अति में नीहित क्षति / मृदुल कीर्ति
‘Imp and the peasant’s bread’ के शीर्षक से दसवीं कक्षा में एक पाठ था जिसमें एक किसान बहुत संतोषी जीवन बिता रहा था। एक शैतान उसका विनाश करने की योजना बनाता है। वह सलाह देता है कि इस बार अमुक फसल अमुक विधि से बोओ। किसान को बहुत लाभ हुआ। दोबारा गेहूं बोने की सलाह दी तो बहुत-बहुत गेहूं उपजा। शैतान ने कहा इस अतिरिक्त गेहूं का उपयोग बताता हूँ तुम बेहद अमीर हो जाओगे। शैतान ने गेहूं से शराब बनाने की विधि बता कर विकास के लालच में विनाश का रास्ता बता दिया।
पाठ्य क्रम में वे ही पाठ रखे जाते हैं जो जीवन में काम आयें, नैतिक और नेक इंसान बनाएं। आज क्या हम लालच और लालसाओं रूपी शैतानों की पकड़ में नहीं हैं? क्या आज अतिरिक्त गेहूं से शराब नहीं बन रही है? अर्थात अनैतिकता से कमाए अतिरिक्त धन से विलास , विकार और विनाश नहीं हो रहा है।
सच पूछो तो एक नैतिक प्रलय का युग चल रहा है। आज पूरे के पूरे राष्ट्र इस नैतिक प्रलय की चपेट में आ रहे है।
लोभा विष्टो न किं कुर्याद कृत्यं पाप मोहितः –अर्थात लोभी पाप मोहित होकर कौन सा कुकृत्य नहीं करता है। लोभ के साथ ही भोगों की तीव्र स्पर्हा अर्थात तीव्र कामना ,लालसा जुड़ी रहती है. रजो गुण के बढ़ने पर ही लोभ बढ़ता है. रजोगुणी मनुष्य के मन में काम और लोभ प्रबुद्ध होकर उसे निरंतर चंचल, उद्विग्न और अशांत रखते हैं.
रजो रागात्मकं विद्धि मोहनं सर्व देहिनाम
प्रमादालस्य निद्रा भिस्तन्निबंधाती भारत . गीता १४/८
रजो गुण राग स्वरुप है अर्थात किसी वस्तु, व्यक्ति में जो प्रियता उत्पन्न होती है वही प्रियता रजोगुण है, वही आसक्ति ही बंधन है. आसक्ति की अति विवेक हर लेती है. व्यक्ति भूल जाता है कि तुम जिस प्रियता से वस्तु का संग्रह जिस प्रिय व्यक्ति के लिए अनैतिक रूप से कर रहे हो, क्या वह इसके परिणाम का भागी दार होगा. बाल्मीकि की कथा यहाँ सर्वथा प्रासंगिक है. बाल्मीकि डाकू थे , एक बार किसी साधु को जंगल में को लूट रहे थे तो साधु ने पूछा तुम यह कुकृत्य क्यों करते हो? बाल्मीकि ने स्पष्ट कहा कि अपना परिवार पालने के लिए. साधु ने कहा अच्छा मुझे इस पेड़ से बाँध दो और परिवार के सदस्यों से पूछ कर आओ कि ‘जो पाप कर्म तुम उनको पालने के लिए करते हो क्या उसके दंड में भी वे भागीदार होंगे ?सभी परिवार के सदस्यों ने कहा कि दंड हम क्यों भोगें ,जो करे वह भोगे. इस उत्तर ने बाल्मीकि का मोह भंग किया और यह वही बाल्मीकि हैं जिन्होनें ——अमर महाकाव्य संस्कृत में ‘ रामायण’ लिख दी.
बात सोई चेतना की नहीं वरन उस पल की धन्यता की है जब चेतना चैतन्य की ओर आमुख हुई , आमुख हुई तो किसी दिन सम्मुख भी होगी. मोह भंग हुआ.
अनैतिक धन कमा कर आज जो तिहाड़ जेल में रह रहे हैं इस धन का सुख इनके परिवार ने भी तो लिया. कहें कि हम भी साथ रहेंगें. यह धन का लालच ना करते तो भी य़े सुख से रह सकते थे. सच कहें तो सोचते होंगें कि छोटे से घर में शांति से जो रहते हैं, वे सब कितने सुखी है. काश! मैं भी उनमें से एक होता. यह पीला लोहा (सोना) का एक कण भी तो साथ नहीं जाएगा. पाप और पारा कोई नहीं पचा सकता यह फूट-फूट कर निकलता है. ऐसा धन या तो बीमारी में या वकीलों और कलह में जाता है.
