अण्डा / प्रताप सहगल

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अपने स्कूटर को पवन ने पार्किंग में लगाया और बाड़ा हिन्दू राव अस्पताल की ऊँची इमारत को देखने लगा। जब वह यूनिवर्सिटी आता तो कई बार इधर से ही निकलता था। रिज का रास्ता उसे खुला और कुदरती खुशबू से भरा लगता था। तब दिल्ली में इतनी भीड़ नहीं थी कि कहीं भी चैन से चलने या ड्राइव करने की जगह न मिले। दो-एक बार वह अपनी प्रेमिका के साथ भी इधर घूमने आ चुका था। उसने अस्पताल को कभी इस नज़र से देखा नहीं था कि कभी उसके अन्दर भी जाना पड़ सकता है। आज उसे उस अस्पताल के अन्दर जाना था।

मुख्य-द्वार पर कदम रखते ही दवाओं की तीखी गन्ध से उसका माथा झनझना गया। उसने जेब से रूमाल निकालकर नाक पर रखकर गन्ध को रूमाल से बाँधने की कोशिश की, जैसे कि वह गन्ध को रूमाल में बाँधकर रख सकता था। जैसे-जैसे वह अस्पताल के अन्दर घुसता गया, दवाओं के साथ मरीज़ों की गन्ध भी घुलने लगी। गलियारे के एक कोने पर ‘गमकते’ शौचालय की गन्ध। यानी सब मिल-जुलकर गन्ध की काकटेल बन रही थी। थोड़ी ही देर में गन्ध उसकी नसों में समा गयी और उसने नाक पर रखा रूमाल हटा लिया।

वह दायें-बायें जनरल वार्ड खोजने लगा। ग्राउंड फ्लोर पर ही उसे जनरल वार्ड मिल गया। बेड नं. 8 वार्ड में घुसते ही दिखा। बेड के पास ही चमन चाचा और बेला चाची खड़े थे। चमन चाचा उसकी ओर ऐसे लपके जैसे उससे मिलने के लिए वे न जाने कितनी सदियों से उसका इन्तज़ार कर रहे थे। पवन ने हल्का सा झुककर उन्हें, फिर चाची और आखिर में बेड पर लेटे एक कंकाल को प्रणाम किया।

पवन दरअसल इस कंकाल को देखने ही आया था। सुबह ही चमन चाचा ने अपने बड़े भाई मदन को फोन पर बताया था कि ‘पिता जी बहुत दिनों से बीमार हैं और पिछले तीन दिनों से अस्पताल में हैं। पता नहीं कितने दिन ओर चलें एक बार आकर मिल लें।’

मेघराज के तीन बेटे थे। मदन, चमन और कमल। मदन यूँ तो खुद बिस्तर से लगा था। पूरी तरह से अपनी पत्नी और बच्चे पर आश्रित, पर चाहता तो एक बार मिलने जा सकता था, लेकिन उसने सुविधाजनक रास्ता चुना। अपने दामाद पवन को बुलाकर कहा कि वह अस्पताल जाकर उसके पिता को देख आये। जाना तो पवन की पत्नी भी चाहती थी, लेकिन वह अपने दो छोटे-छोटे बच्चों को कहाँ छोड़ती। सो अन्ततः यह ज़िम्मेदारी पवन पर ही आयी। छोटा भाई कमल सुबह ही अस्पताल आया था और थोड़ी देर रुककर अपने काम पर निकल गया।

पवन ने देखा जनरल वार्ड के बेड नं. 8 पर एक नर कंकाल आँखें मूँदे, सीधा लेटा हुआ था। हालाँकि रिश्ते में मेघराज पवन का दादा-दामाद ही ठहरता था, पर इससे पहले उसने मेघराज को सिर्फ़ एलबम में ही देखा था। पवन खड़ा सोच ही रहा था कि वह क्या करे, चमन चाचा ने औपचारिकता निभाते हुए पूछा-”कुछ लोगे पवन।”

“नहीं, नाश्ता लेकर ही निकला हूँ।”

चमन चाचा ने दायें-बायें झाँका, जैसे वे कुछ चुराने की तैयारी कर रहे हों, फिर पत्नी की ओर संकेत भरी नज़रों से देखा और मुख़ातिब हुए पवन की ओर-”ऐसा है, मुझे जाना है...रोज़ ही देर हो जाती है...यह चल नहीं सकता...समझ रहे हो?”

