अठारहवाँ अध्याय / गीता हृदय: दूसरा भाग / सहजानन्द सरस्वती
पीछे के सत्रह अध्यायों में ही गीता के सभी विषयों का आद्योपांत निरूपण हो गया। अब कुछ भी कहना बाकी न रहा। इसीलिए कृष्ण को भी स्वयं आगे कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं प्रतीत हुई। इसीलिए अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में ही बची-खुची बातें कहते हुए, या यों कहिए कि कही हुई बातों को ही दुहराते एवं शब्दांतर से उनका स्पष्टीकरण करते हुए, उनने सबों का उपसंहार इस अध्याय में किया। यदि गौर से देखा जाए तो इस अध्याय में न तो कोई नई बात ही कही गई है और न किसी बात को कोई ऐसा रूप ही दिया गया है जो पहले दिया गया न रहा हो, या जो बिलकुल ही नया हो। त्याग का ब्योरा, कर्त्ता, बुद्धि आदि की त्रिविधता, वर्णों के स्वाभाविक कर्म आदि में एक भी बात नई नहीं है और न यहाँ किसी को नया रूप ही मिला है। या तो गीता के बाहर ही ये बातें प्रचलित रही हैं या, ऐसा न होने पर भी, गीता में ही पहले आ गई हैं। जो लोग इससे पहले के अध्यायों को ध्यान से पढ़ गए हैं उन्हें यह बात साफ मालूम होती है। त्याग के बारे में कई मत कह देना यह गीता की बात न भी हो तो कोई नई तो है नहीं। इसकी बुनियादी चीजें, जिन्हें फलेच्छा और आसक्ति का त्याग कहते हैं, पहले जानें बीसियों बार कही जा चुकी हैं। सात्त्विकादि तीन विभाग तो चौदहवें में और सत्रहवें में भी आया ही है। कुछ चुने-चुनाए और भी दृष्टांत देने से ही नवीनता आ जाती नहीं। आत्मा का अकर्तव्य और गुणों का कर्तव्य भी पहले आई चुका है। सो भी अच्छी तरह। इस तरह प्रारंभ के चौवालीस श्लोकों तक पहुँच जाते हैं।
उसके बाद के पूरे 22 श्लोक में कुछ में जो स्वधर्मानुष्ठान की महत्ता बताई गई है और उसी के द्वारा कल्याण की बात कही गई है वह भी पहले खूब ही आई है। फिर संन्यास यानी स्वरूपत: कर्मों के त्याग की बात जरूरी बता के जिसके लिए वह जरूरी है उस समाधि या ध्यान का भी वर्णन कुछ श्लोकों में किया है। अनंतर उसी समदर्शन का वर्णन किया है जिसका बार-बार वर्णन आता रहा है। उसी में ज्ञानीभक्त नामक चौथे भक्त का भी जिक्र है। जो लोग ज्ञान के बाद भगवान में ही कर्मों को छोड़ के लोकसंग्रह के काम करते हैं उनका वर्णन करके हठ के साथ उलट-पलट करने या बातें न मानने से अर्जुन को रोका-समझाया है। यह भी कहा है कि यकीन रखो, तुम्हें प्रिय समझ के ही यह उपदेश दे रहा हूँ; न कि इसमें मेरा कुछ दूसरा भी मतलब है। फिर भी आँखें मूँद के कुछ भी करने को नहीं कहता। करो, मगर खूब सोच-समझ के! अंधपरंपरा अच्छी नहीं है। अंत में 66वें श्लोक में संन्यास यानी कर्मों के स्वरूपत: त्यागने का, जिसके बारे में अर्जुन का प्रश्न था, वर्णन कर दिया है। इस तरह गीतोपदेश पूरा किया है। अंत में ऐसा कहने का मौका भी इसीलिए आ गया है कि आत्मा में मन को हर तरह से बाँध देने का जो अंतिम उपदेश अर्जुन को दिया है वह तब तक संभव नहीं जब तक नित्य-नैमित्तिक या नियत धर्मकर्मों से छुट्टी न ली जाए? इसके बाद से अंत तक गीतोपदेश के नियम, शिष्टाचार और परंपरा आदि का ही वर्णन है। अंत में कृष्ण ने पूछा है कि बातें समझ में आईं या नहीं? इस पर अर्जुन ने उत्तर दिया है कि हाँ, सब समझ गया और आपकी बातें मानूँगा। इसके बाद के पाँच श्लोक तो संजय की उस समय की मनोवृत्ति की विचित्रता बताने के साथ ही कौन जीतेगा, कौन हारेगा यही बातें कहते हैं। एक श्लोक कृष्ण के उस निराले तथा अलौकिक स्वरूप की याद दिलाता है जो अर्जुन को उपदेश देने के समय था और जिसका वर्णन हमने पहले ही अच्छी तरह कर दिया है। अब इनमें नई बात कौन-सी आ गई है जिसके पीछे माथापच्ची की जाए?
यही वजह है कि अर्जुन ने आरंभ में प्रश्न भी नहीं किया। उसने तो केवल इच्छा जाहिर की। सो भी संन्यास या त्याग का न तो अर्थ ही जानने के लिए है और न उनके लक्षण ही। दोनों शब्दों के अर्थ तो एक ही हैं यह पहले ही बता चुके हैं। यह भी दिखा चुके हैं प्रश्न के बाद दोनों शब्द यहाँ भी एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। लक्षण की भी बात नहीं है। क्योंकि यहाँ लक्षण न कह के त्याग के बारे में नाना मत ही बताए गए हैं। इसे लक्षण तो कहते नहीं। चार मतों के सिवाय कृष्ण ने जो अपना मत कहा है वह भी न तो नया है और न लक्षण ही है। किंतु केवल कर्तव्यता की बात ही उसमें है। असल में ज्ञान के अलावे गीता की तो दोई खास बातें हैं। उनमें एक को कर्मों का संन्यास या स्वरूपत: त्याग कहते हैं तथा दूसरे को साधारणत: केवल 'त्याग' कहते हैं। मगर हैं ये दोनों कठिन तथा विवादग्रस्त। इसीलिए पहले बार-बार इनका जिक्र आया है। संन्यास का तो आया ही है। त्याग का भी 'संगं त्यक्त्वा धनंजय' (2। 48), 'त्यक्त्व कर्मफलासंगं' (4। 20) 'संग त्यक्वात्मशुद्धये' (5। 11), 'युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा' (5। 12) तथा अंत में 'सर्वकर्मफलत्यागं' (12। 11) आदि में जिक्र आया है। इसलिए अंत में अर्जुन यही जानना चाहता है कि जब ये दोनों इतने विलक्षण हैं, गहन हैं, और 'कवयोऽप्यत्रमोहिता:' (4। 16) में यह भी कहा गया है कि बड़े से बड़े चोटी के विद्वान भी इनके बारे में घपले में पड़ जाते हैं, तो इन दोनों की अलग-अलग हकीकत, असलियत या तत्त्व क्या है। उसके कहने का यही मतलब है कि इनके बारे में जो भी विभिन्न विचार हों उन्हें जरा सफाई और विस्तार के साथ कह दीजिए, ताकि सभी बातें जान लूँ। इसीलिए त्याग के ही बारे में पहले पाँच तरह के विचार कृष्ण ने दिखाए हैं - चार दूसरों के और एक अपना। संन्यास के बारे में तो ऐसे अनेक विचार हैं नहीं। इसीलिए अर्जुन के शब्दों में पहले आने पर भी कृष्ण के शब्दों में वह पीछे आया है। उसके बारे में केवल यही बात विस्तार से कहने की थी कि उसका मौका कब और कैसे आता है। यही उनने बताई भी है। वह अंतिम चीज भी तो है। इसलिए अंत में ही उसे कहना उचित भी था। कुछ लोग नादानी से कर्मों को हर हालत में छोड़ देना ही संन्यास समझते हैं। उससे निराली ही चीज संन्यास है, यह भी बात संन्यास का तत्त्व बताने से मालूम हो गई है। नहीं तो मालूम हो न पाती। इसीलिए जो लोग संन्यास के संबंध की जिज्ञासा का उत्तर पहले ही मान लेते हैं वह मेरे जानते भूलते हैं। क्योंकि उनके मन से तो पीछे संन्यास का जिक्र निरर्थक हो जाता है।
इसी अभिप्राय से ही -
अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥ 1 ॥
अर्जुन ने कहा (कि) हे महाबाहो, हे हृषीकेश, हे केशिनाशक, संन्यास और त्याग दोनों ही की अलग-अलग हकीकत जानना चाहता हूँ। 1।
श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु:।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:॥ 2 ॥
त्याज्यं दोषवदित्ये के कर्म प्राहुर्मनीषिण:।
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यमिति चापरे॥ 3 ॥
श्री भगवान ने कहा (कि) (कुछ) विद्वान सकाम कर्मों के त्याग को ही त्याग मानते हैं, (दूसरे) विवेकी जन सभी कर्मों के फलों के त्याग को ही त्याग कहते हैं, कोई-कोई मनीषी - मननशील पुरुष - कहते हैं कि कर्ममात्र का ही त्याग करना चाहिए जैसे बुराई का त्याग किया जाता है। और चौथे दलवाले कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप जैसे कर्मों को छोड़ना चाहिए ही नहीं। 2। 3।
यहाँ चार स्वतंत्र मत बताए गए हैं और चारों का ताल्लुक त्याग से ही है। अपना पाँचवाँ मत कृष्ण आगे बताते हैं। इनमें तीसरा ही मत ऐसा है जो कर्मों का त्याग हर हालत में हमेशा मानता है और कहता है कि जैसे दोष का त्याग हमेशा हर हालत में करते हैं वैसे ही कर्म का भी होना चाहिए। यहाँ 'दोषवत' का अर्थ है दोष की तरह ही। दोषवत का अर्थ दोषवाला भी होता है। इस तरह यह अर्थ होगा कि कर्म तो दोषवाला हई। इसी से उसे छोड़ ही देना ठीक है। मगर कर्म का यह स्वरूपत: त्याग संन्यास नहीं है यही गीता का मत है। यह मानती है कि ऐसा न करके केवल समाधि के पहले ही उसे त्यागने को संन्यास कहते हैं। यही बात 'सर्वधर्मान् परित्यज्य' में आगे लिखी गई है। पूर्ण ज्ञान के परिपाक के हो जाने पर मस्ती की दशा में भी कर्मों का त्याग स्वरूपत: हो जाता है ऐसा गीता का मान्य है, जैसा कि 'यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्' (3। 17) में स्पष्ट है। मगर हर हालत में कर्मों का त्याग न तो उसे मान्य है और न संभव, जैसा कि 'नहि कश्चित्' (3। 5) से स्पष्ट है।
निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविध: सं प्रकीर्त्ति त:॥ 4 ॥
हे भरत श्रेष्ठ, हे पुरुषसिंह, उस त्याग के बारे में मेरा निश्चय भी सुन लो। क्योंकि त्याग तीन तरह के होते हैं। 4।
इस श्लोक के उत्तरार्द्ध का यह भी आशय हो सकता है कि 'क्योंकि त्याग के बारे में तीन बातें कही जा सकने के कारण वही तीन ढंग से जानने योग्य है।' इनमें पहली बात वह है जो पाँचवें श्लोक के पूर्वार्द्ध में आई है कि यज्ञ, दान, तप को न छोड़ के करना ही चाहिए। दूसरी उत्तरार्द्ध में पहले कथन के हेतु के रूप में ही आई है कि ये यज्ञादि मनीषियों को भी पवित्र करने वाले हैं। इसीलिए इन्हें करना ही चाहिए। तीसरी बात छठे श्लोक में है कि आसक्ति और फल दोनों को ही छोड़ के इन्हें करना चाहिए। इस प्रकार तीन बातें हो गईं। सारांश रूप में पहली यह कि यज्ञ, दान, तप को कभी न छोड़ें। दूसरी यह कि उन्हें जरूर करें; क्योंकि यह पवित्र करने वाले हैं। तीसरी यह कि इनके करने में भी कर्म की आसक्ति और फल की इच्छा को छोड़ ही देना होगा। यही तीन तरह की बातें त्याग को लेकर हो गईं।
यज्ञदानतप: कर्म न त्याज्यं कार्यमेव च।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥ 5 ॥
एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्त्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥ 6 ॥
यज्ञ, दान, तप इन कर्मों को (कभी) नहीं छोड़ना, (किंतु) अवश्य ही करना चाहिए। (क्योंकि) यज्ञ, दान, तप ये मनीषियों को भी पवित्र करते हैं। (फिर औरों का क्या कहना?) (लेकिन) इन कर्मों को भी, इनमें आसक्ति और फलेच्छा को छोड़ के ही, करना चाहिए, यही मेरा निश्चित उत्तम मत है। 5। 6।
चौथे श्लोक में जो सीधा-साधा अर्थ करके त्याग के तीन प्रकार कहे हैं वह ये हैं -
नियतस्य तु संन्यास: कर्मणो नोपपद्यते। मोहात्तस्य परित्यागस्तामस: परिकीर्तित्तत:॥ 7 ॥
दु:खमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभया त्त्य जेत्। स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥ 8 ॥
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन। संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्त्विको मत:॥ 9 ॥
जो कर्म जिसके लिए तय कर दिया गया है उसका त्याग तो उचित नहीं (और अगर) मोह से उसका त्याग (कर दिया गया) तो वह तामस (त्याग) कहा जाता है। शरीर के कष्ट के भय से दु:खदायी समझ के ही कर्म का त्याग जो करता है वह (इस तरह) राजस त्याग करके त्याग का फल हर्गिज नहीं पाता। हे अर्जुन, कर्तव्य समझ के ही आसक्ति एवं फल के त्यागपूर्वक जो निश्चित कर्म किया जाता है वही सात्त्विक त्याग माना जाता है। 7। 8। 9।
आगे के तीन श्लोक इस सात्त्विक त्याग की रीति और आकार बताने के साथ ही उसके कारण और परिणाम भी कहते हैं। ये तीनों बातें क्रमश: तीन श्लोकों में पाई जाती हैं।
न द्वेष्टयकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशय:॥ 10 ॥
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत:।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥ 11 ॥
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिवि धं कर्मण: फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥ 12 ॥
संशयरहित विवेकी सात्त्विक त्यागी न तो बुरे कर्म से द्वेष करता है। (और) न अच्छे में आसक्त हो जाता है। जब कि देहधारी के लिए सभी कर्मों का त्याग करना संभव ही नहीं है, तो जो केवल कर्म के फल का त्याग करता है। वही (सात्त्विक) त्यागी कहा जाता है। बुरा, भला और मिश्रित यह तीन तरह का कर्म फल मरने के वाद सात्त्विक त्याग न करने वालों को ही मिलता है; न कि त्यागियों को भी कहीं (मिलता है)। 10। 11। 12।
पतंजलि ने योगदर्शन में लिखा है कि साधारण मनुष्यों के कर्म तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें शुक्ल, कृष्ण और शुक्ल-कृष्ण या मिश्रित कहते हैं। इन्हीं को भले, बुरे और मिले हुए भी कहते हैं। इनके फल भी क्रमश: भले, बुरे और मिश्रित ही होते हैं। इन्हीं को इष्ट, अनिष्ट और मिश्र इस आखिरी श्लोक में कहा है। इसके विपरीत योगियों का कर्म चौथे प्रकार का होता है, जिसे अशुक्ल-कृष्ण कहते हैं। इसका अर्थ है - न भला, न बुरा। 'कर्माशुक्ल कृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्' (4। 7) योगसूत्र और उसके भाष्य को ध्यानपूर्वक पढ़ने से इसका पूरा ब्योरा मालूम होगा। बारहवें श्लोक के सात्त्विक त्यागी को उसी योगी के स्थान में माना गया है। बेशक, राजस और तामस त्यागी साधारण लोगों में ही आते हैं।
यहाँ प्रश्न होता है कि जब कर्मों का कर्त्ता आत्मा ही है, तो आसक्ति या फलों के त्याग मात्र से ही कर्मों के फलों से उसका पिंड कैसे छूट जाएगा? अगर कोई चोरी करे तो क्या आसक्ति और फलेच्छा के ही छोड़ देने से उसे चोरी का दंड भोगना न होगा? इसका उत्तर आगे के पाँच श्लोक देते हैं। उनका आशय यही है कि आत्मा कर्मों की करने वाली हई नहीं। करने-कराने वाले तो और ही हैं और हैं भी वे पूरे पाँच। ऐसी दशा में जो आत्मा को कर्त्ता मानता है वह नादान है, मूर्ख है। चोरी की बात और है। वहाँ जिस शरीर से वह काम करते हैं वही जेल-यंत्रणा भी भोगता है।
पंचैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतांते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥ 13 ॥
अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणं च पृथग्विधम्।
विवि धा श्च पृथक चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्॥ 14 ॥
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर:।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पंचैते तस्य हेतव:॥ 15 ॥
त त्रै वं सति क र्त्तार मात्मानं केवलं तु य:।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति:॥ 16 ॥
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हंति न निबध्यते॥ 17 ॥
हे महाबाहो, सभी कर्मों के पूरे होने के लिए सांख्य सिद्धांत में बताए इन (आगे लिखे) पाँच कारणों को मुझसे जान लो। (वे हैं) आश्रय या शरीर, आत्मा की संसर्गवाली बुद्धि, जुदी-जुदी इंद्रियाँ, प्राणों की अनेक क्रियाएँ और पाँचवाँ प्रारब्ध कर्म। शरीर, वचन या मन से मनुष्य जो भी कर्म - कायिक, वाचिक, मानसिक - शुरू करता है चाहे वह उचित हो या अनुचित, उसके यही पाँच कारण होते हैं। ऐसी दशा में अपरिपक्व समझ होने के कारण निर्लेप आत्मा को जो कोई कर्त्ता मानता है वह दुर्बुद्धि कुछ जानता ही नहीं। (इसलिए) जिसके भीतर 'हम करते हैं' ऐसा खयाल नहीं और जिसकी बुद्धि (कर्म या फल में) लिप्त नहीं होती, वह इन सभी लोगों को मार के भी न तो मारता है और न (कर्म में फलस्वरूप) बंधन में फँसता है। 13। 14। 15। 16। 17।
कर्त्ता का अर्थ है कर्तव्य का अभिमान जिसमें वस्तुगत्या रहे। दरअसल बुद्धि को ही कर्त्ता कहते हैं। मगर बिना आत्मा के संसर्ग के वह खुद जड़ होने के कारण कुछ कर नहीं सकती। इसीलिए आत्मा के संसर्ग या प्रतिबिंब से युक्त बुद्धि को ही कर्त्ता कहते हैं। इसी प्रकार दैव का अर्थ प्रारब्ध पहले ही कह चुके हैं। यह भी बता चुके हैं कि इसे दिव्य या दैव क्यों कहते हैं और यह क्यों कारण माना जाता है। यह भी जान लेना चाहिए कि कारण दो प्रकार के होते हैं - साधारण और असाधारण। साधारण उसे कहते हैं जो सबों को या अनेक कार्यों को पैदा करे। प्रारब्ध ऐसा ही है। वह समस्त संसार का कारण है। किंतु शरीर, बुद्धि, इंद्रियाँ तथा प्राण की क्रियाएँ या पाँच प्राण अलग-अलग कार्यों के कारण हैं। इसीलिए ये असाधारण या विशेष कारण कहे जाते हैं। अपने-अपने शरीर आदि से ही अपने-अपने कर्म होते हैं। प्राणों के निकल जाने पर या इंद्रियों के खत्म हो जाने पर भी क्रिया नहीं होती। बुद्धि की भी जरूरत हर काम में होती ही है। बिना जाने कुछ कर नहीं सकते।
आखिरी श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसका आशय यही है कि जैसे दूसरे की चोरी का माल अपने घर में रखने वाला नाहक अपराधी बनता है और परेशानी में पड़ता है, ठीक वही हालत आत्मा की है। कर्मों के करने वाले तो ठहरे शरीर आदि। मगर उनकी क्रिया को धोखे में, भूल से अपने भीतर मानने के कारण ही इस निर्लेप और निर्विकार आत्मा को फँसना पड़ता है। पुत्र के साथ ज्यादा ममता होने से कभी-कभी ऐसा होता है कि पुत्र की मौत का निश्चय होते ही पिता उससे भी पहले एकाएक चल बसता है। शरीर दुबला और मोटा होने से आत्मा को खयाल होता है कि हमीं दुबले या मोटे हैं। यही है गैर के साथ एकता या तादात्म्य-तदात्मा का अभिमान। इसे तादात्म्याध्यास भी कहते हैं। आत्मा का शरीर, इंद्रियादि के साथ तादात्म्याध्यास हो गया है। फलत: उनके कामों एवं गुणों को अपना मानने का स्वभाव इसका हो गया है। इसे ही मिटाने का अर्थ है अहंकार का त्याग, 'हमीं करते हैं' इस भावना और खयाल का त्याग।
लेकिन इसके होने पर भी कर्म में आसक्ति होने पर, आग्रह हो जाने पर और फल की भावना होने पर भी फँस जाता है। यह है दूसरा खतरा और भारी खतरा। इस पर पूरा प्रकाश पहले डाला जा चुका है। आत्मा का साक्षात्कार होने के बाद अहंकार वाला भाव मिट जाने पर भी यह खतरा बना रहता है। इसीलिए बुद्धि के लिप्त न होने की बात कह के इसी खतरे से बचने की हिकमत सुझाई गई है। फिर तो पौ बरह समझिए। इस तरह एक प्रकार से आत्मा को कर्म से निर्लिप्त और अलग बता के काम निकाल लिया है।
अब आगे दूसरे ढंग से भी आत्मा का कर्मों से असंसर्ग सिद्ध करते हैं। ऐसा भी होता है कि स्वयं कर्म न भी करें तो भी दूसरों से करवा सकते हैं। इसे ही प्रेरणा कहते हैं। इसी को शास्त्रों में चोदना कहा है। ऐसों को करने वाले तो नहीं, लेकिन कराने वाले मान के ही अपराधी बताते हैं और दंड देते हैं। हिंसा, चोरी आदि में ऐसा होता है कि ललकारने या राय देने वाले भी फँसते हैं और दंड भोगते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमने न तो चोरी की, न उसमें राय-सलाह ही दी और न ललकारा ही। यह भी नहीं जानते कि कहीं चोरी हुई या नहीं। मगर यदि किसी से शत्रुता हुई तो चुपके से चोरी का माल हमारे यहाँ रख के फँसा देता है। अकसर गैरकानूनी रिवॉल्वर वगैरह चुपके से किसी के घर में रख के फँसा देते हैं। यदि कर्म का प्रेरक ही आत्मा हो जाए, या वस्तुत: कर्म उसी में रहते हों, हर हालत में उसे उनके फलों में खामख्वाह फँसना होगा। इसीलिए आगे के पूरे ग्यारह श्लोकों में यह बताया है कि कर्म के प्रेरक भी दूसरे ही हैं और कर्म रहता भी अन्य ही जगह है। यहाँ कर्मचोदना का अर्थ है कर्म के प्रेरक और कर्मसंग्रह का अर्थ है जिनमें कर्म देखा जा सके - जिनके देखने से ही कर्म का पता लग सके।
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म क र्त्ते ति त्रिविध: कर्मसंग्रह:॥ 18 ॥
ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता यही तीन कर्मों के प्रेरक हैं। (और) करण (इंद्रियादि साधन) कर्म, (जो बने, जहाँ कुछ हो), कर्त्ता इन्हीं तीन में कर्म का संग्रह होता है। 18।
इस श्लोक में ज्ञाता और कर्त्ता का एक ही अर्थ है। इन दोनों में केवल उपाधि या काम करने के तरीके का फर्क है। जब किसी बात की जानकारी होती है तब वह ज्ञाता या जानकार कहा जाता है। जब जानकारी के बाद काम करने लगता है तो वही कर्त्ता कहा जाता है। अकेली बुद्धि एक चीज है और उसे बुद्धि ही कहते हैं भी। उसका विवेचन आगे आएगा। मगर जब वही आत्मा के संसर्ग के फलस्वरूप उसके आभास, उसके प्रकाश से युक्त हो जाती है, जैसी कि आईने की चमक पड़ने पर दीवार उतनी दूर तक चमक उठती तथा ज्यादा प्रकाशवाली बन जाती है जितनी दूर तक आईने की रोशनी का असर उस पर होता है, तो वही बुद्धि ज्ञाता और कर्त्ता दोनों ही कही जाती है। इसीलिए ज्ञाता और कर्त्ता को एक ही कहा है। अतएव आगे सात्त्विक आदि रूपों का विचार करने के समय कर्त्ता का ही विचार करके संतोष करेंगे। क्योंकि कर्म की दृष्टि से ज्ञाता तथा कर्त्ता दोनों का एक ही असर कर्म पर माना जाता है। चाहे ज्ञाता सात्त्विक हो या कर्त्ता - और जब एक होगा तो दूसरा भी होईगा, क्योंकि हैं तो दोनों एक ही - कर्म सात्त्विक ही होगा और उसकी सात्त्विकता में कमी-बेशी न होगी, चाहे दोनों का नाम लें, या एक का। यहाँ कर्म का विचार और ही दृष्टि से हो रहा है। इसीलिए दोनों का कहना जरूरी हो गया। जो जानता है वही करता भी है। जब तक हम यह न जान लें कि हल कैसे चलाया जाता है तब तक उसे चलाएँगे कैसे? जब तक जान जाएँ नहीं कि कपड़ा कैसे बनता है, उसे बनाएँगे तब तक क्योंकर?
