अठतल्ले से गिर गए रेवत बाबू / जयनन्दन
रेवत बाबू को लगा जैसे फ्लैट में नहीं किसी मायालोक या फिर उससे भी बढ़कर कहें तो किसी आश्चर्यलोक में वे आ गए हैं। इसे ही कहते हैं ज़मीन से उठकर आसमान में टँग जाना। आठवें तल्ले से वे नीचे झाँकते तो अनायास गिरने के बारे में सोचने लगते। अगर वे फिसलकर ऊपर से नीचे गिर जाएँ। अगर उन्हें कोई धक्का दे दे! उन्हें यहाँ का सब कुछ अपरिचित और अजीबोग़रीब लग रहा था। दोनों बेटे रतन और जतन उन्हें ताड़ रहे थे, उन्हें भाँप रहे थे।
रतन ने उनकी उड़ी हुई रंगत और सहमी हुई आँखों की दयनीयता पर तरस खाते हुए कहा, "बाउजी, अब आप अपने को इस माहौल में ढालिए। निचले तबके के शोरगुल और झंझटों से निकलकर हम शिष्ट, सुखी और संभ्रांत समाज में आ गए हैं। सफ़ाई, सुंदरता, सहूलियत, सुरक्षा, सुख और शांति के मामले में फ्लैट कल्चर से अच्छा दूसरा कोई विकल्प नहीं हो सकता।"
रेवत बाबू ने अपने बेटे के इस मंतव्य का कोई काउंटर नहीं किया। उन्होंने मन ही मन तय कर लिया था कि वे अपने बच्चों पर अपनी कोई नसीहत, अपना कोई संस्कार या अपना कोई जीवन-मूल्य जबरन नहीं थोपेंगे। चूँकि अक्सर यह थोपना ही नयी पीढ़ी की नज़र में बुजुर्गों को विलेन बना देता है। बच्चों की तरह उन्हें डॉक्टर या इंजीनियर बनना नसीब न हुआ, फिर भी वे अपने ख़यालों से लकीर के फकीर कभी नहीं रहे।
छोटी नौकरी की सीमा में रहकर वे बच्चों को उच्च से उच्चतर शिक्षा दिलाने के लिए बड़ी से बड़ी आवश्यकता को भी मुल्तवी करते रहे और अब उनकी खुशी में ही अपनी खुशी समाहित कर देना अपनी बची हुई अवकाश प्राप्त आयु का उन्होंने ख़ास अभिप्राय बना लिया।
पहले तो वे बड़े दुखी हुए जब उनके बेटों ने अपना बना बनाया घर बेचकर फ्लैट ख़रीदने का प्रस्ताव रखा, फिर वे धीरे-धीरे खुद को परिस्थितियों के हवाले करते चले गए। घर बनाने में उन्होंने मूर्त और पार्थिव पदार्थों, ईंट, गारा, सीमेंट, लोहे, पैसे आदि की तुलना में अमूर्त और हार्दिक क्रियाएँ, भावना, निष्ठा, समर्पण, एकाग्रता आदि ज़्यादा लगा रखी थीं। तब उनकी पत्नी आरती देवी जीवित थी और एक-एक ईंट की जोड़ाई में उसका समर्थन, उसका स्पर्श, उसका परामर्श और उसकी शुभकामना शामिल थीं। थोड़ा-थोड़ा करके घर ठीक-ठाक बन गया था और यह उनकी हसरतों, सपनों और उम्मीदों के प्रतिबिंब में ढलता चला गया था। उनकी स्वर्गीया पत्नी की स्मृतियाँ इस घर के चप्पे-चप्पे में बसी थीं जिनसे वे अक्सर एक अनिर्वचनीय संवाद कर लेते थे।
जब रतन इंजीनियर बन गया और जतन डॉक्टर तो आरती के भीतर अपेक्षाओं की एक से एक ऊँचे मीनारें और गुंबज खड़े होने लगे। वह खूब इतराती और सफलता का सारा श्रेय अपने मातृत्व और अपनी परवरिश को न देकर अपने इस घर को देती। अब सोचते हैं रेवत बाबू तो उन्हें लगता है कि अच्छा हुआ वह झटके से किसी बीमारी के बहाने चल बसी, वरना घर को बिकते हुए देखना उसके लिए मानो कयामत देखने के बराबर होता। अमेरिका में चार साल रहकर लौटते हुए रतन ने एक विदेशी लड़की को अपने साथ कर लिया और जतन ने नगर के ही मेडिकल कॉलेज में पढ़ाते हुए एक सहकर्मी डॉक्टरनी को पसंद कर लिया। उनके खानदान में यह पहली बार हुआ कि घर में बहुओं के लाने में बाप एक मूक दर्शक बना दिया गया।
रतन ने कहा था, "बाउजी, अब हम लोग इस जनता नगर में नहीं रह सकते। यहाँ जीने की कोई क्वालिटी नहीं है। आसपास के लोग गंदे हैं, असभ्य हैं, ज़ाहिल हैं, अशिक्षित हैं, झगड़ते रहते हैं, सफ़ाई पर ध्यान नहीं देते। हमारा पड़ोसी नाई, धोबी, बढ़ई, लुहार, फलवाला, दूधवाला हो, यह अच्छा नहीं लगता।"