“जी”, पवन ने चमन का मंतव्य जान लिया था।

“मैं बैंक हो के आता हूँ...तब तक।”

“ठीक है, तब तक मैं रहूँगा” पवन ने चमन चाचा की दुविधा को समझते हुए कहा।

चमन चाचा ने आँखों के संकेत से बेला को समझा दिया कि तुम भी मेरे साथ निकल लो, यहाँ कब तक फँसी रहोगी। वह तो पहले से ही चलने को तैयार थी। जाते-जाते चमन चाचा ने अपनी पूरी सफाई पेश कर दी-”अकेले हम कितना सँभालें, बड़े भाई तो लगें हैं बिस्तर से, छोटे दूसरे-तीसरे आ जाता है...बस...” और तेज़ कदमों से पत्नी समेत वार्ड से बाहर हो गये।

बेड के पास ही रखे एक स्टूल को सरकाकर पवन उस पर बैठ गया। उसने वार्ड के एक-एक बेड पर नज़र डाली। एक-एक मरीज़ का मुआयना किया और अन्ततः उसकी नज़र बेड नं. आठ पर आकर केन्द्रित हो गयी।

छह फुट लम्बे बिस्तर पर फैली वह देह पायताने की ओर से बाहर निकल रही थी। उम्र होगी लगभग पिच्चासी। नाक सीधी और तीखी। सिर पर अभी भी बाल थे। बेशक जड़ों तक पके हुए। बीच-बीच में खुलती अधमुँदी आँखें अपने युवा-सौंदर्य पर बयान दे रही थीं। गर्दन सूखकर अपेक्षाकृत लम्बी लगने लगी थी। हाथ-पाँव बेजान होकर फालतू सामान लग रहे थे। पवन बैठा-बैठा सोचने लगा। ‘आदमी क्या से क्या हो जाता है...क्या नाम बताया था इनका हाँ...मेघराज।’...उसके ससुर यानी मदन कभी-कभी अपने पिता के बारे में बताते थे कि वे एक निहायत दबंग, यानी मुँहफट, खर्चीले और बेपरवाह किस्म के इंसान थे...पवन की पत्नी कुन्ती ने भी दो-एक बार बताया था कि उसने दादाजी को पहली बार पच्चीस साल पहले देखा था...तब वे साठ के रहे होंगे...कितने सजीले और सुन्दर...कलफ लगी सलवार, अफ़गानी कुर्ता, तुर्रेदार पगड़ी और सुनहरी जूती यानी कुल मिलाकर मेघराज का व्यक्तित्व सजीला और रोबीला था...दरअसल मदन यानी कुन्ती के पिता ने अपना सजीलापन और रोबीलापन अपने पिता मेघराज से ही पाया था। साठ की उम्र में यह कंकाल हुई देह इतनी सुन्दर, सजीली और रोबीली थी तो तीस की उम्र में...तीस की उम्र का ध्यान आते ही पवन की सोच मेघराज से हटकर अपने पर केन्द्रित हो गयी। वह खुद भी तो इस समय तीस का ही था...पर...इससे पहले कि वह इसके आगे कुछ सोचता। राउंड लेते डॉक्टर ने उसकी सोच के आवेग में एक कंकड़ फेंका-”आप इनके साथ हैं?”

“जी।”

डॉक्टर ने मेघराज की नब्ज़ देखी, आँखें देखीं फिर पवन से पूछा-”कुछ बोले।”

“जी नहीं, मुझसे नहीं।”

डॉक्टर ने पास खड़ी नर्स को कुछ हिदायतें दीं और चले गये।

थोड़ी देर बाद पवन के लिए वक़्त काटना बहुत मुश्किल लगने लगा। वह मेघराज को कितना देखता। न तो उनसे कोई बात हो सकती थी, न किसी तरह की सेवा। एक निस्पंद सा पड़ा शरीर। शेष मरीज़ों के साथ उसका कोई रिश्ता न था। दूर किसी मरीज़ के पास उसे स्टारडस्ट दिखाई दी। वह वक्त़ काटने के लिए उसे माँग लाया और पन्ने पलटने लगा। मैगज़ीन के पन्नों में कई चेहरे उतरने लगे। एक युवा नायक के चेहरे में मेघराज का चेहरा उतर आया। फिर परिवार के कई चेहरे और आखिर में पवन ने देखा कि एक बूढ़ा बगल में पोटली दबाए इधर-उधर घूम रहा है।

