अथर्वा मैं वही वन हूँ / स्मृति शुक्ला

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प्रो. आनंद कुमार सिंह की कृति 'अथर्वा मैं वही वन हूँ' 21वीं सदी के हिन्दी साहित्य की अभूतपूर्व और अनुपमेय कृति है। दरअसल अथर्वा जैसी कृति बार-बार नहीं रची जाती है। यह आनंद सिंह की दीर्घ और एकांतिक साहित्य साधना का प्रतिफल है। दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद आनंद सिंह वर्षों आगम साहित्य के अध्ययन-मनन में लीन रहे। 1992 में उज्जैन प्रवास के दौरान साधना गम्य अनुभवों के प्रकाश में उन्हें एक नयी चेतना का साक्षात्कार हुआ और उसी चेतना के प्रकाश में 'अथर्वा' का बीज उनके सर्जक मन की उर्वर भूमि में जग गया। लगभग बीस-पच्चीस वर्षों तक की कालावधि में वे इस कृति को आकार देते रहे। उनकी इस सुदीर्घ आध्यात्मिक और काव्यात्मक साधना का प्रतिफल यह हुआ कि 'अथर्वा मैं वही वन हूँ' जैसी कृति, जिसे उन्होंने वे महाकविता कहा हैं हिन्दी साहित्य जगत् केे सामने आयी। इस कृति के पूर्व प्रकाशित उनकी 'सौन्दर्य जल में नर्मदा' भी नर्मदा के सौन्दर्य और पर्यावरणीय चेतना को केन्द्र में रखकर लिखी गयी अत्यंत सुंदर कृति है। भगवान शंकर की पुत्री नर्मदा मानो उनकी चेतना में बसी हुई है। 'गणपति आकल्ट' , " शक्ति आकल्ट 'और' शिव आकल्ट'उनकी भारतीय साधना को अभिव्यक्त करने वाली महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं। उन्होंने आचार्य शंकर की' सौन्दर्य लहरी' का हिन्दी-अंग्रेजी में काव्य अनुसृजन किया है।

आनंद सिंह की 'अथर्वा' मैं वही वन हूँ एक ऐसी काव्यकृति है जिसमें भारत की समृद्ध ज्ञान परंपरा सांस्कृतिक इतिहास और दार्शनिक तथा आध्यात्मिक चेतना की काव्यमय अभिव्यक्ति है। कवि के अनुभूत सत्य से प्रसूत 'अथर्वा मैं वही वन हूँ' को पढ़ते हुए पाठक आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया से गुजरता है। वस्तुतः अथर्वा को पढ़कर पाठक भारत की वैदिक ज्ञान पंरपरा से लेकर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान तक की सतत् प्रवाहमयी धारा में अवगाहन करता है। उपनिषदों में वर्णित अथर्वा ब्रह्मा के मानस पुत्र और प्रथमतः ब्रह्मविद्या को ग्रहण करने वाले है। आनंद कुमार सिंह ने 'अथर्वा' की भूमिका में अत्यंत विस्तार से अथर्वा से अंगिरा ऋषि तक पहुँची अथर्वांगिरस विद्या के विषय में चर्चा करते हुए कहा है कि अथर्वा ही वेदत्रयी के पहले प्रस्तोता है, कवि के द्वारा लिखा हुआ उपोद्घात 'अथर्वा' महाकाव्य की अन्तरआत्मा में प्रवेश करने का द्वार है।

दरअसल आनंद सिंह एक ऐसे साधक और अध्यावसायी कवि हैं जिन्होंने वैदिक वांग्मय से लेकर आधुनिक काल तक के संस्कृत और हिन्दी साहित्य का गहन अध्ययन किया है। एक सच्चे कवि की अनवरत् सर्जन साधना का मूर्त रूप 'अथर्वा मैं वही वन हूँ' में दृष्टिगोचर होता है। अथर्वा का पाठ करते हुए मुझे आचार्य भामह स्मृत हो आए जिन्होंने 'काव्यालंकार' में कहा है-

न स शब्दों न तद् वाच्यो न-सा विद्या न-सा कला।

जायते यन्न काव्यांग अहोभारः महान कवेः॥

महान कवि वही है जो ज्ञान और कला की सभी विद्याओं से परिचित हो। आनंद कुमार सिंह ने अपनी इस कृति में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, भारतीय दर्शन, प्राचीन ज्ञान संपदा, इतिहास-दर्शन, विज्ञान का नवीनतम ज्ञान, साहित्य कला के साथ जीवन के जटिल कार्य व्यापारों को अंकित किया है।

