, माधुरी हो। अरी बोली भी। बोलती क्यों नहीं। बालो। बोलेगा तेरा बाप भी। अखिलेश से तो आंख- मटकाते अघाती नहीं थी। इधर बोलना भी छोड़ दिया है। अखिलेश तुम्हें गुदगुदाता है। क्या मैं नहीं गुदगुदा सकती। अरी, लेट तो सही। सुषमा ने गुड़िया को लिटा दिया और उसे अपने वक्ष से दबाने लगी। ओह! तुम्हारी तो सांस गर्म हो गई है। ऐसा ही होता है बेटे। घबरा नहीं। तू माँ बनेगी। मैं इस बच्चे का बाप। कितना प्यारा होगा वह बच्चा। फिर तुम मुझे उस बच्चे को पकड़ाकर कहा करोगे- जरा पकड़ो जी। मैं तो सारा दिन थक जाती हूं इसके पोतड़े धोते-धोते। पता है फिर मैं क्या कहूंगा- तो जन्म क्यों दिया था सरकार। ऐसा कहकर मैं उसे पकड़ भी लूंगा।
सुषमा ज़ोर से हंस पड़ी। कमरा गूंज उठा।
‘‘ सुषमा।’’ नम्बर तीन यानि सुषमा का भाई ज़ोर से चिल्लाया। वह बोली नहीं। फर्श पर कोहनी के बल अध-लेटी सी पड़ी रही। ‘‘बोलेगी या नहीं।’’ ‘‘नहीं। नहीं। नहीं।’’ ‘‘सुषमा वीणा आई है।’’
‘‘तो तुम उससे विवाह रचा लों।’’ उसका भाई आंखे फाड़-फाड़ कर देख रहा था। सुषमा फिर बोली- तुमने प्यार किया है कभी? वह शर्म के मारे गड़ा जा रहा था। सुषमा को क्या हो गया। मां-बाप के बुझे-बुझे, लटके चेहरों पर उसे तरस आया। शायद सुषमा पर भी। ‘ क्यों संकोच होता है क्या? बहन कर रिश्ता ही ऐसा है। तुम भी निरे बुद्धू ही रहे। बहन भी तो स्त्री होती हैं। नहीं होती क्या?’’
‘ सुषमा होश से बात करो।’ नरेश से रहा न गया।
‘ मैं होश में हूं। शायद नहीं हूं। (क्योंकि तुम ऐसा कहते हो) तुम भी झूठ बोल सकते हो। सारी दुनिया के होश गुम हैं। प्यार का ढकोसला रचा जाता है। एक बात बताओ, नरेश क्या कभी तुम मेले में गए हो?’
संज्ञाहीन सा, बौखलाया सा नरेश उठ कर चला गया। सुषमा बोलती ही रही- जानते हो मेले में लोग-वाग क्यों जाते हैं? बढ़े भोले हो। तुम दूसरों की बहनों को छेड़ते हो और दूसरे....... बहनें भी तो छेड़-छाड़ पसन्द करती हैं। उस दिन की बात याद है जब मां के साथ मैं सत्-संग मन्दिर में गई थी। तुम शायद नहीं गए थे। शायद गए थे। नहीं गए थे। तुम साथ हाते तो मैं नंग-धड़ंग कैसे नहाती। ऐसे घूमने में, पानी की धार के नीचे बैठने में कितना मजा आता है। विशेष बात तो बतानी मैं भूल ही गई। मैं भी कैसी होती जा रही हूं।
सुषमा ने अतृप्त आंखों से देखा। उसकी माँ तनी खड़ी थी। बस भी करोगी या बकती ही जाओगी। किसी की तो परवाह करो। बहुत ही सम्भल कर कह दिया है सुषमा की माँ ने।
गुड़िया को वक्ष से भींच कर सुषमा बोली- ‘ नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली, ’बिल्ली हज को चली। मां, तुम तो समझ सकती हो। इस लिए खास बात तुम्हें बताती हूं। दुनिया की कोई औरत ऐसा किए बिना रह ही नहीं सकती। मैंने कहा न- मैं वहो सत्-संग मन्दिर में नहा रही थी पता है उस पास वाले वृक्ष पर कौन बैठा था। वह था- अखिलेश। मुझे देख-देख कर वह हंस रहा था। मुझे बड़ा ही अच्छा लगा। मैं पानी में चुहलबाजी करने लगी। और कर भी क्या सकती थी? तुम मन्दिर में बैठी पूजा मग्न थी। शायद भगवान् के चरणों में नाक रगड़ रही थीं। रगड़ा कर। नाक। तुम्हारे लिए यही उचित है। जिन्दगी भर पाप करो और फिर........ राख की ढेरी में शोला है न चिंगारी।’