पन्नों में गूँजती आवाज़ें पवन को सुनाई देने लगीं। बेला चाची कह रही थी-”रोज़-रोज़ नहीं होता मुझसे यह काम...बाकी सब तो बैठे हैं आराम से...काट रहे हैं चैन की ज़िन्दगी और सारी मुसीबत मेरे गले पड़ी है।”

मेघराज बैठा हुआ खामोशी से सब सुन रहा है। खामोशी से सुनने के सिवाय उसके पास कोई और विकल्प भी तो नहीं था।

बरसों पहले उसने चमन की शादी बेला से की थी। बड़ी सज-धज से निकली थी बारात...बड़े बेटे मदन ने तो यह मौका दिया नहीं था, सो अपनी सारी हसरतें मेघराज ने मँझले बेटे चमन की शादी में पूरी कीं। अभी थोड़ी देर पहले ही तो पवन बेला चाची से मिला था...दूसरी बार...पहली बार उसने बेला चाची को अपनी शादी में देखा था, पर शादी में मिलना-देखना इतना औपचारिक होता है और फिर न जाने कितने लोगों से दो-चार घण्टे में ही मिलना, किसी के भी बारे में सब ठीक-ठीक याद नहीं रहता। पवन को बेला चाची सुन्दर लगी थीं, थीं भी। मेघराज ने तभी उसे अपनी बहू बनाने के लिए चुना था।

अपने बड़े बेटे मदन से मेघराज हमेशा ख़फ़ा रहता। अपने पिता की तरह से मदन भी अक्खड़, मुँहफट और तुनकमिज़ाज था। वह तो अपनी शादी से पहले ही घर छोड़कर चला गया था। अब मेघराज को मँझले बेटे चमन और छोटे बेटे कमल का ही आसरा था।

मेघराज की बन्द पुतलियों के अन्दर कई-कई स्मृति-चित्र थिरक रहे थे। चमन के बाद मेघराज ने जल्दी ही कमल की शादी भी कर दी। बेला जितनी सुन्दर थी, उससे अधिक चतुर। उसने अपने ससुर मेघराज का विश्वास जीत लिया और फिर अपने कस्बाई चातुर्य से कमल को घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया।

मेघराज का मकान अपना था। काफी बड़ा मकान था। विभाजन के बाद उसे क्लेम में यही प्लाट मिला था, जिस पर उसने जल्दी ही मकान बनवा लिया। मदन अक्खड़ होने के साथ अणखी भी था, सो उसने उस मकान की तरफ देखा भी नहीं, न कभी पिता से कोई मदद माँगी। कमल थोड़ा सीधा था, सो जल्दी ही घर से बाहर कर दिया गया। अब मकान पर पूरी तरह से चमन और बेला का कब्ज़ा था।

बेला ने अपनी शादी की पाँचवीं सालगिरह पर ससुर से तोहफ़ा माँगा और बड़ी मासूमियत भरी चतुराई से मकान तोहफ़े में ले लिया। मेघराज आशंकित तो था, लेकिन तब तक वह बेटे-बहू के प्रभाव में इतना आ चुका था कि उसके मुँह से ‘ना’ नहीं निकली। बेला की मासूमियत भरी चतुराई का मुलम्मा उतरने लगा। उसने मेघराज को उपेक्षा के दायरे में धकेलने में बहुत वक़्त नहीं लगाया।

पवन देख रहा था कि एक बूढ़ा आदमी बगल में पोटली दबाए अपने बड़े बेटे मदन के घर जा रहा है। दूसरे फ्रेम में वह छोटे बेटे कमल के घर जाता दिखा और फिर सड़कों पर घूमता दिखा मेघराज। कभी सड़क, कभी कोई ढाबा, कभी नाई की दुकान, कभी बस स्टॉप पर और कभी पार्क के किसी कोने में बैठा बूढ़ा मेघराज। मेघराज की यही दिनचर्या थी, सालों से। घर रुकता तो तानों के हंटर पड़ते। कमल के यहाँ जाता तो क्या कहता कि अब उसके मकान पर उसका कोई हक़ नहीं। मदन से वो वैसे ही संकोच करता।

शाम को चमन घर लौटता। बेला से पूछता-”पिता जी कहाँ गये?”