रेवत बाबू रतन का मुँह देखते रह गए थे, जैसे उसकी घृणा पड़ोसियों के प्रति नहीं अपने बाप के प्रति उभर आई हो। वे भी तो इन्हीं की श्रेणी के आदमी रहे। कारखाने में एक मामूली मज़दूर। मुख्य शहर से तीस किलोमीटर दूर इस नयी बस रही बस्ती में जब उन्होंने ज़मीन लेनी चाही थी तो इन्हीं फलवाला और दूधवाला ने उनके लिए दौड़-धूप की। दूधवाला जगरनाथ उनके गाँव का था जिसने उन्हें यहाँ बसाने में अपनी पूरी सामर्थ्य लगा दी थी। यह ठीक था कि यहाँ बहुत सफ़ाई नहीं थी। योजनाबद्ध रूप से पानी का निकास नहीं था, लोग रास्ते पर पानी गिराने, चापाकल से पानी लेने, बिजली खंभे पर तार के इधर से उधर कर देने आदि छोटी-छोटी बातों को लेकर झगड़ जाया करते थे। लेकिन वे दिल से सच्चे और स्वच्छ थे और अगले ही दिन आपस में फिर बतियाते नज़र आ जाते थे। किसी भी दुख-बीमारी या आफ़त-मुसीबत में दौड़े चले आते थे।
रतन की हामी भरते हुए जतन ने जोड़ा था, "यहाँ से बच्चों की बेहतर पढ़ाई नहीं हो सकती। सारे शीर्षस्थ स्कूल मुख्य शहर में स्थित हैं। यहाँ कोई अच्छा टयूटर भी उपलब्ध नहीं हो सकता। बच्चे कल डांस या म्यूज़िक क्लास या फिर स्पोर्ट कोचिंग ज्वाइन करना चाहेंगे, मगर यहाँ से उनका कुछ नहीं हो सकेगा।"
रेवत बाबू को लगा कि उनसे यह संवाद इसी घर में पला-बढ़ा उनका बेटा नहीं कोई ग़ैर आदमी कर रहा है जिसके मुँह में जन्म से ही सोने का चम्मच लगा हुआ है। उन्होंने ज़रा दबे स्वर में पूछा, "बेटे, तुम दोनों ने इसी घर में रहकर अपनी पढ़ाई पूरी की और इसी घर में रहकर खूब कबड्डी खेली और पतंग उड़ाए, क्या पढ़ने में या ताकत में किसी से पीछे रह गए?"
अपने पिता को यों निहारा जतन ने जैसे उनके अल्पज्ञान का हास्य कर रहा हो, "बाउजी, आप नहीं समझेंगे कि यहाँ रहकर हमने क्या-क्या चीज़ें मिस की। हमने क्रिकेट खेलना नहीं सीखा, नाटक करना नहीं सीखा, क्विज़ या एलोक्यूशन आदि में भाग नहीं लिया, म्यूज़िक क्लास या अच्छा टयूशन ज्वाइन नहीं कर सका, अच्छी मूवी नहीं देखी, अच्छी सोसाइटी के तौर-तरीके नहीं सीखे।" रेवत बाबू उसे टुकुर-टुकुर ताकते हुए निरुत्तर से हो गए। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई निर्वस्त्र करके उन्हें उनकी नग्नता का बोध करा रहा है।
"इस बस्ती में वाटर लाइन तक की व्यवस्था नहीं है। कुआँ का प्रदूषित पानी पीना पड़ता है। शुद्ध पानी के बिना जहाँ कई बीमारियों का डर बना रहता है वहीं बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास पर भी असर पड़ता है।" रतन ने जैसे दूर की कौड़ी खोज निकाली।
रेवत बाबू ने कहा, "गाँव में हमारे पूर्वज पीढ़ी दर पीढ़ी कुएँ का ही पानी पीते रहे और आज भी पी रहे हैं। इससे ऐसा नहीं कि वंश आगे नहीं बढ़ा। इस मकान में रहते हुए आज सत्ताईस वर्षों से हम भी कुएँ के पानी पर ही आश्रित रहे, क्या तुम लोगों के दिमाग़ और स्वास्थ्य पर कोई फ़र्क पड़ा? बेटे, कुआँ तो कुदरत का खज़ाना है। जाड़े में इसका पानी गरम होता है और गर्मी में ठंडा।"
"बाउजी, आपको मालूम नहीं है, पानी का सिर्फ़ साफ़ दिखना ही उसे पीने योग्य नहीं बना देता। उसमें घुला हुआ जीवाणु और विषाक्त पदार्थ दिखाई नहीं पड़ता। वह फिल्टर प्लांट में शुद्ध होता है। वहाँ पानी इस तरह ट्रीटमेंट करके फिल्टर किया जाता है कि उसमें पोषक खनिज तत्व नष्ट न हों। डॉक्टर हूँ मैं, अब तो आप मेरी बात मान लिया कीजिए।"
इस ब्रह्मास्त्र के बाद रेवत बाबू को तो नि:शस्त्र हो ही जाना था। रतन ने उनमें मोह के बचे-खुचे मलबे को पूरी तरह बहा देने के ख़याल से अपना एक और ताक़तवर प्रेशर पंप निकाल लिया, "बाउजी, इस घर को बेच देने से एक तो इस इलाके से हमें मुक्ति मिल जाएगी, दूसरा- बैंक से गृह निर्माण ऋण लेकर फ्लैट ख़रीद लेने से आयकर में भारी छूट लेने के भी हम हकदार हो जाएँगे।"
