अथः श्री बाबू पुराण / सुभाष चन्दर
विक्रम ने जैसे ही वृक्ष से शव को उठाकर कंधे पर लादा, बैताल के मुख से कथासागर फूटने लगा।
बैताल उवाचः हे राजन! इस घोर कलिकाल में किसी कुंवारी, किंतु मुहल्ले के पुरुषों के प्रति उदार हृदय एवं शरीर धारण करने वाली कन्या का पुरुष जाति के वंध्या जीव के प्रति जैसा प्रेम भाव होता है। ऐसा ही प्रेम भाव बाबू नामक जीव और उसके कार्यालय के मध्य देखा गया है।
हे नरश्रेष्ठ! तुम मेरे वचनों को मिथ्या न समझो तो मैं तुम्हें बाबू नामक सरकारी जीव (अपवादों से क्षमा-याचना सहित) एवं उसके काम के विषय की विवेचना करता हूं, ध्यानपूर्वक सुनो।
हे राजन! कार्यालय के रदवाजे पर अपनी पद-धूलि लेकर, जो समय सीमा से केवल आधा-एक घंटे की भारतीय मानक समय (इंडियन स्टैंडर्ड टाइम) छूट लेकर उपस्थित हो, साइकिल नामक यंत्र का संचालन करने के कारण जिसकी सांसें धौंकनी का भ्रम दे रही हों। लौह श्रृंखला (चैन) चढ़ाने के कारणक जिसके हाथों में आबनूस के फूल उगे हों। या बस में चढ़ने में की गयी कसरत और स्पर्श सुख के लक्षण जिसके शरीर एवं कपड़ों पर विद्यमान हों, वह शख्स प्राथमिक स्तर पर सरकारी बाबू कहलाने की योग्यता रखता है।
हे नृपवर! वह चश्माधारी जीव कार्यालय में घुसते ही सर्वप्रथम मौसम पर अपनी विशेषज्ञ टिप्पणी देता है। उसके बाद, हाजिरी रजिस्टर के जंगल में एक चिड़िया की बढ़ोतरी करके कार्य का श्रीगणेश करता है। इसी बीच भावी कार्य के तनाव का, चेहरे से मिलान करने के लिए वह महामानस, अपने अमूल्य पंद्रह मिनटों का दान शौचालय के दर्पण नामक अकिंचन पदार्थ को करता है। कंघी नामक यंत्र की सहायता से बालों के साथ छेड़छाड़ के अनुपात में मुखमुद्रा परिवर्तन का एकांकीक वह तब तक खेलता है, जब तक कार्यालय के लायक बाल और चेहरा उतर नहीं आता।
हे नर पुंगव! इसके बाद कार्यालय का सबसे महत्वपूर्ण कार्य राजनीति-चर्चा प्रारंभ होता है। इस चर्चा के मध्य पान, बीड़ी, सिगरेट अथवा खैनी जैसी बुद्धि विस्तारक वस्तुओं का सेवन बहुत उत्तम माना जाता है। इस अंतराल में पान की पीकों से दीवारों पर मधुवनी चित्रकारी का सफल प्रदर्शन सफल चर्चाकार का गुण माना जाता है। चर्चा का अध्याय ‘सब साले चोर हैं’ जैसे गूढ़ वाक्य से प्रारंभ होता है और आपस में विशेष संबंध बनाने के सोपान से गुजरते हुए महंगाई भत्ते की किश्तें मिलने पर खत्म होता है।
हे कुलश्रेष्ठ! लगातार ‘काम’ के बोझ से दबा वह फाइलप्रिय मनुष्य अब अपनी कुर्सी और कमर के निचले भाग के मध्य संबंध स्थापित करता है। रोज ही एक जैसा काम करने की प्रवृत्ति उसके शरीर एवं आत्मा का मंथन करती है। तुम खुद बताओ राजन कि अब वह कहां का इंसाफ है कि वह बेचारा रोज एक ही मरगिल्ली-सी टाइपिस्ट के जिस्म की हड्डिया गिनता रहे। उस दुखी मनुश्य के कक्ष में उस अस्थि प्रदर्शिका की जगह भारत सुंदरी नहीं तो कम से कम मुहल्ला सुंदरी तो बैठाई जानी चाहिए थी। आखिर एक ही महिला के बारे में कहानियां गढ़ने की क्षमता का कार्यालयीन प्रदर्शन वह कब तक करेगा। हे राजन! इस एकरसता ने उसकी आंखों की ज्योति को इतना धुंधला कर दिया है कि वह अपनी मेज पर बने फाइलों के ताजमहल को कुतुबमीनार समझ बैठता है। कल्पना करो राजन, कि मीनारों के क्रम में रखी फइलों के मध्य वह जीव नहीं अपितु उसके झुके हुए माथे पर टंगा चश्मा ही दिखाई दे। झुका हुआ माथा ही उसकी अध्ययनशील बुद्धि का प्रमाण है। वैसे भी बिना माथा झुकाए न तो वह इस ताजमहल की आड़ में शयन क्रिया कर सकता है और न ही समाचार-पत्रों का मनन। और इन दोनों में विशेष योग्यता प्राप्त किए बिना बाबू कोई कैसे कहला सकेगा।