माँ उठ कर जाने लगी तो खींच लिया सुषमा ने। माँ की स्थिति जाल-फंसे पक्षी जैसी थी। सुषमा के गोल-गोल मुख को देखकर उसकी माँ प्रसन्न होती थी परन्तु उसे लगता है कि उसकी बेटी का अंग-प्रत्यंग विद्रोह कर उठा है। वह अपनी बेटी की सहयता करना चाहती है परन्तु उपाय नहीं सोच पाती।
‘माँ, तुम तो पत्थर हो, पत्थर। तुम्हारे पति क्लब में चले जाते हैं और तुम घर बैठे जम्हाइयां लिया करती हो। पतिदेव के गुण गाते नहीं अघाती। वहां जो कुछ वह करते हैं- तुम नहीं जानती। नाचा करते हैं- बन्दरों की भांति। फिर अचानक बिजली चली जाती है। चली नहीं जाती। जान-बूझ कर ऐसा किया जाता है। सब अन्धेरे में अंधिया जाते हैं। कोई भी स्त्री किसी भी पुरुष की बाहों में आ गिरती है- जैसे युगों-युगों से इसी क्षण की प्रतीक्षा करती आई हो। ऐ पत्थर! कभी तूने भी किसी की बाहों में गिर कर देखा है। तुम्हारा पति अगर मेरा पति होता तो मैं उसे वहीं से घसीट लाती। तुम हो कि जी रही हो- किसी का नाम लेकर’ उसके पैरों की मिट्टी तुम्हारे लिए सोना है। मैं सत्य कहती हूं न।’’
उसकी माँ ने चाहा कि जोर से कहे- सुषमा, परमात्मा के लिए चुप हो जाओ बेटी। परन्तु आवाज गले में ही रूक गई। तरल होकर आंखों में फैल गई। सुषमा से कुछ भी कहा, तो सुनेगी नहीं। इतने में वीणा आती दिखाई दी। माँ ने संतोष की सांस ली। शायद उसकी बातचीत करके इसका मन हल्का हो जाए। वीणा आई। सुषमा के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। वह बहुत कुछ कहना चाहती थी वीणा से परन्तु क्या कहती।
‘तुम वीणा हो।’ धीमे से सुषमा बोली और अपने मुंह को वीणा के मुंह के पास ले जा कर उसे पहचानने का प्रयत्न करने लगी। ‘मैं वीणा ही हूं- ऐसे क्यों घूरते हो’- वीणा ने आश्चर्य से कहा। ‘तुम वीणा नहीं हो। तुम तो माधुरी हो।’
वीणा घबराई क्षण भर के लिए, लेकिन समझते देर नहीं लगी। माधुरी ने सचमुच अच्छा नहीं किया। उसे चाहिए था सुषमा का ध्यान रखती। ऐसे समय में, ऐसी स्थिति में ध्यान रखता भी कौन है। या फिर अखिलेश को सोचना चाहिए था। इसमें तो मैं भी दोषी ठहरती हूं। न सुषमा मुझ से मिलने आती। न मैं उसे अपने भाई से मिलाती। और न ही.... परन्तु जैसा हम विचारते हैं, सदा वैसा भी नहीं होता। उसने सुषमा की बुझी-बुझी आंखों की ओर देखा। फिर उसकी दृष्टि उस रबड़ की गुड़िया पर जा टिकी जिसे सुषमा ने पकड़ रखा था। उसकी इच्छा हुई कि सुषमा को सान्त्वना दे परन्तु ज्यों ही सुषमा की ओर देखती- वह कांप जाती। वीणा। ओ माधूरी। तुम भी धोखे में न आ जाना। पुरुष तो अपने आपको पागल कुत्ते से कम नहीं समझता। डांट-फटकार। दिन-भर यही काम। अंधकार में पालतू जानवर।
गुड़िया को सम्बोधित करके बोली- माँ, तुम्हारा जमाना लद गया है। सोचती हूं कि एक ऐसा नारी दल तैयार किया जाए जो मर्द को नारी बना दे। उसके होश ठिकाने लगा दे। मैं अखिलेश जैसों की हड्डियां मरोड़ दूंगी। अब जो नारी पुरुष की इच्छा का भक्षण है। फिर नारी की इच्छा सुप्रीम होगी। नर विवश सा हड्डी के टुकड़े को तरसेगा। नारी के पंजों में, शिकंजे में फँसे मानव की अवस्था कैसी होगी?