रेवत बाबू को व्यवस्था का यह प्रावधान बड़ा विचित्र लगा कि जिसे कर्ज़ लेने की कोई ज़रूरत नहीं है, उसके लिए भी कर्ज़ लेने का एक आकर्षण तय कर दिया गया है।
उनके भीतर जैसे एक भूचाल समा गया। तो क्या सचमुच इस घर को बेच देना पड़ेगा? उनका ध्यान उन गाय और बकरी की तरफ़ चला गया, जिन्हें उन्होंने एक अर्से से पाल रखी थीं और जिनकी देखरेख व सेवा-टहल उनकी दिनचर्या व व्यस्तता का एक प्रमुख अंग बन गई थी। इनके बिना कैसे गुज़रेगा उनका वक्त? गाय उन्होंने उस वक्त लाई थी जब रतन-जतन कॉलेज पहुँच गए थे और उन्हें पर्याप्त दूध की ज़रूरत थी। दोनों को ही दूध बहुत पसंद था, जितना भी दो उनका मन नहीं भरता था। तब आरती ने ही सुझाया था, "दूध ही तो है जो इन पढ़नेवाले बच्चों को भरपूर ताकत देता है। इन्हें ख़रीदकर कितना दूध पिलाइएगा, एक गाय ले लीजिए।"
रेवत बाबू गाँव चले गए दीदी के पास। दीदी ने उन्हें अपनी एक गाय दे दी। यह गाय इतनी सुलच्छिनी और सुपात्र निकली कि घर में दूध की तो मानो निर्झरणी फूट पड़ी। धन-धान्य, स्वास्थ्य और पढ़ाई-लिखाई में बरकत ही बरकत होती चली गई। आरती ने इसका नाम रामवती रख दिया और इसे घर की लक्ष्मी मानने लगी।
घर में एक बूढ़ी बकरी भी थी जिसके ख़रीदे जाने का प्रसंग भी जतन से ही जु़ड़ा था। मेडिकल प्रवेश परीक्षा की ज़ोरदार तैयारी के दरम्यान वह रात-रात भर जागरण कर लिया करता था। इस कड़े अभ्यास से उसे अपच और खट्टे डकार की शिकायत रहने लगी थी। एक वैद्य ने उन्हें सुझाया कि इसे शाम को एक बार बकरी का दूध दिया कीजिए, पाचन क्रिया अपने आप दुरुस्त हो जाएगी। उन्होंने एक बड़ी नस्ल की बकरी ख़रीद ली जिसका दूध जतन के लिए सचमुच अमृत साबित हुआ। जब जतन ने प्रवेश परीक्षा पास कर ली तो मानो वे बकरी के ऋणी हो गए। लगा कि उसे बेच देना एक अपराध होगा। बकरी घर में ही रह गई। आरती ने उसका नाम सामली रख दिया था।
रामवती और सामली अब बच्चे देने की उम्र में नहीं थीं। अत: उनका ख़रीददार सिर्फ़ कसाई ही हो सकता था। रेवत बाबू इस क्रूरता को अंजाम कैसे दे सकते थे। बेटों से जब अपनी यह दुविधा व्यक्त की तो उनके चेहरे पर एक उपहास उड़ाने का भाव उभर आया। रतन ने कहा, "बाउजी, इस तरह की कोरी भावुकता से दुनियादारी नहीं चलती। आदमी के लिए जानवर एक कोमोडिटी है, उसका काम ख़त्म, उससे लगाव ख़त्म। करोड़ों ऐसे हैं जो माँस खाते हैं और माँस व चमड़े का धंधा करते हैं। पशु-पालन वैसा ही है जैसे मुर्गी-पालन, मधुमक्खी-पालन, रेशमकीट-पालन और मत्स्य-पालन होता है। जानवरों से ऐसा मोह कि वह पैर की बेड़ी बन जाए, सरासर एक बचकानापन है।"
रेवत बाबू व्यापारियों और मुनाफ़ाखोरों वाली इस भाषा से ज़रा-सा भी सहमत नहीं हुए। उन्हें लगा कि भला करने के एवज में भाला भोंकने की कहावत ये लड़के चरितार्थ कर रहे हैं। वे यह तो समझ गए थे कि घर का बिकना अब तय है, लेकिन वे इस फ़ैसले पर भी आरूढ़ थे कि रामवती और सामली को किसी हाल में नहीं बेचना है। वे अपनी चिंता लिए हुए जगरनाथ के पास चले गए। पास ही में था जगरनाथ का खटाल। आठ भैंसे थीं उसके पास, जिनसे उसकी दाल-रोटी चलती थी। वह उनका सजातीय नहीं था तब भी वे एक-दूसरे के शुभचिंतक थे और किसी की कोई गुत्थी उलझ जाती थी, तो वे मिलकर सुलझाने की कोशिश करते थे। जगरनाथ कम पढ़ा-लिखा होकर भी दुनियादारी का अच्छा तैराक था।
उसने समझाया रेवत बाबू को, "भैया, बच्चों को नाराज़ करना ठीक नहीं है। इनकी खुशी में ही अब आपकी खुशी है। जब उन्हें पसंद नहीं तो आज न कल वे घर बेच ही देंगे। आप भाग्यशाली हैं कि आपके दोनों बेटों ने ऊँचे मुकाम हासिल कर लिए। आप रामवती और सामली की फ़िक्र मत कीजिए। उन्हें मेरे पास छोड़ दीजिए। जहाँ आठ ढोरों की देखभाल करता हूँ, वहाँ दो और सही।"