इसी तरह ज्ञेय और कर्म की भी बात है। पूर्वार्द्ध के तीन में जो ज्ञेय और उत्तरार्द्ध के तीन में जो कर्म आया है ये दोनों भी एक ही हैं। ज्ञेय का अर्थ ही है जिसका ज्ञान हो, जिसके बारे में ज्ञान हो। कर्म का अर्थ है जो किया या बनाया जाए, जिस पर या जहाँ हाथ-पाँव चलें। पूर्व के ही दृष्टांत में हल या कपड़े को लीजिए। पहले उनकी जानकारी होती है, ज्ञान होता है। पीछे उन्हीं पर हाथ-पाँव आदि चलते हैं। फर्क इतना ही है कि हल पहले से ही मौजूद है और उसी पर क्रिया होती है। मगर कपड़ा मौजूद नहीं है। किंतु सूत वगैरह पर ही क्रिया शुरू करके उसे तैयार करते हैं। वह क्रिया के ही सिलसिले में तैयार होता है। इसीलिए क्रिया का विषय, उसका आधार वह भी बन जाता है। मगर कपड़ा बुनना शुरू करने के पहले उसकी जानकारी जरूरी है। इसलिए इस श्लोक में जो दो त्रिपुटियाँ या त्रिक - तीन-तीन (trinity) हैं उन दोनों के ज्ञेय और कर्म एक ही हैं। यह कर्म वही है जिसे पाणिनीयसूत्र ने 'कर्त्तारीप्सिततमं कर्म' (पा. 1। 4। 49) के रूप में बताया है। इन दोनों के सात्त्विक या राजस, तामस होने, न होने पर कर्म या क्रिया में कोई अंतर नहीं पड़ता है। इसीलिए इन दोनों का आगे विचार नहीं किया गया है। हाँ, आगे जिस कर्म को तीन प्रकार का बताया है वह इस श्लोक के अंत के 'कर्म-संग्रह:' वाला कर्म ही है, जिसका विचार पहले से ही हो रहा है और जिसे काम, क्रिया (action) कहते हैं। वह जरूर सात्त्विक, राजस, तामस होता है। इन तीनों गुणों का उस पर असर जरूर होता है। इसीलिए उसका विचार आगे भी जरूरी हो गया है।
अब इन दोनों त्रिपुटियों में केवल ज्ञान और करण बच रहे। इनमें ज्ञान का आगे और भी विचार किया गया है। ज्ञान कहिए, जानकारी कहिए, इहसास (Knowledge) कहिए सब एक ही चीज है। इसके बिना कुछ होई नहीं सकता है। इस पर सत्त्वादि गुणों का असर भी होता है। साथ ही ज्ञान जैसा सात्त्विक, राजस या तामस होगा कर्म भी वैसा ही होगा। वह कर्म दरअसल किसमें है, किसमें नहीं इस निश्चय पर भी उसका असर खामख्वाह होगा। इसीलिए ज्ञान की तीन किस्मों का विवेचन इस कर्म-विवेचन के ही सिलसिले में आगे जरूरी हो गया है।
इस तरह करण कहते हैं कर्म या क्रिया के साधन को। जैसे कुल्हाड़ी से लकड़ी चीरते हैं और बसूले से भी। इसीलिए लकड़ी चीरने की क्रिया में, कर्म में कुल्हाड़ी और बसूला करण हो गए। इंद्रियों की ही मदद से हम कोई भी क्रिया कर सकते हैं। इसीलिए हाथ-पाँव आदि कर्म-इंद्रियाँ भी कर्म में करण बन गईं। मगर इस करण के सात्त्विक, राजस, तामस होने पर भी कर्म के बारे में, कि वह दरअसल किसमें है, किसमें नहीं, कोई असर नहीं होगा। इसलिए आगे इस करण का और भी विचार जरूरी नहीं माना गया है।
बुद्धि और धृति या धैर्य का भी असर कर्म पर पड़ता है। ये जिस तरह की हों कर्म भी वैसे ही सात्त्विकादि बन जाते हैं। कम से कम उनके ऐसा होने में इन दोनों का असर पड़ता ही है। इंद्रियों की-सी बात इनकी नहीं है कि इंद्रियाँ चाहे कैसी भी हों और उनके करते काम पूरा या अधूरा भले ही रहे, फिर भी सात्त्विक राजस या तामस नहीं हो सकता है। ये दोनों तो कर्म पर उसके सात्त्विकादि बनने में ही बहुत बड़ा असर डालती है। पीछे इस निश्चय में भी कि वह वाकई आत्मा में है या नहीं, इनका काफी असर पड़ता है। बुद्धि का तो यह सब काम हई, यह सभी जानते हैं। धृति का भी यही काम है। जिसमें धैर्य या हिम्मत न हो वही दब्बू और डरपोक होने के कारण दबाव पड़ने पर अंट-संट कर डालता है। कमजोर ही तो दबाव पड़ने पर झूठा बयान देता है। हिम्मतवाला तो कभी ऐसा करता नहीं। इसलिए इस प्रसंग में इन दोनों का विचार भी उचित ही है।
अब रह गया अकेला सुख, जिसका त्रिविध विवेचन आगे आया है। वह उचित ही है। सुख के ही लिए तो सब कुछ करते हैं। स्वर्ग, धन, पुत्रादि के ही लिए सारी क्रियाएँ की जाती हैं। लोगों की जो धारणा है कि स्वयं ही - हमीं - भला-बुरा कर्म करते हैं वह है भी तो इसीलिए न, कि दूसरे के करने से दूसरे को सुख होगा कैसे? यदि इस सुख की फिक्र-चिंता छूट जाए तो मनुष्य की सारी विपदा और परेशानी ही कट जाए। तब तो वह रास्ता पकड़ के पार ही हो जाए। बुरे कर्म तथा दु:ख तो सुख की फिक्र के ही करते आ जाते हैं। सुख की लालसा के मारे हम इतने परेशान और बेहाल रहते हैं कि बुरे-भले की तमीज उस हाय-हाय में रही नहीं जाती। फलत: बुरे से भी बुरे सुख के ही लिए कर बैठते हैं।
सुख के विवेचन में भी जो सबसे पहले सात्त्विक सुख ही बताया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि असली सुख केवल बुद्धि की सात्त्विकता और निर्मलता से ही मिलता है, न कि कर्मों से । कर्मों से मानना भारी भूल है। वह सुख तो भीतर ही है, आत्मा में ही है, मौजूद ही है। केवल निर्मल बुद्धि चाहिए जो उसे देख सके, जान सके। उसे कहीं बाहर से लाना थोड़े ही है। इस तरह कर्मों को आत्मा में मानने की जरूरत रही नहीं जाती है। जिस तरह इन्हीं कर्मों के सिलसिले में पहले त्रिविध त्यागों का वर्णन आया है वैसे ही यह भी वर्णन है, न कि नए सिरे त्रिगुणात्मक सृष्टि का कोई खास वर्णन है। पहले ही कही गई बातों का कर्म के संबंध में यहाँ केवल उपयोग कर लिया गया है। इसीलिए ये 'न तदस्ति पृथिव्यां वा' (18। 40) में एक ही बार कह दिया है कि सभी भौतिक पदार्थ तो त्रिगुणात्मक ही हैं। इसीलिए यह कोई नई बात नहीं है।
इस तरह कई प्रकार से कर्मों का असंबंध आत्मा के साथ सिद्ध कर चुकने पर आगे के श्लोक प्रकारांतर से यही बात बताते हैं। इनका आशय केवल इतना ही है कि यदि ज्ञान, कर्म, कर्त्ता, बुद्धि और धृति सात्त्विक हों और सात्त्विक सुख की असलियत भी हम जान जाएँ, तो फिर वह नौबत आए ही नहीं जिससे इन कर्मों को जबर्दस्ती आत्मा पर थोपें। आत्मा में इनके दरअसल न रहने और उससे हजार कोस दूर रहने पर भी जो इनकी कल्पना और थोपा-थोपी आत्मा में हो जाती है उसकी असली वजह यही है कि हमारे ज्ञान, कर्म आदि सात्त्विक न हो के राजस या तामस ही होते हैं। यदि यह बात न रहे, यदि सबके सब ठीक हो जाएँ, सात्त्विक ही हो जाएँ और हम सात्त्विक सुख को बखूबी समझ के उसी की प्राप्ति में लग जाएँ, तो सारी आफतें मिट जाएँ। यह सही है कि सबों के ठीक होने पर भी यदि हमारी लगन सात्त्विक सुख में न रहे, तो सब किया-कराया चौपट ही समझिए। इसीलिए वह सबसे जरूरी है। अंत में वह आया भी है इसलिए। आगे के 22 श्लोकों का सारांश यही है।
ज्ञानं कर्म च कर्त्ता च त्रि धै व गुणभेदत:।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि॥ 19 ॥
(तीनों) गुणों के भिन्न-भिन्न होने से ज्ञान, कर्म और कर्त्ता भी सांख्यशास्त्र में तीन प्रकार के कहे गए हैं। उन्हें भी ठीक-ठीक सुन लो। 19।
सर्वभूतेषु ऐनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥ 20 ॥
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान् पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्॥ 21 ॥
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अत त्त्वा र्थवदल्पं च त त्ता मसमुदाहृतम्॥ 22 ॥
जिस ज्ञान के फलस्वरूप सभी जुदे-जुदे पदार्थों में सर्वत्र एकरस, व्याप्त और अविनाशी वस्तु ही देखते हैं वही ज्ञान सात्त्विक समझो। सभी पदार्थों में भिन्न-भिन्न अनेक वस्तुओं की जो जुदी-जुदी जानकारी है वही ज्ञान राजस जानो। जो ज्ञान कुछ भौतिक पदार्थों तक ही सीमित, उन्हीं को सब कुछ मानने वाला, बेबुनियाद मिथ्या और तुच्छ है वही तामस कहा जाता है। 20। 21। 22।
नियतंसंगरहितमरागद्वेषत: कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सा त्त्वि कमुच्यते॥ 23 ॥
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुन:।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥ 24 ॥
अनु बंधं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥ 25 ॥
फलेच्छा न रखने वाले के द्वारा जो कर्म निश्चित रूप से आसक्ति से शून्य हो के बिना रागद्वेष के ही किया जाए वही सात्त्विक कहा जाता है। जो कर्म फलेच्छापूर्वक अहंकार या आग्रह के साथ किया जाए और जिसमें बहुत परेशानी हो वही राजस कहा जाता है। जो कर्म परिणाम, बीच के नफा-नुकसान, हिंसा और अपनी शक्ति का खयाल न करके भूल से ही किया जाए वही तामस कहा जाता है। 23। 24। 25।
यहाँ साहंकारेण शब्द का अर्थ है कर्म में हठ या आसक्ति। क्योंकि फल की इच्छा और कर्म की आसक्ति ये दो चीजें हैं जिन्हें पहले बखूबी समझाया जा चुका है। पहले श्लोक में दोनों का त्याग कहा गया है इसीलिए इसमें दोनों का आना जरूरी है। मगर 'कामेप्सुना' शब्द तो फलेच्छा को ही कहता है। इसीलिए 'साहंकारेण' का ऐसा अर्थ हमने किया है। ठीक भी है यही। जब जिद्द होती है तभी तो 'मैं जरूर ही कर डालूँगा' यह खयाल होता है। इसी प्रकार क्षय शब्द का भी अर्थ हमने चलती भाषा में 'नफा-नुकसान' किया है, जिसे घाटा या टोटा भी कहते हैं। मगर यह अंतिम घाटा नहीं है। क्योंकि उसके लिए तो अनुबंध शब्द आया ही है। इसीलिए दरम्यानी टोटा ही अर्थ ठीक है।
मुक्तसंगोऽनहंवादी धृ त्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्त्ता सात्त्विक उच्यते॥ 26 ॥
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचि:।
हर्षशो कांवि त कर्त्ता राजस: परिकीर्तित:॥ 27 ॥
अयुक्त: प्राकृत स्तब्ध: शठो नैष्कृतिकोऽलस:।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्त्ता तामस उच्यते॥ 28 ॥
जो आसक्ति से शून्य हो, जो बहुत बहके न, जो धैर्य और उत्साहवाला हो (तथा) कर्म के पूर्ण होने, न होने में जो बेफिक्र हो वही कर्त्ता सात्त्विक कहा जाता है। रागयुक्त, फलेच्छुक, लोभी, हिंसा में लगा हुआ, नापाक और (कर्म के पूरे होने, न होने में) हर्ष और शोकाकुल कर्त्ता राजस है। बुद्धि को ठिकाने न रखने वाला, गँवार, अकड़ा हुआ, ठग, दूसरे की हानि करने वाला, आलसी, रोने-धोने वाला और असावधान कर्त्ता तामस कहा जाता है। 26। 27। 28।
बुद्धेर्भेदं धृ तेश्चैव गुणतस्त्रिवि धं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥ 29 ॥
हे धनंजय, गुणों के भेद से बुद्धि और धृति के भी जो तीन प्रकार हैं उन्हें भी पूरा-पूरा अलग-अलग कहे देता हूँ, सुन लो। 29।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये
ब न्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विको॥ 30 ॥
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी॥ 31 ॥
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी॥ 32 ॥
हे पार्थ, जो बुद्धि कर्तव्य-अकर्तव्य, हो सकने, न हो सकने वाली चीज, डर-निडरता, बंधन और मोक्ष (इन सबों) को (बखूबी) जानती है वही सात्त्विक है। जिसे बुद्धि से धर्म-अधर्म तथा कार्य-अकार्य को ठीक-ठीक न जान सकें वही राजस है। हे पार्थ, तम से घिरी जो बुद्धि अधर्म को धर्म और सभी बातों को उलटे ही जाने वही तामसी है। 30। 31। 32।
यहाँ पहले श्लोक में जो प्रवृत्ति और निवृत्ति है उसी के अर्थ में शेष दो श्लोकों में धर्म-अधर्म शब्द आए हैं। इसीलिए हमने प्रवृत्ति-निवृत्ति का अर्थ कर्तव्य-अकर्तव्य किया है। धर्म-अधर्म का भी वही अर्थ है। कार्य-अकार्य के मानी यह हैं कि पहले से ही अच्छी तरह देख लेना कि यह काम हमसे हो सकता है, साध्य है या नहीं। कर्तव्य-अकर्तव्य के निश्चय के बाद भी साध्य-असाध्य का निश्चय जरूरी हो जाता है। क्योंकि जो कर्तव्य हो वह जरूर ही साध्य हो यह बात नहीं है। इसीलिए असाध्य काम में भी कर्तव्यता के निश्चय के बाद बिना सोचे-बूझे पड़ जाना ठीक नहीं है, नादानी है। बंध और मोक्ष तो प्रवृत्ति-निवृत्ति की कसौटी के रूप में ही लिखे गए हैं। जिसका चरम परिणाम बंधन और जन्म-मरण हो वही अकर्तव्य और जिसका मोक्ष हो वही कर्तव्य माना जाना चाहिए। अतएव 31वें श्लोक में न लिखे जाने पर भी इसे समझ लेना ही होगा। यही वजह है कि 32वें में कर्तव्य-अकर्तव्य को कह के एक ही साथ बाकियों के बारे में कह दिया है कि जो सभी बातें उलटे ही समझे। सभी बातों में बंध-मोक्ष, कार्य-अकार्य भी आ गए।
इन तीनों श्लोकों का सारांश यही है कि सात्त्विक बुद्धि सभी बातें ठीक-ठीक समझती है। वह मनुष्य का ठीक पथदर्शन करती है। मगर राजस बुद्धि में किसी भी बात का ठीक-ठीक निश्चय हो पाता नहीं। न तो यथार्थ निश्चय और न उलटा। हर बात में पसोपेश, दुविधा और घपला पाया जाता है, जिससे कर्त्ता किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। ऐन मौके पर उसका उचित पथप्रदर्शन नहीं हो पाता। दोनों के विपरीत तामस बुद्धि हर बात में उलटा ही निश्चय करती-कराती है और गलत रास्ते पर ही बराबर ले जाती है। इसमें न तो दुविधा होती है और न कभी यथार्थ निश्चय हो पाता है।
धृ त्या यया धारयते मन: प्राणेन्द्रियक्रिया:।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृ ति: सा पार्थ सात्त्विकी॥ 33 ॥
यया तु धर्मकामार्था न्धृ त्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसंगेन फलाकांक्षी धृ ति: सा पार्थ राजसी॥ 34 ॥
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुंचति दुर्मेधा धृ ति: सा पार्थ तामसी॥ 35 ॥
हे पार्थ, योग से जिसका संबंध कभी टूटने वाला न हो ऐसी जिस धृति - विशेष प्रकार के यत्न - के बल से मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को काबू में रखते हैं वही सात्त्विकी धृति है। हे अर्जुन, हे पार्थ, जिस धृति के बल से कर्म में आसक्त (एवं) फलेच्छुक (पुरुष) (केवल) धर्म, काम और अर्थ की ही बातें करता है वही राजसी है। जिस धृति के बल से आलस्य, डर, शोक, घबराहट, मद (इन सबों) को भ्रष्ट बुद्धिवाला (मनुष्य) छोड़ नहीं सकता वही तामसी मानी जाती है। 33। 34। 35।
कहीं-कहीं 'पार्थ तामसी' की जगह 'तामसी मता' पाठ है। शंकर ने यही पाठ माना है। हमने सम्मिलित अर्थ कर दिया है। क्योंकि 'मता' शब्द न देने पर भी उसका अर्थ तो यहाँ हई। उसके बिना तो काम चलता नहीं। यहाँ पहले श्लोक में जो योग है उसका अर्थ कर्मों में आसक्ति एवं फलेच्छा का न होना यह पहले ही कह चुके हैं। इसका मूलाधार आत्मदर्शन बता चुके हैं। सात्त्विक धृति का आधार यही बातें हैं। इन्हीं के बल से मन, प्राण और इंद्रियों को डँटा देते और जरा भी डिगने नहीं देते, चाहे हजार बलाएँ आएँ। ऐसी ही धृतिवाले मोक्ष तक को ध्यान में रखके ही कोई काम हिम्मत के साथ करते हैं। मगर राजसी धृति वाले मोक्ष को छोड़ के भटक जाते हैं। वे कर्मों में आसक्त एवं फलेच्छा के गुलाम बन जाते हैं। जहाँ सात्तिक धृतिवाले धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों की परवाह रख के ही कुछ भी करते हैं, तहाँ राजस धृतिवाले मोक्ष को भूल जाते और पूरे चतुर सांसारिक बन के धर्म, अर्थ, काम तीन की ही परवाह रखते हैं। यही बात दूसरे श्लोक में कही गई है। काम का अर्थ है वही आसक्ति और इच्छा। छोटी-सी बातों से लेकर स्वर्ग तक की कामना को ही काम कहते हैं। अर्थ कहते हैं धन को, संपत्ति को। संपत्ति के भीतर सभी पदार्थ आ गए। उनके धर्म, अर्थ और काम का परस्पर संबंध है - तीनों एक-दूसरे से मिले रहते हैं। फलत: यदि एक भी हट जाए तो तीनों गड़बड़ी में पड़ जाएँ। यह भी खास बात है कि उनके धर्म और अर्थ को एक साथ जोड़ने की बात यह काम ही करता है। किंतु सात्त्विक धृत्ति में यह बात नहीं है। उसमें तो काम आसक्ति के रूप में प्रबल न हो के मामूली इच्छा के ही रूप में नजर आता है। जिससे हरेक क्रिया में प्रगति मिलती है।
