अतीत / देवी नांगरानी

Gadya Kosh से
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शैली आप हैरान सी, ठगी हुई खड़ी थी सन्नाटे की उस शिला पर, जहाँ से वह सिर्फ़ शून्य को देख सकती थी.

यह वही जगह थी जहाँ उसने भूतकाल की ज़मीन पर भविष्य के बीज बोए थे. वही भविष्य उसका "आज" बन कर खड़ा है और वह खुद सोच की गहराइयों में गुम सुम, अपने अतीत की परछाइयौं से आती उन सिसकती आवाज़ों को सुन रही थी.

'बहू आओ यहाँ आकर मेरे पास बैठो." दशहरे के अवसर पर पंडाल की उस भीड़ में अपने पास कुछ जगह बनाते हुए रमा ने आवाज़ दी अपनी बहू शैली को.

"मम्मी मैं पीछे खड़ी हूँ, ये भी मेरे साथ है" कहकर शैली आगे बढ़ गयी और तन्हाइयों के साये में घिरी रमा बहू को जाते हुए देखती रही. .उसे जाने क्यू आभास होने लगा की वह जब भी अपनी बहू को पास लाने की कोशिश करती है या अपनापन जताकर उसे अपनाइत के दायरे में लाने की कोशिश करती है, तो उतने ही वेग से शैली रमा से दूर चली जाती. यादों की उन खाइयों से आती हुई बस कुछ परछाइया साथ रह जाती जिनकी गलियों से गुज़रते हुए जो एकाकीपन का अहसास रमा को कचोलता तो वह उस चुभन को कम करने के लिए कुछ अनदेखे आँसू बहा लेती थी. यह दर्द बी अजीब है, अपने इज़हार के ज़रिये ढूँढ ही लेता है, वर्ना उसके घने कोहरे की घुटन जीना मुहाल कर देती.

"माँ हम "माल' जा रहे है आप भी चलिए हमारे साथ" सुनते ही रामा की दिल की दहलीज पर आशा के दिए झिलमिलने लगे. अपने पास लाने का बहू का यह प्रयास उसे भला लगा. हर्षो उल्लास की भावनाएँ मन ही मन मे लिए वह बहू बेटे के साथ माल पहुंची, पर वहाँ पहूंचकर शैली एक ट्रॉल्ली लेकर न जाने किस भूल भुलैया में खोती चली गयी और साथ देने के लिये बेटा भी हो लिया और बस वह अकेली रह गई उस शोर और भीढ़ का एक हिसा बनकर. रमा इस बार बार के छलावे से उचाट सी होकर एक बेंच पर बैठ गयी, उनके आने के इंतज़ार में. जब घर लौटी तो तन के साथ मन भी बीमार लगा और शून्यता का घेरव उसे अपने इर्द-गिर्द महसूस हुआ.

मन कब खाली बैठता है, सोचों के खज़ाने लुटा देता है साथ देने के लिये. रमा को भी बार बार की इस चोट से घर की तनहाईयों में रहना गवारा लगा. इस सोच को लेकर वह लेट गयी और उसे पता ही नहीं पड़ा की वह कब सोचों को सीने से लगाकर सो गई. उसके बाद जब भी बेटा आकर कहता शाथ चलने के लिये तो वह कोई बहाना न जाने के लिये बताकर घर में पड़ी रहती. कम के कम चोट के आघात से तो बची रहती, "माँ कभी बाहर तो हमारे साथ भी बाहर चला करों, हमेशा घर में रहती हो " एक दिन बेटे ने आकर कहा शायद बहू को एहसास हुआ जा रहा था कि उसके पति की माँ ,जो हमेशा आतुर रहती थी उसकी हाँ में हाँ मिलाने के लिए, जाने किस कारण अब उसके कहने पर भी उनके साथ कहीं जाने में आना कानी करती रही. "नहीं बेटा तुम और बहू हो आओ, मैं तुम दोनो के पीछे पीछे चलते बहुत थक जाती हूँ" सूनी आँखो से अपने बेटे की ओर निहारते हुए रमा ने कहा. जैसे वह अपने आप से बात करती रही, खुद कहती रही, खुद सुनती रही.

"बहू जाने क्यूँ इस चार दीवारी में सुकून सा मिलता है" और अपनी सोच की भीड़ मे गुम सुम रमा अपने आप से, घर से, कटती चली गई. शायद वह जान गई थी कि उसकी खामोशी उसपर चोट नहीं करती. बाहर की भीड़ मे अकेली पड़ जाती जाने से तो घर में तन्हा रहना बेहतर समझा.

