अतिथि / सिनीवाली

Gadya Kosh से
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दो कमरे का उसका किराये का घर आज उसे कुछ अधिक ही बड़ा लग रहा था। दोनों कमरों की खिड़कियां कंपकंपाने वाली ठंड और कुहासे के कारण आज दिनभर नहीं खुली थीं। उसे पता था, फिर भी उसने इत्मीनान करने के लिए खिड़कियों को खींच-खींच कर देखा। पिछले दरवाजे का ताला और फिर आगे गेट का ताला भी खींच कर देखा। क्या पता कोई चोर उसकी आँख लगते ही, नहीं——नहीं, नहीं——क्या चोर को सब पता होता है, किसका घर खाली है और किसके घर में मर्द नहीं है। कहीं हमारे घर के बारे में भी उसे पता हो कि मैं दो बेटियों के साथ अकेली हूँ तो——। इतना सोचते ही उसकी तेजी से धड़कती हुई धड़कनें और तेज हो गई.

नहीं, अकेले नहीं रहना चाहिए था उसे। दीपू को बुला लेना चाहिए था। ये बोल कर भी गए थे कि मन हो तो उसे बुला लेना। दीपू यहाँ लॅाज में रह कर पढ़ाई करता है। कहने पर आ जाएगा। उसी ने मना कर दिया था कि बराबर काम से बाहर जाएंगे तो रोज-रोज कितना बुलाऊँगी।

गलती की, बुला लेना चाहिए था। मोबाइल में उसका नंबर था। निकाल कर देखा, दीपू——! बुला लूँ! अभी नहीं——! नहीं ठीक है! अब सोना ही है। नहीं बुला ही लेती हूँ! घंटी बजी और दीपू ने उठाया पर कहा कि आज ही दोपहर में बाहर गया है, कल लौटेगा। अगर पहले बता देती तो मैं रुक जाता। ओह! मुझे पहले ही कह देना चाहिए था। अब——अब क्या करुँ! किसी तरह सो जाती हूँ, रात बीत ही जाएगी।

मोबाइल और चाबी का गुच्छा हाथ में दबाए वह सोने जा ही रही थी कि लगा किसी ने बाहर का दरवाजा खटखटाया। पहले तो वह चौंकी। एकाएक उसकी धड़कनें तेज हो गईं। फिर अपने आप को समझाने की कोशिश की कि उसे भ्रम हुआ है। इतनी ठंड में इस समय कौन आएगा। अगर किसी को आना होता तो फोन करके बता ही देता। ऐसे ही भ्रम हुआ होगा। वह अनसुना किए बिछावन पर बैठ ही रही थी कि फिर आवाज आई——!

जिसका डर था वही हुआ——कोई चोर——बदमाश——!

'खट्——खट्——खट्'

नहीं जाऊंगी——!

पर हो सकता है कोई रिश्तेदार हो——या जान पहचान का——!

जाऊँ?—-नहीं जाऊँ?——जाऊँ?—-नहीं जाऊँ?

आवाज लगातार तेज होती चली गयी।

'खट्...खट्...खट् खट्'

न चाहते हुए भी वह दरवाजे के पास आयी...

थोड़ा रूक कर कुछ हिम्मत करते हुए बोली, 'कौन...?'

'बेटी... बेटी मैं...'

आवाज से लगा कि किसी बूढ़े व्यक्ति की आवाज है। फिर उसने दरवाजा खोलकर मुंह बाहर किया। इमर्जेंसी लाइट में देखा-60...65 साल का कोई आदमी चादर लपेटे एक बैग टांगे खड़ा है।

'जी कहिए...'

'बेटी... बाबूजी हैं?'

उसे थोड़ा आश्चर्य हुआ कि ससुरजी को मरे तो साल भर होने को आए और ये आज उन्हें क्यों खोज रहे हैं। क्या पता, कौन है, जो भी हो... मैं कह देती हूँ...

'वह तो साल भर ही गुजर गए' , इतना बोलकर वह चुप हो गयी।

'ओह... मैं नहीं जानता था...' , आश्चर्यचकित होकर कहा।

पति का नाम उसे लेते नहीं बन रहा था। थोड़ा संकोच करते हुए बोली, 'वह तो कहीं बाहर गए हैं, आधी रात तक आएंगे। आप कल उनसे मिल लीजिएगा।'

कह कर दरवाजा बंद कर ही रही थी कि किवाड़ के बीच से उनकी आवाज उस तक फिर चली आयी...