अब रही तामसी धृति की बात। ऐसी धृति को धृति कहना उसका निरादर ही माना जाना चाहिए। फिर भी हरेक पदार्थ त्रिगुणात्मक ही हैं। इसलिए लाचारी है। असल में तामसी धृतिवालों के मन, प्राण और इंद्रियों पर अपना काबू नहीं रहने से उनकी क्रियाएँ मनमानी चलती-बिगड़ती रहती हैं। ऐसे लोगों में हिम्मत तो होती ही नहीं। इसीलिए डर, अफसोस, मनहूसी में पड़े रहते हैं। एक तरह का नशा भी उन पर हर घड़ी चढ़ा रहता है। आलस्य का तो पूछिए मत। इसीलिए नींद का अर्थ हमने आलस्य किया है। स्वप्न का अर्थ गाढ़ी नींद तो संभव नहीं। जग के उठ बैठने को उनका जी नहीं चाहता। इसीलिए ऐसे लोग कुछ भी कर पाते नहीं।
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दु:खांतं च निगच्छति॥36॥
हे भरतश्रेष्ठ, अब तीन प्रकार के सुखों को भी मुझसे सुन लो, (उन्हीं सुखों को), जिनके बार-बार के मिलने से उनमें मन रम जाता है और दु:ख भूल जाते हैं। 36।
जिस ढंग से इस श्लोक में शब्द दिए गए हैं उनसे भी यही स्पष्ट हो जाता है कि सभी कामों का आखिरी ध्येय यह सुख ही है। इसीलिए कहते हैं कि अब आखिर में उसे भी जरा सुन लो। नहीं तो बात अधूरी ही रह जाएगी। इसके बाद उत्तरार्द्ध में उसी सुख का सर्वसामान्य या साधारण रूप कह दिया है। इसमें दो बातें कही गई हैं। एक यह कि सुख वही है कि जिसके अभ्यास या देर तक के या बार-बार के अनुभव से ही उसमें मन रमता है। वह बिजली की चमक, नीलकंठ का दर्शन या तीर्थ के जल का स्पर्श नहीं है कि जरा से अनुभव या संसर्ग से ही काम चल जाता है। ऐसा होने से तो सुख के बजाए दु:ख ही होता है। जबान पर हलवा रख के फौरन उठा लें तो सुख तो कुछ होगा नहीं, झल्लाहट और तकलीफ भले ही होगी। ऐसा भी होता है कि बहुत-सी चीजों के प्रथम संसर्ग से कुछ मजा या सुख नहीं मिलता। किंतु निरंतर के अनुभव और संसर्ग से ही, प्रयोग और इस्तेमाल से ही उनमें मजा आने लगता है। जो लोग असभ्य हैं, जंगली हैं उन्हें सभ्यता की चीजों का चसका लगाना होता है। पहले तो वे उलटे झल्लाते हैं। मगर धीरे-धीरे उनकी आवृत्ति और अभ्यास होते-होते मन उनमें रम जाता है। क्योंकि मन के बिना रमे तो मजा आता ही नहीं। यही वजह है कि सुख निरंतर बना रहे, वह कम से कम बार-बार मिलता रहे, सो भी अल्प से अल्प विलंब के बाद ही, इसी खयाल से लोग उसी की हाय-धुन में लगे रहते और बुरा-भला सब कुछ कर डालते हैं। कर्म को आत्मा में घुसेड़ने का यह एक बहुत बड़ा कारण है।
दूसरी बात है दु:ख के खात्मे को पा जाना, जिसे हमने दु:ख का भूल जाना लिखा है। सुख की इच्छा अधिकांश में कष्टों से ऊब के ही तो होती है। लोग आराम चाहते ही हैं इसीलिए कि वेदना और पीड़ा से पिंड छूटे। इसीलिए तकलीफ कम होते ही कहने लगते हैं कि आराम हो रहा है। बीमार लोगों के बारे में प्राय: ऐसा कहा जाता है। इसीलिए हितोपदेश में इसी रोग की कमी के दृष्टांत को ही ले के यहाँ तक कह दिया है कि दुनिया में सुख तो हई नहीं, केवल दु:ख ही है। इसी से बीमार की तकलीफ कम होने पर उसे ही सुख कह देते हैं, 'दु:खमेवास्ति न सुखं यस्मात्तदुपलक्ष्यते। दु:खार्त्तस्य प्रतीकारे सुखसंज्ञा विधीयते'। मगर हमें इतने गहरे पानी में यहाँ उतरना है नहीं और न इसकी जरूरत ही है। गीता का यह सिद्धांत है भी नहीं। वह तो स्वतंत्र आत्मानंद को मानती है। यह यहाँ इतना ही कहना चाहते हैं कि सुख मिलते ही या तो दु:ख खत्म हो जाता है, वह रही नहीं जाता, या कम से कम वह भूल तो जरूर जाता है, जब तक सुख का अनुभव रहे। इसलिए भी सुखकर अभ्यास चाहते हैं। क्योंकि जब तक ऐसा रहेगा दु:ख भूला रहेगा। दु:ख के भूल जाने में दोनों बातें आ जाती हैं, दु:ख के खत्म हो जाना भी और खत्म न होने पर भी उसका अनुभव तत्काल न होना भी। इसीलिए हमने यही अर्थ किया है। यह दु:ख के भूलने की भी चाट ऐसी है कि हमें सभी तरह के कर्मों को करने को विवश करती है। साथ ही, आतुरतावश आत्मा को ही हम कर्मों का करने वाला तथा आधार मान लेते हैं। अतएव सुख के बारे में कही गई ये दोनों बातें बड़े काम की होने के साथ ही प्रसंग के अनुकूल भी हैं।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सा त्त्वि कं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥ 37 ॥
विष येंद्रि यसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥ 38 ॥
यदग्रे चानु बंधे च सुखं मोहनमात्मन:।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं त त्ता मसमुदाहृतम्॥ 39 ॥
जो सुख अपने आरंभ के समय विष की तरह कड़वा और अंत में अमृत की तरह लगे, अपनी ही बुद्धि को निर्मलता मात्र से ही पैदा होनेवाला वही सुख सात्त्विक कहा गया है। विषयों के साथ इंद्रियों के संबंध से होनेवाला जो सुख शुरू में अमृत जैसा, (लेकिन) अंत में विष की तरह काम करे, वही राजस माना गया है। ज्यादा नींद, आलस्य और असावधानी में मालूम होने वाला जो मजा शुरू से लेकर अंत तक आत्मा को मोह में डालने - भटकाने - वाला ही होता है वही तामस कहा जाता है। 37। 38। 39।
यहाँ पहले श्लोक में आत्मानंद का ही वर्णन है। इसीलिए उसके वास्ते किसी और बात की जरूरत नहीं बताई गई है। केवल अपनी बुद्धि को ही निर्मल और स्वच्छ करने की आवश्यकता कही गई है। वह तो मौजूद ही है, पास ही है। सिर्फ बुद्धि को एकाग्र और समाधिस्थ करने की जरूरत है। बुद्धि का अर्थ मन, चित्त या अंत:करण है। ऐसा होते ही वह आनंद आप ही आप मिलने लगता है। कहा भी है कि 'दिल के आईने में है तस्वीरे यार। जब जरा गरदन झुकाई देख ली'। गरदन झुकाने का मतलब मन की एकग्रता से ही है। 'आत्मबुद्धि प्रसादजम्' में जो आत्म शब्द है वह इन्हीं बातों का सूचक है। यह मन की एकाग्रता और समाधि बहुत ही कष्टसाध्य है। इसीलिए उस सुख को शुरू में जहर जैसा कहा है। वह जहर जैसा है के मानी हैं कि उसके लिए जो कुछ करना होता है वह बहुत ही कठिन है।
विषय सुख को राजस कहा है। वह पहले तो बहुत ही अच्छा लगता है और मन को रमाता है। मगर परिणाम उसका बुरा होता है। क्योंकि बाल-बच्चों और सांसारिक पदार्थों में ही जिसे चसका हो गया वह परलोक और कल्याण की बात कुछ भी करी नहीं सकता। उससे समाजहित का भी कोई काम नहीं हो सकता है। मनोरथों की न कभी पूर्त्ति होती है और न इनसे और इनके करते होने वाले झंझटों से छुटकारा ही मिलता है। फिर और बात हो तो कैसे? इसीलिए सौभरि ऋषि के बारे में कहा जाता है कि उनने समाधि को त्यागकर पूरे पचास विवाह किए! फिर महल बना के सांसारिक सुख का भोग शुरू किया! बच्चे, पोते, परपोते आदि हो गए, भारी परिवार बढ़ गया और 'गीता फैल गई'! अंत में ऊब के उनने सबको लात मारी और कहा कि लाखों वर्षों में भी मनोरथों की, पूर्ति हो नहीं सकती, आदि-आदि - 'मनोरथानां न समाप्तिरस्ति वर्षायुतेनापि तथाब्दलक्षै:। पूर्णेषु पूर्वेषु पुनर्नवानामुत्पत्तय: संति मनोरथानाम्। पद्भयां गता यौवनिनश्च याता दारैश्च संयोगमिता: प्रसूता:। दृष्ट्वा सुतं तत्तनयप्रसूतिं द्रुष्टुं पुनर्वांछति मेऽन्तरात्मा। आमृत्युतो नैव मनोरथानामंतोऽस्ति विज्ञातमिदं मयाऽद्य। मनोरथासक्तिपरस्य चित्ते न जायते वै परमात्मसंग:'। यही आशय इस श्लोक का है; न कि वेश्यागामियों या दूसरे कुकर्मियों से यहाँ मतलब है। उनका वर्णन तो तामस सुख में ही आया है। क्योंकि उस सुख का काम ही है आत्मा को भटकाना। प्रमाद से ही वह पैदा भी होता है। कुकर्म तो प्रमाद और भटकना ही है न? दिन-रात पड़े-पड़े ऊँघते रहें और आलस में दिन गुजारें यही तो तामसी वृत्ति है। ऐसे लोगों को इसी में मजा भी मिलता है। यहाँ निद्रा का अर्थ है ज्यादा निद्रा। क्योंकि साधारण नींद में तो सभी को मजा मिलता है। गाढ़ी नींद के बाद हरेक आदमी कहता भी है कि खूब आराम से सोए, ऐसा सोए कि कुछ मालूम ही न पड़ा - 'सुखमहमस्वाप्सन्न किंचिदवेदिषम्'।
इस प्रकार त्रिगुण रूप में सुख आदि का वर्णन कर दिया। इसका प्रयोजन हम पहले ही कह चुके हैं। शायद कोई कहे कि केवल सात्त्विक कर्म, ज्ञान, कर्त्ता आदि के ही वर्णन से काम चल सकता था और लोग सहज हो के आत्मा को कर्म से अलग मान सकते थे। फिर राजस, तामसों के वर्णन की क्या जरूरत थी? बात तो सही है। मगर जब सात्त्विक का नाम लेंगे तो खामख्वाह फौरन आकांक्षा होगी कि राजस, तामस क्या हैं। जरा उन्हें भी तो जानें। और अगर यह इच्छा पूरी न हो तो निरूपण बेकार जाएगा। बातें भी अच्छी तरह समझ में आ न सकेंगी। मन दुविधे में जो पड़ गया और समझना ठहरा उसे ही। एक बात और भी है। यदि राजस, तामस का पूरा ब्योरा और वर्णन न हो तो लोक चूक सकते हैं। वे दरअसल राजस या तामस को ही भूल से सात्त्विक मान बैठ सकते हैं। इसीलिए साफ-साफ तीनों को एक ही साथ रख दिया है; ताकि आईने की तरह देख लें और धोखे से बचें।
इस प्रकार सब कुछ कह चुकने के बाद इसका उपसंहार करते हुए, जैसा कि कहा है, अगला श्लोक बताए देता है कि यह तो आश्चर्य की कोई बात है नहीं। जमीन-आसमान कहीं भी जो चीज होगी उसमें तीनों गुण होंगे ही। इसीलिए केवल सजग होने की जरूरत है। नहीं तो इनके सिवाय औरों से भी धोखा हो सकता है।
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन:।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै:॥ 40 ॥
भूमंडल में या आकाश और स्वर्ग के निवासी देवताओं तक में भी ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो। 40।
पृथिवी के किसी पदार्थ का नाम न लेकर स्वर्ग के देवताओं का नाम लेने का प्रयोजन इतना ही है कि पार्थिव पदार्थों को तो सभी लोग त्रिगुणात्मक मानते-जानते हैं। अन्य स्वर्गीय पदार्थों को भी ऐसा शायद समझ सकते हैं। स्वर्ग में देवताओं के अलावे और भी पदार्थ यक्षादि होते ही हैं। साथ ही, दिव तो आकाश को भी कहते हैं और उसमें प्रेतादि भी रहते ही हैं। वे भी त्रिगुणात्मक हो सकते हैं। किंतु देवताओं को दिव्य या अलौकिक खयाल करके कोई शायद त्रिगुण न माने, इसीलिए उनको खास तौर से कह दिया। वजह भी दे दिया कि सभी तो प्रकृति से ही बने हैं। इसीलिए किसी पर भी भरोसा न करके अपनी बुद्धि की निर्मलता का ही सहारा लेना होगा।
इसी तरह सत्त्व का अर्थ पदार्थ है, न कि सत्त्व गुणमात्र। यह ठीक है कि सत्त्वगुण कहीं भी विशुद्ध नहीं है। उसमें भी रज और तम का मेल कभी कम, कभी ज्यादा रहता ही है। इसी से सत्त्व का अर्थ पदार्थ हो भी गया। क्योंकि किसी में कम और किसी में अधिक सत्त्व तो रहता यही है। आशय यही है कि खबरदार, विशुद्ध सत्त्व कहीं नहीं है। इसलिए सतर्क रहना ही होगा। नहीं तो बुद्धि की पूरी सफाई के बाद भी उस पर रज, तम का धावा हो सकता है।
अब प्रश्न पैदा होता है कि इसका उपाय क्या है कि सात्त्विक कर्म, ज्ञान, बुद्धि, सुख आदि ही रहें और राजस, तामस, रहने न पाएँ - लोग इन दोनों के फेर में न पड़ के सात्त्विक के ही पीछे लगे रहें? बिना उपाय जाने काम चलेगा भी कैसे? साथ ही, जो उपाय हो भी वह किस तरह काम में लाया जाए, जिसमें कभी गड़बड़ी की गुंजाइश न रहे, यह भी प्रश्न होना स्वाभाविक है। इसीलिए आगे के श्लोकों में इन्हीं दोनों का उत्तर देते हुए समूचा अध्याय पूरा करके गीता का भी उपसंहार कर दिया गया है। इसमें भी पहले के चार (41-44) श्लोकों में उपायों को बता के शेष श्लोकों में उन्हीं का प्रयोग बताया गया है। यह ठीक ही है कि दवा का प्रयोग निरंतर तो होता है नहीं। बीच-बीच में विराम तो करते ही हैं। कभी-कभी तो लंबी मुद्दत तक दवा छोड़ के देखते हैं कि मर्ज गया या नहीं। उस समय दवा का छोड़ देना ही दवा का काम करता है। नहीं तो आवश्यकता से अधिक दवा का प्रयोग कर देने का खतरा आ सकता है। ठीक यही बात कर्मों की है। वर्णों के कर्म तो उपाय के रूप में ही कहे गए हैं। मगर उन्हें छोड़ देने की भी जरूरत दवा की ही तरह हो जाती है। नहीं तो इनका जरूरत से ज्यादा प्रयोग हो जाने से ही हानि हो सकती और काम बिगड़ सकता है। इस प्रकार कर्मों के स्वरूपत: त्याग की भी बात इसी सिलसिले में आ जाती है, आ गई है और वह उचित ही है। जलचिकित्साशास्त्र का तो यह एक नियम ही है कि बीच-बीच में जरूर ही जलचिकित्सा बंद कर दी जानी चाहिए। नहीं तो वह मनुष्य का एक तरह का स्वभाव बन जाती है। फिर तो उसका कुछ भी असर नहीं होता है।
हाँ, तो आगे के चार श्लोकों में जो वर्णों के धर्म कहे गए हैं वह त्रिगुणों से बने विभिन्न स्वभावों के अनुसार ही माने गए हैं। बार-बार उन श्लोकों में यह बात कही गई है। यहाँ तक कि हरेक वर्ण के बारे में अलग-अलग उसका जिक्र किया है। पहले श्लोक में चारों के बारे में एक साथ भी कह दिया है कि ये कर्म स्वाभाविक होते हैं, प्रकृति के अनुसार ही होते हैं। हमने इस बात पर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही डाल दिया है। इस प्रसंग में इनके कहे जाने का आशय यही है कि यदि गुण-तारतम्य के अनुसार बनी हुई मानव प्रकृति की जाँच करके उसी के अनुसार उसके कर्म निर्धारित किए जाएँ, तो राजस-तामस का झमेला खड़ा होगा ही नहीं। क्योंकि सात्त्विक प्रकृतिवाले तो उनसे यों ही बच जाएँगे। उन्हें दूसरे कर्म मिलेंगे ही नहीं। इसीलिए राजस-तामस सुखों का भी मौका ही उन्हें न लगेगा। उनकी बुद्धि और धृति भी वैसी ही होगी। यदि कुछ कसर भी रहेगी तो ये कर्म ही उसे ठीक कर देंगे।
रह गए राजस तथा तामस प्रकृति वाले। जब इन्हें भी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करने की विवशता होगी तो वे उसमें विशेषज्ञ और पारंगत हो जाएँगे। नतीजा यह होगा कि उनकी हकीकत और असलियत समझने लगेंगे। फिर तो धीरे-धीरे अपने भीतर ऐसी भावना और ऐसे संस्कार पैदा करेंगे कि स्वयमेव उनकी प्रकृति बदलेगी। फलत: इस जन्म में नहीं, तो आगे सात्त्विक मार्ग पर आई जाएँगे। विशेषज्ञता का तो मतलब ही है उसका रस-रेशा पहचान लेना। उसका सिर्फ यही मतलब नहीं होता कि उस पर अमल अच्छी तरह किया जाए। किंतु उसकी कमजोरियाँ, बुराइयाँ और हानियाँ भी मालूम हो जाया करती हैं, आँखों के सामने नाचने लगती हैं और यही चीज आगे का रास्ता साफ करती है। वर्णाश्रमों के धर्मों की इस तरह सख्ती के साथ पाबंदी की जो बात पहले जमाने में थी उसका यही मतलब था। हम यह पहले ही अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं। आज जो श्रम-विभाजन (division of labour) का सिद्धांत बहुत व्यापक रूप में काम में लाया जाकर पराकाष्ठा को पहुँचा दिया गया है, वह कोई नई बात नहीं है। वर्णाश्रम धर्मों के विभाग के मूल में यही सिद्धांत काम करता है। इससे ही समाज की प्रगति पहले के ऋषि-मुनि मानते थे। आश्चर्य है कि आधुनिक विज्ञान भी यही बात रूपांतर में मानता है। डॉ. ऐडम स्मिथ ने अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जो एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में लिखी है और जिसका नाम है 'राष्ट्रों की संपत्ति' (The wealth of Nations by Dr. Adam Smith), उसके शुरू में, पहले ही परिच्छेद में, वह यही बात यों लिखते हैं -
"In the progress of society philosophy or speculation becomes, like every other employment, the principal or sole trade and occupation of a particular class of citizens. Like every other employment, too it is subdivided in to a great number of different branches each of which affords occupation to a peculiar tribe of class of philosophers; and this subdivision or employment in philosophy as well as in every other business, improves dexterity, and saves time. Each individual becomes more expert in his own peculiar branch, more work is done upon the whole, and the quantity of science is considrably increased by it."
