अतिथि / सतीश दुबे
बम फूटने और बोतलें फेंकने की आवाजें, चीखें, हो–हल्ला, खून–खराबा। हर कोई भाग–दौड़ रहा था। ऐसी ही भीड़ को चीरता हुआ वह बालक ओट ले परे जाकर खड़ा हो गया।
अपने सिर की गोल टोपी व्यवस्थित करते हुए भयाक्रान्त नजरों से जुलूस की खूनी हरकतें देखने लगा। अचानक उसे लगा, उसके बाजू को किसी ने तेजी से दबोचकर उसकी टोपी निकाल ली है।
उसने देखा–वह एक आदमी की गिरफ्त में है।
‘‘हाँ, बोल....’’
‘‘या अब्बा!’’ मौत सिर पर मँडराने के डर से वह चीख पड़ा।
वह आदमी उसे अंदर खींचकर ले गया तथा दोनों कंधों को दबाकर उसे एक पार पर बिठा दिया।
‘‘क्या आप मुझे हलाल करेंगे?’’
‘‘हाँ, तू ऐसे भीड़भाड़–भरे जुलूस में आया क्यों?
‘‘अब्बा ने तो मना किया था, पर मुहल्ले के सभी लड़के तो आ रहे थे।’’ त्यौहार का उल्लास उसके मन में हिलोरे ले रहा था। ‘‘कब से निकला था घर से?’’
‘‘सुबु से। चाचाजान, आप मुझे हलाल मत करिए ना! मेरे अब्बा!’’ वह रोने लगा था।
‘‘अच्छा,चुप हो जा।’’ इशारा पाकर खाने की थाली पत्नी ने उसके सामने रख दी। डर और आतंक से सहमते हुए उसने उस आदमी की ओर देखा।
‘‘खा ले!’’
‘‘मुझे भूख नहीं है।’’ वह डर से काँप रहा था।
‘‘नहीं खाएगा?’’ आदमी का स्वर कुछ तेज था।
बालक को लगा, गंडासा उसकी गर्दन पर ये पड़ा, वो पड़ा।
‘‘अच्छा, खाता हूँ।’’
वह खाने में जुट जाता गया।
‘‘चाचाजान! मेरे अब्बा अकेले हैं, मुझे हलाल मत करो, मुझे जाने दे।’’
‘‘अकेला जाएगा तो मर जाएगा। हम तुझे पहुँचा देंगे।’’
‘‘नहीं....नहीं मरूँगा, अब्बा ने कहा था कि अल्ला तेरे साथ है।’’ वह शकालु डर से लगातार काँपता जा रहा था।
‘‘अच्छा चल, पाजामा में जेब तो है न? इसमें ये टोपी रख ले। तेरा पता क्या है?’’
डसने कागज की चिट पर पता लिखा तथा उसकी अंगुली थामे, कमरे से बाहर निकला।
बाहर रोड पर, वही हो–हल्ला, चीख–पुकार, भाग–दौड़, खून–खराबा।
ुस आदमी ने उसे एक पुलिस को सौंपा, ‘‘इसे इसके घर तक पहुँचा दीजिए, ये रहा पता।...पहुँचा देंगे या इसके लिए भी ऊपर से आर्डर लगेगा।’’ उसका स्वर कुछ ऊँचा हो गया था।
पुलिसमैन ने अचकचाकर उसकी तरफ देखा तथा बच्चे को पुलिस–वैन की ओर ले गया।
बच्चा कृतज्ञता–भरी नजरों से उसकी ओर देखता हुआ आगे बढ़ गया। उसे लगा, उमस–भरी तपन के बीच आया शीतल झोंका उससे दूर हो गया है।