अठारहवाँ प्रकरण / विश्वप्रपंच / एर्न्स्ट हेक्केल / रामचंद्र शुक्ल

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अठारहवाँ प्रकरण- ज्ञानतत्तवोपासना या तत्त्वाद्वैतदृष्टि से उपासनाकाण्ड

आजकल के बहुत से वैज्ञानिक और दार्शनिक यह कहने लगे हैं कि मत या मजहब, जैसे ईसाई, इस्लाम आदि की अब कोई आवश्यकता नहीं रह गई। उनके इस कथन का अभिप्राय यह है कि विज्ञान की अपूर्व उन्नति से जगद्विकास के जो नाना रहस्य खुल पड़े हैं उनसे केवल हमारी बुद्धि ही तुष्ट न होगी बल्कि भक्ति, श्रध्दा, प्रेम आदि वृत्तियाँ भी जाग्रत होंगी। सारांश यह कि यदि हमें सम्यक् तत्वदृष्टि प्राप्त हो जाये तो उसमें ज्ञानकांड और उपासनाकांड दोनों का मेल हो जाता है। पर बड़े दु:ख की बात है कि इस प्रकार की तत्वदृष्टि बहुत ही कम लोगों को प्राप्त होती है। अधिकांश शिक्षितों की यही धारणा रहती है कि मतविश्वास एक और ही चीज है जिसका ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं। वे कहते हैं कि मजहब में अक्ल का दखल नहीं। पर अब ऐसा कहना ठीक नहीं। विज्ञान की आधुनिक उन्नति से हमें जो नए नए तर्क और नई नई युक्तियाँ प्राप्त हुई हैं वे तो हमारे मन में अवश्य रहेंगी पर उनके साथ ही साथ हमारे अन्त:करण को श्रध्दा, भक्ति आदि उदात्ता वृत्तियों के लिए यथेष्ट सामग्री भी प्राप्त होगी, अत: हमारी भावुकता में किसी प्रकार की कमी न होने पाएगी। अन्तर इतना ही होगा कि हमारी श्रध्दा, भक्ति आदि वेगवती वृत्तियों के लिए, हमारी भावुकता के लिए, जो सामग्री अप्राकृतिक और असत्य कल्पनाओं के द्वारा उपस्थित की गई थी उनके स्थान पर अब सत्य वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा प्राप्त सामग्री होगी।

आधुनिक विज्ञान ने अन्धविश्वास की बातों का खंडन तो कर डाला; अब उसको चाहिए कि वह मनुष्य की श्रध्दाभक्ति के लिए एक भव्य ज्ञानमन्दिर खड़ा करे जिसमें तत्वदृष्टि प्राप्त करके लोग सत्य, सत्व और रजस् (सौन्दर्य) इन तीन देवताओं की उपासना करें। इस दिव्य भाव की प्राप्ति के लिए यह देख लेना आवश्यक है कि प्रचलित मतमतान्तरों की कौन कौन सी बातें हमें रखनी होंगी और कौन छोड़नी होंगी। हजारों वर्षों से जिन मतों का अधिकार मनुष्य जाति के हृदय पर चला आ रहा है उनकी शील और सदाचार सम्बन्धिनी बातों को हम नहीं छोड़ सकते, उनका महत्त्व हम कभी अस्वीकार नहीं कर सकते। अत: हमें चाहिए कि इन मतों में जो सदाचार तत्व है उसी पर अपना आग्रह प्रकट करें। उसी पर दृष्टि रखने के लिए भिन्न भिन्न मतों और सम्प्रदायों से अनुरोध करें। इसी रीति का अवलम्बन करने से आधुनिक ज्ञानमूलक धर्म की स्थापना सुगम होगी। हमें अपने धार्मिक जीवन में विप्लव नहीं उपस्थित करना है, संस्कार करना है। जिस प्रकार प्राचीन सभ्य जातियाँ आदर्श के लिए भिन्न भिन्न सद्गुणों की मूर्त भावना करती थीं उसी प्रकार हमें भी चाहिए कि हम सत्य, सत्व और रजस् को देवरूप में ग्रहण करें।

