अति दलितों का दर्द / दर्शनरत्न ‘रावण’
संविधान अर्थात सबके लिए एक समान विधान। मगर जिन पर विधान लागू होना हो, पहले वो एक समान होने चाहिए तभी न्याय कहा जा सकता है। किसी कमजोर नजर वाले व्यक्ति का सामान्य व्यक्ति से मुकाबला तभी जायज माना जाएगा जब एक ऐनक देकर कमजोर नजर वाले को बराबरी दे दी जाए। ऐसी ही व्यवस्था का नाम आरक्षण है।
आरक्षण की जो व्यवस्था की गई उसमें अनुसूचित जातियों की राज्य स्तरीय सूचियाँ बनाई गई और सभी मलिन पेशा जातियों को मिलाकर एक नाम अनुसूचित जाति देकर आरक्षण दे दिया गया। यहीं से एक नई समस्या का उदय हुआ। इस पर उसी वक्त से एतराज दर्ज करवाने की कोशिश जारी हो गई। १९६३ में उभर सिंह एडवोकेट नाम के एक विधायक ने जवाहर लाल नेहरू को पत्र भेजा जिसके जवाब में सहमत होते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कहा आपका कहना कि दलितों में रविदासी (चमार) अन्य सबसे आगे हैं बहुत ठीक है। हमें अन्य दलितों को आगे लाने की कोशिश करनी चाहिए।
यह वैसी ही स्थिति है जैसे किसी स्कूल में दिए जाने वाला खाना एक ही थाली में परोस दिया जाए। तब उन बच्चों में ताकतवर तथा चतुर बच्चे दूसरों के हिस्से को भी खा जाएँगे। ऐसी ही विकट परिस्थिति का सामना वाल्मीकि (सफाई कामगर) समाज कर रहा है। सफाई के कार्य के अलावा वाल्मीकि समाज को कहीं भी आरक्षण का लाभ नहीं मिला। केवल नौकरियों में ही नहीं बल्कि राजनीति में भी कमोबेश यही स्थिति है। केन्द्र सरकार में एक भी मंत्री वाल्मीकि समाज से नहीं है। पिछली राजग सरकार में भी यही स्थिति थी। यही स्थिति अन्य प्रांतों में भी है। यू.पी. जहाँ की सरकार ही दलित अक्रोश से पैदा हुई है वहाँ पर बसपा ने ४०२ सीटों पर चुनाव लड़ा मगर एक टिकट भी वाल्मीकि समाज को देने की जरूरत नहीं समझी।
आरक्षण में आरक्षण की बात इन्हीं हालात में पैदा हुई और सबसे पहले पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने वाल्मीकि समाज के मर्म को समझा और १९७५ में एक सरकारी आदेश द्वारा पंजाब में जारी आरक्षण का आधा हिस्सा अर्थात १२.५ प्रतिशत वाल्मीकि या मजहबी जाति के लिए अलग से सुनिश्चित कर दिया। २० वर्ष बाद हरियाणा
( ११७ ) की भजनलाल सरकार ने १९९५ में कुछ ऐसी ही व्यवस्था करने की कोशिश की। आंध्र प्रदेश में भी चंद्र बाबू नायडु ने अनुसूचित जाति की स्थिति के अनुसार आरक्षण को चार भागों में बांट कर सबसे पिछड़ों के लिए अनिवार्यता तथा प्राथमिकता निर्धारित की। १४ सितंबर, २००२ को यू.पी. की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने भी इसी व्यवस्था को न्याय संगत मानते हुए अलग-अलग आरक्षण की व्यवस्था कर दी। पिछले वर्ष ११ मई २००७ को राजस्थान की वसुंधरा सरकार ने भी लगभग इसी तरह की व्यवस्था करते हुए आरक्षण में वाल्मीकि समाज की कमी (बैकलाग) पूरी करने के लिए एक शासनादेश जारी किया कि तमाम रिक्त पदों पर केवल वाल्मीकि जाति के पोस्ट ग्रेजुएट, एम.बी.बी.एस, कम्प्यूटर इंजीनियर तथा अन्य डिग्र्री धारकों को भर्ती किया जाए।