मां, तुम मेरी बात को तो सुनती ही नहीं। इतने दिनों से सोच रही हूं, नारी-दल बनाने की। जो मर्द नारी बन कर रहेगा उसे पालतू कुत्तों की भांति रखा जाएगा। जो नर खूंखार बनने का प्रयत्न करेगा, उसकी खाल उधड़वा कर सूखने के लिए डाल दी जाएगीं। फिर देखूंगी- साले कैसे धोखे देते हैं। ‘ सुषमा- तुम्हें क्या हो गया?’ उदास वीणा ने पूछा।
‘‘ तुम्हें पता तो है।’’ ‘ तुम इतना बोलने क्यों लगी हो?’ ‘ मैं कहां बोलती हूँ। चुप रहना मुझे बहुत अच्छा लगता है। तुम आई हो- क्या तुम्हारे साथ न बोलूं। यह गुड़िया है मेरी। कहीं यह बोर न हा जाए इसलिए इससे भी बात-चीत करती हूं। इसका प्रेमी आ जाएगा, तो इसे उसके हवाले कर दूंगी। फिर इसे कोई दुख नहीं होगा। मैं ही इसकी मां हूं, मैं ही इसका बाप।’ सुषमा ने बड़ी गम्भीरता से समझाया- वीणा को।
वीणा के आगे बिछ गया है अतीत। सुषमा का शर्मीलापन। दोनों साथ पढ़ती थीं। एक दिन वीणा ने मजाक से पूछा था- तुम विवाह करवाओगी। छिः छिः मैं क्यों किसी की दासी बनने लगी- सुषमा बोली थी और फिर छुई-मुई सी हो गई थी। ‘‘ और तुम? ’’ मैं तो करवाऊंगी ही- वीणा ने हंस कर कहा था। फिर वीणा को पता चल गया था कि अखिलेश और सुषमा बंधे-बंधे से रहते हैं।
‘‘ सुषमा- तुम्हारे मन में प्रेम का देवता उग आया है? ’’ यह भी कोई- पौधा है जो उग आया है- प्रत्युत्तर मिला। फिर तो सुषमा ने अखिलेश की प्रशंसा के पुल बांध दिए थे। ‘ उससे मिला करती हो न।’ मजाक करना चाहा था सुषमा से। ‘ मिलना कोई बुरी बात थोड़े है। मेरा अर्थ है कि यदि घर वाले तुम्हें नहीं मिलने देते तो मैं प्रबन्ध कर सकती हूं।’ दोनों के मुख से हंसी के फव्वारे छूट पड़े थे। वीणा ने सुषमा की ओर देखा। यह कांप उठी। यह सब उसके लिए कल्पनातीत था। भाई से भी कहती लेकिन वह यहां था ही कहां?
सुषमा अभी सो रही थी। रात को बहुत देर बोलती रही थीं। आजकल उसे चैन ही नहीं पड़ता। मां चिन्ताग्रस्त रहने लगी है। दिन-रात उसे सुषमा का ध्यान रखना पड़ता है। रात को देर से सोती है। सुबह जल्दी उठती है। प्रातः उठते ही उसे लगता है, मानों थकान का पहाड़ टूट कर उस पर गिर पड़ा हो। नरेश को सामान सम्भालते देखकर पूछा बेटा, क्या कर रहे हो? मां, मैं चला जाना चाहता हूं।’ नरेश बोला। लेकिन क्यों? क्या यहां रहना अच्छा नहीं लगता। सुषमा की हालत तो देखो। मैं तो मर जाऊंगी। ऐसा कहना चाहा उसकी मां ने पर कह नहीं पाई। इतना ही बोली- अभी तो तुम्हें अवकाश है, कुछ दिन और रह लेते। मां, मैं तो जाना चाहता ही नहीं था परन्तु मां समझ गई। नहीं बोली। नरेश ने झुकी आर्द्र आँखों को पोंछा और चल दिया। एक शून्य दृष्टि उसका बहुत दूर तक पीछा करती रही। मां को लगा घर की दीवारों पर से लिपी-पुतीं मिट्टी की परत गिर पड़ी हो। उसका गला रूआँसा सा हो गया। एक बेचैनी ने उसे आ दबोचा। वह एक दम उठी और सुषमा के कमरे में गई। सुषमा सो रही थी। मां का दिल धड़का। थोड़ा आगे बढ़ी। आहट हुई। चोरी पकड़ी गई। सुषमा की आँखें चमक रही