1. सत्य- पहले सत्य को लीजिए। जो कुछ पीछे कहा जा चुका है उससे यह दृढ़ हो गया कि विशुद्ध सत्य प्रकृति ही के भीतर साधनापूर्वक ढूँढ़ने से मिल सकता है और इस साधना के दो ही मार्ग हैं, सूक्ष्म अन्वीक्षण और चिन्तन। पहले प्रकृति में जो व्यापार वास्तव में होते हैं उनका एक एक करके पता लगाना चाहिए फिर उनके कारणों का खूब मनन करना चाहिए। इसी रीति से हम शुद्ध बुद्धि के बल से उस सत्य ज्ञान या विज्ञान तक पहुँच सकते हैं जो मनुष्य की सब से बड़ी सम्पत्ति है। हमें 'ईश्वराभास', 'दैवी प्रेरणा' आदि बातों का एकदम परित्याग करना होगा क्योंकि उनका मतलब यह है कि ज्ञानप्राप्ति के जो दो मार्ग ऊपर बतलाए गए हैं केवल उन्हीं से नहीं, बल्कि बिना बुद्धि के प्रयास के, आसमान से भी ज्ञान टपक सकता है1। अब यह बात पूर्णतया स्थिर हो गई है कि ज्ञान अप्राकृतिक या अलौकिक रीति से न कभी किसी को प्राप्त हुआ है और न हो सकता है। प्रकृति का मन्दिर ही सत्यदेव का निवासस्थान है। वे हरेभरे जंगलों, नीलाभ समुद्रों और तुषारमंडित गिरिशृंगों में रहते हैं; मन्दिरों, मसजिदों और गिरिजों के अंधेरे कोने में नहीं। सत्य और ज्ञानरूप देवताओं की प्राप्ति के लिए हमें प्रकृति से प्रेम करना चाहिए और उसके नियमों का मनन करना चाहिए। ज्ञानतत्त्वोपासना के लिए हमें अपार और अनन्त नक्षत्रों और लोकों की दूरबीनों द्वारा, और सूक्ष्म घटक या अणुजगत् की सूक्ष्मदर्शक यत्रों द्वारा छानबीन करनी होगी; कर्मकांड के निरर्थक विधानों तथा पूजा की लम्बी चौड़ी पद्धतियों की कोई आवश्यकता न होगी। सत्यदेव के प्रसाद से हमें ज्ञानवृक्ष के विशद फल प्राप्त होंगे जिनसे हमारी दृष्टि स्वच्छ हो जायेगी और हम जगत् के नाना रहस्यों का आनन्द ले सकेंगे।

2. सत्व- सावित्कशीलता या सत्व के सम्बन्ध में हमें उतना उलटफेर करने की आवश्यकता न होगी जितना सत्य के सम्बन्ध में करना पड़ेगा। सत्य की स्थापना के लिए हमें 'ईश्वराभास', 'आकाशवाणी', 'इलहाम' इत्यादि को कपोलकल्पना कहकर


1. किसी देवी देवता के प्रसाद से किसी मूर्ख का एकबारगी भारी कवि या पंडित हो जाना इसी प्रकार की बात है।


एकदम किनारे कर देना होगा, पर सद्गुण या सात्विकशीलता के सम्बन्ध में प्रचलित मतों से हमारा कोई विरोध न होगा। ईसाई धर्म को ही लीजिए। उसमें वदान्यता, उदारता, दया, दैन्य और परोपकार के जो भाव हैं वे सब को समान रूप से मान्य हैं। हमारे ज्ञानमूलक धर्म में भी उनका वही स्थान रहेगा। सदाचार के वे तत्व संसार के सब सभ्य मतों में हैं, अकेले ईसाई मत में नहीं। अस्तु, ईसाई लोग अन्य मतावलम्बियों को अपने मत में लाने का क्यों प्रयत्न किया करते हैं समझ में नहीं आता। एक विषय में ईसाई मत एकांगदर्शी है1। कर्माकर्म की व्यवस्था में, सदाचार के नियम में, यह मत परार्थ ही पर ज्यादा जोर देता है, स्वार्थ का एकदम निषेध करता है। हमारा ज्ञानमूलक धर्म दोनों पर समान दृष्टि रखेगा। वह स्वोपकार और परोपकार दोनों का पलड़ा ठीक रखने का उपदेश देता है।