रेवत बाबू ने उसकी हथेलियों को अपनी हथेलियों के घेरे में भर लिया और विह्वल हो उठे, "तुमने मेरी बहुत बड़ी समस्या हल कर दी जगरनाथ। मैं तुम्हारा यह एहसान कभी नहीं भूलूँगा भाई।"
"रेवत भैया, आपमें हमदर्दी की इतनी गहरी झील बसती है, मैं तो रीझ गया हूँ आप पर।"
"रामवती और सामली पर जो भी खर्च आएगा मैं तुम्हें दे दिया करूँगा।"
"आपकी जैसी मर्ज़ी भैया।"
फ्लैट में आ गए रेवत बाबू। कैंपस के गेट पर मोटे-मोटे हरूफ़ में लिखा था, 'वसुंधरा गार्डेन', ए ड्रीम प्लेस ऑफ दी सिटी। लगभग डेढ़ हज़ार वर्गफुट का काफ़ी महँगा, आलीशान और अत्याधुनिक फ्लैट था वह। बिल्डर ने कैंपस का शानदार श्रृंगार और सजावट कर रखी थी। वहाँ दस-दस तल्ले के बीस-बीस फ्लैट वाले कुल बीस ब्लॉक थे। रेवत बाबू को लगता ही नहीं था कि यहाँ कोई उनके रूप, रंग और रचाव से मेल खाता आदमी है। वे भौंचक थे कि इस एक दुनिया में कितनी अलग-अलग दुनिया समाई है। बाथरूम, टायलेट, फ़र्श, दीवारें, रसोई, खिड़कियाँ, पर्दे, बालकनी सबमें अभिजात्य का अदभुत परचम लहरा रहा था। उन्हें बिल्कुल नये सिरे से इनमें रहने का तरीका सीखना पड़ रहा था। अपने जनता नगर में वे मनमर्ज़ी टहल आते थे, घूम आते थे, किसी के भी घर चले जाया करते थे। अब यहाँ ऐसा संभव नहीं था। यहाँ लगता ही नहीं था कि किसी से वे घुल-मिल सकेंगे। हर आदमी उन्हें समृद्धि व बड़प्पन का एक अजीबोगरीब चोंगा ओढ़े हुए ऐसा दिख रहा था जैसे किसी से वह बोल-बतिया लेगा तो उसकी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी।
एक दिन उन्होंने अख़बार में पढ़ा कि उनके बाजू के फ्लैट की एक लड़की सामनेवाले ब्लॉक के एक लड़के के साथ भाग गई। उन दोनों के बेडरूम की खिड़की और बालकनी आमने-सामने थीं। ऐसे फ्लैटों में भी प्यार करने की गुंजाइशें बालकनी और खिड़की के रास्ते निकाली जा सकती हैं, यह पढ़कर जहाँ उन्हें अच्छा लगा, वहीं बुरा भी लगा कि पड़ोस की ख़बर उन्हें अख़बार से मिल रही है। सीढ़ी में उन्नीस और लोग रहते थे, इनकी उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। एक बार रतन से उन्होंने पूछा तो बहुत याद करके वह दो-तीन नाम ही बता सका।
थोड़े ही दिन बाद इसी वसुंधरा गार्डेन की एक और ख़बर पढ़ने को मिली। कहीं बाहर गए हुए परिवार के ताला लगे फ्लैट को कुछ चोरों ने दिन में ही खोल लिया और उसका पूरा सामान सामने ट्रक लगाकर लोड कर लिया। देखनेवालों ने यही समझा कि फ्लैटवाला यहाँ से कहीं शिफ्ट कर रहा है। रेवत बाबू ने सोचा कि जब लोग एक-दूसरे से इस तरह बेख़बर, आत्मलिप्त और असामाजिक होकर रहेंगे तो ऐसी वारदात तो होगी ही। जनता नगर में तो किसी का भी नाम पूछकर उसका घर ढूँढ़ा जा सकता था और घर पूछकर उसमें रहनेवाले का नाम जाना जा सकता था।
एक दिन एक और ख़बर उन्होंने पढ़ी कि एक फ्लैट में छापा मारकर पुलिस ने देह-व्यापार के एक पूरे रैकेट को पकड़ लिया। रेवत बाबू को लगा कि किसी दिन किसी फ्लैट में बम-बारूद बाँधा जा रहा होगा और पता तब चलेगा जब किसी चूक के कारण पूरा फ्लैट विस्फोट में उड़ जाएगा।
शुरू-शुरू में तो उन्हें ऐसा जान पड़ा जैसे वे किसी डिब्बे में बंद कर दिए गए हैं। उकता जाते तो वे बार-बार नीचे उतरकर कैंपस के पार्क, जिम या मार्केट की तरफ़ चक्कर लगा आते। एक दिन उन्हें महसूस हुआ कि उनके बार-बार आने-जाने पर लिफ्ट में कुछ लोग उन्हें गुस्से से घूरने लगे हैं। उन्होंने एक आदमी से पूछ लिया, "क्यों भाई, मेरे आने-जाने से आपको कोई तकलीफ़ है?"