थीं। मां लौट पड़ी। सुषमा का विवाह कर देना चाहिए। अब उससे कौन विवाह करवाएगा? तब लड़के वाले स्वयं आकर रिश्ता मांगते थे- परन्तु उन्हें कोई पसन्द ही नहीं आता था। कहते थे- जो स्वयं चल कर रिश्ता मांगता है, वह या तो लालची है या उसके लड़के मे कोई नुक्स है। माया को अपने विवाह की याद हो आई। मेरा विवाह चौदह वर्ष की आयु में हो गया था। तब मुझे कुछ भी पता नहीं था। सुषमा सत्ताईस वर्ष की हो गई है। अब तक विवाह हो जाना चाहिए था। फिर इतना कुछ न बोलती। विवाह लज्जाश्शील बनाता है नारी को। अपनी प्रथम भेंट को स्मरण करके हंस पड़ी।
जब भी वह अपने पति से मिलती है, तो उसका पहला प्रश्न सुषमा होती है। अब उसके पति ने स्वयं ही पूछ लिया- माया, सुषमा का क्या किया जाए? ‘‘हमारा दुर्भाग्य है।’’ ‘‘पागल है।’’ ‘‘बातें तो पूरा तर्क से करती है।’’ ‘‘तर्क करती है। निरा बकवास करती है।’’ ‘‘उसके साथ भी अंट-संट बकेगी। बात सारे शहर में फैल जाएगी।’’ दोनों चुप हो गए।
पति ने संकेत किया स्टोर की ओर। वह कुछ कहना चाहते थे। दोनों वहां खड़े रहे। फिर सुषमा की मां बोली धीमे से- क्या बात है? यों परेशान क्यों हो? ‘माया, सुषमा से मैं बहुत तंग आ गया हूं। मैं और अधिक सहन नहीं कर सकता।’ उसने फिर अपनी पत्नी की ओर ध्यान दिया, मानों पूछ रहा हो कि अर्थ समझ गई या नहीं। ‘नहीं, नहीं? ऐसा नहीं हो सकता। मैं उसकी मां हूं। उसे डॉक्टर के पास ले जाऊंगी। उसका उपचार करवाऊंगी।’ भयभीत मां का हृदय दहल उठा था। सुषमा अपनी मां की आवाज सुन कर आ गई थी। उसने अपनी माँ का अन्तिम वाक्य सुन लिया था।
‘देखा न मां, मैंने तुम्हें कहा था न कि ये पति जल्लाद होते हैं। सारी उमर औरत को दबाते रहते हैं। औरत न दबे तो हर प्रकार का ढ़ंग अपनाते हैं। उसके स्वाभिमान को मिटाने के लिए। बन्दर घुड़की देंगे- मैं जा मरता हूं फिर। तुम सुखी होकर रहना। जिस यार से चाहो गुलछर्रे उड़ाना उसको इतना कहना कि तुम जैसी औरतें पैर पकड़ लेती हैं। ‘प्राणनाथ! मेरे से भूल हो गई। मैंने ऐसे शब्द क्यों कहे? मेरी जल जाए जवान।’ फिर पतिदेव और चौड़े हो जाते हैं। जूते का जवाब जूते से दिया जाए तो ठीक रहते हैं। नारी दल की व्यवस्था हो जाए तो मैं भी अखिलेश की खाल उधड़वा दूंगी। उससे अन्याय नहीं न्याय होगा। उसे कठघरे में खड़ा किया जाएगा। उससे बोलने के लिए कहा जाएगा, तो वह सिर झुकायेगा। झूठा आदमी कभी बोल नहीं सकता है। दो-दो, तीन-तीन से प्रेम करना सिखलाऊंगी। उसकी औरत को उसी के सामने किसी और मर्द के साथ फिर देखूं क्या करता है। बोलेगा कुछ न कुछ। इलाज वही किया जाएगा जो तुम्हें बता चुकी हूं। तुम तो पत्थर हो मां। तुम्हें तो कुछ समझ में ही नहीं आता।
‘सुषमा! सुषमा! चलो अपने कमरे में।’ क्रोध में उसका पिता बोला। ‘दीवार मुझको बांध सकती है आज क्योंकर’ गाती हुई सुषमा चल दी अपने कमरे की ओर। उसका ध्यान कमरे में लगे कैलेण्डर पर चला गया हैं। हैरान हुई कि उसका ध्यान पहले वहां क्यों नहीं गया। कितना सुन्दर चित्र है। मत्स्य जीवी औरत मछली पकड़ रही है। एक मछली पानी के बाहर तड़प रही है। स्त्री के हाव-भाव बतलाते है कि मछली तथा उसकी अपनी मनः स्थिति में साम्य है। स्त्री जवान है।