3 रजस्- जिससे हमारी प्रकृति का अनुरंजन हो उसे रजस् या सौन्दर्य कहना चाहिए। सौन्दर्य के सम्बन्ध में हमारे तत्त्वाद्वैत धर्म का वैराग्यप्रधान मतों से बड़ा भारी विरोध है। ये मत सांसारिक जीवन को सर्वथा असार समझते हैं, उसे केवल परलोक की तैयारी के लिए समझते हैं। अत: मनुष्य के जीवन की जो बातें हैं, प्रकृति, विज्ञान और कलाकौशल में जो कुछ सौन्दर्य हम देखते हैं, वह सब उन मतों की दृष्टि में निरर्थक है। सच्चे धार्मिक को इससे दूर रहना चाहिए, उसे केवल परलोक की चिन्ता में रहना चाहिए। प्रकृति से घृणा, उसकी नाना शोभाओं से विरक्ति, सुन्दर कलाओं से कुरुचि ये सब धर्म के अंग हैं। ये अंग यहाँ तक पूर्णता को पहुँचाए जाते हैं कि लोग स्ववर्गियों से अलग जाकर रहते हैं, शरीर को नाना प्रकार के क्लेश देते हैं, मढ़ियों और कुटियों में पड़े पड़े अपना समय नाम जपने और भजन गाने में बिताते हैं।

जिस उद्देश्य से प्रकृति का यह तिरस्कार किया गया वह सिद्ध भी नहीं हुआ। इतिहास इस बात का साक्षी है। संन्यास आश्रम इसलिए निकाला गया था कि कुछ लोग विषय वासनाओं से निर्लिप्त रहकर यम, नियम और पवित्रता के आदर्श बनेंगे। पर हुआ इसका उलटा। मढ़ियों के स्थान पर साधुओं के बड़े बड़े मठ खड़े हो गए जिनमें ऐसी ऐसी व्यभिचार लीलाएँ होने लगीं जिनका बेचारे गृहस्थ अनुमान तक नहीं कर सकते। बड़े बड़े मठधारी महन्तों के धनवैभव और भोगविलास को देख बड़े बड़े राजा दंग रहने लगे। लोग कहेंगे कि ईसाई, जैन, बौद्ध, शैव आदि मत वैराग्यप्रधान हैं, पर उनके द्वारा कलाकौशल की कितनी उन्नति हुई है, उनके अनुयायियों ने कैसे सुन्दर सुन्दर मन्दिर, गिरजे आदि बनवाए हैं। यह ठीक है, पर उन मतों की शिक्षा से सुन्दर रचनाओं से क्या सम्बन्ध? इनका निर्माण तो उनकी शिक्षाओं से स्वतन्त्र हुआ है। कहाँ उनकी शिक्षा कि इस संसार के आमोद प्रमोद से दूर रहो, इस जीवन


1 जैन आदि अन्य वैराग्यप्रधान धर्म भी इसी प्रकार के कहे जा सकते हैं।


के भौतिक सौन्दर्य पर मत भूलो, स्त्रियों के प्रेमजाल में मत फँसो, धन, परिजन आदि सबको माया समझो, कहाँ मन्दिरों और गिरजों का ठाटबाट, महन्तों और धर्माचार्यों की धूमधाम की सवारियाँ! कैथलिक सम्प्रदाय के गिरजों तथा और दूसरे मतों के मन्दिरों की चित्राकारियाँ होती कैसी हैं? इन गिरजों को जाकर देखिए तो उनमें ईसा, मरियम और महात्माओं की अलौकिक भावनापूर्ण प्रतिमाएँ मिलेंगी, उनके अप्राकृतिक चरित्र अंकित पाए जायेगे। मन्दिरों को देखिए तो उनमें कहीं बौद्ध जातकों की कल्पित कहानियाँ चित्रित मिलेंगी, कहीं कई सिरपैर वाले देवताओं की मूर्तियाँ सामने आयेगी। इन चित्रकारियों का प्रभाव भी जनता पर विलक्षण पड़ता आया है। जनसाधारण के चित्ता पर यह संस्कार बराबर जमता रहा कि जिस रूप के देवी देवता हैं, वैसे कभी रहे हैं और जो अलौकिक बातें चित्रकारियों में दिखाई गई हैं वे वास्तव में कभी हुई हैं।

