अतीत का टुकड़ा / कमलेश पुण्यार्क

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खोया अतीत!विखरा वर्तमान!!भटका भविष्य!!! काश,अतीत का एक छोटा सा भी टुकड़ा हाथ लग जाता,जिसके सहारे सहेज लेता विखरे वर्तमान को। आशान्वित हो उठता भटके भविष्य के प्रति।

किन्तु अब यह कुछ भी सम्भव नहीं। सारा कुछ समाहित हो गया अतीत गह्नर में,सम्प्रति समय के अजस्र प्रवाह में,भविष्य के भँवर में। अभागा अतीत लुढ़क-लुढ़क कर गिरा,किन्तु उसे सम्हाल न सका। बेचारा वर्तमान उड़-उड़ कर विखरा,किन्तु उसे सहेज न सका। भोला भविष्य तो भटक ही गया...नहीं...भटका नहीं,वल्कि फँस गया भँवर में, वात्याचक्र में। लपक कर उसे धरूँ भी तो कैसे? तैरना आता नहीं,गहराई थाही नहीं,प्रवाह परखा नहीं,फिर प्रवाह के तले पंक की कल्पना या अनुमान क्या करूँ। संसार सागर में विधाता ने धकेल दिया है। पतवार हाथ से छूट गयी है, खेवनहार विछड़ गया है। बुद्धि कुंठित हो गयी है,विवेक सुप्त। करूँ तो क्या? जाऊँ तो कहाँ?किस आशा में?जिस आशा में सब कुछ खोया,वह आशा भी तो चली गयी। क्या कहूँ- शरमाकर...उकताकर...घबराकर..?

नहीं- नहीं,न घबराकर, न उकताकर,न शरमाकर वरन् रिस-रिसकर,तिल-तिल...धीरे-धीरे,और अन्त में तेजी से,एकाएक...हठात्। हाँ हठात् ही। हठात ही निर्णय लिया था मैंने भी। अचानक सुनहरा मौका हाथ आया,जिसे गंवाना उचित न लगा,किन्तु भविष्य को सम्हालने की कोशिश में वर्तमान को भुला दिया,जो अब अतीत का अंश बन चुका। बद्धि को मोतियाविन्द हो गया,फलतः दूरगामी दृष्टि मंद पड़ गयी। तर्क की तलवार टूट गयी,समय के सिर्फ एक ही झटके में।

क्या बिगड़ा था- सिर्फ मकान ही तो बंधक रखा गया था,वह भी पूज्य पिताश्री द्वारा। बंधक का उद्देश्य भी कुछ अति सामान्य था नहीं। युवा पुत्र के ‘अंक’ में युवती पुत्र-वधु की उपस्थिति ने पुरातन विधुर को थोड़ा उद्दीप्त कर

ही दिया,तो आश्चर्य क्या?ऐसा तो समाज में अकसर हुआ करता है। इसमें कौनपहाड़ टूट पड़ा?मकान गिरवी रख कर किसी षोडशी को ‘रेडीमेड’ माँ का खिताब़ मिल ही गया तो क्या हथेली पर दूब उग आयी? दहेज-दानव ने नारी

का ‘अवमूल्यन’ कर ही रखा है। हालांकि मकान बंधक रखने की नौबत नहीं आती, दादाजी ने अपार सम्पदा छोड़ रखी थी अपने इकलौते लाल के लिए,क्यों कि ‘पूत सपूत तो का धन संचे,पूत कपूत तो का धन संचे’ - में उनकी आस्था शायद न रही हो। सारी चल सम्पत्ति धीरे-धीरे ‘परियानी’ पर चढ़ती गयी,अपने क्षुद्र अस्तित्व का

विसर्जन करते गयी। परियानी के दूसरे पलड़े पर सोने के बदले ‘शिवबूटी’ तुलती रही,जो धुएँ का रूप धर कर पिता की नासा-गुहा से हुँकार पूर्वक निकलती रही। इसी कालिमा की घनेरी बदली में धीरे-धीरे सब कुछ स्वाहा होता गया।

सब कुछ पूर्वानुमानित था,फिर इतनी बेचैनी क्यों हो गयी? असम्भावित,अप्रत्याशित - विशेषण योग तो बन नहीं रहा था। फिर भी पता नहीं किस पागल कुत्ते ने काटा कि,घर की लक्ष्मी को गंवाकर अलक्ष्मी को साम्राज्य सौंप