'बेटी...'

फिर बेटी... सब कुछ तो मैंने बता ही दिया, अब क्या कहना चाहते हैं?

बंद दरवाजे को थोड़ा खोलकर लाइट को उनकी ओर किया।

'बेटी, तुम्हारे ससुरजी मुझे पहचानते थे। मेरा उनका ननिहाल से सम्बंध है। मैं उनके चचेरे मामू का बेटा हूँ।'

अच्छा तो रिश्ता भी जोड़ लिया इन्होंने।

'पंकज को देखे तो कई बरस बीत गए... अब तो वह भी मुझे नहीं पहचान पाएगा।'

वह चुप खड़ी सुनती रही।

'आज मैं यहाँ बस से गुजर रहा था। रात भर का रास्ता था। रास्ते में ही बस खराब हो गयी। रात भर इस ठंढ में बस में रहना संभव नहीं जान पड़ा। आसपास कोई धर्मशाला, होटल भी नहीं था। फिर मेरे बेटे ने फोन पर कहा कि पंकज आजकल यहीं रहता है... सो मैं पता करते-करते चला आया ।' अपनी तरफ से पूरी स्थिति स्पष्ट कर दी उन्होंने।

उनकी स्थिति और आवाज सुनकर वह कुछ पल के लिए उन पर भरोसा कर बैठी। पर भरोसा करते ही दिमाग तुरंत सचेत हो गया। नहीं इस तरह के लोग तरह-तरह का रूप धर कर आते हैं। कह तो दिया था... मैं अकेली... फिर भी... हे भगवान कहीं...!

'बेटी...'

उसने एक बार ठंडी अंधेरी रात को देखा और बर्फ की तरह ठंडी होती उनकी आवाज सुनी। फिर पता नहीं क्या सोचा कि ...

'आइए...'

दो कोठरी के छोटे से घर में उन्हें जगह दे दी।

अतिथि देवता होता है, यह सोचकर उसका मन ज़रा हल्का हो ही रहा था कि दूसरे ही पल मन पर इस बात ने कब्जा कर लिया कि वह घर में अकेली है।

इस कंपकंपाती ठंढ में यह सोचकर गर्माहट महसूस होती है कि एक शाम खाना बनाने से छुट्टी मिली। पर यह गर्माहट झुंझलाहट में तब बदल जाती है जब नहीं चाहते हुए भी किसी के लिए खाना बनाना पड़ता है।

पति से फोन करके पूछा भी था कि आप इन्हें जानते हैं। दिमाग पर जोर देने के बाद भी जवाब उलझन में लिपटा हुआ ही था। 'आं... ठीक से याद नहीं आ रहा, हां बाबूजी होते तो पहचानते।' पर साथ ही ये भी कहा था कि आजकल चाहते हुए भी किसी पर भरोसा करना मुश्किल है। पर सुनो-खाना पीना ठीक से खिलाना। नहीं तो दस जगह जाकर कहेंगे कि पानी के लिए भी नहीं पूछा।

एक साथ ही थाली में उसने पराठे, कटोरी भर सब्जी और सेबई उस कमरे में तब रख आयी जब वह बाथरुम में हाथ मुंह धो रहे थे। जब सोने आयी तो रात के ग्यारह बज रहे थे।

उसने उनके कमरे का दरवाजा इस तरह से सटाया कि उसकी मर्जी के बगैर खुलेगा भी नहीं। उसे पता था कि ये दरवाजा उस सूखे पत्ते की तरह है जो हवा के एक झोंके में उड़ जाएगा। हालांकि वह इधर से दरवाजा बंद कर देना चाहती थी। पर बाथरूम अंदर होने के कारण वह चाहकर भी बंद नहीं कर सकती थी। कहीं रात... बिरात उन्हें ज़रूरत हुई तो।

अपने कमरे में पहुंच कर लगा जैसे वह सुरक्षित स्थान पर पहुंच गयी हो, थोड़ी देर राहत की सांस ली, फिर रोज की तरह लाइट बंद करने लगी, रोशनी में उसे नींद नहीं आती। कुछ देर से जो डर शांत था बल्ब की तरह भक से जल उठा। आज वह दोनों बेटियों के साथ अकेली है और विपदा भी घर में ही मुंह बाए खड़ी है। कभी भी... हां कभी भी...!