इसका आशय यह है, 'समाज की प्रगति के सिलसिले में हरेक दूसरे कामों की ही तरह दर्शन या मनन-चिंतन भी नागरिकों के एक खास वर्ग का मुख्य या सोलहों आना काम और पेशा बन जाता है। फिर दूसरे कामों की ही तरह यह भी अनेक विलक्षण विभागों में बँट जाता है और हरेक विभाग एक विलक्षण वर्ग या जाति के दार्शनिकों और दिमागदारों के लिए काम दे देता है। दर्शन और चिंतन का यह विभाग हरेक दूसरे पेशों के विभाग की ही तरह कुशलता एवं विशेषज्ञता की प्रगति करता है और समय भी बचाता है। इस तरह हरेक व्यक्ति अपने खास विभाग या उसकी शाखा में अधिक कुशल हो जाता है, सब मिला के इस तरह काम भी ज्यादा होता है और विज्ञान के प्रसार में प्रगति ज्यादा हो जाती है।'
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:॥ 41 ॥
हे परंतप, स्वभाव को बनाने वाले तीनों गुणों के (तारतम्य के) फलस्वरूप ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों के कर्म बिलकुल ही बँटे हुए हैं। 41।
शमो दमस्तप: शौचं क्षांतिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥ 42 ॥
शम, दम, तप, पवित्रता, क्षमा, नम्रता या सिधाई, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता, (ये) ब्राह्मणों के स्वाभाविक कर्म हैं। 42।
आस्तिकता का अर्थ श्रद्धा है।
शौर्यं तेजो धृ तिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षा त्रं कर्म स्वभावजम्॥ 43 ॥
शूरता, दब्बूपन का न होना, धैर्य (युद्ध शासनादि में) कुशलता, युद्ध से न भागना, दान और शासन की योग्यता, (ये) क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं। 43।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥ 44 ॥
खेती, पशुपालन (और) व्यापार (ये) वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं। शूद्रों का भी स्वाभाविक कर्म सेवा-रूप ही है। 44।
यहाँ ब्राह्मणों और क्षत्रियों के स्वतंत्र रूप में विस्तृत कर्मों का जुदा-जुदा वर्णन और शूद्रों तथा वैश्यों के कर्मों का एक ही श्लोक में संक्षेप में ही वर्णन यह सूचित करता है कि उस समय वैश्य और शूद्र का दर्जा प्राय: समकक्ष, परतंत्र और छोटा माने जाने लगा था। मगर ब्राह्मण तथा क्षत्रिय प्राय: समकक्ष होने के साथ ही ऊँचे एवं स्वतंत्र माने जाते थे। शूद्र के काम का तो खास नाम भी नहीं दिया है किंतु 'सेवा-रूप' कह दिया है। इससे खयाल होता है कि जरूरत होने पर उससे हर तरह का काम करवा के उस काम को सेवा का रूप दे दिया जाता था। इससे यह भी स्पष्ट है कि समाज के लिए वह फिर भी बहुत ही उपयोगी और जरूरी था। आखिर सेवा के बिना समाज टिकेगा भी कैसे? हमने इस पर पूरा प्रकाश पहले ही डाला है। इस श्लोक में 'शूद्रस्यापि' में शूद्र के साथ 'भी' के अर्थ में 'अपि' आया है। उससे यह भी साफ झलकता है कि उस समय सेवा धर्म शेष तीन वर्णों का भी था और आज उसे जितना बुरा मानते हैं, पहले यह बात न थी। इसी के साथ यह भी सिद्ध हो जाता है कि शूद्रों का कोई अपना खास पेशा या काम न था। जरूरत होने पर वह तीनों वर्णों का काम करते रहते थे। हमने इस पहलू पर भी पहले ही ज्यादा प्रकाश डाला है। शेष तीन के साथ 'अपि' न दे के केवल शूद्र के साथ ही देने का दूसरा आशय हो नहीं सकता। ऐसी दशा में शूद्रों को छोटे या नीच मानने का एक ही कारण हो सकता है और वह यह कि उनकी स्वतंत्र हस्ती न थी, जैसी कि शेष तीन की थी। क्योंकि उनका कोई निजी पेशा न था। और जान पड़ता है, उस समय निजी पेशे का होना जरूरी एवं प्रतिष्ठा का चिह्न माना जाता था। इसीलिए शूद्र छोटे समझे गए। वैश्यों के भी छोटे माने जाने की प्रवृत्ति शायद इसीलिए हुई कि खेती, व्यापार या पशुपालन की उस समय कोई खास जरूरत न थी। या तो इनके द्वारा होने वाला समाज का काम आसानी से चला जा रहा था और खेती, पशुओं या व्यापार की प्रचुरता थी; या यह कि अभी उस ओर समाज का विशेष ध्यान न गया था। फलत: ये बीज रूप में ही थे। भरसक यह दूसरी ही बात थी। मगर इस पर अधिक विचार यहाँ हो नहीं सकता।
फिर भी इतना तो जान ही लेना होगा कि जब तीन ही गुणों के अनुसार वर्णों के कर्म बँटे हैं और यह बँटवारा स्वाभाविक है, न कि जबर्दस्ती बना या बनावटी, तब तो दरअसल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन्हीं तीन वर्णों की संभावना रहती है, न कि चौथे की। यों तो हमने भी पहले इसी तरह के प्रसंग में चारों वर्णों का बँटवारा कर दिया है। मगर वह बात हमारी अपनी न हो के परंपरासिद्ध ही है। वहाँ हमने अपनी ओर से इस तीन या चार के बारे में कुछ न कह के उसी का उल्लेख कर दिया है। अपनी बात तो हमने अलग ही कही है। शूद्र नाम का कोई स्वतंत्र वर्ण न था, हमने यही लिखा है। लेकिन जब यहाँ इन श्लोकों के शब्दों और प्रसंगों को देखते हैं तो हमें साफ कहना ही पड़ता है कि शब्दों के अर्थ से भी तीन ही वर्ण सिद्ध होते हैं। अगर सत्त्व, रज, तम की मिलावट में कमी-बेशी करके चौथे का भी रास्ता निकाल लें, जैसा कि किया जाता है और हमने भी लिखा है, तो इस तरह चार से ज्यादा जानें कितनी ही वर्ण बन सकते हैं। क्योंकि मिलावट में जो कमी-बेशी होगी वह तो हजारों तरह की हो सकती है न? आधा, चौथाई, दशमांश, शतांश, सहस्रांश आदि के हिसाब से वह सम्मेलन, वह मिश्रण हजारों तरह का हो जाएगा। इसलिए हमारे जानते यह बात दार्शनिक युक्ति से शून्य है।
देखिए न, 41वें श्लोक में ही तो 'प्रविभक्तानि' लिखा है, जिसका अर्थ है कि सबों के कर्म बिलकुल ही जुदे-जुदे हैं। मगर जब सेवा सबों का धर्म बन गई और शूद्र के लिए दूसरा कुछ बताया ही नहीं, तो उसके कर्म को प्रविभक्त कहना कैसे उचित होगा? और अगर यह बात न हो तो उसे स्वतंत्र वर्ण कैसे माना जाए?
इसी 41वें श्लोक में ही एक मजेदार बात और है। आगे तो ब्राह्मण और क्षत्रिय को अलग-अलग श्लोकों में कह के शूद्र और वैश्य को एक ही में कह दिया और जैसे-तैसे काम चला लिया है। पहले भी 'स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा:' (9। 32) में इसी तरह की बात आई है। हमने वहीं इसका इशारा भी कर दिया है। मगर 41वें श्लोक में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों का एक ही समस्त पद बना के 'ब्राह्मण क्षत्रियविशां' कह दिया है। केवल शूद्र को अलग 'शूद्राणा' कहा है। समास करने पर श्लोक में अक्षर न बढ़ जाए और छंद में गड़बड़ न हो जाए इसके लिए वैश्य की जगह उसी अर्थ में विशब्द रखना पड़ा है। फिर भी चाहते तो 'विप्राणांक्षत्रियाणां च विट्शूद्राणां च भारत' ऐसा श्लोक बना दे सकते थे। किंतु ऐसा न करके तीनों को एक जगह जोड़ने में यही आशय प्रतीत होता है कि दरअसल विभक्त कर्म तीन के ही हैं और स्वतंत्र वर्ण भी यही हैं। हाँ, शूद्र भी माना जाता है। मगर उसके कर्म ऐसे नहीं हैं।
और जब सब चीजें तीन ही तीन गिनाई गई भी हैं तो वर्णों को एकाएक चार कह देना भी प्रसंग से अलग-सा हो जाता है। वैश्य के व्यापार को सत्यानृत या झूठ-सच की चीज कहते भी हैं और खेती भी हिंसामय ही है, और ये दोनों तामसी ही हैं। इसलिए उसे तामस, क्षत्रिय को राजस और ब्राह्मण को सात्त्विक मानना ही उचित है। यही बात खूब जँचती भी है। क्षत्रिय तो राजा भी कहा जाता है और उसकी राजसी ही बात मानी भी जाती है। ज्ञान तो सात्त्विक हई। बस, अधिक आगे के लिए।
अब आगे 45वें श्लोक से जो बात शुरू होती है वह यही कि जो उपाय कर्म के रूप में बताया गया है वह इष्टसिद्धि के लिए काम में लाया कैसे जाए।
स्वे-स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विंद ति तच्छृणु॥ 45 ॥
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विंद ति मानव:॥ 46 ॥
अपने-अपने कर्मों में लगे रहने वाला मनुष्य ही मन की शुद्धि - बुद्धि की निर्मलता - प्राप्त कर लेता है। अपने कर्मों में ही लगा हुआ (वह यह) शुद्धि जैसे प्राप्त करता है वह भी सुन लो। जिस भगवान से ही पदार्थों की सृष्टि हुई और जो संपूर्ण जगत में व्याप्त है, मनुष्य अपने कर्मों से ही - कर्मों के रूप में ही - उसी की पूजा करके (यह) सिद्धि - मन:शुद्धि - पा जाता है। 45। 46।
पहले जो 'यत्करोषि' (9। 27) आदि के द्वारा अपने-अपने कर्मों के करने को ही भगवान की पूजा कहा है। उसी से यहाँ मतलब है, न कि किसी और चंदन, अक्षत, घंटीवाली पूजा से। स्वकर्मणा शब्द से यह बात साफ है। ऐसा करने से कैसे मन की शुद्धि होगी अब यही बात कहना जरूरी था और 49वें श्लोक में यही कही भी गई है। लेकिन शायद लोग अपने-अपने कर्मों से डिग जाएँ और पूजा का दूसरा ही आरती, घंटीवाला रूप खड़ा कर दें; इसीलिए उधर से रोकने और स्वकर्म पर ही जोर देने की जरूरत आगे बढ़ने के पहले ही समझी गई। दो श्लोक में यही बात कह भी दी गई है। ठीक भी है न? पूजा तो और ही चीज मानी जाती है। यह निराली पूजा कैसी? लोगों को सहसा ताज्जुब हो सकता है। इसलिए उसकी सफाई कर देना जरूरी हो गया। ऐसा भी हो सकता है कि शासन और युद्धादि के कामों को निर्दयता और हिंसा की चीज समझ लोग उससे हिचकें। इस तरह सारे गुड़ के गोबर हो जाने की शंका बनी रहेगी ऐसे कामों को तो खामख्वाह कोई भी पूजा मानने को जल्दी तैयार होगा ही नहीं। इसलिए फौरन ही ये बातें साफ कर दी गई हैं। निर्दयता और हिंसा की दलील का भी यही उत्तर दे दिया है कि सृष्टि के त्रिगुणात्मक होने के कारण सर्वत्र ही बुराइयाँ रहती ही हैं। भले-बुरे सभी मिले-जुले हैं। क्या साँस लेते और आरती-चंदन में हिंसा नहीं है? फिर इस वाहियात बात में क्या पड़ना?
श्रे यांस्व धर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्॥ 47 ॥
सहजं कर्म कौंतेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वा रंभा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:॥ 48 ॥
दूसरे के धर्म या स्वाभाविक कर्म को अच्छी तरह या आसानी से कर लेने पर भी उसकी अपेक्षा अपना अधूरा या दीखने में बुरा भी धर्म कहीं अच्छा है। (क्योंकि) स्वभाव के ही अनुसार निश्चित कर्मों के करने में (दरअसल) कोई पाप या बुराई नहीं होती। (इसीलिए) हे कौंतेय, (देखने में) दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म कभी न छोड़े। क्योंकि जैसे आग धुएँ से घिरी होती ही है वैसे ही सभी काम दोष से घिरे ही (नजर आते) हैं। 47। 48।
इन श्लोकों में एक तो 'विगुण:' 'स्वनुष्ठितात्' तथा 'सदोषम्' पदों के अर्थ जरा लंबे-चौड़े हैं। दोष में सभी तरह की छोटी-बड़ी बुराइयाँ, हानियाँ और त्रुटियाँ आ जाती हैं, न कि सिर्फ हत्या वगैरह पापों से यहाँ मतलब है। दूसरी बात यह भी है कि ऊपर से देखने में ही ऐसा मालूम होने से यहाँ तात्पर्य है। क्योंकि वाकई तो बुराई किसी में भी नहीं है। सबके-सब तो पूजा ही हैं। और अगर बुराई है तो सबों में है। यह ठीक है कि किसी में साफ दीखती है और किसी में नहीं। बस, यही आशय है। इसी तरह विगुण का अर्थ है अधूरा किया हुआ और देखने में दोषयुक्त। हमने ये दोनों ही अर्थ मिला के लिख दिए हैं। स्वनुष्ठितात् (सु+अनुष्ठितात) के भी दो मानी हैं, अच्छी तरह किया गया और आसानी से किया गया। सहज शब्द भी महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य के जन्म के साथ ही जो कर्म पैदा हुए वही स्वाभाविक कर्म हैं, जैसे बत्तख का तैरना, न कि पीछे से सिखाए या बलात लादे गए। वर्णधर्म की यही बड़ी खूबी थी, न कि आज जैसी धक्कममुश्ती।
यों तो हमने कही दिया है कि वर्णव्यवस्था विशेषज्ञता संपादन के द्वारा आत्मा को कर्म से अलग करने या सात्त्विक कर्म में धीरे-धीरे लग जाने का रास्ता साफ करती है। मगर उतनी दूर न जा के भी यदि स्वाभाविक कर्मों को अनासक्ति के साथ करें तो भी काम बन जाए। यह अनासक्ति भी स्वाभाविक कर्मों में ही पूरी-पूरी हो सकती है, जैसे साँस लेने या मलादि के त्याग में। इनमें कौन-सी आसक्ति किसी को होती है? बनावटी कर्मों में यह बात या तो असंभव है या अत्यंत दु:साध्य। ऐसे कर्मवाले पथभ्रष्ट जो ठहरे। और पथप्रष्ट को रास्ते पर लाना तो कठिन हई। इस तरह अनासक्तिपूर्वक स्वधर्म करते हुए ही मन की पूर्ण शुद्धि हो जाती है। फिर तो फौरन समाधि की दशा आ जाने पर कर्मों का स्वरूपत: त्याग करके पूरी निष्कर्मता प्राप्त हो जाती है। क्योंकि आसक्ति के त्याग से एक तरह का कर्म त्याग तो पहले से ही रहता है। मगर स्वरूपत: कर्मों के करते रहने से वह पूर्ण या परम कर्म-त्याग नहीं होता; किंतु अधूरा। वही परमत्याग हो गया, जब समाधि के लिए स्वरूपत: भी कर्म छोड़ दिए गए। यदि 'न कर्मणामनारंभात' (3। 4) श्लोक की मिलान हम इस 49वें से करें तो पता लग जाए कि वही नैष्कर्म्य और सिद्धि शब्द यहाँ भी हैं। मगर जो कमी वहाँ बताई गई है उसकी पूर्ति करके यहाँ परम नैष्कर्म्य का सच्चा रूप खड़ा कर दिया है।
असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह:।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति॥ 49 ॥
सभी चीजों में जिसकी बुद्धि आसक्ति शून्य है, काबू में है और जो सभी इच्छा से रहित है, (वही मनुष्य कर्मों के स्वरूपत:) संन्यास के द्वारा परम नैष्कर्म्य की प्राप्ति कर लेता है। 49।
इसीलिए हमने पहले भी कह दिया है कि इसी श्लोक में संन्यास शब्द का अर्थ है स्वरूपत: कर्मों का त्याग। नैष्कर्म्य का परम विशेषण भी इसी से संगत हो सकता है। इसके बाद तो 'संन्यस्य' शब्द एक ही बार 57वें श्लोक में आया है। मगर वहाँ कर्मों का स्वरूपत: त्याग अर्थ है नहीं। वह शब्द क्रियावाचक है और अर्पण, रखने या समर्पण के ही मानी में आया है। हाँ, तो इस तरह पूर्ण कर्म-त्याग हो जाने पर किस तरह ब्रह्मात्मा का साक्षात्कार होता है और उसमें कर्म की निर्लेपता प्रतीत होने लगती है, झलक जाती है, यही बात आगे के चार श्लोक (50-53) बताते हैं। इसी को समाधि कहते हैं, ध्यानयोग कहते हैं तथा ज्ञाननिष्ठा, समाधिनिष्ठा और ध्याननिष्ठा भी कहते हैं। इसी के चलते पूर्ण ज्ञान और आत्मदर्शन की प्राप्ति हो जाती है। इसीलिए ज्ञाननिष्ठा इसे कहा गया है। बिना ऐसा किए ज्ञान परिपक्व नहीं होता और न सर्वत्र आत्मदृष्टि होती है। फिर कर्म छूटे कैसे और आत्मा निर्लेप दिखे कैसे?