उपरोक्त सभी प्रयासों के विरूद्ध अलग-अलग राज्यों के संपन्न दलितों ने याचिकाएँ दायर करके रोक लगवाने की कुचेष्टा की। अब वर्तमान में केवल पंजाब में विधानसभा के विशेष प्रस्ताव के कारण अलग आरक्षण की व्यवस्था लागू है मगर वो भी केवल नौकरी में की गई है, शिक्षा में इसे लागू नहीं किया गया। जबकि झारखंड सरकार की पिछड़ा वर्ग नीति पर सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीश ए.आर. लक्षमनन तथा न्यायाधीश लोकेश्वर सिंह ने फ़ैसला सुनाते हुए कहा है कि अगर किसी जाति विशेष के पिछड़ेपन के साक्ष्य मौजूद हों तो उसके लिए अलग आरक्षण की व्यवस्था की जा सकती है।
वाल्मीकि जाति (सफाई कामगार) के पिछड़ेपन के साक्ष्य इससे बढ़कर और क्या हो सकते हैं कि दुनिया भर की गंदगी को वे अपने हाथों से अपने सिर पर उठाएँ और आज उसकी इस नारकीय पेशे की कमाई विंदेश्वर पाठक तथा उसके जैसे अन्य लोग खाएँ। यही नहीं अभी हाल में घरों से निजी स्तर पर कूड़ा उठाने वालों पर भी सवर्ण ठेकेदार लादने की व्यवस्था मोहाली (पंजाब) में करने का कुप्रयास किया जा रहा है। देश की आबादी बढ़ी है, शहरीकरण बड़ी तेजी से हुआ, शहरों का क्षेत्रफल भी बढ़ा जिसने सीवर सिस्टम पर दोबारा से सोचने को मजबूर किया। मगर इस सबके बावजूद पिछले बीस वर्षों सें सफाई मजदूर तथा सीवर मैने की पक्की भर्ती न के बराबर। इनके स्वास्थ्य तथा जीवन की कोई गारंटी किसी सरकार ने नहीं उठाई। सीवर में मरने वालों की संख्या रोज बढ़ती जा रही है मगर आज तक किसी अधिकारी को सीवर मैन की मृत्यु का दोषी नहीं ठहराया गया। जबकि जंगली पशु-पक्षियों को मारने पर कई कानून आ गए मगर इस शहर में रहते, शहर को संवारने वाले की दशा पर एक भी कानून नहीं। हाँ ऐसा कानून है कि सफाई मजदूर का बच्चा सफाई मजदूर ही बने। जम्मू कश्मीर के नियम के एस.आर. की एक धारा में यही कहा गया है कि शिक्षा प्राप्त करने के बाद सफाई कामगार का बच्चा जम्मू-कश्मीर सरकार में केवल सफाई कर्मचारी के पद के लिए ही आवेदन कर सकता है। यह कानून वहाँ आज तक जारी है और शेष देश में भी अलिखित रूप में यही व्यवस्था चल रही है।
इस समस्या का समाधान वही है जो २४ सितंबर १९३२ को युग-पुरुष डॉ० आंबेडकर ने तमाम दलितों के लिए दिया था कि दलित को औरों के बराबर लाने के लिए आरक्षण जैसी सुविधा जरूरी है। अब दलितों में भी पीछे रह गए वाल्मीकि तथा अन्य जातियों के लिए आरक्षण में आरक्षण की सुविधा का होना अति अनिवार्य हो गया है। हालांकि विकसित दलित वही तर्क दे रहे हैं जो कभी आरक्षण विरोधियों ने दिया था कि इससे हम या हमारा समाज बंट जाएगा। मगर आरक्षण के बाद न भारतीय समाज बंटा था न ही अलग आरक्षण के बाद दलित समाज बंटेगा बल्कि बराबर आकर और मजबूत हो जाएगा।