निकल पड़ा रोजी़ की तलाश में,इतनी दूर,देश से मुंह मोड़ विदेश की धरती पर! मँा के स्तनों में दूध न मिला तो डब्बे का दूध पीने। अपना नहीं तो कम से कम उस आश्रिता की स्थिति का विचार तो कर लेना चाहिए था,जिसे अधर में लटका छोड़ा हूँ। बेचारी मैके भी तो नहीं जा सकती। है ही कौन वहाँ? किन्तु क्या पता था,यहाँ भी कोई नहीं है उसका--न सास न श्वसुर। मोहक मातृत्व का गरिमामय पद ‘सास का परमोशन’ पाते ही इस कदर निरंकुश तानाशाह बन सकता है,कल्पना भी न कर सका था। करता भी कैसे? ‘नारी तू केवल श्रद्धा है’ में आस्था रखने वाला क्या कल्पना कर सकता है- उसके विष-दशनों का? ‘विषकुम्भ पयोमुखम्’ का नीर क्षीर विवेचन तो सामान्य पुरुषों के बश के बाहर की बात है। नारी-चरित्र-तुला पर मूढ़मति पुरुष की बुद्धि तो हमेशा से तुलते आयी है। संयोगवश वह नारी किसी उच्च पदासीन हो फिर कहना ही क्या?

नई माँ उम्र में छोटी अवश्य थी,परन्तु पद में तो नहीं। सुदीर्घ अन्तराल के बाद ममतामयी माँ का रिक्त स्थान पूरित हुआ था,उस माँ का जिसकी प्रेम-सरिता में अवगाहन करने हेतु दिल तड़प-तड़प कर वन्य-¬प्रसून सा मुरझा गया था। आंखिर यह भी तो माँ बनकर ही आयी है। प्यार से कह रही है,फिर मान लेने में हर्ज ही क्या है,इसकी बात--ऐसा ही सोचा था,जब उसने कहा था- ‘अपने भविष्य को सहेजो सुमन! बूढे़ वाप का क्या भरोसा, आज तक कुछ नहीं किये तो अब क्या करेंगे कब्र में पांव लटका कर?तुम भी समय पर नहीं चेतोगे तो कैसे होगा?मुझ अभागन के भी आसरा तुम ही हो। पानी के बुदबुदे सरीके मेरे सिन्दूर का क्या भरोसा कब फूटकर विखर जाय? अभी बहुत समय बाकी है ‘रेहन के तमादि’ में। पांच वर्ष बहुत दिन होते हैं। इतने में बहुत कुछ हो सकता है। मैं सारा इन्तज़ाम किये देती हूँ। मेरे भैया के साथ चले जाओ । वहां ऐसी समस्या भी नहीं है बेरोजगारी की। रकम भी बेशुमार मिली है। पांच वर्षों के मामूली त्याग से सुनहरे भविष्य को संवार सकते हो। बरबाद दौलत से कहीं ज्यादा कमा सकते हो। आशा की चिंता न करो। इसे जरा भी तकलीफ न होने दूँगी’ कहती हुई नवेली माँ जरा मुस्कुराकर पास बैठी आशा के सिर पर हांथ फेरती हुई बोली थी,‘कौन कहेगा कि आशा की मैं सास हूँ,यह तो मेरी सहेली समान है। हँसते-खेलते पांच वर्ष फुऽऽरऽऽ से उड़ जायेंगे। ’ फिर थोड़ा ठहर कर बोली थी,‘बीच में आने की कोई बंदिश भी तो नहीं है। मेरे भैया तो हर होली में चले आते हैं। तुम क्या कोई बंदुआ मजदूर बनने जा रहे हो!’

अनमोल जीवन के पांच लम्बे-लम्बे वर्ष! उनका त्याग...मात्र मामूली...अनमोल समय का इतना ओछा मूल्यांकन...! नहीं...नहीं मूल्यवान समय मुझे माफ नहीं कर सकेगा कभी...बन्धुआ मजदूर......नहींकृ बन्धुआ मजबूर...। अतीत ने बन्धुआ बना लिया है वर्तमान को साथ ही भविष्य को भी। समय ने सुख के सुनहरे पंखों को काट डाला है। मजबूर जटायु पड़ा कराह रहा है। मगर राम को इस रास्ते आना नहीं है। यदि आ भी जाये तो क्या? मैं तो अपनी सीता की सुधि ले न सका...क्या वे सारे पत्र सौतेली माँ के ‘सेंसर शिप’ की कैंची से कतर कर आते रहे थे..‘मैं बड़ मजे में हूँ..आप निश्चिन्त होकर अपना काम करें दृ बिन दौलत के इनसान का कौई कदर नहीं आज की दुनिया में...मेरा तो सिर्फ शरीर ही यहां है...आत्मा आपके साथ है...दो जिस्म एक जान। ’