“होंगे कहीं गली में ताश खेलते...सारा दिन अकेली घर में खटती हूँ। यह नहीं कि बाज़ार से सब्ज़ी-भाजी ही ला दें...ताश खेलने से फुरसत मिले तो...।” बेला की शिकायतों की लिस्ट लम्बी थी और उसे कई बार सुन-सुन कर चमन भी तंग आ चुका था। न तो पत्नी से और ना ही पिता से कुछ कहने की उसकी हिम्मत पड़ती। इसलिए जली-कटी सुनने को टालने के लिए वह कहता-”क्या लाना है, मैं ले आता हूँ।”

“अरे सारा दिन मगज़ खपा कर आये हो, बैंक की नौकरी है, कोई खेल नहीं, बैठो आराम से, टी.वी. चला लो, मैं चाय लाती हूँ।”

बेला की इस बात के सामने चमन क्या बोलता। उसने कपड़े ढीले किये और रिमोट हाथ में लेकर टी.वी. के सामने बैठ गया।

बेला जैसे ही दो प्याले चाय के हाथों में पकड़े कमरे में आयी, मेघराज ने प्रवेश किया। मेघराज के देखते ही बेला ने पलटी मारी। अपने लिए लायी चाय का प्याला मेघराज की तरफ बढ़ाते हुए कहा-”अच्छा हुआ बाऊजी, वक़्त पर पहुँचे...यह चाय लो।” मेघराज बेला का काँइयाँपन अच्छी तरह से समझता था। यह वही बेला है जो चमन के घर से बाहर निकलते ही ऐसा माहौल बना देती थी कि मेघराज को घर से बाहर भागने के सिवा कोई रास्ता ही न सूझता था। उसके मन में आया कि चाय का प्याला लेकर उसी के सिर पर गरम-गरम चाय उँडेल दे और कहे-‘कमज़ात, तिरिया-चरित्तर छोड़, मुझे चैन से बची-खुची ज़िन्दगी काटने दे’ पर साथ ही उसे यह भी ख़याल आ गया कि वह ऐसा करेगा तो बददिमाग कहलाएगा...झूठा बनेगा कि बहू तो अपने हिस्से की चाय दे रही है और...फिर सारा दिन इधर-उधर भटकने के बाद मेघराज बहुत थका हुआ भी था...न करने की हिम्मत नहीं हुई...जवानी के दिन होते तो मारता एक थप्पड़...पर जवानी की ऐंठन बुढ़ापे में नहीं चलती। उसने एक विवशता भरी निगाहों से बेला को देखा और चुपचाप चाय का कप लेकर एक ओर बैठकर पीने लगा।

“एक खाली कप और ले आओ, हम आधी-आधी कर लेते हैं” चमन ने बेला से कहा।

“हाय-हाय...क्या बात करते हो जी...भिखमंगों का घर थोड़े ही है...यह लो...मैं और बनाती हूँ...आप एक कप और लोगे न” बेला ने भिखमंगों शब्द पर ज़ोर दिया था। मेघराज कट गया था सुनकर, पर चाय पीता रहा। “ले लूँगा”, चमन ने यह सोचकर कहा कि कहीं सिर्फ़ अपने लिए चाय बनाने का बेला आलस न कर जाये और फिर इस बहाने उसे भी एक कप चाय और मिल जायेगी।