इसके बाद 54वें श्लोक में उस ज्ञान या आत्मदर्शन का स्वरूप कहके 55वें में कारण बताया है कि क्यों उसे पूर्ण ज्ञान, ज्ञाननिष्ठा या आत्मदर्शन कहते हैं। उसका परिणाम भी कह दिया है कि आत्मा ब्रह्मरूप ही हो जाती है, उसी में मिल जाती है।
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौंतेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥ 50 ॥
बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृ त्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥ 51 ॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस:।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:॥ 52 ॥
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रो धं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्मम: शांतो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥ 53 ॥
(इस प्रकार पूर्ण नैष्कर्म्य की) सिद्धि प्राप्त कर लेने पर (मनुष्य) जिस तरह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है और जिसे परले दर्जे की ज्ञाननिष्ठा कहते हैं वह मुझसे जान लो। निर्मल सात्त्विक बुद्धिवाला (मनुष्य) (सात्त्विक) धैर्य के बल से मन को रोक के, शब्द आदि (इंद्रियों के) विषयों को छोड़ के और रागद्वेष को हटा के एकांत देश का सेवन करते, हलका भोजन करते तथा जबान, मन और शरीर को काबू में रखे हुए निरंतर ध्यानयोग में ही दत्तचित्त होता एवं वैराग्य को पक्का कर लेता है। (फलत:) अहंकार, बलप्रयोग, ऐंठ, काम, क्रोध और सभी लवाज़िम से नाता तोड़े हुए, ममतारहित (तथा पूर्ण) शांतियुक्त हो के ब्रह्म का रूप हो जाता है। 50। 51। 52। 53।
ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥ 54 ।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तद नंत रम्॥ 55 ।
ब्रह्मस्वरूप निर्मल मनवाला (मनुष्य) न तो कोई चिंता रखता है, न इच्छा। वह सभी पदार्थों में समदृष्टि-रूप मेरी परमभक्ति पा जाता है। मुझ आत्मा-ब्रह्म का जो भी और जैसा भी स्वरूप है उसे इस समदर्शन रूप भक्ति के बल से अच्छी तरह जान जाता है (और) (इस तरह) मेरे तत्त्वज्ञान के बाद ही फौरन मुझमें प्रवेश कर जाता है। 54। 55।
यहाँ भक्ति को परा कहा है। इसका अर्थ है सबसे ऊँचे दर्जे की भक्ति, जिसे 'ज्ञानीत्वात्मैव मे मतम्' (7। 18) में पूर्ण ज्ञान कहा है और जिसका स्वरूप 'वासुदेव: सर्वमिति' (7। 19) बताया है। यदि परा भक्ति न हो तो वहाँ निचले दर्जे के तीन भक्त गिनाए हैं उन्हीं वाली भक्ति हो जाएगी। यहाँ भी उसका रूप 'सम: सर्वेषु भूतेषु' कह दिया है। इसीलिए उसका पूरा विवरण भी 'भक्त्या मामभिजानाति' में कर दिया है, जिसमें कोई शकशुभा रही न जाए। मुझमें प्रवेश करने का अर्थ कहीं जाना-आना नहीं। इसीलिए 'मयि विशते' न कह के 'मां विशते' कहा है। इसका ठीक-ठीक अर्थ 'समुद्रमाप: प्रविशंति' (2। 70) जैसा ही है। वहाँ भी वही द्वितीयांत है जैसा यहाँ।
इस प्रकार जब आत्मदर्शी और ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है तो उसकी क्या दशा होती है यह प्रश्न स्वभावत: उठता है और उसका उत्तर जरूरी हो जाता है। उसकी दोई हालतें हो सकती हैं। वह वामदेव, शुकदेव आदि की तरह बिलकुल ही मस्तराम हो सकता है। फिर तो कोई सुधबुध उसे रही न जाएगी। उसी की बात 'यस्त्वात्मरतिरेव' (3। 16) में कही जा चुकी है। असल में ऐसे लोग एक तो कम होते ही हैं। क्योंकि जीते-जी मुर्दा बनना आसान नहीं। यह बड़ी ही दुर्लभ बात है। दूसरे व्यावहारिक दुनिया में आमतौर से न तो उन्हें लोग पहचानी सकते और न उनसे कोई फायदा ही उठा सकते । गीता को व्यावहारिक संसार की ही ज्यादा परवाह भी है। अर्जुन के लिए यही उपयुक्त भी था। प्रथमत: तो उसी को यह उपदेश दिया भी गया है। इसीलिए मस्तरामों की बात फिर कहने की कोई खास जरूरत रही नहीं गई थी, हालाँकि अगले श्लोक में उनकी भी बात है, यह आगे स्पष्ट हो जाएगा। उनके बारे में किसी को कोई शकशुभा भी तो नहीं हो सकता कि वह निर्वाण मोक्ष प्राप्त करेंगे या नहीं। मगर जिनकी दूसरी हालत होती है और जो लोकसंग्रह करते हैं उनका व्यवहार में पूरा उपयोग होने के साथ ही उनके बारे में यह खयाल हो सकना स्वाभाविक है कि जब वे जनसाधारण की ही तरह सब कुछ करते-धरते नजर आते हैं, तो उन्हें निर्वाण मुक्ति कैसे होगी? फलत: इन्हीं के बारे में अंत में स्पष्टतया कह देना जरूरी हो गया कि चाहे वह कहीं किसी भी दशा में रहें और कुछ भी करते रहें, फिर भी परम धाम, शाश्वत पद या निर्वाण मुक्ति उनके लिए धरी-धराई ही है। यही बात आगे के पाँच श्लोकों में कही गई है। अर्जुन को यह भी कह दिया गया है कि तुम्हारे जैसों के लिए तो यही रास्ता है। दूसरा हई नहीं। इसीलिए यदि तुमने नादानी की और दूसरा मार्ग लिया, तो चौपट हो जाओगे। यह भी बात है कि तुम ऐसा कर भी नहीं सकते। क्योंकि तुम्हारी तो क्षत्रियवाली प्रकृति है। इसलिए वह तुम्हें युद्ध से अलग जाने न देगी। प्रत्युत इसी में तुम्हें जरूर जोत देगी।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रय:।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥ 56 ॥
सदा सभी तरह के कर्मों को करता हुआ भी मेरा स्वरूप बना हुआ (ऐसा मनुष्य) मेरी कृपा से - आत्मसाक्षात्कार के फलस्वरूप - निर्विकार शाश्वत पद - मोक्ष - पा जाता है। 56।
इसीलिए अर्जुन को आगे स्पष्ट उपदेश दिया गया है कि तुम मोक्ष या परलोक की चिंता छोड़ के जैसा कहा जाता है करो और आत्मदर्शन, जिसे बुद्धियोग, ज्ञानयोग और सांख्ययोग भी कहते हैं, के बदले सभी कर्मों को भगवान को सौंप के उनकी जवाबदेही से अलग हो जाओ। अब तक जो तुम समझते थे कि आत्मा में ही कर्म हैं उसे गलत समझ कर्म को भगवान में फेंक के भस्म कर दो और आत्मा के सिवाय और कुछ देखो ही मत। इस तरह यहाँ कर्मों को आत्मा में न रहने देने या न मानने की बात का उपसंहार भी साफ-साफ हो जाता है। इस 57वें श्लोक का आशय पहले ही बताया जा चुका है।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव॥ 57 ॥
मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चे त्त्व महंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि॥ 58 ॥
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥ 59 ॥
स्वभावजेन कौंतेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा।
क र्त्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥ 60 ॥
(इसी ज्ञानयोग की शरण जा के) मन और हृदय से सभी कर्मों को परमात्मा में समर्पित करो, उसी में चित्त लगाओ और उससे बढ़ के और कुछ न जानो। परमात्मा में चित्त लगाने से उसी की कृपा से - आत्मज्ञान के ही प्रताप से - सभी संकटों से पार हो जाओगे। लेकिन यदि घमंड में आ के (मेरी यह बात) न सुनोगे तो चौपट हो जाओगे। (इतना ही नहीं) अगर अहंकार में आ के तुमने नहीं ही लड़ने का निश्चय किया भी तो तुम्हारा यह उद्योग - यह निश्चय - झूठा होगा - व्यर्थ होगा (और) तुम्हारा स्वभाव तुम्हें (लड़ाई में) डाल के ही रहेगा। (क्योंकि) हे कौंतेय, अपने स्वाभाविक कर्म के साथ जकड़े होने के कारण यदि यह काम - युद्ध - भूल से नहीं भी करना चाहो तो भी मजबूरन तुम्हें इसे करना ही होगा। 57। 58। 59। 60।
कर्मों का भगवान में संन्यास या अर्पण क्या चीज है और इस तरह आत्मा से उनका कैसे संबंध छूट जाता है इस पर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है।
वहाँ जो बार-बार 'मयि', 'मत' आदि शब्दों के द्वारा परमात्मा का उल्लेख किया गया है उससे शायद लोगों को यह भ्रम हो सकता है कि ईश्वर या परमात्मा कोई दूसरा पदार्थ है जो कहीं अन्यत्र रहता है। उसी में मन लगाने और उसे ही कर्मों को अर्पण करने की बात कही गई है। क्योंकि यदि वह आत्मा का स्वरूप ही हो तो कर्मों को आत्मा में ही रखना हो जाएगा न? संन्यस्य शब्द जो पहले 57वें श्लोक में आया है उसका तो अर्थ ही है धरोहर या थाती रखना। ऐसी दशा में अब तक का यह कहना व्यर्थ हो जाएगा कि आत्मा में कर्म रहता ही नहीं, उसका कर्म से ताल्लुक हई नहीं। इसीलिए ईश्वर को अलग ही मानना ठीक है।
मगर ऐसा समझने वालों के सामने भी तो यह दिक्कत रही जाती है कि आत्मा या जीव का कर्म, या यों कहिए कि मनुष्यों का कर्म वहाँ कैसे रखा जाएगा? और जब पहले ही कह दिया है कि 'न च मां तानि कर्माणि' (9। 9) - 'इन कर्मों से मेरा कोई ताल्लुक हई नहीं', तो फिर कर्म उसमें रहने पाएँगे कैसे? यदि यह कहा जाए कि ईश्वर तो कर्मों के लिए अग्नि जैसा ही है, और भस्म हो जाने के लिए ही उसमें कर्म डाल दिए जाते हैं, तो यह बात तो 'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा' (4। 37) के द्वारा पहले ही कह दी गई है कि आत्मज्ञान के द्वारा ही सभी कर्म दुग्ध हो जाते हैं। इसलिए एक तो ईश्वर में डालने का भी अर्थ समदर्शन ही होगा। दूसरे ईश्वर आत्मा से जुदा फिर भी सिद्ध न होगा। फिर तो वह शंका बेबुनियाद ही सिद्ध होगी।
असल बात यह है कि आत्मज्ञानी कर्मों की परवाह करता ही नहीं कि वे क्या चीज हैं और कब कैसे हो रहे हैं। उनका परिणाम क्या होगा यह भी खयाल उसके दिल में भूलकर भी नहीं आता है। वह तो यही जानता है कि सृष्टि का अर्थ ही है, क्रिया, कर्म (action)। इसलिए जो कुछ होता है वह तो सृष्टि के इसी के नियम के अनुसार ही हो रहा है। इसमें मुझे क्या लेना-देना है? मैं क्यों नाहक इस बला में फँसने जाऊँ? जिसने यह सब कुछ बनाया है वह जाने, उसका काम जाने। इस प्रकार आत्मा को निर्लेप समझ के लोकसंग्रह के कर्मों को करते रहना ही उन कर्मों का भगवान या ब्रह्मात्मा में संन्यास है, अर्पण है, डाल देना है।
इसलिए अगले श्लोक यही बात बताते हैं कि भगवान कहीं बाहर नहीं है। न तो वह बैकुंठ या ब्रह्मलोक में है और न तीर्थों या मंदिरों में। वह तो अपनी आत्मा ही है। फलत: हृदय में ही बसता है। हृदय में बसने का भी यह अर्थ नहीं है कि हृदय उसका घर है। उसका पहला आशय तो यही है कि वह आत्मा से अलग नहीं है। दूसरा आशय यह है कि वह तर्क-दलीलों और युक्तियों से न जाना जाकर हृदय-ग्राह्य ही है। 'ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य धिष्ठितम्' (13। 17) तथा 'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:' (15। 15) में भी यही बात कही गई है। केवल तर्क-दलीलों का आश्रय लेना नास्तिकता और निरीश्वरवाद में पहुँचा देता है और केवल हृदय अंधपरंपरा का भक्त बना देता है। इसीलिए यहाँ हृदयग्राह्य करने का तात्पर्य यही है कि तर्क-युक्ति की सहायता से रास्ता साफ करने के बाद हृदय से ही आत्मा-परमात्मा का ग्रहण होता है। मनु ने भी कहा है कि 'यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्मं वेद नेतर:' (मनु. 12। 106) - 'जो तर्क से विचार करता है वही धर्म जानता है, दूसरा नहीं।' यहाँ उच्छृंखल तर्क रोक के हृदय का साथी तर्क ही माना गया है। मनु ने तो तर्क को 'वेदशास्त्र का अविरोधी' कहा है उसका यही तात्पर्य है। जिस हृदय ने ईश्वर को देख लिया उसमें अलौकिक शक्ति होती है, ऐसी कि दुनिया को हिला दे, डुला दे, चला दे। यह बात हम पहले बहुत विस्तार के साथ लिख चुके हैं। 61वें श्लोक का यही आशय है, न कि सचमुच हृदय में बैठ के ईश्वर मशीन की तरह चलाता है। इसलिए उसी हृदय को संपादित करना, हृदय को वैसा ही बनाना यही हमारा काम है।
इस श्लोक का यह भी आशय है कि हृदय में जिस परमात्मा का स्वरूप व्यक्त होता है वह मनुष्य को चलाता है उस हृदय के ही बल से। जहाँ हृदय जा लगा वहाँ पहुँचना टल नहीं सकता। हृदय में वह ताकत है जो और कहीं नहीं है। हिरण बाँसुरी का शब्द सुन के अपने आपको भूल जाता है। साँप भी सँपेरे की बीन की आवाज से मुग्ध हो जाता है। इसी से शिकारी और सँपेरा उन दोनों को आसानी से पकड़ लेते हैं। उनके हृदय के ही चलते यह बात हो जाती है। उसका स्वभाव ही है। और जब क्षत्रिय का हृदय स्वभावत: युद्ध में ही रहता है, वहीं फँसा होता है, तो फिर अर्जुन हजार कोशिश करे, मगर वह रुकेगा कैसे? वह तो युद्ध में जाएगा ही, लड़ेगा ही। भगवान ही हृदय में बैठ के ऐसा करता है इस कहने का आशय 'मयाऽध्यक्षेण प्रकृति:' (9। 10) में बताई चुके हैं। उनके बिना जब प्रकृति कुछ करी नहीं सकती, तो हृदय तो उसी का रूप है न? फिर वह बिना भगवान के कैसे करेगा? इस प्रकार हृदय में भगवान के रहने का बहुत विस्तृत आशय इस श्लोक में व्यक्त हो जाता है।
जो लोग 'अहं' 'मम' आदि शब्दों को आत्मा के अर्थ में न लगा के एक निराले ही ईश्वर में लगाते, उसे सर्वशक्तिमान मानते और जीव को उसका स्वरूप न मान के सेवक मानते हैं, उनसे हमारा अनुरोध है कि वे बृहदारण्यक उपनिषद् के चौथे अध्याय का तीसरा ब्राह्मण पूरे का पूरा पढ़ जाएँ और देखें कि उसमें आत्मा का ही निवास हृदय में स्वयं-ज्योतिरूप में लिखा गया है या नहीं, सृष्टि का बनाने-बिगाड़ने वाला उसे कहा गया है या नहीं और उसके सिवाय कोई दूसरी वस्तु हई नहीं है, यह बार-बार दिखाया गया है या नहीं। वहीं यह भी लिखा गया है कि वह स्वयं-ज्योति है, उसका प्रकाशक कोई नहीं और जैसे ही सपने में वैसे ही जगने में सारी चीजें अपनी ही शक्ति से बनाता और देखता है, लीला करता है, सभी जगह विहरता-विचरता है, मौज करता है। यह भी वे लोग देखें। 'ध्यायतीव लेलायतीव' लिखा गया है जिसका अर्थ है, कि सभी लीलाएँ करता है।
जब उस ब्राह्मण के शुरू में ही जनक ने याज्ञवल्क्य से पूछा है कि इस आत्मा के मददगार प्रकाश कौन-कौन से हैं - 'किंज्योतिरयं पुरुष:'? (3। 1), तो याज्ञवल्क्य ने, जितने भी उजाला करने वाले या पथदर्शक संभव हैं उन्हीं सबों को पहले गिना के कहा है कि एके बाद दीगरे इन्हीं से उसका पथदर्शन होता है। सबसे पहले सूर्य की ही प्रचंड ज्योति से उनने शुरू किया है। मगर रात में तो वह ज्योति मिलती नहीं, ऐसा कहने पर चंद्रमा का नाम लिया है। लेकिन कृष्णपक्ष की अँधियारी और अमावस्या में? तब तो चंद्र होता नहीं। अत अग्नि के प्रकाश, दीपक आदि से ही काम चलता बताया है। तो निरे अँधेरे में, जहाँ दीपक भी न हो, क्या काम बिलकुल ही बंद हो जाता है? अँधेरे में भी तो लोग दूर से बातें सुन के ही जान जाते हैं कि कौन-सा आदमी है। जबान से रास्ते की बात सुनके वैसे ही चलते भी हैं। इसीलिए बात या शब्द को ही उस समय प्रकाशक और पथदर्शक मानना पड़ा है। मगर जब नींद के समय आत्मानंद का अनुभव करता है और उठने पर याद करता है कि बड़े आनंद से सोए थे, तब वहाँ कौन-सा प्रकाश रहता है, जो आनंद को दिखाता है? और अगर अनुभव न करता तो उठने पर फौरन ही उसे याद क्यों करता? जिसका अनुभव न हो उसका तो स्मरण होता नहीं। इसलिए शरीर के भीतर सुषुप्ति या गाढ़े नींद में आनंद का अनुभव मानना ही पड़ता है। इसी प्रकार सपने में जानें क्या-क्या देखता-सुनता है। हजारों चीजें देखी जाती हैं, यह तो सभी मानते-जानते हैं। मगर वहाँ भी न तो शब्द ही हैं और न सूर्य आदि ही हैं। फिर वहाँ कौन-सा प्रकाश है, सो भी भीतर शरीर में? इसी का उत्तर दिया है कि 'आत्मैवास्य ज्योतिर्भवतीत्यात्मनैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीति' (4। 3। 6)।