उसने कहा, "काम से जाने-आने वाले उन आदमियों को तकलीफ़ तो होगी ही, जिन्हें आपके चलते लिफ्ट के लिए वेट करना पड़ता है।"
एक दिन रतन ने भी टोक दिया, "बाउजी, आपके इस तरह बेमतलब आते-जाते रहने और नीचे लावारिस चक्कर लगाने से हमारी प्रेस्टिज पर आँच आती है।"
उजबक की तरह मुँह देखते रह गए रेवत बाबू। इस बुढ़ापे में क्या-क्या सबक सीखनी होगी उन्हें? पहले तो यहाँ आते ही उन्हें बताया गया कि घर में लुंगी-गंजी पहनना छोड़कर पाजामा-कुरता पहना करें। ज़िंदगी भर वे घर में लुंगी-गंजी ही पहनते रहे। गर्मी के दिनों में तो वे उघारे बदन पड़ोस के किसी घर में भी जाना हो तो चले जाते थे। अब हरदम पाजामा-कुर्ता पहने रहने से उन्हें ऐसा लगता था जैसे वे अपने घर में नहीं, बल्कि किसी रिश्तेदार के यहाँ पाहुन बनकर बैठे हों। अब कहते हैं उनके घूमने से प्रेस्टिज ख़राब हो जाती है। आख़िर वे क्या करें पूरा दिन?
वहाँ बाड़ी में उन्होंने कई तरह के गाछ लगा रखे थे। केला, अमरूद, आम, कटहल, सहजन, बेर, पपीता, शरीफा, बेल, अनार आदि के। इन सबके फल सहज ही उपलब्ध हो जाया करते थे। कुछ सब्ज़ियाँ भी उगा लेते थे। उन्हें फूलते, फलते और बढ़ते देखना एक सुखद अनुभूति दे जाता था। यहाँ हरियाली को विलासिता का फुदना बनाकर दो-तीन दर्जन गमले रख लिए गए थे, जिनमें बौने और बाँझ पौधे तीन-तीन, चार-चार किलो मिट्टी में खुसे हुए दिखते थे। इन्हें देखकर रेवत बाबू को लगता था जैसे ये पौधे ज़मीन से उखड़कर अपने दुर्भाग्य का विलाप कर रहे हैं, उन मछलियों की तरह जो समुद्र से लाकर बोतल में डाल दी जाती हैं।
अपने घर में वे अक्सर ऐसी ही चीज़ें रखते आए थे जो किसी न किसी काम आए। यहाँ वे देख रहे थे कि सिर्फ़ शोभा, दिखावा और शान बढ़ाने के लिए अजीब-अजीब शक्ल-सूरत की महँगी-महँगी वस्तुएँ कहीं फ़र्श पर, कहीं दीवार पर, कहीं दराज़ पर टिका दी गईं हैं जिनका कोई मानी-मकसद उन्हें आजतक समझ में नहीं आया। कहते थे ये पेंटिंग्स हैं, ये स्कल्पचर हैं, ये एंटीक पीस हैं, ये झाड़-फानूस हैं, ये कालीन हैं। रतन का तीन साल का बेटा और जतन की ढ़ाई साल की बेटी किसी नर्सरी स्कूल में भेजी जाने लगी थीं।
सुबह बच्चे जाना नहीं चाहते, रोते, कलपते और कई तरह के नखरे करते। रेवत बाबू का मन दया से भर जाता, भला यह भी कोई उम्र है पढ़ने की! ये बच्चे ही घर में होते थे जिनके साथ उनका मन लगा रहता था, वरना दस बजते-बजते घर से बेटे-बहुएँ सभी निकल जातीं। उन्हें यह अजीब लगता कि इस तरह पैसा कमाने का क्या मतलब है कि कोई एक गृहस्थी सँभालनेवाला तक न रह जाए? इस काम के लिए एक मेड रख ली गई थी, जो बर्तन-वासन और झाडू-पोंछा करते हुए उनके लिए खाना भी बना दिया करती। एक-डेढ़ बजे बच्चे घर आ जाते तो रेवत बाबू उन्हें खिला-पिलाकर होम वर्क कराने में भिड़ जाते।
जतन ने एक दिन यह काम करने से भी उन्हें मना कर दिया, "बाउजी! आप क्यों बेकार इनके साथ मगज़मारी करते हैं? इन्हें हिंदी में नहीं पढ़ना है, ये अंग्रेज़ी माध्यम के बच्चे हैं। शाम में एक टयूटर आ जाया करेगा। हम चाहते हैं कि अंग्रेज़ी इनकी घुट्टी में शामिल हो जाए। ये बच्चे हँसे, गायें, रोएँ, सोचें, लिखें, पढ़ें, बोलें, खेलें सब अंग्रेज़ी में। कल जब ये बच्चे बड़े होंगे तो इनके आजू-बाजू का पूरा वायुमंडल इतना ग्लोबलाइज़ हो चुका होगा कि अंग्रेज़ी न जाननेवाले को झाडू मारने की नौकरी भी नहीं मिल सकेगी। अंग्रेज़ी हमारा बेस नहीं रही, जिसके चलते हम बहुत सफरर रहे। हमारे बच्चों के साथ ऐसा न हो, इसलिए हम चाहते हैं कि घर में सारी बातचीत अंग्रेज़ी में ही हो। इसमें हमें आपका सहयोग चाहिए।"
रिले रेस की तरह वक्तव्य का अगला हिस्सा रतन ने सँभाल लिया था, "होमवर्क करानेवाला जो टयूटर आएगा, वह कुछ समय रुककर आपको इंग्लिश स्पीकिंग का अभ्यास कर दिया करेगा। आप इसका अन्यथा न लें बाउजी। अंग्रेज़ी नहीं बोलनेवालों की इस संभ्रांत और शिक्षित समाज में क्या कद्र है, आप देख ही रहे हैं।"