उसकी धड़कनें फिर तेज होने लगीं... धक्... धक्। मुड़कर उसने अपनी दोनों बेटियों को देखा। बड़ी बेटी जो 11-12 साल की है, आज कुछ अधिक ही बड़ी दिखने लगी। नींद में उसने अपने उपर से रजाई फेंकी थी। यह रोज उसे उसकी शरारत लगती थी। आज पता नहीं क्यों, यह उसे अच्छा नहीं लगा।

उसने उसे झट रजाई से ढंक दिया। अब ठीक लग रही है। 8-9 साल से बड़ी नहीं लग रही, अब ठीक है। ये छोटी रिया अभी बस छह साल की है। वह उसके माथे को सहलाने लगी, अभी तो बहुत छोटी है... पर है तो लड़की ही... क्या पता... क्या पता-ये बातें उसे और डरा देतीं।

नहीं नहीं ऐसा नहीं होगा। सोई रिया को वह छाती से चिपका लेती, जैसे कोई उसे उससे छीन रहा हो। फिर दोनों को सहलाने लगती। धीरे-धीरे मन थोड़ा शांत हुआ, अपनी सोच पर गुस्सा भी आया कि बेकार ही इन बातों से डर रही हूँ। इससे अच्छा तो थोड़ी देर टीभी देख लेती। मन भी बदल जाएगा और समय भी कट जाएगा। घड़ी की ओर देखा-रात के 11.30 बज गए थे। उसके सीरियल का समय तो कब का खत्म हो गया। पर उसे कुछ भी देखना है, जो दे रहा होगा, वही देख लेगी। समाचार, हां समाचार ही... देखें कि देश दुनिया में क्या हो रहा है? हालांकि वह रोज समाचार नहीं देखती। पर कभी कभार तो देख ही लेती है। आजतक चैनल पर दे रहा है कि प्रधानमंत्री विदेश गए हैं... वह देश में रहें या विदेश, उसे क्या फर्क पड़ता है। शेयर बाज़ार फिर से मुंह के बल गिरा... उसे क्या मतलब, वह ये सब नहीं समझती।

दूसरे चैनल पर क्या दे रहा है, देखूं... उस समाचार पर जाकर रिमोट रूका जो उसे नहीं देखना था-दिनदहाड़े घर में घुसकर बलात्कार के बाद हत्या...

सुनते ही वह उठ खडी हो गयी... उसका कलेजा इंजन की तरह चलने लगा।

ये दिनदहाड़े कह रहा है और मैं तो इस सुनसान रात में... और आफत घर में ही...! ओह अब क्या होगा! कुछ भी हो सकता है, किसी भी समय... क्या करूं, इन दोनों को जगा दूं... दोनों की आवाज सुनकर शायद...नहीं...नहीं...!

क्या करूं... क्या करूं... पहले उनके कमरे में इधर से ही ताला लगा देती हूँ... वह चाहकर भी हमलोगों के पास नहीं पहुंच पाएंगे...

हां, धीरे-धीरे दबे पांव, ओ...हो, ये ताला बंद कर दिया, अब जान बची। चौकन्ना होते हुए क्या पता, उनके कुछ और लोग भी बाहर ताक में बैठे हों।

आजकल तो ऐसे हथियार होते हैं कि उसके सामने गोदरेज का ताला भी किसी काम का नहीं। मास्टर चाभी से सब खोल लेते हैं या मशीन से काट लेते हैं... ओह, ताला लगाने का कोई फायदा नहीं... हे भगवान, घर लूट ले पर मेरी दोनों बेटी... नहीं नहीं...!

