अटपटे नाम की चटपटी फिल्म / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :05 मार्च 2018
फिल्म उद्योग केवल लोकप्रिय सितारे और सितारा फिल्मकारों के दम पर नहीं सक्रिय रहता वरना कुछ समर्पित लोग सितारों के बिना धन कमाने वाली मनोरंजक फिल्में बनाते हैं। गाजियाबाद में जन्मे लव रंजन नामक युवा ने फिल्मकार सुनील दर्शन के सहायक के रूप में अपना कॅरिअर शुरू किया। फिल्म उद्योग के इतिहास का अध्ययन करके वे इस नतीजे पर पहुंचे कि ताज़ा कहानी और मधुर संगीत की बैसाखियों के सहारे लक्ष्य तक की यात्रा की जा सकती है। लव रंजन यह भी जान गए कि सितारों के साथ काम करने के लिए उनके पीछे बहुत दौड़ना पड़ता है और सारी ऊर्जा इसी तरह के काम में नष्ट हो जाती है। लव रंजन की ताज़ा फिल्म 'सोनू की टीटू की स्वीटी' सौ करोड़ की आय के लक्ष्य की ओर मंथर गति से बढ़ रही है। लव रंजन की पिछली फिल्मों ने लगभग सत्तर करोड़ प्रति फिल्म अर्जित किए थे। उनकी ताज़ा फिल्म के कलाकार हैं कार्तिक आर्य, सनी सिंह और नुसरत भरूचा। इन टिमटिमाते सितारों को बहुत कम लोग जानते हैं।
ज्ञातव्य है कि अजय देवगन के सचिव कुमार मंगल के सुपुत्र अभिषेक पाठक की एक शादी समारोह में लव रंजन से मुलाकात हुई और उन्होंने अगले दिन लव रंजन को अपनी पटकथा सुनाने के लिए बुलाया। उनके पटकथा सुनाने के ढंग से प्रभावित होकर अभिषेक पाठक ने फिल्म निर्माण का फैसला किया। इस तरह 'प्यार का पंचनामा' नामक फिल्म बनी, जो सफल भी रही। कोई सिताराविहीन फिल्म अपनी लागत और उस पर पच्चीस प्रतिशत मुनाफा कमा ले तो इस सफलता का अर्थ आंकड़ों के परे प्रतिभा पर विश्वास का मामला बन जाता है। इसके बाद इसी फिल्म का अगला भाग बनाया गया, जिसमें मुनाफे का प्रतिशत थोड़ा बढ़ गया।
लव रंजन की दूसरी फिल्म 'आकाशवाणी' उनकी 'प्यार का पंचनामा' से अलग हटकर एक अत्यंत गंभीर फिल्म थी। फिल्म असफल रही। लव रंजन अपनी प्रिय फिल्म के इस नतीजे से उतने ही दुखी हुए जितने राज कपूर 'मेरा नाम जोकर' से हुए थे। लव रंजन ने नई कहानी और मधुर संगीत के रास्ते पर वापसी करते हुए पहले प्यार का पंचनामा का अगला संस्करण बनाया और फिर 'सोनू की टीटू की स्वीटी' बनाई। इस तरह पुन: सिद्ध हुआ कि आकाश में रोशनी के लिए केवल निरंतर घटते-बढ़ते चांद पर नहीं वरन टिमटिमाते सितारों पर भरोसा किया जा सकता है। अमावस्या की रात में जुगनू के प्रकाश के सहारे भी सफर तय किया जा सकता है अौर चलने की तीव्र इच्छा हो तो राह खुद भी आपको बांहों में लेकर चलने लगती है। गाजियावाद से आकर महानगर मुंबई की सांस्कृतिक फिसलन से अपने आपको बचाते रहना ही एक बकमाल काम है। प्राय: सफलता स्वयं एक फॉर्मूला बन जाती है परंतु लव रंजन ने हमेशा ताज़ा कथा लिखी है। इस तरह उन्होंने स्वयं को कार्बन होने से बचाया। उन्होंने राही मासूम रजा की तरह अपने गाजियाबाद को महानगर में रहते हुए अक्षुण्ण बना रहता है। ज्ञातव्य है कि राही मासूम रजा का उपन्यास 'आधा गांव' साहित्य में अजर-अमर कृति माना जाता है। राही साहब ने भी मुंबई में रहकर अनेक फिल्मों के संवाद लिखे थे।
अनेक फिल्मों के अजीबोगरीब टाइटल भी रखे जाते है। मसलन, राजकुमार संतोषी के पिता पीएल संतोषी की एक फिल्म का नाम था 'शिन शिनाकी बबला बू।' अजीब नाम दो तरह के होते हैं। एक प्रकार है सार्थक नाम का जैसे 'झनक झनक पायल बाजे।' दूसरा प्रकार है 'शिन शिनाकी बबला बू', जिनका कोई अर्थ ही नहीं है। यह संभव है फिल्म की संगीत रचना के समय संगीतकार डमी बोल बोलता है और संतोषी ने डमी बोल को ही टाइटल बना दिया।
संगीतकार शंकर (जयकिशन) हैदराबाद के रहने वाले थे। राज कपूर की फिल्म 'श्री 420' के एक गीत की निर्माण प्रक्रिया में डमी बोल थे, 'रमैया वस्तावैया, मैंने दिल तुझको दिया।' राज कपूर ने गीत में डमी बोल कायम रखे, क्योंकि वे मधुर लगते थे। प्राय: फिल्मकार पटकथा के हाशिये में कुछ लिख देता है। हाशिये में लिखी चीजें प्रकाशित नहीं होती। इसी तरह हमारे सांसद भी टेबल पर रखे पैड पर कुछ अटपटा लिखते हैं। संसद के दोनों सदनों में लंबे समय तक काम चलता है। अनेक सदस्य अपनी ऊब से उबरने के लिए कागज पर कुछ न कुछ लिखते हैं। ये सच्चे भाव हमेशा अनअभिव्यक्त ही रहते हैं। इस तरह कागज पर बनाई आकृतियों को डूडलिंग कहते हैं। सदस्यों का भाषण देना, उनका काम है और वे अपने दल की नीति को ही बयान करते हैं परंतु उनके असली मनोभाव व्यक्तिगत कोड में डूडलिंग द्वारा अभिव्यक्त होते हैं। यह संभव है कि वे अपने नेता के लिए अभिव्यक्त अपशब्द हों। संसद में रद्दी की टोकरी की छानबीन की जानी चाहिए।