मतों और सम्प्रदायों के आश्रय से कलाकौशल को जो रूप प्राप्त हुआ है उससे कलाकौशल की वह नई प्रवृत्ति जो आजकल विज्ञान के सम्बन्ध से जाग्रत हुई है, सर्वथा विरुद्ध है। विज्ञान द्वारा प्रकृति के क्षेत्र में हमारी दृष्टि का जो विस्तार बढ़ गया है और हमें जीवों और पदार्थों के असंख्य रूपों का जो पता लगा है उससे हमारे अन्त:करण में सौन्दर्य के नए नए भावों का उदय हुआ और चित्रकारी तथा शिल्पविद्या को नई उत्तोजना प्राप्त हुई है। पृथ्वी के नाना प्रदेशों, द्वीपों और खंडों की जो छानबीन हुई है उससे नए नए प्रकार के असंख्य जीव, विशेषत: छोटे जीव जिनकी ओर पहले किसी का ध्यान तक नहीं गया था, मिले हैं जिनके मनोहर रूप रंग को लेकर बहुत सुन्दर चित्रकारी और कारीगरी हो सकती है। सूक्ष्मदर्शक यत्रों ने हमें सूक्ष्म से सूक्ष्म कीटाणुओं की; विशेषत: जल कीटाणुओं की एक नई दुनिया दिखा दी है। सहों प्रकार के चित्रविचित्र समुद्री जीव, मूँगे, छत्राक, शुक्तियाँ, केकड़े इत्यादि हमें देखने को मिले हैं जिनके सौन्दर्य और आकृतिभेद के सामने मनुष्यों की कल्पना झख मारे। जंतुविज्ञान और उदि्भद्विज्ञान की कोई बड़ी सचित्र पुस्तक खोलकर देखिए, इस बात का निश्चय हो जायेगा।

आधुनिक विज्ञान ने हमें सूक्ष्म जगत् की ही सैर नहीं कराई है बल्कि प्रकृति के विशाल पदार्थों का भी अधिक परिचय कराया है। एक समय था जब हिमालय ऐसे पर्वतों और पर्वताकार तरंगवाले समुद्रों को लोग भय की दृष्टि से देखते थे। अब विज्ञान ने ऐसे साबीत कर दिए हैं कि साधारण वित्ता के मनुष्य भी ऊँचे ऊँचे पर्वतों पर जाकर हिमप्रपातों के निकट महीनों रह सकते हैं और वहाँ के विशाल और मनोहर दृश्यों का आनन्द ले सकते हैं; तथा समुद्र के अपार वक्षस्थल पर निर्भय विचरण करते हुए नीलांबुराशि की क्रीड़ा का अवलोकन कर सकते हैं। आजकल जिस प्रकार प्रकृति के नाना रहस्यों के परिज्ञान के साधान सुलभ हो गए हैं उसी प्रकार उसके असीम सौन्दर्य के उपभोग के भी। इसी अवस्था में हमारे अन्त:करण की भिन्न भिन्न वृत्तियाँ परिपुष्ट हो सकती हैं और तत्त्वाद्वैत धर्म का भाव दृढ़ हो सकता है।

वर्तमान काल की चित्रकारी को देखने से इस बात का अच्छा प्रमाण मिल सकता है। पुराने समय में जो चित्र बनते थे वे अधिकतर मनुष्य या कुछ थोड़े से जंतुओं के ही होते थे। अब वन, नदी, पर्वत, समुद्रतट आदि नाना प्राकृतिक पदार्थों के सुन्दर सुन्दर चित्र देखने को मिलते हैं। न जाने कितने मासिकपत्र चित्रों के ही निकलते हैं जिनमें अनेक प्रकार के प्राकृतिक दृश्य अंकित रहते हैं। प्राकृतिक दृश्यांकन में आजकल बड़ी उन्नति हुई है। इन दृश्यों के द्वारा प्रकृति से हमारा प्रेम बढ़ता है और उसके रहस्यों के जानने की उत्कंठा उत्पन्न होती है। इस प्रकार के चित्र शिक्षा के अच्छे साधान हैं। बच्चों में इनकी ओर अभिरुचि उत्पन्न करनी चाहिए। प्रकृति अनन्त सौन्दर्य का भंडार है। उसके सौन्दर्य का आनन्द, उसके अविचल और नित्य नियमों से सम्बद्ध होने के कारण, ज्ञानविज्ञान का उत्तोजक है। इस आनन्दानुभव की उत्कंठा द्वारा ज्ञान की ओर सच्ची प्रवृत्ति होती है। यही प्रवृत्ति मार्ग ज्ञान का सच्चा मार्ग है। जिस विस्मय के साथ हम तारकित गगनमंडल को और एक जलबिन्दु के भीतर की सजीव सृष्टि को देखते हैं, जिस स्तब्धाता के साथ द्रव्य की नाना गतियों में उसकी शक्ति की क्रीड़ा का परिचय पाते हैं, जिस पूज्य भाव से 'परमतत्व की अक्षरता' के नियम की विश्वव्यापकता का अनुभव करते हैं, वह विस्मय, वह स्तब्धाता और वह पूज्यभाव सब के सब हमारी धर्मभावना के ही अंग हैं। ये ही धर्म के सच्चे आवेश हैं। इन सच्चे आवेशों द्वारा प्रेरित धर्म हमारा प्रकृत धर्म है।