सुषमा ध्यानपूर्वक देखतीं रही। फिर आचानक बोलने लगी- तुम्हारा शरीर शीघ्र ही थुलथुल हो जाएगा। शरीर का गठन सदा एक सा नहीं रहता। तुम दमयन्ती जो नहीं। हाँ, वही हो सकती हो। परमात्मा ने तुम्हें कितना सुन्दर बनाया है। ‘‘छोड़ गया नल सा निष्ठुर कोई ’’ तुम्हारा भला चाहता होगा। ये लोग भलाई का ढ़ोंग मात्र रचते हैं। मुझे भी छोड़ गया जालिम। एक दिन उसने कहा था- सुषमा मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता। तुम मेरी जान हो। दुनिया इधर की उधर हो जाए परन्तु मैं तुम्हारे साथ हूं। हर औरत जानती है कि उसे फुसलाने के लिए लोग बीसियों बातें करते हैं। फिर भी वह मृग-मरीचिका को सच मान लेती हैं। फिर जानती हो क्या हुआ? मैंने उसे अन्य लड़की के साथ देखा। फिर किसी और के साथ। मुझे विश्वास नहीं होता था। मैं कांप-कांप गई। एक दिन मैंने पूछ ही लिया- उन लड़कियों से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है? ‘जो तुम्हारे से। ’गम्भीर हो गई। नहीं बाबा नहीं। तुम कहां वह कहां? ‘तुम्हें तो मैंने चाहा है। उनके साथ तो शुगल मात्र है। केवल मन-बहलावा है। अखिलेश ने कहा था। लेकिन जानती हो उसने अपने आप को भी, मुझे तथा पता नहीं और किस-किस को धोखा दिया। अरे, जहां तुम मन-बहलाव करते हो, वहीं प्रेम करते हो। प्रेम तो बहाना मात्र है। भूख तो तुम्हें शरीर की है। फिर जानती हो क्या हुआ- एक उसे ले गई अपने साथ। शायद वह गर्भवती हो गई थी। इसलिए भागना ही उन्होंने सही समझा। दौड़ कर कहां अपने बाप के घर बैठ जाते। पुलिस पकड़ लाई थी- ऐसा मेरा विश्वास है। उसकी पिटाई भी हुई होगी। साले को नानी याद आई होगी। अभी तो नारी दल बन जाए फिर देखना क्या दण्ड देती हूं। इसका भी दिल तोड़ा जाएगा। इसकी अग्नि बढ़ा दी जाएगी। तड़पेगा। मर जाएगा, दम घुट-घुट कर अपनी ही आग में। सुषमा ने पैन्सल से कलैण्डर पर बनी औरत में छेद करते हुए कहा- शर्म नहीं आती इस प्रकार शरीर को उघाड़ते हुए। पुरुष बड़ा मक्कार है। नारी.... वह गाती-गाती एक दम रूक गई। नारी पर पुरुष के शासन की बात को मुख से निकालना तक नहीं चाहती थी।
सुषमा ने रबड़ की गुड़िया को सहलाया। कहने लगी- घबरा नहीं, बेटे तुझे तुम्हारा सब कुछ मिलेगा। मैं जो हूँ तुम्हारे साथ। पुरुष लाख कोशिश करे- हम अपनी जिद से नहीं हटेंगी। अच्छा बेटे। देखना तुम भी किसी के साथ न भाग जाना।
सुषमा को याद आया वह दिन जब उसका जीजा आया हुआ था। झेंपते हुए उसने कहा था- सुषमा तुम्हें क्या दुख है? दुख? जीजा जी आप क्या बातें करते हैं? दुख पूछना है तो जीजी से पूछो, मैं कौन हूं जिससे दुख पूछते हो। कंवर लाल चुप था। कहता तो कहता। साहस बटोर कर फिर बोला- तुम्हारा विवाह करवा दें। ‘किस से? तुम्हारे साथ चलूं। तुम्हें शर्म नहीं आती। एक लड़की से विवाह करवा लिया- थोड़ा है। देख, कैसे घूर रहा है जैसे चील रोटी को। आंखें निकाल दूंगी। ’ सोच कर, मन ही मन घटना को दोहरा कर वह पुलकित हो उठी। उसकी विजय जो निहित थी।