उनके मन में आया - तो क्या आज तक उनका पूरा खानदान या फिर देश की 90 प्रतिशत आबादी अंग्रेज़ी के बिना ज़ाहिल ही बनकर रहती आई? उनकी कोई कद्र नहीं रही? क्या विडंबना है कि इस बूढ़े सुग्गे को अब अंग्रेज़ी सीखनी होगी! फ्लैट में आए एक माह होनेवाला था। रेवत बाबू को रामवती और सामली की याद अक्सर आ जाती। ख़ासकर जब सुबह ही सुबह डेयरीवाले दूध देने आ जाते। डेयरी का दूध उनसे एक दिन भी पिया न गया। जिंद़गी भर उन्होंने अपने सामने दुहे हुए ताज़ा दूध का सेवन किया। पिछले दिनों अख़बारों में उन्होंने पढ़ा था कि यूरिया और डिटरजेंट से दूध बनाकर लोग पैकेट में भर देते हैं। जतन ने उन्हें समझाने की कोशिश की थी, "बाउजी, डेयरी का दूध ज़्यादा फायदेमंद है। इसे पास्चराइज़ करके बैक्टीरिया फ्री कर दिया जाता है और इसमें सारे पोषक तत्वों की संतुलित मात्रा नियंत्रित रखी जाती है। आप यह दूध पिया कीजिए। बुरे और शातिर लोग गड़बड़ी फैलाते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ दूषित और ज़हरीला बन गया।"
सरेंडर कर जाने की अब उनकी आदत बनती जा रही थी। उनकी पसंद-नापसंद की अब यहाँ कोई कीमत नहीं थी। जिस चीज़ से उन्हें सख़्त चिढ़ थी, उसकी भी अब कोई रत्ती भर परवाह नहीं की जा रही थी। घर में एक अल्शेसियन कुत्ता ले आया गया। उन्होंने कई दिनों तक मौन रहकर अपनी नाराज़गी प्रकट की, मगर कोई फ़ायदा नहीं।
कुत्ता पूरे घर में घूमने और हर चीज़ सूँघने के लिए आज़ाद था। वह एक ऐसा केंद्र बन गया जो घर के सभी सदस्यों का ध्यान आकर्षित करने लगा। उसका नाम रखा गया फंडू। कोई उसे पुचकार रहा है, कोई उसे सहला रहा है, कोई उसे खिलाना चाह रहा है। उसके लिए रोज़ाना दूध और बकरे के गोश्त मँगाने का एक विशेष इंतज़ाम किया गया। उसे शैंपू से नहलाया जाता और सुबह-शाम मैदान ले जाकर घुमाया जाता। एक कुत्ते को इतना सर चढ़ाना, उस पर इतना खर्च करना, रेवत बाबू के लिए अत्यंत तकलीफ़देह था। उसका अकस्मात आकर पैर चाटने लगना, गोद में चढ़कर नाक-मुँह सूँघने लगना, बिस्तर पर चढ़कर आसन जमा देना, उन पर एकदम नागवार गुज़र जाता। वे उसे डाँटकर दुरदुरा देते, कुत्ता गुर्रा उठता। घरवाले, ख़ासकर उनकी बहुएँ और पोता-पोती दुरदुराने और गुर्राने के दृश्य का विशेष आनंद उठाने लगे, यों जैसे वे कोई विदूषक हों।
रेवत बाबू ने यहाँ आदत बना ली थी सुबह ही सुबह मार्निंग वॉक करने की। वे जानते थे कि आराम उम्र को घुन की तरह खोखला कर देता है। यहाँ मार्निंग वॉक के सिवा दूसरा कोई उपाय न था। घरवाले बेटे-बहुओं को देर तक सोने की आदत थी। फंडू के आ जाने से उनमें से किसी एक को उठना पड़ता था। शुरू-शुरू में तो जोश में उठे, फिर वे अलसाने लगे। फंडू धुँध छँटते ही बाहर जाने को मचलने लगता और दरवाज़े पर जाकर पंजे मारने लगता।
रतन ने एक दिन कह दिया, "बाउजी, आप तो रोज़ टहलने जाते ही हैं, कल से ज़रा फंडू को भी लेते जाइए।"
मिज़ाज़ बुरी तरह कु़ढ़ गया रेवत बाबू का, लेकिन वे कर भी क्या सकते थे? कुत्तों के प्रति लाख घृणा और गुस्से के बावजूद उन्हें रतन की बात माननी पड़ी। वे रोज़ देखते थे कि नीचे कई लोग कुत्तों को लेकर घिसटते हुए पार्क की तरफ़ बढ़े जा रहे हैं। ऐसे लोगों पर उन्हें कोफ्त होती थी। अब वे खुद भी उसी श्रेणी में शामिल होने जा रहे थे। एक कुत्तावाला तो उन्हें रोज़ पार्क में मिल जाया करता था जिसे देखते ही उनका पारा चढ़ जाता। उसका कुत्ता उनके बगल से गुज़रते ही पता नहीं क्यों ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लग जाता। सैकड़ों लोग होते पार्क में, मगर सिर्फ़ उन्हें ही देखकर उसके भौंकने का स्विच ऑन हो जाता। उसका मालिक कुत्ते को डाँटकर चुप कराने का स्वांग करने लगता, लेकिन उसके होठों पर एक दबी-दबी मुस्कान भी उभर आती।
रेवत बाबू देख रहे थे कि अब इस दृश्य का मज़ा लेनेवालों में कई और लोग शामिल हो गए हैं। वे उसे सुनाते हुए बड़बड़ा उठते, "पता नहीं लोग कुत्ते क्यों पालते हैं? और अगर पालते भी हैं तो ऐसे पागल कुत्ते रखकर दूसरों को तंग करने में क्या मज़ा मिलता है?"