मैं अकेले क्या कर पाउंगी... लेकिन अगर उसने मेरी बेटी को छुआ भी तो मैं सबको जान से मार दूंगी... पर कैसे? मेरे पास तो हथियार छुरा पिस्तौल कुछ भी तो नहीं है। होता भी तो चलाना नहीं आता है।

अच्छा कोई बात नहीं, रसोई में चाकू है, उसी से मैं उसको... हां मिर्ची वाला पावडर भी है, उसी को आँख में झोंक दूंगी। यहाँ चाकू रख देती हूँ और यहाँ मिर्ची वाला पावडर रख देती हूँ। निकालने में देर नहीं लगेगी। कोई आहट सुनते ही मैं... सोते हुए दोनों बेटियों को देखकर-अब ये चैन से सो सकती हैं, मैं जगी रहूँगी रात भर।

और अगर कहीं वह लोग मुझे ही... आइने में खुद को देखने लगी... उम्र में अभी वह 35 साल की है... देखकर 40 साल की लगती है। अभी तक उसे अपने आपसे शिकायत थी कि वह उम्र से बड़ी क्यों लगती है? लेकिन अगर वह 45 की भी दिखती तो उसे अब शिकायत नहीं होगी। फिर आइने में अपने को देखने लगी। 45 की हो या 50 की, है तो औरत ही, किसी भी उम्र में...

घड़ी की ओर देखा, दो बज गए थे। कई बार पति से भी बात की थी, कहा था कि डरो मत, काम खत्म हो गया है, मैं सुबह पांच बजे ही पहुंच जाउंगा। तीन घंटे और! यहाँ तो एक-एक मिनट काटना मुश्किल है। तीन घंटे तो बहुत होते हैं।

कई बार उस कमरे के दरवाजे में कान सटाकर सुनती, कहीं कोई आवाज तो नहीं आ रही... सिर्फ़ खर्राटे की आवाज-मतलब अभी तक सब ठीक है।

फिर धीरे-धीरे उसकी आँख लग गयी। सपने में उसने देखा कि रिया के चारों ओर खून बिखरा है...! किसी ने उसको...! ओह नहीं...! पसीने से नहायी हुयी वह उठ बैठी। देखा रिया तो बगल में सो रही है। उसने उसे छाती से चिपका लिया। क्या पता अंतिम बार ही छू रही हो। उसका चेहरा, आंख, नाक, बाल, हाथ, पैर सब कितने सुंदर हैं... कोई इसे कैसे मार सकता है! मारना भी चाहेगा तो नहीं मार पाएगा। मुंह देखकर ही छोड़ देगा। वह उसे सीने से लगा नींद में ही चूमती रही... रोती रही।

रोने की आवाज सुनकर हड़बड़ाते हुए उसकी बड़ी बेटी उठ बैठी-तुम रो क्यों रही हो?

'श श श... चुप धीरे बोल।'

'धीरे क्यों?'

'नहीं नहीं, सो जा मैं हूँ ना।'

'रिया को क्या हुआ-इस तरह इसे पकड़ कर क्यों रो रही हो?'

'इसे... इसे कुछ नहीं हुआ। तू सो जा, इसे भी सोने दे... तुम दोनों को कुछ नहीं होगा... मैं हूँ ना।'

उसे समझ में नहीं आ रहा था कि माँ को क्या हो गया है... पर माँ के डर से चुपचाप करवट बदल कर आंखें बंद कर ली।

खुली आंखों से उसने पांच बजा दिया। पांच बजते ही लगा कि जैसे उसे नया जीवन मिल गया हो। उठ कर उनके कमरे में गयी तो देखा वह जगे हुए हैं, कोई किताब पढ़ रहे हैं।

जाते ही उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा-'बहुत चैन से रात बीती।'

'हूँ...'

'एक बात पूछ सकता हूँ बेटी...'

'हूँ' 

'क्या तुम वाल्मीकि की बेटी हो?'

उसे आश्चर्य हुआ, 'आपने कैसे जाना?'

'उनकी तस्वीर यहाँ लगी है। तुम भी साथ हो। मुझे लगा कि तुम्हारे पिता ही होंगे।'

'जी पिताजी ही हैं।'

'तब तो सचमुच तुम मेरी भी बेटी हुयी। वह मेरे साथ पढ़ता था। तभी ये घर मुझे अपना-सा लगा।'

वह बस उनका चेहरा देखती रही।