कंवर लाल ने ससुर से कह दिया था कि सुषमा का कुछ नहीं बन सकता। वह तो बातें ही ऐसी करती है, जो सुनी नहीं जा सकतीं। उसका उपचार करवाया जाना चाहिए। उसका ससुर बोला नहीं था। सास भी चुप रही थी। उन्हें पहले से ही सब पता था। सोचा था शायद कंवर लाल से कुछ कहे।
रबड़ की गुड़िया सजी-संवरी पड़ी थी। लाल चूनर डाल दी थी सुषमा ने। कई दिनों से सुषमा की दुनियां केवल गुड़िया तक ही सीमित रह गई थी। वीणा भी मिलने नहीं आती थी। एक दिन घर आई थी लेकिन मां से मिलकर लौट गई। मेरी बड़ी बहन को आए भी एक अरसा हो गया है। चलो उनकी इच्छा! सब अपने-अपने प्रेम में मस्त हैं। गंड़िया में ही सभी के चरित्र आरोपित करके सुषमा उससे बातें करती रहती है। कई बार उसे लगता है कि वह स्वयं भी तो गुड़िया है- रबड़ की गुड़िया। जो तोड़ी-मरोड़ी जा सकती है। जो चुपचाप सहन कर लेती है प्रहारों को। किसी से शिकायत नहीं करती। शिकायत कर ही नहीं पाती। करे भी तो किस से।
तुम जवान हो गई हो। सत्ताईस की। माँ का कहना है कि विवाह कर देना चाहिए। पिता कहते हैं- कर हीं देना चाहिए। डॉक्टर ने परामर्श दिया है- विवाह नहीं करोगे तो परिणाम कुछ भी हो सकता है। सुषमा हंस दी। अरी, तुम भी हंसो। विवाह नहीं करवाना चाहती! एक बार कहो तो सही। मैं तुम्हारी इच्छा के विरूद्ध नहीं जा सकती। तुम्हारी भावनाओं को मैं सब समझती हूं। मैंने भी प्रेम किया था। मुझे कहते थे- तुम्हारा विवाह कर देते हैं। लेकिन उससे नहीं कहते थे- वैसे तो वह भी ऐसे ही निकला। दोष इनका भी नहीं हैं? कहीं तुम्हारा दिल टूटा हुआ तो नहीं, जो रोने लगी हो। अरे, संकोच क्यों करती हो। बड़ीं मुश्किल से इन्हें ध्यान आया है तुम्हारा विवाह करने का। अब यदि तुम चुप हो गई तो फिर ऐसा अवसर आएगा नहीं। खुश हो गई न विवाह की बात से। मैंने तो सोचा था तुम मेरे पास से जाना नहीं चाहती होगी। तुम्हारा प्रेम मैं भूल नहीं सकती। तुम न होती तो मैं पागल हो जाती। वहां तो जाओजी। एक बात मेरी भी मानों। अपने पति का दिल अवश्य तोड़ देना।
सुषमा ने इधर-उधर देखा। घुटन के मारे बुरा हाल था। मन में लपटें भड़क रही थीं। मैं भांप गई हूं। बारात आएगी। दुल्हा आएगा, गुड़िया! ओह हो! तुम पति को देखना चाहती हो? अब क्या लाभ? अब तो सब कुछ होने वाला है। दुल्हा होगा ऐसा-वैसा टी. वी. का मरीज। अखिलेश...... को एक नहीं कई लड़कियां मिल सकती हैं....... मिली हैं....... क्या मुझे कोई लड़का न मिले- शुगल तो हम भी कर सकती हैं, लेकिन.....?
सुषमा ने तिमंज़ले मकान की छत से नीचे तारकोल की चौड़ी सड़क पर जाते हुए प्राणियों को देखा। दूरी एक बार बढ़ी, फिर कम हो गई। गुड़िया को छाती से सहलाया। फिर एक दम नीचे सड़क पर फैंक दिया। सुषमा की हंसी बन्द नहीं हो रही थी- कहीं कोई अटकाव आ गया था।