जब रेवत बाबू पहला दिन फंडू को लेकर पार्क पहुँचे तो जैसे वे एक तमाशा बन गए। सभी लोग घूर-घूर कर देखने लगे कि कुत्तों से चिढ़नेवाला आदमी आज खुद भी कुत्ता लेकर आ गया। भौंकनेवाले कुत्ते के मालिक की आँखें तो ताज्जुब से फटी की फटी रह गईं। रोज़ की तरह उसका कुत्ता फिर भौंकने लगा, मगर आज उसे चुप कराने की उसने कोई चेष्टा नहीं की। रेवत चाह रहे थे कि जवाब में फंडू भी उससे ज़्यादा तेज़ भौंके, मगर वह अपनी पूँछ सटकाकर उनके पैरों के पास दुबक गया। सबका खूब मनोरंजन हुआ वह दृश्य देखकर। सबने यही समझा कि जवाब देने के लिए ख़ास तौर पर लाया गया कुत्ता नकारा साबित हो गया। उनका तो मन हो रहा था कि साले फंडू के बच्चे को वहीं कहीं चारदीवारी के बाहर हांक दें। मन मसोसकर घर लौटे। घर में किसी से इसका ज़िक्र भी नहीं कर सकते थे। नाहक एक और प्रहसन का सृजन हो जाता।
एक रोज़ रात को उनके लिए जगरनाथ का फ़ोन आ गया। वे खुश हो उठे, "हाँ बोलो, जगरनाथ।"
"भैया, आज शाम को मैं आपके यहाँ गया था लेकिन गेट के दरबान ने मुझे अंदर जाने नहीं दिया।"
वे समझ गए कि इंटरकॉम पर गेट के सिक्युरिटी ने घरवालों से पूछा होगा तो इधर से कह दिया गया होगा कि बाउजी घर में नहीं हैं, मत भेजो। कैसी दुनिया है यह? जनता नगर में अपने ओसारे पर गाँववाले दालान की तरह उन्होंने चौकी बिछा रखी थी, जिनका मन करे आएँ, बैठें, बतियाएँ, सो जाएँ। यहाँ आनेवाले से पहले फ़ायदा और नुकसान का हिसाब लगाया जाता है, फिर उसे 'भेज दो' या 'लौटा दो' का आदेश निर्गत किया जाता है।
जगरनाथ ने आगे कहा, "आपकी दीदी की चिट्ठी आई है, मैंने दरबान को दे दी है।"
रेवत बाबू ने उसे धन्यवाद देते हुए रामवती और सामली के बारे में पूछ लिया। जगरनाथ ने कहा कि दोनों ठीक हैं।
वे झट जाकर दरबान से चिट्ठी ले आए। दीदी ने लिखा था, 'मैं आ रही हूँ, एक महीना तुम्हारे पास रहूँगी।' रेवत खुश हो गए। उन्होंने अगले ही दिन फ्लैट का पता लिखकर जवाब भेज दिया और कहा कि वह जब मर्ज़ी आ जाए। वे और दीदी सहोदर भाई बहन थे। दीदी उनसे सात साल बड़ी थी और बचपन में ही माँ के निधन हो जाने पर घर उसने ही सँभाला था। अपने इकलौते भाई पर वह हमेशा जान छिड़कती रही थी। जनता नगर के घर में वह हर आड़े वक्त में आती रही। रतन और जतन के जन्म के समय आरती के प्रसव को दीदी ने ही आकर सँभाला था। गाँव में कुछ भी नयी फसल कटती, दीदी उसकी सौग़ात किसी के ज़रिए ज़रूर पठा देती या फिर खुद ही लेकर आ जाती। फ्लैट की इस अजनबी दुनिया में दीदी एक महीने साथ रहेगी, यह समाचार उनके एकाकी मन को बहुत सुकून दे गया।
वे दीदी के आने की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे।
एक शाम जब वे पार्क में यों ही एक-दो घंटे बिताकर घर लौटे तो जतन ने बताया, "गाँव से फुआ आई हुई है जिसे मैंने पास ही के एक अच्छे होटल कंचन में ठहरा दिया है।"
एक पल के लिए तो जैसे काठ हो गए रेवत बाबू। उन्होंने आँखे तरेरकर पूछा, "होटल में ठहरा दिया, मगर क्यों? वह मेरे साथ रहने आई है।"