इसका आशय यही है कि 'उस समय मनुष्य की आत्मा ही ज्योति का काम करती है और वह उसी के बल से बैठने, जाने, आने-लौटने और अन्य सभी कामों में लग जाता है' इस पर प्रश्न हुआ है कि वह आत्मा है कौन-सा? 'कतमोऽयमात्मा?' (4। 3। 7)। क्योंकि शरीर के भीतर मन, बुद्धि, हड्डियाँ, मांस आदि हजार चीजें हैं न? इसी के उत्तर में कहना पड़ा है कि वह विज्ञानमय है, सभी इंद्रियादि को चलाता है और हृदय के भीतर रहता है, 'विज्ञानमय: प्राणेषु हृद्यंतज्योति: पुरुष' (4। 3। 7)। उसी के बारे में यह भी लिखा है कि जागरण और सपना इन्हीं दोनों हालतों में वह काम-धाम करता है, लीला करता है ऐसा जान पड़ता है। वह सर्वत्र एक ही है, एक-सा ही है, 'स समान: सन्नुभौलोकावनुसंचरति ध्यायतीव लेलायतीव' (4। 3। 7)। उसके तीन लोक या क्रीड़ास्थल माने गए हैं। इनमें सुषुप्ति में तो संसार रहता नहीं। वहीं से कभी सपने में जाता और चीजें बना के मौज करता है, तो कभी जाग्रत दशा में आ के, - 'तस्यवाएतस्यपुरुषस्यद्वे एवस्थानेभवत: इदं च परलोक स्थानं च संधयं तृतीयं स्वप्न स्थानं तस्मिन्संध्ये स्थाने तिष्ठन्नेते उभे स्थाने पश्यति' (4। 3। 8)। यहाँ संधि-स्थान को स्वप्न-स्थान कहा है। स्वप्न का अर्थ है गाढ़ नींद या सुषुप्ति। यहीं से दोनों में पहुँचता है। जाग्रत को इहलोक और सपने को परलोक कहा है।
इसके बाद से लेकर 18वें ब्राह्मण के अंत तक सपने की सृष्टि के बनाने और बिगाड़ने की बात सविस्तार कही गई और लीला बताई गई है। आत्मा ही सब कुछ करती है यह भी बताया गया है। अनंतर गाढ़ नींद या सुषुप्ति का प्रसंग ला के उसका चित्र खींचा गया है। वहाँ यह प्रश्न उठा है कि सुषुप्ति में कोई पदार्थ आत्मा को मालूम क्यों नहीं होता है? पदार्थ तो हजारों हैं। शरीर के भीतर ही जाने कितने हैं। फिर उनका अनुभव वहाँ आत्मा को होता क्यों नहीं? इसी का उत्तर बहुत ही विस्तार के साथ 31वें ब्राह्मण के अंत तक दिया गया है और कहा गया है कि अगर सचमुच कोई दूसरा भी पदार्थ उसके अलावे हो तब न उसे देखे, सुने, सूँघे, छुए, खाए, पीए दरअसल तो आत्मा के सिवाय और कुछ हई नहीं - 'न तु तद्द्वितीयमस्ति'। यही बात बीसियों बार कही गई है। सचमुच ही आश्चर्य है कि यदि इंद्रियों से देखे-सुने न भी तो मन से तो सोचे-विचारे। मगर वहाँ तो कुछ भी नहीं होता। मन को तो बाहर जाना भी नहीं कि इंद्रियों की मदद चाहिए। वह भीतर ही सोचता क्यों नहीं? आखिर सपने में तो मन ही सब कुछ करता है न? फिर सुषुप्ति में भी क्यों नहीं करता? इसीलिए मानना ही पड़ता है कि उस समय आत्मा के सिवाय और कुछ हई नहीं। ठीक ही है, जिसका ज्ञान नहीं उसके अस्तित्व में प्रमाण ही क्या? यदि कहा जाए कि जिसे नींद न हो उसे तो उस समय ज्ञान होता ही है; अतएव वही ज्ञान उन वस्तुओं के लिए प्रमाण होगा, तो प्रश्न होता है कि सुषुप्तिवाले को क्या मालूम कि किसी को ज्ञान होता है? और अस्तित्व का प्रश्न तो उसी के लिए है न? और अगर सभी को सुषुप्ति हो जाए तो? यह असंभव भी नहीं है। प्रलय की ही तरह वह भी हो सकती है। फलत: अद्वैत-तत्त्व को मानना ही पड़ता है।
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्राम यंस र्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया॥ 61 ।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। तत्प्रसादात्परां शांति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥ 62 ॥
हे अर्जुन, सभी प्राणियों के हृदयस्थान में ईश्वर मौजूद रहता है, (और अपनी) मायाशक्ति से उन्हें कठपुतली की तरह घुमाता रहता है। हे भारत, समस्त संसार को उसी का स्वरूप जानो और इसी रूप में उसकी शरण जाओ। उसी की कृपा से परम शांति और शाश्वत स्थान पा जाओगे। 61। 62।
61वें श्लोक की पूरी व्याख्या पहले ही हो चुकी है। 62वें में जो 'सर्वभावेन' पद है ऐसा ही पद पहले भी 'स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत' (15। 19) में आया है। अंतर यही है कि वहाँ 'भजति' है और यहाँ 'शरणं गच्छ' है। मगर मानी दोनों के एक ही हैं। भजने या शरण जाने का ही रूप 'सर्वभावेन' कहा है। 'वासुदेव: सर्वमिति' की ही तरह सभी को आत्मा-परमात्मामय ही देखना यही शरण जाना है।
इस प्रकार उपदेश करके उसका उपसंहार करते हुए अर्जुन को मौका देते हैं कि वह खूब सोच-विचार ले, तभी कुछ करे। कहीं ऐसा न हो कि आवेश में आ के या बातों में पड़ के कुछ कर डाले। क्योंकि ऐसे कामों का नतीजा कभी अच्छा नहीं होता। लेकिन इसी के साथ उसे यह भी याद रखना होगा कि जो उपदेश दिए गए हैं वह ऐसे-वैसे नहीं हैं; किंतु दुर्लभ और गोपनीय से भी गोपनीय हैं। ऐसी बातें शायद ही सुनने को कभी मिलती हैं, कभी मिलें। इसलिए इन पर पूरा गौर करना होगा।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥ 63 ॥
मैंने तुम्हें यह गोपीनय से भी गोपनीय अक्ल और सोचने-विचारने की बात कही है। इस पर खूब अच्छी तरह सोच-विचार के जो चाहो सो करे। 63।
श्लोक से स्पष्ट है कि जो कुछ उपदेश है वह ज्ञान ही है, न कि और कुछ। चाहे जितनी बातें भी शुरू से अंत तक आई हों सब ज्ञान के ही सिलसिले में आई हैं। गीतोपदेश का असली विषय ज्ञान ही है। उसी के भीतर विज्ञान भी आ जाता है। फिर भी जो यह कह दिया है कि समझ-बूझ के करो और जो चाहो सोई करो, उससे साफ हो जाता है कि आज्ञा या हुक्म की गुंजाइश गीता में है नहीं। यहाँ तो अपने दिल से ही चलने की बात है। यह ठीक है कि जो कुछ करना हो उसे बखूबी समझ-बूझ के करना चाहिए। मगर करना है अपनी ही मर्जी से, अपनी राय से ही, जिसे इच्छा कहते हैं। क्योंकि जवाबदेही तो अपने ही ऊपर आने को है न? फिर दूसरे के दबाव या हुक्म का क्या सवाल? वह क्यों माना जाए? और अगर माना गया तो जवाबदेही करनेवाले पर न हो के आज्ञा देनेवाले पर ही जो हो जाएगी। इस पर तो हमने पहले श्रद्धा के प्रसंग में बहुत लिखा है।
'अशेषेण विमृश्य' कहने का एक और भी अभिप्राय है। एक तो विमर्श ही व्यापक चीज है। इसके मानी ही हैं कि सभी पहलुओं पर अच्छी तरह गौर कर लिया जाए। लेकिन जब उसके साथ 'अशेषेण' भी जुटा है, तब तो कहने का मतलब साफ हो जाता है कि खबरदार, एक बात भी छूटने न पाए। शुरू से यहाँ तक जितनी बातें कही गई हैं सभी को सामने रख के अच्छी तरह उन पर सोचो-विचारो और गौर करो। उसके बाद जिस निश्चय पर पहुँचो उसी के अनुसार काम करो। असल में गीतोपदेश की पूर्वापर बातों को भूल जाने से ही ज्यादा गड़बड़ होती है और लोग कुछ का कुछ निश्चय कर बैठते हैं। दृष्टांत के लिए 'ईश्वर: सर्वभूतानां' को ही ले सकते हैं। जाने कितनों ने इसका सचमुच ही आत्मा से भिन्न ईश्वर अर्थ करके इस आत्मा को उसके चरणों में झुका दिया है, उसका सेवक और गुलाम बना दिया है। हम तो इसे आत्मा का पतन मानते हैं, न कि और कुछ भी। फिर भी ऐसा ही किया गया है; हालाँकि यदि गीता की ही पहले की बातें याद रहें तो यह बात कभी न हो। 'न कर्त्तृत्वं न कर्माणि (5। 14-15) श्लोकों में आत्मा के ही लिए प्रभु और विभु शब्द आए हैं, जो आमतौर से ईश्वर के ही लिए प्रयुक्त होते हैं। बल्कि इसी से बहुतेरे यहाँ भी धोखा खा गए हैं और ईश्वर ही अर्थ कर डाला है; हालाँकि हमने यह भूल वहीं सुझा दी है।
मगर इसे भी जाने दीजिए। क्योंकि यहाँ विवाद की गुंजाइश है। 'भर्त्ता भोक्ता महेश्वर: परमात्मेति चाप्युक्त:' (13। 22) में तो साफ ही जीवात्मा को ही ईश्वर क्या महेश्वर और परमात्मा तक कहा है, परम-पुरुष तक कहा है। कहा ही नहीं है, बल्कि ऐसा ही पहले से कहा जाता है यह बताया है। यहाँ विवाद की जगह हई नहीं। इसके बादवाले 'तिष्ठन्तं परमेश्वरम्' (13। 27) को हम छोड़ ही देते हैं; हालाँकि वहाँ भी परमेश्वर शब्द जीवात्मा के ही लिए आया है। मगर 'शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:' (15। 8) में तो साफ ही मरने-जीने के प्रसंग में ईश्वर शब्द जीवात्मा के ही लिए आया है। यहाँ तो संदेह के लिए जरा भी स्थान नहीं है। फिर भी 'ईश्वर: सर्वभूतानां' में अगर ईश्वर का अर्थ आत्मा न करके और कुछ किया जाए तो मानना ही होगा कि पूर्वापर विचार के बिना ही ऐसा होता है। फलत: 'विमृश्यैतदशेषेण' कहना जरूरी था। यही वजह है कि इतना कहने के बाद भी एक बार और यही बातें शब्दांतर में चलते-चलाते याद दिला देते हैं, ताकि धोखे की भी गुंजाइश रहने न पाए और अर्जुन का निश्चय सही और दुरुस्त हो के ही रहे।
इतना कहने पर भी स्वयं कृष्ण को संतोष न हुआ। क्योंकि परिस्थिति नाजुक थी। उनने उपदेश के शुरू में अर्जुन की आश्चर्यजनक मनोवृत्ति को भी खुद अनुभव किया था। वह देख रहे थे कि उसमें कितनी कमजोरी आ गई है। जिस बात के लिए वह सपने में भी तैयार न थे वही देख के वह एक तरह से दहल उठे थे। उन्हें अर्जुन का अनुभव बचपन से ही था। पाँचों भाइयों में उसे सबसे ज्यादा वह मानते भी थे। यही वजह थी कि सबों के बुरा मानने और लाख नाक-भौं सिकोड़ने पर भी अपनी बहन सुभद्रा से अर्जुन की शादी तक उनने करा दी थी। जिसे लँगोटियायारी कहते हैं वही ताल्लुक अर्जुन के साथ उनका था। फलत: उसका रगरेशा वह पहचानते थे, उसे रत्ती-रत्ती जानते थे। जानें कितने ही भीषण से भीषण संकट के समय पांडवों के सामने आए थे। बचपन में ही पिता के मर जाने से वे एक प्रकार से अनाथ जैसे हो गए थे। क्योंकि धृतराष्ट्र का रुख उनके प्रति आरंभ से ही खराब था और यह बात छिपी न थी। ऐसी दशा में विपदाओं के वज्रों के एके बाद दीगरे गिरने की बात जितनी न थी उतनी उनकी परेशानी, पामाली तथा असीम कष्ट की बात थी। कोई भी उनका पुर्सां हाल था जो नहीं। द्रौपदी की नग्नता के कांड से यह बात और भी साफ हो चुकी थी। भीष्म आदि की जबान तक पर ताला लग चुका था। ऐसे मौकों पर बड़े भाई युधिष्ठिर तक अधीर हो जाया करते थे। मगर अर्जुन ने न तो कभी हिम्मत हारी थी, न बुजदिली दिखाई थी और न आँसू बहाए थे! ऐसा था वह इस्पात और वज्र का बना! कृष्ण को यह बात बखूबी विदित थी। क्योंकि सबों के साथ छोड़ देने पर भी वही तो पांडवों के सदा के सच्चे साथी, पुर्सां हाल थे। फिर जानते क्यों नहीं?
लेकिन वही अर्जुन गीतोपदेश के पहले बच्चों जैसा रो रहा था। उसके हाथ-पाँवों में ही क्या, सारे अंग में जैसे लकवा मार गया था। वह खड़ा रह सका नहीं और, जैसे कोई कटा पेड़ हो, धड़ाम से रथ के बीच में पड़ गया था! गिर गया था! इसमें अनुमान की भी जरूरत न थी। उसने तो खुद ही कहा था कि मेरा मन जैसे चक्कर काट रहा है और मैं खड़ा रह सकता नहीं, 'न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:' (1। 30)। जिसका धनुष सदा साथ रहा, बगल में ही बाणों के साथ पड़ा रहा, वही कह चुका था कि हाथ से मेरा यहा गांडीव - सदा का प्यारा गांडीव - खसका जा रहा है, 'गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्' (1। 30)। ऐसी ही जानें कितनी बातें थीं जो अनहोनी थीं। अर्जुन के मन में जो ग्लानि थी, जो बेचैनी और घबराहट थी, सभी कामों में जो अनास्था हो गई थी, जो भीषण वैराग्य था और इन सबों के चलते जिस दीनता ने उस पर काबू कर लिया था वह तो सचमुच ही 'न भूतो न भविष्यति' का दृश्य था।
गीता की चार बातें अलौकिक थीं - ऐसी बातें जिनका उल्लेख गीता में पाया जाता है। वास्तव में ये बातें न कभी हुई थीं और न आगे हो सकती थीं। इनमें पहली थी अर्जुन की यह दशा जिसका उल्लेख हमने अभी-अभी किया है और जिसका सजीव और नग्न चित्र गीता के पहले अध्याय के बीस (28-47) तथा दूसरे के शुरू के नौ (1-9) श्लोकों में पाया जाता है। जो लोग उसे यों ही पढ़ जाते हैं वह क्या समझ पाएँगे, जब तक अर्जुन की समूची जीवनी अपने आँखों के सामने वैसे ही न रख लें जैसे कृष्ण के सामने थी? यही कारण था कि कृष्ण परिस्थिति की भीषणता को समझ सके थे।
गीता की ऐसी ही दूसरी चीज थी इतना देखने-सुनने के बाद कृष्ण की भावभंगी, उनकी उस समय की दशा, उनका रुख और चेहरा-मोहरा, जिसकी तरफ 'तमुवाच हृषीकेश:' (2।10) श्लोक का 'प्रहसन्निव' इशारा करता है। जो लोग इस समूचे श्लोक को इस पूर्व परिस्थिति को मद्देनजर रख के गौर से पढ़ें और उस पर दिमाग लगाएँ उन्हें उसके शब्दों में कृष्ण की इस अनोखी भावभंगी की झाँकी मिल सकती है। इस पूरे श्लोक में बहुत खूबी है और इसके हरेक पद कुछ न कुछ अर्थ व्यक्त करते हैं, जो निरे शब्दार्थ से निराली चीज है और जिसे ही काव्य की जान कहते हैं। इसे पूर्णरूपेण समझने में जो दिक्कत है उसे हल करने के लिए गीता के अंतिम श्लोक से पहले का 'तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:। विस्मयो मे महान राजन् हृष्यामि च पुन: पुन:' (18। 77) श्लोक इसी के साथ पढ़ लेना चाहिए। गीतोपदेश के आरंभ करने के ठीक पहले का वह और अंत का यह - इन दोनों को - मिला के देखें कि सचमुच वह रूप अलौकिक था या नहीं, नायाब था या नहीं। संजय ने उसे 'अत्यद्भुतम्' कह दिया है। एक तो अद्भुत चीज ही निराली है। मगर उसे इतने से ही संतोष न हुआ और उसके साथ 'अति' भी जोड़ दिया। हम उस श्लोक के अर्थ के ही समय विशेष बातें लिखेंगे। यहाँ तो केवल दोनों को एक साथ पढ़ के कृष्ण की अलौकिक भावभंगी का चित्र दिमाग में बैठाने की ही बात कहनी है। वह ऐसी थी कि संजय का मन मानता न था। फलत: बार-बार उसे भीतरी आँखों के सामने ला खड़ा करता था। यह भी 'संस्मृत्य संस्मृत्य' शब्दों ने साफ ही कह दिया है। केवल साधारण स्मृति न थी। किंतु अलौकिक वस्तु की अलौकिक स्मृति थी, अनोखी याद थी। इसीलिए तो 'सम्' लगा के 'संस्मृत्य' कहना पड़ा। उसके साक्षात देखने पर क्या दशा हुई होगी, जब कि याद करने मात्र से ही बार-बार रोएँ खड़े हो जाते थे, हर्षातिरेक बह चलता था, 'हृष्यामि च पुन:-पुन:।' इसीलिए संजय को भी मामूली नहीं, किंतु महान विस्मय, पीछे तक बना हुआ था - 'विस्मयो मे महान'! जैसी अलौकिक वस्तु देखी थी और बार-बार याद की थी उसी हिसाब से ही तो आश्चर्यचकित होना भी था।
गीता की तीसरी चीज थी भगवान की विराट मूर्ति या विश्वरूप। वह भी वाकई में 'न भूतो न भविष्यति' ही था। इसमें भी स्वयं गीता के ही वचन प्रमाण हैं। वह रूप दिखा चुकने के बाद खुद कृष्ण ने दो बार कहा है कि 'तुमसे पहले यह रूप किसी ने देखा ही नहीं, किसी ने देख पाया ही नहीं' - 'यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्' (11। 47), और 'तुम्हारे सिवाय दूसरा कोई भी, सभी प्रकार के यज्ञ, दानादि के द्वारा यत्न करके भी, इसे आगे देख न सकेगा' - 'एवं रूप: शक्य अहं नृलोके द्रुष्टुं त्वदन्येन कुरु प्रवीर' (11। 48)। इससे बढ़ के 'न भूतो न भविष्यति' की सफाई और क्या हो सकती है?