हे राजन! समाचार-पत्रों का अवलोचन करने वाले उस कर्मयोगी को तंद्रा केवल लंच पीरियड की घंटी ही तोड़ सकती है। एक घंटे के भोजनावकाश को तीन घंटे में बदलने वाले उस चमत्कारी प्राणी को शत्शत् प्रणाम है। इस अवधि में ताश खेलने जैसे बुंिद्धवर्धक कार्यों से लेकर नैन सुख के पान तक की क्रियाएं संपादित करते-करते वह बहुत थक जाता है। हे राजन! इस समय तक उसकी थकान उसके चश्मे और उसकी जुबान से अगर झांकती है तो इसमें काम का नही ंतो और किसका कसूर है। और फिर यहीं तक क्या, आगे भी उसको तंग करने के लिए कोई न कोई बाॅस नामक जीव सताने आ जाता है। उस भयावह मनुष्य का पहला और अंतिम वाक्य ‘अमुक फाइल कहा है’ से शुरू होकर ‘मैं तुम्हारे खिलाफ कार्रवाई करूंगा’ पर खत्म होता है। हे राजन! ‘हरि को हरि नामक की कथा’ तुम्हें अवश्य याद होगी। काम, थकान और निद्रा के अतिरेक से मारे गए बाबू महाशय अब फाइलों को ढूंढ़ने का उपक्रम करने के साथ बाॅस की पुश्तों को दुआएं देते रहते हैं। गालियां देने और खाने के क्रम की लाभकारक बात ये हैं कि इस प्रक्रिया में एक पक्ष के मुख की एवं दूसरे पक्ष के कानों की शुद्धि होती रहती है। हे राजन! बाबू सफाई पसंद नहीं करता है। तों फिर फाइल ने ही उसका क्या बिगाड़ा है। उसे पा जाए तो वह ‘दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते है कहां’ की तर्ज पर गाना हुआ बाॅस को फाइल के न मिलने की सूचना से अवगत कराता है। इस दृश्य में बाॅस के चेहरे पर ठल्लाहट के भा उसके चेहरे को मेरी (बैताल की) तरह बना देते हैं। बाॅस के जाते ही बाबू का पहला वाक्य ‘बड़ा अफसर बना फिरता है, ऐसे अफसर हमने बहुत देखे हैं’ से शुरू होता है। कदाचित् वास्को डि गामा को भी भारत की खोज करने पर इतना श्रम नहीं करना पड़ा होगा, जितना बाबू को करना पड़ता है। उसका चेहरा इस बात का गवाह है। इसके बाद बाबू महाशय टूटे हुए दिल से चपरासी से बीड़ी मांगकर पीते हैं, ताकि ‘अफसर की बाबू पर डांट’ के कारण चपरासी के कंठ से फूटी हंसी पर बे्रक लग जाए। अब आराम से बाबू साहब बीड़ी पीते-पीते शौचालय के दर्पण को कुछ मिनटों का दान करते हुए घर आने लायक चेहरा सैट कर लेेते हैं।
इसके उपरांत फिर एक बार चर्चा प्रारंभ होती है, जिसमें एक-दूसरे के घर की परिस्थितियों पर सामूहिक रूप से विचार का क्रम चलता है। इस बैठक से केवल दुखी आत्माओं को ही सदस्यता मिलती है। सुखी आत्माओं को विभिन्न प्रकार के प्रयत्नों द्वारा इस मंडली का सदस्य बनाने की चेष्टा होती है। किस्सा कोताह यह कि कोई सुखी है तो क्यों और हम दुखी हैं तो क्यों? यह वह हमारे जैसा हो जाए, नही ंतो हम ही उसके जैसे क्यों न हो जाएं। इस चर्चा का अंत ‘हमारा भाग्य ही खराब है या जमाना ही ऐसा है’ जैसे गूढ़ वाक्यों पर खत्म होता देखा गया है।
इतना कहकर बैताल ने ‘अपनी कहानी की गाड़ी में ब्रेक लगाए। फिर श्मशानघाट की राख मिश्रित हवा को नथुनों से बाहर फेंकता हुआ बोला-हे राजन! क्या तुमने इतना निरीह जीव कहीं देखा है। इस प्रश्न का उत्तर अगर जानते बूझते हुए भी तुमने नहीं दिया तो तुम्हारे स्थान पर ये मुर्दा तुम्हारी लाश को पेड़ पर लटकाने का खेल खेलेगा। विक्रमादित्य ने इतना सुनकर धीरे से शव को वृक्ष पर लटकाया और निराश भाव से श्मशान से निकल गया।