मगर नहीं। मेरे सोचने में भूल है। अभागे पत्रों पर सेंसर की कैंची चलाने की अवश्यकता ही नहीं पड़ी होगी,उन्हें तो जल समाधि दी गयी होगी। सचपूछें तो आशा की लिखावट को मुझे कभी देखने का मौका ही कहाँ मिला। पत्र दूरस्थ को दिया जाता है। दूरस्थ कभी हुआ कहाँ। अतः अब पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ कि ये स्नेहसिक्त पत्र किसी और के ही हुआ करते थे...किसी क्रूर षड्यन्त्रकारिणी के...विषदशना के...।

पत्र आते रहे। संवाद मिलते रहे। संतोष होता रहा। मगर एक दिन संतोष के ऊँचे ढेर को ‘ट्रंककॉल की भीषण ज्वाला ने जलाकर खाक कर दिया।

विस्तृत व्यवसाय को कच्छप-ग्रीवा सा समेट कर चल देना पड़ा स्वदेश वापस। शुभेच्छु पड़ोसी के संक्षिप्त संवाद से इतना ही स्पष्ट हुआ,‘बूढ़े वाप चल बसे, हृदयेश्वरी की स्थिति चिंताजनक है। ’

किन्तु घर आकर जो विस्तृत संवाद हासिल हुआ वह अकल्पनीय ही नहीं,अकथनीय भी रहा। मातृत्व का तगमा तोड़ एक हमउम्र से नाता जोड़ विमाता जी जा चुकीं थीं। साथ ही लेती गयी थी, अवशिष्ट सम्पदा और अशिष्ट वृद्ध के क्षुद्र प्राण। हाँ अशिष्ट वृद्ध के ही, जिसने ढलती वय में चढ़ती वय से नाता जोड़ने की अशिष्टता की थी। आशा उनकी पूरी योजना में बाधक बनती,अतः उसे वक्शा क्यों जाता? ‘मालाथियान’ की शेष आधी शीशी अबला आशा के हिस्से आयी। और तब प्रियतम से मिलने की प्रतीÕा भी अधूरी रह गई। क्रूर काल ने यहाँ भी धोखा दिया। संासों की दुर्बल डोर को तोड़ भव-बंधन से मुक्त हो आशा चली गई बेचारी,बिलकुल निराश होकर,किसी शान्त लोक में...सत्यलोक में...सुन्दर लोक में...आनन्दमय लोक में... जहाँ प्रपंच न हो...ईर्ष्या न हो...अमर्ष न हो...लूट खसोट न हो...फुफकारती नागिन न हो...वासना की भूख न हो...दौलत की प्यास न हो...।

वह चली गई। मगर मैं कहाँ जाऊँ...नश्वर शरीर का कठोर बंधन अनश्वर आत्मा तोड़े तो कैसे...? नश्वर शरीर! विधाता की तथाकथित श्रेष्टतम संरचना। सुन्दरतम संरचना। मानव शरीर ही जब नश्वर है,फिर ये समस्त जागतिक जंजाल - धन-सम्पदा...नाते-रिश्ते...कुल-कलत्र...मैं-मेरा...क्यों किसलिए..किसके लिए...किसने पाया किसने भोगा किसने सहेजा इन्हें...किसका हुआ यह संसार...?अदृश्य ही अनश्वर...दृश्य ही नश्वर...अजीब है...ब्रह्म सत्य...जगत मिथ्या...कौन समझाये इसका रहस्य? किसे समझाये?समझना ही कहाँ चाहा है किसी ने? चलते-चलते,जाते-जाते,आते-आते, रास्ते घिस गये हैं। आवागमन का अबाध चक्र निरन्तर चल रहा है। जाना है,आना है। आना है फिर चले जाना है। बन्द मुट्ठी आकर खुले मुट्ठी चले जाना है। तब,कुछ ले कैसे जायेंगे?कफ़न भी तो यही छूट जायेगा...। तब...? रोना है,बिलखना है,तड़पना है,छटपटाना है; और इन सबके बावजूद शाश्वत कालचक्र के अजस्र स्वर को सुनना है,सुनते रहना है।

काल एक ही तो है। विभाजित कहाँ है? विभाजन का भ्रम भर है। जो बीत गया सो अतीत बन गया,जो दिख रहा है वह वर्तमान बनने को बेताब है,और जो आयेगा आगे वह भविष्य कहलाने को सिर उठाये है। सब सामने है,

फिर तलाश किसकी है? किस टुकड़े की ...या समग्र की? समष्टि का कौन सा हिस्सा कब सामने से खिसक जायेगा कहा नहीं जा सकता। कौन किसके हाथ लग जायगा,यह भी पता नहीं। फिर ढूढ़ें किसे...कहाँ...कैसे...क्यों?

मेरा तो तीनों ही खोया है---भविष्य भी,वर्तमान भी, और अतीत का

वह छोटा सा टुकड़ा भी...!