बेला की यही सयानप कई तरह से काम करती थी। यूँ मेघराज मैले-कुचैले कपड़ों में रहे तो रहे, पर बाहर जाने से पहले कपड़े ज़रूर बदलवा देती। साथ ही यह कहना न भूलती-”भिखमंगे से लगते हो इन कपड़ों में, बदलो।” यूँ खाने में जो बचा-खुचा होता, वह कभी सीधे और कभी रूप बदलकर मेघराज के काम आता, लेकिन सुबह का नाश्ता किसी के सामने देना हो तो वह मेघराज को अण्डा उबालकर देना नहीं भूलती और न ही यह कहना भूलती-”इन्हें अण्डा बड़ा पसन्द है, वो भी उबला हुआ...वैसे भी इनकी उम्र में उबला हुआ अण्डा ही इनकी सेहत के लिए ठीक है, क्यों बाऊजी!” और मेघराज़ ज़रा सी गर्दन हिलाकर ‘हाँ’ कह देता।

दरअसल मेघराज बचपन से ही खाने का शौकीन था। जवानी के दिनों में दो-तीन सो डंड पेलना उसके लिए मामूली बात थी। शरीर को खूब तेल पिलाता, मालिश करवाता और कसरत करता। कसरत के बाद दूध में दो-तीन कच्चे अण्डे घोलकर पीना उसे पसन्द था। आधा दर्जन से कम केले नहीं खाता था वह। घी, मक्खन सब कुछ तो खाता था धड़ल्ले से। खुद शरीर कमाता और दूसरों को भी यही सलाह देता-”यही उम्र है शरीर कमाने की, जितना कमाना है, कमा लो, यही काम आयेगा, बाकी सब बकवास।”

ज़िम्मेदारियाँ, उम्र और फिर अन्त में हाथों का पैसा और अपने नाम का मकान-जब दोनों ही मेघराज के हाथ से निकल गये तो कमाया हुआ शरीर गलने लगा। हड्डी मज़बूत थी तो चला, वरना कभी का राम-नाम सत्य हो गया होता।

वक़्त ने धीरे-धीरे सब छीन लिया, पर मेघराज के अण्डे खाने का शौक नहीं छूटा। कच्चे अण्डों की जगह उबले अण्डों ने ले ली। जैसे-तैसे वह रोज़ एक अण्डा तो पा ही जाता। बेला को यह खटकता था। उसे निखट्टू मेघराज एक बोझ लगने लगा था...मेघराज उसके लिए एक सारहीन सत्ता थी...फिर उसने तरह-तरह के बहाने बनाकर अण्डे घटाने शुरू किये। रोज़ की जगह अण्डा सप्ताह में तीन दिन ही मिलने लगा, फिर दो दिन, फिर एक दिन और एक दिन उसने घोषित कर दिया-”बाऊजी, अण्डों का रेट देखा है...सारी उम्र बहुत खा लिए...अब तो अण्डों का मोह छोड़ो...‘राम-नाम’ भजने के दिन हैं बाऊजी।” मेघराज सब सुनता रहा। वह जानता था कि बेला की मर्ज़ी के बिना उस घर में पत्ता भी नहीं हिलता। हाँ, जब कभी कोई मेहमान भी नाश्ते में शामिल हो तो अण्डे मेज़ पर हाज़िर होते और वह डरते-डरते एक अण्डा खा ही लेता। यही वजह थी कि घर में मेहमानों का आना मेघराज को बहुत अच्छा लगता, बल्कि वह बड़ी बेसब्री से मेहमानों का इन्तज़ार करता और जाती बार उन्हें जल्दी ही फिर आने की ताकीद करना तो वह कभी नहीं भूलता। बेला आँखें तरेरती रह जाती, पर इतनी बात तो मेघराज कह ही जाता।

मेहमानों का अकाल पड़ा तो मेघराज छोटे बेटे कमल के घर पहुँच जाता। उसे वहाँ अण्डा तो मिल जाता, पर इज़्ज़त नहीं। एक दिन तो कमल की बीवी ने कह ही दिया-”जिसके नाम मकान कर दिया है, वो नहीं खिलाती अण्डा।” उस दिन मेघराज इतना कटा कि फिर कभी वहाँ नहीं गया। बड़े बेटे मदन से उसकी वैसे ही नहीं पटती थी। साल में एकाध बार वह पोते के मोह में वहाँ चला जाता...पर अण्डा...नहीं...अण्डों से भरा फ्रिज देखता...पर कहने की हिम्मत नहीं होती कि अण्डा खिला दो।