प्रकृत सत्य का बोध और प्रकृत सौन्दर्य का उपभोग दोनों हमारे तत्त्वाद्वैत धर्म के अंग हैं। ईसाई आदि वैराग्यप्रधान मतों से इन दोनों अंगों का विरोध प्रत्यक्ष है। ये दोनों अंग ऐहिक हैं, इसी लोक से सम्बन्ध रखनेवाले हैं। पर ईसाई आदि मत सदा परलोक ही की ओर ध्यान रखने का उपदेश देते हैं। तत्त्वाद्वैत धर्म बतलाता है कि हम लोग इस पृथ्वी पर के मर्त्य जीव हैं जो कुछ काल तक इसके नाना पदार्थों का उपभोग कर सकते हैं, इसके सौन्दर्य का आनन्द ले सकते हैं और इसकी अद्भुत शक्तियों की क्रीड़ा का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। ईसाई आदि मत कहते हैं कि यह संसार दु:ख का समुद्र है जिसमें हम अल्पकाल तक के लिए इस कारण डाल दिए गए हैं कि नाना प्रकार के क्लेशों द्वारा अपनी आत्माओं को शुद्ध करें जिससे परलोक में अनन्त सुख के अधिकारी हों। यह परलोक कहाँ है? इसका सुख किस प्रकार का है? यह सब ये मत कुछ भी नहीं बतलाते। जब तक लोग पृथ्वी के ऊपर असंख्य नक्षत्रों से दीप्त नीलमंडल को ही स्वर्गधाम समझते थे, तबतक तो उनकी कल्पना में यह बात किसी प्रकार आ सकती थी कि वहाँ देवता लोग नित्य विहार किया करते हैं। पर अब ये सब देवता और अमर जीव बिना ठौरठिकाने के हो गए हैं; क्योंकि अब यह बात ज्योतिर्विज्ञान द्वारा अच्छी तरह स्पष्ट हो गई है कि इस नीलमंडल में उस ईथर या आकाशद्रव्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है जिसमें असंख्य लोकपिंड बनते और बिगड़ते हुए चक्कर मार रहे हैं।

वे स्थान जहाँ लोग अपनी धर्मभावनाओं की पुष्टि और ईश्वर या देवता की उपासना के लिए जाते हैं अत्यंत पवित्र माने जाते हैं और 'मन्दिर', 'मस्जिद' या 'गिरजे' कहलाते हैं। उनमें जाकर लोग जीवन के झंझट और हाय हाय को भूल एक उच्च भावमय जगत् में प्रवेश करके शान्ति पाते हैं। वर्तमान शताब्दी के 'कला और विज्ञानसम्पन्न' शिक्षित मनुष्य को इस बात के लिए दीवारों से घिरे हुए किसी संकीर्ण स्थान की आवश्यकता न होगी। उसके लिए सम्पूर्ण प्रकृति का पवित्र क्षेत्र खुला हुआ है। वह जिधर आँख उठा कर देखेगा उधर उसे 'जीवन की हाय हाय' तो मिलेगी पर उसके साथ ही साथ सर्वत्रा 'सत्य, सत्व और सौन्दर्य' की शान्तिदायिनी दिव्य प्रभा का भी साक्षात्कार होगा।