गीता की चौथी अलौकिक चीज है गीता धर्म या गीता के उपदेश। इसके बारे में हम काफी लिख चुके हैं। हमें विश्वास है कि यह बात निर्विवाद सिद्ध की जा चुकी है। इसीलिए अब यहाँ कुछ भी लिखने का प्रश्न हई नहीं।
हाँ, तो ऐसी नाजुक हालत में कृष्ण को भारी अंदेशा था कि कहीं इतने पर भी अर्जुन की वही हालत न हो और वह विचलित का विचलित ही न रह जाए। यही कारण है कि आगे की अंतिम बात के कहने पर भी उन्हें विश्वास नहीं हो पाया था। फलत: उनने अर्जुन से पूछ ही तो दिया कि 'अर्जुन, तुमने हमारी बातें ध्यान से सुनी तो हैं? और अगर हाँ, तो इससे तुम्हारी वह अज्ञानमूलक भूलभुलैयाँ मिटी क्या'? 'कच्चिदेतच्छृ तं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा। कच्चिदज्ञानसम्मोह: प्रणष्टस्ते धनंजय' (18। 72)। जब अर्जुन ने इसका स्पष्ट उत्तर दे दिया कि, 'भगवन, आपकी कृपा से अब मेरा वह मोह भाग गया, सभी बात की ठीक-ठीक स्मृति हो आई, मेरे सभी शक काफूर हो गए और आपकी बातें मानूँगा' - 'नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसंदेह: करिष्ये वचनं तव' (18। 73), तब कहीं जा के उन्हें संतोष हुआ।
वही वजह है कि कृष्ण एक बार और भी उसे उपदेशों का निचोड़ कह देने को तैयार हो गए। ऐसी परिस्थिति न रहने पर भी प्रियजनों के संबंध में ऐसा होता ही है कि एक ही बात बार-बार कहते जाते हैं, खासकर ऐसे मौके पर जब उन्हें कुछ महत्त्वपूर्ण काम करना या कहीं दूर देश जाना हो। यह अधिक प्रेम की पहचान है। यह बात इष्टोसि मे दृढमिति' शब्दों से साफ हो भी गई है। इसलिए लोग पुनरावृत्ति देख के ऊब न उठें।
एक बात और भी है। संन्यास के संबंध में अर्जुन के प्रश्न का पूरा उत्तर अभी तक दिया गया भी नहीं है। बेशक, यह कहा गया है जरूर कि कर्मों के स्वरूपत: त्याग से पूर्ण नैष्कर्म्य हो जाता है, जिसकी अनिवार्य आवश्यकता समाधि या पूर्ण ज्ञाननिष्ठा के लिए जरूरी है। उसके बाद उस पूर्ण ज्ञाननिष्ठा का निरूपण भी किया है। मगर यह तो कहीं नहीं कहा है कि कर्मों के स्वरूपत: त्याग के बिना काम चली नहीं सकता। अर्थत: यह बात सिद्ध जरूर हो गई है, हो जाती है। फिर भी साफ शब्दों में कहे बिना काम चलता नहीं। लोग खींचतान शुरू जो करेंगे और जोई मानी चाहेंगे शब्दों को पिन्हा जो देंगे। इसीलिए साफ-साफ कह देना जरूरी था कि बिना स्वरूपत: कर्मों का संन्यास या त्याग किए आत्मनिष्ठा होई नहीं सकती। अंत में ही इस बात का आ जाना भी सबसे अच्छा था। इसीलिए आगे के तीन श्लोकों में से पहले में तो पुनरपि यह बात कहने का कारण लिखा गया है, दूसरे में आत्मनिष्ठा का पूरा स्वरूप खड़ा कर दिया है और तीसरे में साफ कह दिया है कि बेफिक्र हो के सभी कर्मों के फंदों को तोड़ डालो। तभी एकमेवाद्वितीय आत्मतत्त्व में पूर्णतया लग सकते हो और तभी सारे झमेले खत्म हो सकते हैं।
सर्वगुह्यतमं भूय: शृणु मे परमं वच:। इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥ 64 ॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥ 65 ॥
सर्वध र्मांप रित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥ 66 ।
सबों से अधिक गोपनीय मेरी यह आखिरी बात फिर सुन लो। तुम मेरे अत्यंत प्यारे हो, इसी से तुम्हारे हित की बात कहे देता हूँ। मुझ आत्मा में ही मन लगाओ, मेरा ही भजन करो, मेरा ही यजन करो। (और) मुझी को नमस्कार करो। (परिणामस्वरूप) मुझी को पा जाओगे। यकीन रखो, मेरे प्रिय हो, तुमसे सच कहता हूँ। सभी धर्मों को छोड़ के एक मेरी ही शरण जाओ। मैं (आत्मा) तुम्हें सभी पापों से छुटकारा दिला दूँगा, अफसोस मत करो। 64। 65। 66।
यहाँ भी 'वक्ष्यामि' का कहूँगा यह अर्थ न हो के अभी-अभी कहे देता हूँ यही अर्थ है। इसका कारण पहले ही बताया जा चुका है। दूसरे श्लोक में 'माम्' 'मत्' आदि शब्द 'अहं' के ही रूप हैं और 'अहं' का अर्थ आत्मा ही है यह सभी जानते हैं। इस पर बहुत कुछ कहा जा भी चुका है। 'सत्यं प्रतिजाने' का अर्थ है विश्वास करो, सच कहता हूँ। यहाँ 'प्रतिजाने' का सीधे 'प्रतिज्ञा करता हूँ' यह अर्थ कुछ बैठता-सा नहीं है। 'सर्वधर्मान्' श्लोक की तो लंबी-चौड़ी व्याख्या पहले ही की गई है। वहाँ जाने कितनी ही शंकाओं का उत्तर दिया जा चुका है। इसलिए वे बातें यहाँ फिर लिखना बेकार है। मगर दो-एक अन्य बातें लिख देना जरूरी है।
जो लोग 'सर्वधर्मान् परित्यज्य' का यह अर्थ करते हैं कि धर्मों के फलों का त्याग करके शरण में आओ उन्हें यह खयाल करना भी तो चाहिए कि जब धर्मों को करते ही रहेंगे तो फिर पाप का प्रश्न उठेगा ही कैसे? पाप की बात तो तभी आती है जब नित्य, नैमित्तिक कर्मों को ही छोड़ दिया जाए। यही धर्मशास्त्रों का निश्चित मत है। लेकिन यदि पाप की बात न होती तो उत्तरार्ध में यह क्यों कहते कि तुम्हें सभी पापों से छुटकारा दिला दूँगा? जिस तरह 'धर्मान्' यह बहुवचन लिखा है, ठीक वैसे ही 'पापेभ्य:' यह भी बहुवचन ही आया है, यह भी बात है। इससे दोनों का संबंध बखूबी जुट जाता है और आशय सिद्ध होता है कि धर्मों के छोड़ने से ही जो पापों का खतरा पैदा हो गया था उसी से छुटकारा दिलाने की बात यहाँ कही गई है।
इस पर ऐसा कहने का यत्न हो सकता है कि 'पापेभ्य:' का अर्थ है जन्म-मरण के सभी बंधनों से छुटकारा दिलाना ही। इसीलिए तो 'मोक्षयिष्यामि' क्रिया में मोक्ष की बात लिखी गई है। परंतु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि 'मोक्षयिष्यामि' कह देने से ही उसका अर्थ ही यह होता है कि सभी बंधनों से छुट्टी हो जाएगी। मोक्ष शब्द का अन्य अर्थ हई नहीं। फिर 'पापेभ्य:' शब्द से बंधन अर्थ लेना महज बेकार और निरर्थक है। इसके पहले इसी मोक्ष की बात 'परां शांतिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्' (18। 62) तथा 'मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्' (18। 56) आदि के द्वारा कह के भी वहाँ पाप या बंधन से छुटकारे की बात नहीं लिखी है, हालाँकि मोक्ष शब्द न रहने से वहाँ ऐसा लिखने का मौका था भी। मगर यहाँ तो वह भी नहीं है। फिर 'पापेभ्य:' की क्या जरूरत थी? इससे तो मानना ही पड़ेगा कि अर्जुन को जो डर था कि कहीं नित्य-नैमित्तिक कर्मों के छोड़ देने से पाप न चढ़ बैठे, उसी के लिए उसे आश्वासन दिया गया है कि बेफिक्र रहो, ऐसा कुछ न होगा। 'मोचयिष्यामि' की जगह 'मोक्षयिष्यामि' कहने का साफ आशय यही है कि जैसे प्रायश्चित्तादि के द्वारा पापों से छुटकारा होता है वैसी बात यहाँ न हो के मुक्ति ही मिल जाएगी और सदा के लिए पाप से पिंड ही छूट जाएगा।
इस श्लोक में जो 'परित्यज्य' शब्द है उससे स्पष्ट हो जाता है कि अद्वैत आत्मा की शरण जाने के पहले सभी धर्मों को सोलहों आना छोड़ना ही होगा। उसके बिना काम चलने का नहीं। इसका अभिप्राय यही है कि इससे पूर्व के श्लोक में जो आत्मतत्त्व में ही मन को रमाना लिखा है और जिसे ही उसकी शरण जाना भी कहते हैं, उसके पहले ही सभी धर्मों को छोड़ना ही होगा। पहले उन्हें छोड़ लो, पीछे शरण जाने की बात सोचो, यही उसका निचोड़ है। पूर्वकालिक क्रिया का दूसरा मतलब नहीं है। जैसे कहा जाए कि सुनते ही विषाद में डूब गया 'श्रुत्वैव विषण्णो जात:', तो यहाँ जो पूर्वकालिक क्रिया 'श्रुत्वा' है उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विषाद का कारण अप्रिय समाचार सुनना ही है। वैसे ही यहाँ भी शरण जाने का कारण सभी धर्मों का परित्याग है। त्याग न कह के परित्याग कहने का भी यही अभिप्राय है कि बखूबी त्याग करना होगा, न कि आधा-साझा करके 'आधा तीतर आधा बटेर' करना होगा। इसमें गुजर है नहीं। हाँ, एक बात और। कर्मों के स्वरूपत: त्याग के बाद जब ज्ञान निष्ठापूर्ण हो जाए तो उसके बाद क्या हो इस बारे में यहाँ कुछ नहीं कहा है। फलत: पूर्ववत दोनों बातें हो सकती हैं। जब वृत्ति ऊपर चढ़ जाए तो सब छूट जाएँ, न चढ़े तो लोकसंग्रह चालू हो। यही बात 'सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्व्वाण:' (18। 56) में कही गई है। क्योंकि वहाँ जो 'अपि' शब्द है उससे यही अर्थ निकलता है कि सभी कर्म करते हुए भी शाश्वत पद पा जाता है। यह 'भी' साफ ही बताता है कि कर्मों के न करने वाले भी होते हैं और उन्हे बेखटके शाश्वत पद प्राप्त होता ही है मगर कर्म करने वाले भी उसे प्राप्त करते ही हैं। यह बात बहुत साफ है।
बस, गीतोपदेश पूरा हो गया और जहाँ तक गीताधर्म के बताने का ताल्लुक है कुछ भी कहना शेष रहा नहीं। हाँ, एक बात रह गई जरूर। अर्जुन ने ही यह सुना है और स्वभावत: लोग कौतूहल से समय पा के उससे पूछेंगे ही कि कृष्ण ने आपसे क्या-क्या कहा, क्या-क्या उपदेश आपको दिया? और हो सकता है कि वह सबों से 'कुल धान साढ़े बाईस पंसेरी' के हिसाब से ये गोपनीय बातें कहने लग जाए। तब तो अनर्थ ही होगा। एक तो इनकी कीमत सब लोग कर सकते नहीं। हीरा-जवाहरात के जानकार और ग्राहक तो सभी होते नहीं। कहते हैं कि किसी नादान को कहीं हीरे के बड़े पत्थर की ठोकर लगी तो उसने उसे उठा के दूर गलीज में फेंक दिया, ताकि फिर ऐसी ठोकरें किसी को न लगें! यही बात गीताधर्म की भी हो जाएगी। दूसरे, जानकार लोग भी हिचक जाएँगे कि हो न हो यह कोई ऐसी ही वैसी चीज है। तभी तो अर्जुन सबों से कहता फिरता है। फलत: यह गीताधर्म पनप सकेगा ही नहीं। इसीलिए आगे के पाँच (67-71) श्लोकों में इसी बात की चेतावनी देते हैं कि कैसे लोगों से ये बातें कही जाएँ और कही जाएँ या नहीं। क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि खुद जानने के बाद इसकी चर्चा ही न की जाए और न इसकी जरूरत ही महसूस की जाए। मगर कृष्ण को तो फिक्र थी कि समाजहित के लिए इसका प्रचार निहायत जरूरी है। उन्हें केवल अर्जुन की ही फिक्र न थी। इसीलिए उपदेश करने वाले की भरपूर प्रशंसा भी कर दी है और उसका सुंदर फल सुना दिया है। निरंतर पढ़ते-पढ़ाते और सुनते-सुनाते ही इसे हृदयंगम किया जा सकता है, इसका प्रसार हो सकता है, इसीलिए उस पर भी जोर दिया गया है।
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥ 67 ॥
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय:॥ 68 ॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥ 69 ॥
अ ध्ये ष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति:॥ 70 ॥
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नर:।
सोऽपि मुक्त: शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम॥ 71 ॥
यह (उपदेश) तुझे तपशून्य लोगों से कभी नहीं कहना होगा, जो न तो भक्त हों, न श्रद्धापूर्वक सुनने के लिए लालायित हों, (प्रत्युत) हमारी निंदा करते हों। (विपरीत इसके) जो कोई ये बातें मेरे भक्तों को सुनाएगा वह मुझमें (ज्ञानरूप) पराभक्ति करके निस्संदेह मुझे ही पाएगा। (इतना ही नहीं।) मनुष्यों में उससे बढ़ के मेरा प्रिय करने वाला और भूमंडल में उससे बढ़कर मेरा प्रिय कोई होगा भी नहीं। साथ ही, जो कोई हम दोनों के इस धर्मयुक्त संवाद को पढ़ेगा वह ज्ञानयज्ञ के द्वारा मेरी पूजा ही करेगा, ऐसा मैं मानता हूँ। जो मनुष्य श्रद्धायुक्त हो तथा निंदा की भावना छोड़ के इसे (केवल) सुनेगा भी वह भी मरने पर पुण्यकर्मा लोगों के शुभ लोकों या समाजों में जा पहुँचेगा। 67। 68। 69। 70। 71।
यहाँ 'अतपस्क' से मतलब है जिसमें पूर्वोक्त कायिक, वाचिक, मानसिक तपों में कुछ भी पाएँ न जाएँ। वे तीनों प्रकार के तप ऐसे हैं कि उनसे ज्ञान की योग्यता होती है और मनुष्य गीताधर्म समझने के योग्य बन जाता है। इसीलिए उनकी आवश्यकता है। यही कारण है कि जिनमें वे या कम से कम उनमें के मुख्य तप न पाए जाएँ उसे गीताधर्म सुनाना 'भैंस के आगे बीन बजाए, सो बैठी पगुराये' को ही चरितार्थ करना होगा। इन श्लोकों में 'मां' या 'मद्' शब्द भगवान के वाचक न हो के आत्मा-परमात्मा के ही वाचक हैं, यह भूलने की बात नहीं है। भक्ति का अर्थ पहले श्लोक में अपराभक्ति या पूर्वोक्त चार भक्तियों में से जिज्ञासुवाली भक्ति ही है। इसीलिए चौथी या ज्ञानरूपा भक्ति आगे कही गई है। दूसरे श्लोक में भी 'भक्तेषु' का अर्थ जिज्ञासु ही है। जिज्ञासु को ये बातें सुनाना ही ज्ञान का अभ्यास और मनन हो जाता है। फलत: ज्ञान की पूर्णता में जो कमी रहती है वह पूरी हो जाती है। किंतु जिसका ज्ञान पूर्ण हो उसके संबंध में जब यह श्लोक लागू होगा तो 'भक्तिं मयि परां कृत्वा' पहले ही आएगा और अर्थ यह होगा कि जो मुझमें पराभक्ति करके मेरे भक्तों को यह सुनाएगा उसे भी मुक्ति होगी ही। यह सुनाना उसमें बाधक न होगा। यह कथन गीताधर्म के संप्रदाय के प्रचलित करने के ही खयाल से है।
इसके बाद के दो श्लोक गीता की प्रशंसा के लिए हैं। लोग इसमें प्रवृत्ति करें इसीलिए कह दिया है कि पठन-पाठन भी ज्ञानयज्ञ है, जिससे भगवान या आत्मा की पूजा ही होती है। फलत: धीरे-धीरे मनुष्य प्रगति की ओर चलते हुए पूर्ण ज्ञानी बनता है। जो पढ़ भी न सके उसे दूसरे पढ़ने वालों के मुख से सुनना ही चाहिए। अगर श्रद्धापूर्वक भक्ति से कोई सुने, तो आगे चल के उसका भी कल्याण हो के ही रहेगा। यहाँ अंतिम श्लोक में 'मुक्त:' शब्द का मुक्ति या मोक्ष अर्थ न होके प्रयाण, मरण या शरीर का त्याग ही अर्थ है। क्योंकि मुक्ति होने पर पुण्यकर्मियों के शुभ लोक में जाने का सवाल उठता ही नहीं। वह तो निर्वाणमुक्त हो जाता है। उसका आना-जाना कहीं होता नहीं। यह भी तो प्रश्न है कि केवल सुनने वाला मुक्त होगा भी कैसे? यह तो सबसे नीचे दर्जे का है न? लोक का अर्थ वह प्रगतिशील समाज ही है जहाँ ज्ञानचर्चा की अनुकूलता हो। स्वर्गादि लोकों की बात यहाँ उठाना गीताधर्म के अनुकूल नहीं है। गीता तो ज्ञानमार्ग की चीज है न? फिर भी यदि कोई लोक शब्द से स्वर्गादि भी समझ ले तो हमें उससे इनकार नहीं है। मगर केवल उसे ही न समझ प्रगतिशील समाज को भी लोक के अर्थ में लेना ही होगा।
इस तरह कृष्ण को जो कुछ कहना था कह दिया। गीताधर्म के उपदेश के बाद भविष्य में उसके प्रचार की व्यवस्था भी कर दी। इसे ही संप्रदाय कहते हैं और परंपरा भी, जैसी कि चौथे अध्याय के शुरू में ही विवस्वान, मनु आदि की परंपरा कही गई है। फिर भी वह परंपरा या संप्रदाय आज की तरह पेशा और दुकानदारी न बन जाए, इसीलिए पहले ही श्लोक में कह दिया है कि किन लोगों से ये बातें कहीं जाएँ। बाद के श्लोकों में तो कौन कहे, कौन न कहे आदि बंधन भी लगा दिए गए हैं।
अंत में जैसा, कि पहले ही कह चुके हैं, कृष्ण ने यह मुनासिब समझा कि जरा पूछ तो देखें कि इन बातों का अर्जुन पर क्या असर हुआ है। क्योंकि इससे भविष्य के बारे में भी उन्हें निश्चिंत हो जाने की बात थी। कम से कम यह तो समझ जाते जरूर ही कि हम एवं अर्जुन भी कितने गहरे पानी में हैं। इसीलिए उनने पूछा, और यह जान के उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा कि अर्जुन ने न सिर्फ गौर से उनके उपदेशों को सुना, बल्कि समझा भी पूरी तरह से और तैयार भी वह हो गया तदनुकूल ही। यही प्रश्न और उत्तर आगे के दो श्लोकों में क्रमश: आए हैं।
कच्चिदेतच्छ्रतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोह: प्रनष्टस्ते धनंजय॥ 72 ॥
हे पार्थ, भला कहो तो कि आया तुमने यह उपदेश एकाग्र चित्त से सुना है (और अगर हाँ, तो) आया तुम्हारा (वह) अज्ञान से उत्पन्न हृदय का अंधकार मिटा है? 72।
कच्चित् शब्द वहीं बोला जाता है जहाँ उत्तर के बारे में संदेह हो और पूछनेवालों का मन खुद आगा-पीछा करता हो कि देखें क्या होता है। यहाँ 'अज्ञानसम्मोह:' में सम्मोह वही है जिसका वर्णन 'क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:' (2। 63) में आया है। वहाँ सम्मोह का परिणाम लिखा है स्मृति-विभ्रम या स्मृति का गायब हो जाना। अर्जुन ने इसी स्मृति-विभ्रम के फेर में ही तो न लड़ने का निश्चय कर लिया था। हम इसका अर्थ वहीं अच्छी तरह बता चुके हैं। कृष्ण का खयाल था कि यदि अर्जुन ने ठीक-ठीक सुना और समझा होगा तो फौरन वह यही उत्तर देगा कि हमें स्मृति मिल गई। सम्मोह कहने में कृष्ण का दूसरा मतलब था। साधारणत: दिल-दिमाग की सफाई की बात तो थी ही। मगर ऐसा भी तो हो सकता था कि अर्जुन उन्हें खुश करने के ही लिए कह देता कि हाँ, हमने सब कुछ समझ लिया। तब क्या होता? तब तो सब कुछ बेकार हो जाता। किंतु इसकी पहचान कैसे हो कि उसने आया सचमुच ही समझा है और मान लिया है, या केवल शिष्टाचार की बातें करता है? इसीलिए सम्मोह पद दिया। क्योंकि इसका संबंध स्मृति-विभ्रम से है। फलत: अगर अर्जुन ने ध्यान दे के सुना और समझा है तो जरूर ही कह देगा कि स्मृति प्राप्त हो गई। लेकिन यदि ऐसा न होगा तो कुछ और ही बोलेगा। और कृष्ण की प्रसन्नता का क्या ठिकाना रहा होगा जब उनने सुना कि अर्जुन ठीक वही 'स्मृतिर्लब्धा' ही बोल उठा? बस, उनने जान लिया कि अर्जुन ने यह उत्तर शिष्टाचार से न दे के सचमुच ही हृदय से दिया है और उसे हमने जो भी उपदेश दिया है उसका उस पर पूरा असर हुआ है। 'ध्यायतो विषयांपुंस:' तो आखिर उसी उपदेश का अमली और व्यावहारिक रूप ही था न?