अनकहे शब्दों की गूँज शैली के दिल के दरवाजे पर दस्तक देती रही. वह इतनी भी नासमझ नहीं थी, जो बात की गहराई में लिपटे नंगे सच को जान न पाती. अपने नादान रवैये को महसूस कर रही थी, अपने आचरण की उपज के बोए हुए बीज को, जिसकी फसल उसके सामने लहलहाने की बजाइ , सूखी सी, मुरझाई सी कुम्हला रही रही थी. अब वह जब भी अपने नन्हे बचे के साथ शॉपिंग माल में जाती, तो उसका मन उसे इस कदर कचोटता कि वह उनके डंक से खुद को बचा नहीं पाती थी. अपने-पराए जो जाल उसने बुना था, अब वही जाल तोड़ना उसके लिये मुशकिल हुई जा रहा था. उसे लगा जैसे उसकी सास रमा अब उसकी आवाज़ सुनती ही नहीं या सुनना नहीं चाहती.

"बहू आज मैं अपनी सहेली कांता के घर कीर्तन के लिए जा रही हूँ और दो दिन उसके पास रहकर लौटूँगी." ऐसा कहकर रमा ने अपने कपड़ों का थैला उठाया और थके कदमो से घर के बाहर जाती रही और शैली को लगा की वह अपना भविष्य दरवाजे़ से जाता हुआ देख रही हो.

"माँ रुको में आपको कार में छोड़कर आती हूँ". अध खुले अधर से वह बड़बड़ाई, पर उस एकाकी दुख ने उसके कलेजे में घुटन भर दी जिसका धुआँ उसको कोहरे की तरह घेर रहा था. धुंध के इस चक्रव्यूह को वह तोड़ना चाहती थी पर रीमा ने अपने आपको इस कदर शांत और तन्हा महोल मे ढाल लिया था कि उसे परिवार की हूलचल में भी मन को भाने वाली उस तन्हाई से लगाव हो गया था और वह मौका पाने की कोशिश में रहती थी कि वह अकेली रहे, बहू से दूर, जहाँ उसकी आँखे कभी उसमें अपनेपन की आस न ढूंदे जो उसे कहीं भी, किसी भी जगहा अकेला छोड़के चल पड़ती है.

यह सिलसिला कई महीने चला. आए दिन वह अकेली कभी कीर्तन में चली जाती, कभी बाहर बगीचे में अकेली घंटो जा बैठती और कुदरत की सुंदरता की अनुपम छवि के साथ गुफ्तगू करती. अब शैली को माँ का इस तरह घर में होकर भी न होना खलने लगा. उसकी गैर मौजूदगी और भीजि़यादा खलने लगी. उसे आभास हुआ की रमा को वह कभी भी अपनी माँ समझ नहीं पाई, इस सोच ने शायद दूरिया बढ़ाने में मदद की. हालांकि वह घर के काम में, रसोई में उसका भर कम करती रही. उसकी मौजूदगी में और गैर मौजूदगी में वह हमेशा खाना बनाकर रख देती थी और फिर जाने कहा अकेली ही चली जाती थी. घर मे इंसान हो और ना हो, कोई आस पास हो और न हो तो कैसा महसूस होता है, शैली को इस बात का आभास पूरी तरह से हुआ. अपने बर्ताव के नतीजे को सामने पाकर एक दिन वह अचानक अपनी सास रमा के कमरे में जाकर "माँ आज मैं भी आप के साथ कीर्तन में चलूंगी" और रीमा अचानक उसकी नम आवाज़ को सुनकर चौंकी, सर उठाकर उपर देखा, आँखो के साथ शैली का पूरा अस्तित्व भीगा भीगा सा था. वह चुनरी के कोने को लपेटते हुए जैसे जवाब की प्रतीक्षा में वही खड़ी रही.

कुछ सोचकर रमा ने कहा " बहू मुन्ने के कपड़े मुझे दे दो, मैं उसे तैयार करू और तुम जाकर तैयार हो आओ." और जब कीर्तन स्थान पर पहूँच कर रमा ने एक उचित स्थान ग्रहण किया तो बिल्कुल पास में ही शैली भी बैठ गयी, और अपने बेटे को बिठाने की कोशिश करने लगी रमा ने झट से पोते को बाहों में घेरकर अपनी गोद में बिठा दिया और एक अनकही, अनसुलझी उलझन ने जैसे एक खुशगवार समाधान पा लिया.