बड़े शांत और संयत होकर कहा जतन ने, "बाउजी, इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। आप देख ही रहे हैं कि फ्लैट में जगह बहुत सीमित है। अमेरिका से कल भैया का साला आनेवाला है, वह एक अप्रवासी भारतीय है और इंडिया में पहली बार आ रहा है निवेश की संभावना तलाश करने। भैया जिस कारखाने में इंजीनियर हैं, उसमें अगर निवेश का समझौता हो गया तो भैया के स्र्तबे में चार चाँद लग जाएगा। इसलिए हमें पहले उसका ख़याल रखना ज़रूरी है।"
रेवत बाबू का दुख किसी गुब्बारे की तरह फट पड़ा, "इस घर में कुत्ता रह सकता है लेकिन मेरी बहन नहीं रह सकती। अरे जगह की कमी थी तो कहा होता मुझे, मैं बालकनी में या कहीं भी फ़र्श पर सो जाता।"
"फुआ का जो हुलिया है, उसे अगर हम घर में एडजस्ट कर भी देते तो उसका प्रभाव अच्छा नहीं होता, बाउजी।"
"ठीक कहा तुमने, अमेरिका से खुदा बनकर जो डॉलर का निवेश करने आ रहा है उसका इम्प्रेशन, गाँव की एक अनपढ़-गऱीब औरत को तुम्हारे फुआ के रूप में देखकर, अच्छा कैसे रह पाता! देख लो, कहीं बाप के रूप में मुझे देखकर भी उनके निवेश का मुड तो ख़राब नहीं हो जाएगा?"
शुरू-शुरू में जब रेवत फ्लैट में आए थे तो अक्सर उनका ध्यान ऊपर से नीचे गिरने पर चला जाता था। आज उन्हें लगा कि वे सचमुच अठतल्ले से ढकेल दिए गए।
वे भागते हुए होटल पहुँचे, मगर वहाँ दीदी नदारद थी। पता चला आधे घंटे में ही वह होटल छोड़कर चली गई। काटो तो खून नहीं, कहाँ गई होगी दीदी? उनके सिवा और कोई भी तो नहीं है परिचित। जाड़े की रात में फुटपाथ पर भी नहीं सोया जा सकता। आज वापसी के लिए भी कोई साधन नहीं। अचानक उनके माथे में जगरनाथ का नाम कौंध गया। एक ऑटो लिया और वे पहुँच गए जगरनाथ के घर। वहाँ उन्होंने देखा कि एक छोटे से अलाव के सामने दीदी को बिठाकर जगरनाथ और उसकी घरवाली मनुहारपूर्वक खाना खिला रहे हैं। हृदय भर आया रेवत बाबू का। एक गाँव के होने के अलावा उनका कोई नहीं लगता जगरनाथ, फिर भी उनकी दीदी को कितना मान दे रहा है। दीदी ने उन्हें देखते ही खाना छोड़कर अपनी बाहें फैला दी और उन्हें गले से लगा लिया, "मुझे तो लगा था कि अब अपने भाई रेवत से मेरी मुलाक़ात नहीं हो सकेगी। नये धान का चूड़ा, फरही और गन्ने का नया गुड़ लेकर आई हूँ। सोचा था इन्हें जगरनाथ के पास छोड़कर कल वापस चली जाऊँगी।"
रेवत फूट-फूटकर रो पड़े, "मुझे माफ़ कर देना दीदी, तुम्हारे साथ जो सलूक हुआ, उसका गुनहगार हूँ मैं।"
दोनों भाई-बहन बैठकर सुख-दुख बतियाने लगे। कुछ ही देर बाद उन्हें रामवती और सामली का ख़याल आ गया। उन्होंने एक थाली में दीदी का लाया चूड़ा और गुड़ निकाला, दो-तीन फांक चूड़ा खुद खाया और बाकी लेकर बाजू में ही स्थित गोहाल चले गए। रामवती एक खूँटे में बँधी थी और पास ही में सामली भी। उन्हें लगा कि एक डेढ़-महीने में दोनों कुछ ज़्यादा ही बूढ़ी हो गईं। उन्होंने पुकारा, "रामवती, सामली।" सामली 'में-में' करके कान हिलाने लगी और रामवती टुकुर-टुकुर उनका मुँह देखने लगी। उन्हें महसूस हुआ जैसे इन आँखों में ढेरो गिले-शिकवे भर गए हैं। उन्होंने तीन-चार मुट्ठी चूड़ा सामली के आगे और थाली रामवती के मुँह के पास रख दी। दोनों खाने से बेपरवाह उनके मुँह ही देखती रहीं। रेवत ने रामवती की लंबी मुखाकृति को अपनी गर्दन से लगा लिया और एक बार फिर बिलख पड़े, "रामवती, मैंने तुम दोनों को बेघर कर देने का गुनाह किया, देखो, आज मैं भी अठतल्ले से नीचे गिर गया।"