अति वाचाल हैं हमारी फिल्में / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :15 सितम्बर 2016
दादा फालके द्वारा 1913 में बनाई गई 'राजा हरिश्चंद्र' से कथा फिल्में बनना प्रारंभ हुईं और 1931 में पहली सवाक फिल्म बनी 'आलमआरा'। प्रारंभिक 18 वर्षों में बनी मूक फिल्मों का अखिल भारतीय प्रदर्शन होता था परंतु सवाक होते ही फिल्में क्षेत्रीय व प्रांतीय हो गईं तथा उन्होंने अपना अखिल भारतीय स्वरूप खो दिया गोयाकि मूक फिल्में पूरे भारत की थीं और बोलने लगीं तो क्षेत्रीय हो गईं। खामोशी पूरे विश्व की जबान है। ध्वनिरहित फिल्म संसार के महानायक चार्ली चैपलिन ने तो फिल्मों के सवाक होने के बाद भी एक खामोश फिल्म बनाई थी। अनेक लोग खामोश फिल्मों को कला मानते हैं गोयाकि मुंह खोलते ही वे 'अभद्र' हो जाती हैं। बहरहाल, ध्वनि ही कालजयी है और किंवदंती है कि किसी विदेशी विशेषज्ञ ने कुरुक्षेत्र की ध्वनियों को रिकॉर्ड करने में सफलता पाई है परंतु इसका कोई साक्ष्य नहीं है।
ध्वनियों के अमर-अजर हो जाने से यह कल्पना करना भयावह होता है कि सैकड़ों वर्ष बाद हमारे वर्तमान कालखंड का उसमें उत्पन्न ध्वनियों के आधार पर आकलन हुआ तो यह मानव इतिहास का सबसे वाचाल कालखंड माना जाएगा, सबसे अधिक शोर पैदा करने वाला माना जाएगा। संभवत: इसे वह नक्कारखाना माना जाएगा, जिसमें अवाम की तूती नदारद होगी। ध्वनि के अधिकतम उपयोग का शोरभरा कालखंड माना जाएगा। शोर हमारे कालखंड का एकमात्र परिचायक रह जाएगा।
सवाक होते ही फिल्में मराठी, गुजराती, बंगाली, दक्षिण भारतीय भाषाओं सहित अनेक खंडों में विभाजित हो जाएगी और अखिल भारतीय स्वरूप एक 'मिथ' बनकर रह जाएगा। बहरहाल, वर्तमान में बनी फिल्में न तो अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं और न ही उनकी अपनी सांस्कृतिक पहचान है। सत्यजीत राय ने एक साक्षात्कार में कहा था कि कोलकाता में बंगाली जिस लहजे में बोली जाती है वह ग्रामीण बंगाल में बोली जाने वाली बंगाली से अलग है। हमारे देश में हर 30 किलोमीटर पर भाषा का स्वरूप बदल जाता है। अत: फिल्म का अखिल भारतीय स्वरूप महज काल्पनिक है। दूरबीन से दूर की चीज नज़दीक नज़र आती है परंतु दूरबीन के दूसरे सिरे से देखें तो बिम्ब धुंधला हो जाता है। इसी तर्ज पर भारतीय फिल्मों के आईने में भारत की सच्ची छवि नहीं उभरती। फिल्म में भारतीय मुहावरे की खोज जारी है परंतु यह समझ में आने वाला देश नहीं है। कहीं कोई खुल जा सिमसिम नहीं है कि देश का गुहाद्वार खुल जाए।
हिंदी पखवाड़े के मनाए जाते समय किसी भी फिल्म को हम हिंदी भाषा में बनी फिल्म नहीं कह सकते। फिल्म की जबान केवल उसमें निहित ध्वनि पर आधारित नहीं है। यह माध्यम बिम्ब प्रधान माध्यम है और बिम्ब ही इसकी भाषा भी है। सत्यजीत राय अपनी पटकथा के हाशिये में रेखाचित्र भी बनाते थे अर्थात बिम्ब विधान उनके दिमाग में पहले ही सुस्पष्ट होता था। राज कपूर की सृजन प्रक्रिया में पहले ध्वनि का जन्म होता था और उसका विजुअल अनुवाद उनकी फिल्म होती थी। गुरुदत्त खामोशी का बिम्ब अनुवाद प्रस्तुत करते थे। हर फिल्मकार की अपनी निजी सृजन प्रक्रिया होती है। देव आनंद की 'गाइड' का पहला दौर पर्ल एस. बक के साथ आए निर्देशक ने बनाया है और चेतन आनंद ने इस दौर के बाद इस तरह से काम करने से इनकार कर दिया। देव आनंद ने विजय आनंद को आमंत्रित किया तो उन्होंने कहा कि पहले अंग्रेजी संस्करण बना लें और इस बीच वे अपनी अवधारणा तय कर लेंगे तथा हिंदुस्तानी संस्करण बाद में शूट करेंगे। पर्ल एस.बक और उनके निर्देशक टेड का संस्करण असफल रहा, साथ ही फूहड़ भी माना गया परंतु विजय आनंद द्वारा निर्देशित हिंदुस्तानी 'गाइड' सफल भी है और महान फिल्म भी मानी जाती है। नायिका रोजी को विजय आनंद ने बड़े साहस से सरस स्वरूप में प्रस्तुत किया। इस संस्करण में सचिव देव बर्मन और गीतकार शैलेंद्र का योगदान विलक्षण रहा। रोजी का पात्र सजीव होता है, 'तोड़कर बंधन बांधी पायल, आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है।' हमारी फिल्मों का गीत-संगीत उसके बिम्ब आकल्पन से अधिक महत्वपूर्ण है गोयाकि ध्वनि ही भारती य सिनेमा में महत्वपूर्ण है और क्यों न हो हम अत्यंत वाचाल लोग हैं। खामोशी हमें रास नहीं आती। ध्वनि ही ब्रह्म है।