अतिक्रमण (कहानी -संग्रह):कमल चोपड़ा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
कमल चोपड़ा के प्रथम कहानी संग्रह ‘अतिक्रमण' में ग्यारह कहानियाँ संगृहीत हैं। इनमें से अधिकतर कहानियाँ निम्न वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग के अस्तित्व-संघर्ष, शोषण, प्रताड़ना, प्रवंचना एवं पीड़ा से जुड़ी हैं। आर्थिक विपन्नता में अभावग्रस्त जीवन जीने को मजबूर होने के कारण ये वर्ग कभी राजनीतिज्ञों की छल- नीति के पाटों में पिसते हैं, कभी खिलौनों की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं। इस्तेमाल होने के कारण ये तरह-तरह की तिकड़मों और नाजायज कामों में लगातार फंसते चले जाते हैं।
सांप्रदायिक दंगे और इन दंगों के पीछे काम करने वाली घिनौनी राजनीति हमारे समाज के लिए कलंक है। अपनी रोटी-रोजी में उलझा सामान्य जब सांप्रदायिक दंगों का न चाहकर भी एक हिस्सा बन जाता है। मूक बनकर तमाशा देखती पुलिस, बात का बतंगड़ बनाकर स्वार्थ सिद्ध करने वाला गुंडा वर्ग, अवसर पाते ही लूटपाट में लिप्त होने वाले अविवेकी लोग, इस कलंक को बरकरार रखने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। चोपड़ा की पाँच कहानियों का विषय सांप्रदायिक दंगे एवं उग्रवाद है। 'एवज', परशाद' एवं 'निरपेक्ष' हिंदू-मुस्लिम दंगों पर केंद्रित हैं। दो कहानियाँ- 'आसार' और 'संकट' हिंदू-सिख दंगों एवं उग्रवाद की समस्या का विश्लेषण करती हैं।
'आसार' में रात-दिन दूध पानी की तरह घुलमिल कर रहने वाले, परिस्थितिजन्य भीड़-सोच के कारण एक-दूसरे से आँखें चुराने लगते हैं। पुलिस की संदिग्ध भूमिका स्वयं दंगों की स्थिति पैदा करती है। भीड़ की रुग्ण मानसिकता का प्रतिरोध करने वाला एक ओर दलीप जैसा व्यक्ति है तो दूसरी ओर चक्की वाला सरदार मलकीत है जो बचते- बचाते भी उग्र भीड़ के विवेक शून्य क्रोध का शिकार होता है। इस कहानी में लेखक ने मलकीत के भय और आत्म मंथन को सहज रूप में अभिव्यक्त किया है। प्रतिरोध करने के कारण दलीप उसी के संप्रदाय के लोगों के हाथों बुरी तरह पीटा जाता है। मास्टर मुलखराज का यह अहसास- 'हमारे जख्म साझे हैं, हमारा दुःख साझा है- ' इस कहानी का मूल स्वर है।
'संकट' में उग्रवाद का कसता फौलादी पंजा है, जिसे धर्म और अवसरवादी राजनीति का कलुषित गठजोड़ प्रोत्साहित करता है। इस तर्कहीन भूल- भुलैया से बाहर निकलने का प्रयास करना मौत को बुलावा देना है। जिन्दर जैसे युवकों को इसी नियति से गुजरना पड़ता है।
दंगों में एक वर्ग ऐसा होता है जिसकी धर्म विशेष में ऐसी अंधी आस्था नहीं होती कि दंगे भड़क उठें। भड़क उठे दंगों के अवसर पर लूटपाट करना उसका एकमात्र उद्देश्य रहता है। इस रौ में ऐसे लोग भी शामिल हो जाते हैं जिन्होंने बुरे वक्त में भी ऐसा घिनौना काम नहीं किया था। बरकत ऐसे ही लोगों में से एक है। वह इस प्रकार के थोपे गए दंगे को कानूनी दंगे का नाम देता है। 'परशाद' कहानी में लेखक ने इस समस्या को बेहतर ढंग से उठाया है, पर बरकत के भांजे बबलू की एक मुसलमान द्वारा रक्षा का प्रसंग उठाकर भावुकता का समावेश किया है। यहाँ कहानी का सूत्र पात्रों के हाथ से सभी सदस्य एक-दूसरे से ढाल और तलवार खिसककर लेखक के हाथों में चला जाता है। कलह के वातावरण को 'एवज' कहानी में झुग्गी-झोंपड़ी उजाड़ने की घटना को दंगे के रूप में मोड़ दिया जाता है। प्रतिरोध करने वाला विधवा ईश्वरी का भाई अकेला पड़ जाता है। उसका सबसे बड़ा दुःख है- 'तुम लोगों को जहां गुस्सा आना चाहिए वहां तुम रोने लगते हो और....। 'परिस्थितियों के प्रति हमारे समाज का ठंडापन घातक परिणाम के लिए उत्तरदायी है। इन दंगों की पृष्ठभूमि में कहीं पांडे जैसे नेता हैं तो कहीं विधायक जी के रिश्तेदार हैं- (परशाद- एवज)।
'वजह' में अर्थाभाव के कारण टूटटे पारिवारिक संबंध हैं। जिनमें सिवाय कडवाहट के कुछ नहीं बचा है। परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे से ढाल और तलवार की तरह मिलते हैं। कलह के वातावरण को उभारने के लिए लेखक ने कुछ अतिशयता ही दिखाई है। गरीबी जो न कराए, वह थोड़ा है, परंतु जब बेटे की लाश घर में पड़ी हो, उस समय गोविंद मजदूरी करने चला जाता है। 'आदमी' कहानी की यह घटना पूरी तरह सहज एवं विश्वसनीय नहीं लगती।
'तिरिया' की मेहतरानी बसंती घर- बाहर के मोर्चे पर अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। कमल चोपड़ा ने तुर्श मिजाज बसंती के मन में छिपी नारी की कोमलता को भी सफलतापूर्वक चित्रित किया है। चरित्र की प्रत्येक अच्छाई-बुराई को सहजता प्रदान की है। इसे चोपड़ा की सफलतम कहानी कहा जा सकता है।
'पिता' में लकवाग्रस्त विद्याराम की उपेक्षा को सफलतापूर्वक उभारा है। 'समझ' कहानी में आवारा घूमने वाले शम्मी और बबलू के माध्यम से लेखक 'दंगों में पुलिस की भूमिका' में जगह खाली कराने के लिए गुंडागर्दी जैसे विषयों पर भी चला आता है। इस तरह से विषयों का दोहराव कहानी में खटकता है। ‘निरपेक्ष’ भी अन्तत: दंगों की व्याख्या करती चलती है। ‘अतिक्रमण’ शीर्षक कथा झुग्गी-झोंपड़ी उजाड़ने-बसाने की घटिया राजनीति को उजागर करती है।
चोपड़ा की कहानियों में विषयों की विविधता तो नहीं है, किंतु सामाजिक जागरूकता के दर्शन अवश्य होते हैं। इनके, अधिकतर पात्र एक जैसी ही भाषा बोलते हैं, यहाँ तक की एक जैसी ही गालियाँ भी देते हैं। पात्रों पर एक जैसी भाषा थोपने से लेखक को बचना चाहिए। पात्रों को उनकी सहज भाषा बोलने दिया जाए। कुछ कहानियाँ सोद्देश्य होते. हुए भी भावुकता एवं उपदेशक मुद्रा के कारण कमजोर हुई हैं; विशेषतः जिन कहानियों में सांप्रदायिक समस्याएँ उठाई गई हैं, उनके पात्र सांप्रदायिक सौहार्द के लिए जो विचार प्रकट करते हैं, वे अटपटे लगते हैं।
फिर भी यह संग्रह रोचक एवं पठनीय बन पड़ा है। किसी भी कहानी में ऊब या प्रवाह-अवरोध नहीं है।
अतिक्रमण (कहानी -संग्रह):कमल चोपड़ा, प्रथम संस्करण, 1992, पृष्ठः 124 (डिमाई साइज), मूल्यः 60/- पंकज प्रकाशन, सी-8/158-ए, लारेंस रोड, , दिल्ली- 110035 (अमर उजाला -रविवासरीय ,1 अगस्त 1993)