माया अलौकिक है , दुस्तर है, दुर्निवार है. पदार्थों में जबरदस्त आकर्षण होता है , इन्हें निर्जीव समझना आपकी भूल है. इनकी अपनी ऊर्जा है, जिसकी शक्ति से य़े आपके मन चित्त पर राज्य करके आधीन बना लेते है. फिर यह द्रव्य आपका उपयोग करते हैं आप इनका नहीं. कंगन तो यथावत रहेगा किन्तु आप देखिये आपके अंतस में क्या-क्या घटित होता है –क्रोध, ईर्ष्या,लालच.झूठ, चोरी, छल, बेईमानी ,हिंसा ,अपशब्द ,अपना-पराया. अब देखिये कौन किसका उपयोग कर रहा है? अब अपनी आंतरिक दशा का अनुमान करिए, क्रोध और ईर्ष्या की जलन इंसान को जिन्दा ही सुलगा देती है. यह जन्म आपको धातु समेटने को नहीं मिला है. अतः सजग रहिये कि कोई भी इन्द्रिय इनके आकर्षण की ऊर्जा से आकृष्ट होकर तुम्हारे सुख को चुरा सकती है. आज सब माया के दास है.
संत कबीर कहते हैं।
रामहिं थोडा जानिके, दुनिया आगे दीन, जीवां को राजा कहें माया के आधीन।
ज्ञान कहता है माया के नहीं मायापति के आधीन रहो. अपनी सीमाएं स्वयं निर्धारित करो. भाग्य और समय की प्रबलता से प्रारब्ध वश धन लाभ होता है तो प्रभु कृपा मान कर अहंकार विहीन होकर सात्विक वृत्ति से उसका उपयोग करो. केवल इसलिए कि पड़ोसी की कार आगई है तो उससे बड़ी दरवाज़े पर लानी है. यहीं से अंधे कुएं का रास्ता खुलता है. जिसके कारण ही राष्ट्र में ‘नैतिक पतन’ होता है. क्योंकि आपको इच्छा पूर्ती के लिए धन चाहिए और अनुचित इच्छा पूर्ती के लिए अनुचित रास्ते से ही धन आ सकता है. आज तिहाड़ में जो-जो दिग्गज शोभायमान हैं, उनके मूल में यही पतन के बीज हैं. परिवार में किसी की भी अनावश्यक और ईर्ष्यालु इच्छा को पूरा मत करिए. थोडा कठोर भी होना पड़े तो वह कठोरता आपकी अनुचित इच्छा पूर्ती से बड़ा उपहार भविष्य में सिद्ध होगा. एक माँ अपने बच्चे के साथ अन्य बच्चों को भी मिठाई बाँट रही थी. कुछ गलत करने पर अपने बच्चे को एक चपत लगा दी. औरों को केवल मिठाई दी. चपत का अर्थ है कि अधिक दुलार क्योंकि अपने बच्चे की कोई गलत बात उसे स्वीकार नहीं. आपकी ठीक समय पर लगाई चपत बच्चे का भविष्य का पथ बदल सकती है.
इसका यह अर्थ नहीं कि प्रगति ना करे , योजनायें ना बनाये , स्वप्न ना देखे –बस इनका लक्ष्य सृजनात्मक ,स्वस्तिमय और कल्याणकारी करना है इसके अभाव में ही तो आज प्रलयंकारी परिस्थितियों से जूझना पड़ रहा है. जब तक अंतस नहीं सुधरेगें कुछ नहीं होने वाला है. विचारों की पवित्रता प्रथम और प्राथमिक आवश्यकता है.
जो इन आकर्षणों को ठोकर मारने की क्षमता रखता है वही ठाकुर को पा सकता है.
पुत्रादपि धनभांजा भीतिः ——-शंकराचार्य
धन संग्रह का ऐसा नीच प्रभाव होता कि मनुष्य को अपने पुत्र से भी भय हो उत्पन्न हो जाता है. ज़रा सोचिये कि हजारों वर्षों पूर्व शंकराचार्य ऐसा लिख रहे है जब कि तब तो आज की तुलना में कुछ भी अनैतिकता या धन का पागलपन नहींथा.
न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः —–कठोपनिषद १/१/२७
मनुष्य अपार धन से भी संतुष्ट नहीं हो सकता
अति सर्वत्र वर्जयते
अति में ही क्षति का बीज नीहित है. किसी को भोजन ना दो तो मरेगा और खूब खिला दो तो मरेगा. किसी वृक्ष को पानी न दो तो सूखेगा और बहुत पानी दो तो सड़ जायेगा. दोनों ही स्थित त्याज्य है सम्यक ही ठीक है. संतुलन सामायिक है. पूरी गीता में सम्यक्तव समझाया गया है, धन त्याग की बात नहीं कही है, त्याग करते हुए भोग करने की बात की गयी है.
त्यक्तेन भुंजीथा ——ईशावास्योपनिषद १/१
कई बार बहुत धन को लोग ईश्वर की कृपा मानने लगते हैं. पर यह भी अधिक खिला कर सजा का एक तरीका है. जैसे कमजोर गर्दन पर अतिशय बोझ रख दो तो हिल भी नहीं सकता.
यह जगत अवास्तविक तब ही लगेगा , जब तुम वास्तविकता को जानोगे वरना यह जगत ही वास्तविक भासता है तब ही तो यहाँ लिप्त होकर सुख खोजता है. यह भी चाहिए ,वह भी चाहिए, धरती का साम्राज्य चाहिए. सच पूछो तो एक व्यक्ति को, चौखट जितनी भूमि चाहिए.
अति की गति –संत कहते हैं.
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप.
अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप.
अतः प्रार्थना का मूल हो
साईं इतना दीजिये, जामें कुटुंब समाय,
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाए.