अठारह सबसे लंबे दिन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 12 अगस्त 2013
हॉलीवुड के एक फिल्मकार ने महाभारत के आधार पर 'अठारह दिन' नामक ऐनीमेशन फिल्म बनाई है, जिसके भारतीय भाषाओं में 'डब' करने के अधिकार के लिए सलमान खान ने पहल की है। दाम तथा अन्य शर्तों पर बातचीत जारी है। खबर है कि हॉलीवुड फिल्मकार ने महाभारत में निहित गूढ़ आध्यात्मिक अर्थ को अनदेखा करके उसे एक मानवीय संवेदना की कथा के रूप में प्रस्तुत किया है। एक ही परिवार के दो गुटों के युद्ध के अठारह दिन की कथा कही गई और भारतीय भावना को ठेस न पहुंचे, इसका विशेष ध्यान रखा गया है। ज्ञातव्य है कि महाभारत को नाटक के रूप में पेरिस में सीन नदी के तट पर मंचित किया गया था और उसकी बहुत प्रशंसा हुई थी।
वेदव्यास की महाभारत के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं और मूल पाठ कौन-सा है, यह बताना कठिन है, परंतु पुणे शोध संस्थान की कृति को श्रेष्ठ माना गया है। एक संस्करण के अनुसार वेदव्यास का कहना था कि महाभारत के पूर्व के ग्रंथों में आत्मा-परमात्मा, मोक्ष इत्यादि विषयों पर गहन विचार किया गया है। महाभारत में केवल मनुष्य के रिश्तों से प्राप्त अनुभव से स्वयं को जानने के प्रयास पर जोर दिया गया है। यह कहानी रिश्तों और मानवीय संवेदनाओं की है और अपने पूर्ववर्ती ग्रंथों के देवी-देवताओं से अलग है। महाभारत में सभी प्रकार के मानवीय रिश्ते प्रस्तुत किए गए हैं।
कुछ विदेशी विशेषज्ञों का यह मानना है कि महाभारत ग्रीक साहित्य के पुरोधा होमर तक पहुंची थी और उनका विचार था कि महाभारत एक गहन जंगल है, जिसमें दूर तक जाने पर नई बातें सामने आती हैं। महाभारत का अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है और वहां के विचारकों ने इस पर अपना मत भी प्रकट किया है। इस ग्रंथ की एक विशेषता यह है कि इसका लेखक कथा का एक महत्वपूर्ण पात्र है और उसी के वंश के लोग इस कथा में एक भीषण युद्ध करते हैं। महाभारत के एक महत्वपूर्ण पात्र अश्वत्थामा हैं और आश्चर्य तो यह है कि उन्हीं को अमरत्व मिला है। उन्होंने युद्ध के निर्णय के पश्चात द्रौपदी के पांच पौत्रों को नींद में मारा है। द्रौपदी ने उन्हें श्राप दिया था कि वह कभी नहीं मरेगा और हजारों वर्ष पश्चाताप करेगा। एक तरह से ये अमर होना संदिग्ध माना जाएगा। कुछ जनजातियों में आज भी ये विश्वास है कि जंगल से गुजरती हुई गाडिय़ों की दुर्घटना अश्वत्थामा ही कराता है। सारे महाकाव्यों में श्राप और वरदान महत्वपूर्ण हैं और हम श्राप और वरदान के अंधकार में यह नहीं देख पाते कि इनके कारण कथा में कौन-से नैतिक मूल्यों की स्थापना की गई है अर्थात श्राप और वरदान से कहानी को आगे बढ़ाने के साधन में हम खो जाते हैं और उसके पीछे छिपे अर्थ को समझ नहीं पाते।
हिंदुस्तानी सिनेमा का तो प्रारंभ ही धार्मिक आख्यानों से प्रेरित फिल्में बनाने से हुआ। पहले दशक की बनी सारी 291 फिल्में इन आख्यानों पर ही आधारित हैं, परंतु कुछ फिल्मकारों ने इन आख्यानों को समकालीन संदर्भ से जोड़ा है। जैसे पाश्र्वनाथ यशवंत की फिल्म 'महात्मा विदुर' में केंद्रीय पात्र को महात्मा गांधी की वेशभूषा में प्रस्तुत किया गया। हमारी फिल्मों पर इन आख्यानों का इतना गहरा असर है कि कालांतर में बनी अनेक सामाजिक फिल्मों में आधुनिक वेशभूषा धारण किए हुए पात्रों की विचार-प्रक्रिया पुरातन आख्यानों के पात्रों जैसी है। जींस पहनने से अवचेतन में विद्यमान क्रूरता बदल नहीं जाती।
'आरजू' और 'आंखें' जैसी सफल फिल्म बनाने वाले रामानंद सागर ने इतनी असफल फिल्में रचीं कि वे लगभग दिवालिए हो गए थे, परंतु दूरदर्शन के लिए 'रामायण' बनाकर वे पुन: अमीर हो गए। इसी तरह बलदेवराज चोपड़ा को सबसे अधिक आय दूरदर्शन के लिए 'महाभारत' बनाने से हुई। अमेरिका के पास कोई धार्मिक आख्यान नहीं है और उन्होंने विज्ञान फंतासी रची है, जो संभवत: भविष्य में अमेरिका के महाकाव्य माने जाएंगे। पूंजीवादी समाज की महाभारत गॉडफादर है और अपराध कथाएं अमेरिका से प्रारंभ होकर दुनियाभर के देशों में बनाई गई हैं। भारत में जब कोई फिल्मकार घाटे में होता है तो या तो वह धार्मिक आख्यान पर फिल्म बनाता है या अपराध जगत पर। यह कैसा आश्चर्य है कि सिनेमा जैसे अनिश्चित धंधे में दो विषय ही सुरक्षित माने गए हैं- धार्मिक आख्यान या अपराध कथाएं। इन दोनों के बीच केवल एक समानता है कि दोनों ही समान ढंग का उन्माद जगाते हैं। शीघ्र ही स्टार टीवी पर नया 'महाभारत' प्रसारित होने वाला है।