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसंदेह: करिष्ये वचनं तव॥ 73 ॥
(इस पर चट) अर्जुन ने उत्तर दिया कि हे अच्युत, आपकी कृपा से (मेरा) मोह भाग गया, (वह) स्मृति (पुनरपि) जग उठी और मैं संदेह-रहित - स्थितप्रज्ञ हो गया हूँ। (इसलिए) आपकी बात मानूँगा। 73।
इसमें 'स्मृतिर्लब्धा' की ही तरह 'स्थित:' शब्द भी मार्के का है। क्योंकि द्वितीय अध्याय में स्मृति और सम्मोह की बातें स्थितप्रज्ञ के ही प्रसंग में आई हैं। इसलिए स्वाभाविक ही है कि सम्मोह हटने पर स्मृति फिर जग उठे और मनुष्य स्थितप्रज्ञ हो जाए। फलत: अर्जुन ने जो उत्तर दिया उसमें स्थितप्रज्ञ का निर्देश भी जरूरी था और उसी के मानी में ही 'स्थितोऽस्मि' आया है। इसमें और स्थितप्रज्ञ कहने में जरा भी अर्थभेद या अंतर नहीं है। हमने यही अर्थ लिखा भी है। स्थितप्रज्ञ की पहचान पहले ही बताई गई है। उसकी सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि अपने लिए उसे कुछ करना रही नहीं जाता। फलत: जो कुछ भी वह करता है लोकसंग्रह की ही दृष्टि से। इसलिए अर्जुन ने यह कहने की अपेक्षा कि 'करिष्ये धर्ममात्मन:' - 'अपना धर्म करूँगा', यही कहना उचित समझा कि 'आपकी बातें मानूँगा' - 'आप जैसा कहते हैं वही करूँगा' - 'करिष्ये वचनं तव'। इससे कृष्ण को और भी पूरा यकीन हो गया कि अर्जुन ने अच्छी तरह हमारा उपदेश सुना है, समझा है और काम भी तदनुसार ही करेगा।
इस तरह कृष्ण और अर्जुन के संवाद को संजय ने धृतराष्ट्र से ज्यों का त्यों सुना दिया। यहाँ लोगों को यह खयाल हो सकता है कि उसने मनगढ़ंत बातें ही कही होंगी। क्योंकि भीषण संग्राम की स्थली से बहुत ज्यादा दूर बैठे-बैठे सारी बातें आखिर उसे मालूम कैसे हुईं? वहाँ तो कोई टेलीफोन या तार भी न था और न बेतार का तार ही। और अगर होता भी तो इससे क्या? संजय के साथ उसके जरिए कृष्ण और अर्जुन तो बातें करते जाते न थे और न माइक्रोफोन पर बैठके ही बातें करते थे कि संजय भी सुन लेता। और अगर संजय सुनता तो धृतराष्ट्र भी जरूर सुनता। फिर इस प्रश्नोत्तर की जरूरत दोनों के बीच क्यों होती कि कुरुक्षेत्र में क्या हुआ, क्या नहीं? लोगों के अलावे खुद धृतराष्ट्र को ही शक हो सकता था कि संजय बातें तो नहीं बना रहा है? यह ठीक है कि व्यास जी ने उससे कह दिया था कि संजय सारी बातें बैठे-बिठाए जान जाएगा। क्योंकि इसे मैं दिव्य दृष्टि (Television) दिए देता हूँ। इसीलिए दिन-रात में जब कभी धीरे या जोर से बातें होंगी या और भी जो काम होंगे, यहाँ तक कि लोगों के मन में भी जो कुछ बातें आएँगी सभी इसकी आँखों के सामने नाचने लगेंगी। फलत: अथ से इति तक युद्ध का सारा वृत्तांत तुम्हें ज्यों का त्यों सुना देगा, - 'एष ते संजयो राजन् युद्धमेतद्वदिष्यति। एतस्य सर्वसंग्रामे न परोक्षं भविष्यति॥ चक्षुषा संजयो राजंदिव्येनैव समंवित:। कथयिष्यति युद्धं च सर्वज्ञश्च भविष्यति॥ प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा दिवा वा यदिवा निशि। मनसाचिंतित मपि सर्वं वेत्स्यति संजय:॥' (महा. भीष्म. 6। 9-11)। लेकिन धृतराष्ट्र की बुद्धि तो उस समय मारी गई थी। वह ठिकाने न थी। वही बुरी तरह परेशान भी था। व्यास जी से भी उसने साफ ही यह बात स्वीकार की थी। इसलिए उसके मन में ऐसा खयाल होना असंभव न था। कुटिल तो था ही। और उसे चाहे भले ही शक हो, या न हो, किंतु लोगों को तो हो सकता था ही। क्योंकि व्यास का यह प्रबंध सब लोग तो जानते न थे। गीता में कहीं पहले यह बात आई भी नहीं है। महाभारत में लिखी होने पर भी गीता तो स्वतंत्र-सी चीज है न? फलत: केवल गीतापाठी को भी ऐसा खयाल न हो इसीलिए आगे के चार श्लोकों में से पहले दो में संजय ने खुद यही बात कही है कि व्यास जी की कृपा से ही मैंने यह सब कुछ सुना है। शेष दो में इस गीतोपदेश की अलौकिकता तथा कृष्ण की उस समय की अलौकिक भावभंगी का निरूपण किया है।
संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मन:।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्॥ 74 ॥
व्यासप्रसादाच्छ्रतवाने तद्गुह्यमहं परम।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम्॥ 75 ॥
संजय ने कहा (कि) इस तरह वासुदेव कृष्ण और महात्मा अर्जुन का यह अद्भुत (एवं) रोमांचकारी संवाद मैंने (खुद-ब-खुद) सुना था। व्यास की कृपा से यह अत्यंत गोपनीय योग मैंने स्वयं योगेश्वर कृष्ण से साक्षात कहते हुए ही सुना था। 74। 75।
पार्थ का जो विशेषण महात्मा दिया गया है उससे भी सिद्ध हो जाता है कि अर्जुन ने आत्मतत्त्व और तन्मूलक कर्म-अकर्म का पूर्ण रहस्य अच्छी तरह हृदयंगम कर लिया था।
संजय ने यह बात धृतराष्ट्र से तब कही थी जब भीष्म आहत हो चुके थे, न कि कृष्ण के उपदेश के ही समय। इसीलिए भूतकाल के सूचक 'अश्रौषम्' तथा 'श्रुतवान्' पद आए हैं।
यह संवाद निराला है यह भी कह दिया है। ठीक ही निराला था।
रोमहर्षण का मतलब है आनंद के मारे ही रोंगटे खड़े कर देने वाला, न कि भय से। क्योंकि भय का कोई अवसर था नहीं।
गीताधर्म को भी योग कहा है। यों तो गीता के सारे विषय ही योग कहे गए हैं। इसीलिए कृष्ण योगेश्वर हैं। उनसे बढ़ के इस योग को और कौन जानता था?
सचमुच ऐसे योगेश्वर के मुख से ही सुनने में कितना आनंद आया होगा, जब कि पीछे पढ़ने में इतना ज्यादा मन आकर्षित होता और मजा मिलता है। इसीलिए तो संजय की उस समय भी अजीब हालत थी। सुनना तो पहले ही हो चुका था उस समय तो उसी की स्मृति मात्र थी। फिर भी रह रह के वह गद्गद हो जाता है, यह खुद स्वीकार करता हुआ कहता है कि -
राजन् संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयो: पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु:॥ 76 ॥
हे राजन, केशव तथा अर्जुन के इस महान संवाद को (इस समय भी) बार-बार याद करके रह-रह के गद्गद हो जाता हूँ। 76।
यह संवाद ऐसा निराला है कि हमेशा ताजा ही मालूम पड़ता है। इसीलिए कुछ समय बीतने पर भी जब संजय उसे केवल याद कर पाता है, तो भी वह जैसे आँखों के सामने नाचता रहता है और ओझल नहीं होता। यही कारण है कि उसे 'तम्' न कह के 'इयम्' कहता है। 'तं' कहने से परोक्ष या ओझल जान पड़ता न? मगर सो तो है नहीं। यह ठीक है कि उसका वर्णन तो अभी-अभी हुआ है। इसीलिए पहले भी 'तत्' की जगह 'एतत्' ही आया है। मगर यह बात इनकार नहीं की जा सकती कि वह दिमाग में नाचता जरूर था। नहीं तो साधारण चीज होने पर कभी 'तम्' भी जरूर कह देते। सारा वर्णन ही यही सूचित करता है। इतने पर भी वह संवाद अलौकिक होता ही नहीं यदि अर्जुन की उस समय की अलौकिक मनोवृत्ति के साथ ही गीता धर्म के उपदेशक एवं प्रथमाचार्य कृष्ण की भावभंगी भी दिव्य और अलौकिक न होती। दरअसल सारी खूबी और सारा मजा तो उपदेशक को भावभंगी और प्रतिपादन शैली में ही होता है। इसलिए संजय स्वयमेव कृष्ण की उस निराली, भावभंगी की ओर इशारा करता हुआ कहता है कि -
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:।
विस्मयो मे महान राजन् हृष्यामि च पुन: पुन:॥ 77 ॥
हे राजन, हरि का - कृष्ण का - वह अत्यंत अद्भुत रूप याद कर-करके मुझे महान विस्मय हो रहा है और बार-बार गद्गद हो जाता हूँ। 77।
इस श्लोक के संबंध में बहुत-सी बातें थोड़ी देर पहले कही जा चुकी हैं। फिर भी कितनी ही कहने को शेष हैं। बहुतों की यह धारणा है कि संजय यहाँ भगवान के उस विश्वरूप के ही बारे में कह रहा है जिसका वर्णन ग्यारहवें अध्याय में आया है। प्राय: सभी भाष्यकारों और टीकाकारों ने यही अर्थ किया है। दर हकीकत मेरी नजर के सामने एक भी टीका अब तक ऐसी नहीं गुजरी हैं, जिसमें वैसा अर्थ न किया गया हो। हरि के रूप के अति, अद्भुत आदि विशेषणों से ही और भी आसानी से इस अर्थ की ओर लोग झुक पड़े हैं। मगर हमने तो पहले लिखा है कि यह बात नहीं है। इसका कारण भी काफी दिया है। इतना ही नहीं, हमने तो यह भी चित्रित करने का यत्न किया है कि जिस रूप का यहाँ उल्लेख है वह वस्तुत: किस तरह का था। रथ पर अर्जुन और कृष्ण दोनों ही खड़े थे। युद्ध में ऐसा ही होता था। कृष्ण घोड़ों की बाग पकड़े खड़े थे। मगर जब अर्जुन ने अपना रोना-गाना एकाएक शुरू कर दिया तो जो कृष्ण घोड़ों की ओर मुँह किए खड़े थे वह अचानक यह सुनते ही पीछे मुड़ पड़े और अर्जुन की बातें गौर से सुनने लगे। जैसे-जैसे बातें सुनते जाते थे उनका चेहरा-मुहरा बदलता जाता था। ऐसा होते-होते 'अशोच्यानंवशोचस्त्वं' (2। 11) शुरू करने के पहले तक उनकी जो अलौकिक भावभंगी हो चुकी थी हमने उसी का चित्र खींचने का यत्न किया है और उसी से यहाँ आशय है। भला विश्वरूप दर्शन से और गीतोपदेश से क्या ताल्लुक? वह तो गीतोपदेश के बीच की हजार बातों में केवल एक है। मगर यहाँ तो स्पष्ट ही गीता के समूचे संवाद का और योग का उल्लेख है। योग भी वह जिसे कृष्ण ने कहा था, जिसे वह कह रहे थे। क्योंकि साफ ही 'कथयत:' लिखा है। न कि जिसे दिखाया था। यह मार्के की बात है।
एक बात और भी है। विश्वरूप के बारे में ग्यारहवें अध्याय में स्पष्ट ही कहा है कि अर्जुन के अलावे पहले किसी ने भी उसे नहीं देखा था और न आगे कोई देख ही सकता है। यह बात हमने ग्यारहवें अध्याय के उन श्लोकों को उद्धृत करके थोड़ी ही देर पहले सिद्ध की है। किंतु यह बात झूठी हो जाती है यदि संजय उस विश्वरूप को याद करता है। क्योंकि स्मृति के पहले तो देखना जरूरी है न? बिना देखे स्मृति कैसी? अर्जुन या कृष्ण के मुख से जो कुछ वर्णन ग्यारहवें अध्याय में आया था केवल उसे वहाँ कह देना और बात हैं। वह जैसे का तैसा सुन के ही हो सकता था। मगर उसमें वह मजा स्वयं संजय को नहीं मिल सकता था जो देखने में मिलता। देखे हुए ही का प्रबलतम संस्कार होता है वही जग के उसे ला खड़ा करता है आँखों के सामने। सुने हुए के बारे में यह बात नहीं होती, नहीं हो सकती। संजय को दिव्यदृष्टि मिलने पर भी ग्यारहवें अध्याय वाले कृष्ण के वचनों से ही सिद्ध है कि वह विश्वरूप न तो पहले किसी ने देखा था और न आगे कोई देख सकेगा। तब संजय उसे देख सकता था कैसे? यह बात मानी कैसे जा सकती है? लेकिन इस श्लोक के पदों को पढ़ के कोई भी कह सकता है कि आँखों देखे स्वरूप का ही उल्लेख संजय करता है। फलत: उपदेश के आरंभ वाले रूप से ही यहाँ तात्पर्य है।
इसके संबंध में इसी श्लोक में एक और भी प्रमाण मिल जाता है। हमने तो पहले ही कहा है कि विलक्षण और अलौकिक होने के नाते ही उस संवाद को आँखों के सामने बराबर नाचने वाला मान के उसे बार-बार 'एतत्' 'इमम्' कहा है। लेकिन कृष्ण का विश्वरूप तो और भी ज्यादा आँखों के सामने नाचने वाला था। फिर भी उसे इसी श्लोक में 'तच्च' कह दिया है। 'तत् च' में उसे 'तत्' या दूर का कहने के क्या मानी हो सकते हैं। यह तो उलटी-सी बात मालूम होती है, दरअसल 'एतत्' तो उसी को कहना उचित था। हाँ, उसमें एक खतरा जरूर था। कृष्ण के उपदेश के समय के रूप के बाद विश्वदर्शन के समय विश्वरूप आया था। फलत: उससे निकट का यही पड़ता था। इसलिए एतत् कहने से स्वभावत: लोग इसे ही समझ सकते थे। क्योंकि पहला रूप अपेक्षाकृत इससे दूर पड़ जाता था। इसीलिए संजय ने 'तत्' कह दिया और सारा झमेला ही खत्म हो गया। क्योंकि अब तो मौका ही न रहा कि विश्वरूप का खयाल भी किया जाए। मगर जो लोग फिर भी विश्वरूप को ही मानते हैं उनके लिए तत् का औचित्य बताना कठिन है।
गीतोपदेश की बातों का उपसंहार करते हुए अंत में संजय ने धृतराष्ट्र को धोखे में रखना उचित न समझ विजय तथा पराजय के संबंध में भी अपनी स्पष्ट राय दे दी कि कौन जीतेगा, कौन हारेगा। इसका कारण भी धीरे से बता दिया। जिस पक्ष में योगेश्वर कृष्ण हों जो सभी युक्तियों के आचार्य हैं और जहाँ पार्थ जैसा धनुर्धर हो उस पक्ष की जीत न होगी तो होगी किसकी? यह तो मोटी-सी बात है। शायद धृतराष्ट्र के मन में कुछ आशा बँधी थी। क्योंकि एक तो वह अपने लड़कों के मोह में बुरी तरह फँसा था। दूसरे लोभ और मोह के करते उसकी विवेक-शक्ति नष्ट हो चुकी थी। ऐसी दशा में गीतोपदेश का युद्ध पर क्या असर होगा यह बात वह शायद ही समझ सकता था।
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥ 78 ॥
जहाँ - जिस पक्ष में - योगेश्वर कृष्ण हैं (और) पार्थ (जैसा) धनुर्धर है वहीं लक्ष्मी, विजय, ऐश्वर्य और पक्की - अटल - नीति है, यही मेरा निश्चय है। 78।
अटल और पक्की नीति जहीं रहेगी वहीं विजय भी होगी और उसके बाद उसमें स्थिरता भी आएगी। इसीलिए तो भारवि ने किरातार्जुनीय में कहा है कि जिस चीज को दुर्योधन ने जैसे-तैसे जीत लिया था वह उसी को नीति के बल से सदा के लिए जीत लेना - उस विजय को स्थाई कर लेना - चाहता है, 'दुरोदरक्षद्मजितां समीहते नयेन जेतुं जगतीं सुयोधन:' (1। 7)। कहने का आशय यही है कि पांडवों की जीत भी होगी और वह स्थाई भी हो जाएगी।
लक्ष्मी या संपत्ति और ऐश्वर्य में अंतर है। ऐश्वर्य व्यापक चीज है। शासनादि भी इसमें आ जाते हैं। भूति का अर्थ विस्तार है, फैलाव है और हमने ऐश्वर्य इसी को कहा है ध्रुवा नीति कहने से कच्ची और बराबर बदलने वाली दुर्योधन की नीति घातक सिद्ध हो जाती है। चाहे जो हो। फिर भी नीति तो पक्की और स्थाई होनी चाहिए और गीता ने उसी पर जोर दिया है।
इस अध्याय का विषय मोक्षसंन्यासयोग लिखा है। इससे स्पष्ट है कि संन्यास से ही शुरू करके अंत में भी संन्यास ही आया है और उसी के साथ मोक्ष भी। यों तो शुरू में गीता में दूसरे ढंग के भी संन्यास का वर्णन आया है और अठारहवें अध्याय के शुरू में भी उसी को सभी कर्मों के सदा त्याग के रूप में लिखा है। मगर उससे मोक्ष तो होता नहीं। इसीलिए वह इस अध्याय का और गीता का भी विषय कभी हो नहीं सकता। हाँ, अंत के 66वें श्लोक में मोक्ष के साधन के रूप में जिस संन्यास का वर्णन किया है वही गीता को मान्य है और वही इस अध्याय का विषय है। चौथे अध्याय में भी संन्यास आया है। मगर एक तो वह ज्ञान के साथ आया है। दूसरे उस अध्याय का वही अकेला विषय नहीं है। हाँ, पाँचवें का विषय सिर्फ संन्यास ही है। फिर भी यहाँ उसी को स्पष्ट कर दिया है कि उससे केवल ज्ञान ही नहीं होता, किंतु मोक्ष भी मिलता है। इस प्रकार तीन अध्याय इस संन्यास के प्रतिपादन में लगे हैं।
इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्याय:॥ 18 ॥
श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद् रूपी ब्रह्मज्ञान-प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्याय यही है।
कुछ लोगों ने 'इति' का अर्थ 'समाप्त हुआ' ऐसा किया है। मगर सच पूछिए तो उसका अर्थ है 'यह'। यह पहले कही गई बात की ही ओर इशारा करके उसी को याद कराता है। 'इत्यहं वासुदेवस्य' (18। 74) तथा 'इति ते ज्ञानमाख्यातम्' (18। 63) आदि में सर्वत्र यही अर्थ इति शब्द का माना गया है। हमने यही लिखा भी है। समाप्ति तो अर्थसिद्ध चीज है, न कि शब्दार्थ और वह भी कुछ जँचती नहीं है। इसी से हमने उसे छोड़ दिया है।