अण्डा जैसे-जैसे मेघराज से दूर होता गया, वैसे-वैसे अण्डे ने उसके मन में अपना घर बसा लिया। घर से बड़ा प्यार होता है, वैसा ही प्यार था मेघराज को अण्डे से। उसके सपनों में अण्डा अक्सर उतरता। नाचता हुआ। अण्डों के ढेर, अण्डों के पेड़, अण्डों के पहाड़, अण्डों की सड़कें, अण्डों की झालरें, अण्डों का वितान, कई-कई रूपों में अण्डा उतरता था उसकी पुतलियों के संसार में। उसके मकान की तरह से अण्डे का संसार भी मेघराज के हाथों से फिसल चुका था, मेघराज उस फिसले हुए संसार को पकड़ने की कोशिश कर रहा था। उसके होंठ कुछ बुदबुदा रहे थे। पवन का ध्यान टूटा। वह मेघराज के पास गया-”बाऊजी! कुछ चाहिए...”

“अण् ऽऽ अण्ऽऽडा।”

“क्या अण्डा!” पवन को लगा उसने शब्द ठीक से नहीं सुना। इसलिए फिर पूछा-”अण्डा?” मेघराज की मुँदी हुई आँखें ज़रा सी खुलीं। दायाँ हाथ ज़रा सा ऊपर उठा। गले से लड़खड़ाती सी आवाज़ आयी-”हाँ”।

पवन पसोपेश में पड़ गया। इस हालत में अण्डा देना भी चाहिए कि नहीं। उसने इधर-उधर देखा कि कोई डॉक्टर या नर्स दिखे तो पूछ ले, लेकिन पूरे वार्ड में मरीज़ों और रिश्तेदारों के अतिरिक्त कोई न था। पवन थोड़ी देर तो खड़ा सोचता रहा कि उन्हें अकेला छोड़कर जाना ठीक भी होगा या नहीं। चाचा जी भी जल्दी आने को कह गये थे, पर अब तो शाम उतरने को है। पवन को जो समझ में आया, उसने वही किया। वह लपककर बाहर निकला और दो उबले हुए अण्डे ले आया। अण्डा छीलते-छीलते वह सोच रहा था ‘शायद अण्डा खाने से उनमें हिम्मत आ जाये और वे ठीक हो जायें’। अण्डा छीलकर उसने उसके छोटे-छोटे टुकड़े किये और एक टुकड़ा मेघराज के मुँह को छुआते हुए बोला-”बाऊजी! मुँह खोलो, अण्डा।”

मेघराज के चेहरे पर अप्रत्याशित रूप से एक चमक आ गयी। उसने चिड़िया के बच्चे की चोंच की तरह से मुँह खोल दिया। फिर दूसरी बार, फिर तीसरी बार। आधे से ज़्यादा अण्डा खाने के बाद मेघराज ने हाथ उठाकर संकेत दिया-”बस!” पवन चाहता था कि मेघराज पूरा अण्डा खा ले। यह सोचकर पवन ने अण्डे का आखिरी टुकड़ा भी मेघराज के बन्द होठों पर रख दिया। मेघराज ने फिर आँखें खोलीं, बन्द की...उसका चेहरा ज़र्द होने लगा...वह डॉक्टर को खोजने लगा...संयोग से डॉक्टर उसी समय वहाँ आया...”यह क्या खिलाया है आपने?”

“अण्डा माँगा था, वही” पवन ने डरते हुए ही कहा।

“अण्डा...” इससे पहले कि डॉक्टर कुछ और कहता...मेघराज ने तेज़ हिचकी ली। डॉक्टर उसके शरीर पर झुक आया। उसने उसकी नब्ज़ देखी, फिर पाँव, फिर पुतलियों को उल्टा और पवन से पूछा-”आप?”

“मैं पवन! इनका दामाद!”

“जिसे भी ख़बर करनी है, कर दो...ही इज़ नो मोर” कहकर डॉक्टर ने पेशेंट शीट पर अपनी कार्रवाई की और चला गया।

शान्त लेटे मेघराज के पास अकेला पवन खड़ा था, अन्यमनस्क सा। साथ ही पड़ी तिपाई पर पड़ा दूसरा अण्डा मेघराज के तृप्त चेहरे को देखकर झूम रहा था।