'अथर्वा मैं वही वन हूँ' अपने कथ्य की असाधारणता और शिल्प की अभिनवता में एक विलक्षण, अपूर्व और अनुपमेय कृति है। कवि ने अपनी अप्रतिम काव्य प्रतिभा और सर्जनात्मक कल्पना से सोलह पांडुलिपियों की परिकल्पना इस कथा-कविता में सारे ज्ञान-विज्ञान, भारतीय ज्ञान परंपरा के समृद्ध कोष के साथ ऐतिहासिक तथ्यों को निबद्ध करते हुए अपनी काव्यात्मक प्रतिभा और कल्पना से इस महाकाव्य को अत्यंत सुन्दर रूप प्रदान किया है। कवि ने 'अथर्वा मैं वही वन हूँ' के उपोद्घात के बाद 'महागल्प' के अन्तर्गत इतिहास किशोर और हिन्दी शिशु के संवादों से कथारम्भ किया है। इतिहास किशोर और कवि का प्रतिरूप हिन्दी शिशु की गद्यात्मक बातचीत से कथा प्रारंभ होती है। अतीत का वह कालखंड सामने आता है जिसमें बौद्ध धर्म का प्रसार पूर्व से पश्चिम तक चरम पर था। तब चीन के सम्राट ने एक स्वप्न देखा था कि मस्तक पर स्वर्ण किरीट धारण किए, कानों में बड़े-बड़े कुंडल पहने एक तेजोदीप्त पुरुष अपने हाथ में सोने की मंजुषा लिये राजा को अपने दाहिने हाथ की तर्जनी से संकेत करके अपनी ओर बुला रहा है। राजा ने प्रातःकाल अपने राज ज्योतिषों से स्वप्न का फल पूछा और अपने राज्य के चीनी विद्वानों को महात्मा गौतम से ज्ञान प्राप्त करने के लिये भारत भेजा। भारत से महाभिक्षुक कश्यप मातंग को लेकर चीन गये और बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया। इस तरह चीन भारत का शिष्य बना। इस घटना के चार सौ साल बाद चीन के पिंग्यांग प्रदेश का निवासी फाह्यान भी इसी तरह का स्वप्न देखकर भारत आया था, वह ज्ञान मंजुषा की खोज में तक्षशिर पहुँचा था। कवि आनंद ने अत्यंत रोचक शैली में पांडुलिपियों की कथा को प्रागैतिहासिक तथ्यों तथा कल्पना के रसायन से आकार दिया है। भारत की समस्त विद्या, समस्त ज्ञान इन पांडुलिपियों के भोजपत्रों पर अंकित हैं। इस ज्ञान की खोज में दूसरे ग्रहों के एलियन से लेकर फाह्यान, हे्नसांग, इत्सिंग, अलबरुनी, इब्नबतूता के बाद वेनिस का यात्री मार्कोपोलो रेशम मार्ग पर चल कर भारत पहुँचे थे। कोलम्बस और वास्गोडिगामा भी अनवरत् इन्हीं की खोज कर रहे थे। यह सारा विवरण हिन्दी शिशु के मुख से कवि आनंद ने ही दिया है, उन्होंने इस काव्यग्रंथ में विश्वगुरु भारत के स्वर्णिम अतीत को ही पाठक के चक्षुओं के सामने साकार किया है। यह वह समय था जब सारा विश्व ज्ञान की खोज में भारत की ओर ही टकटकी लगाकर देख रहा था।

'आनंद केवल कवि नहीं वरन एक ऋषि, कवि हंै' यह कोई अत्युक्ति नहीं हैं। 'अथर्वा मैं वही वन हूँ' को ओद्योपांत पढ़ने के बाद उनके वैदिक ज्ञान, शास्त्र, धर्म दर्शन, इतिहास, पुराण और साहित्य के विषद अध्ययन और उनकी अन्तश्चेतना का काव्यात्मक और कथात्मक प्रतिफलन इस कृति में देखकर उन्हें आधुनिक युग के ऋषि की संज्ञा से अभिहित किया गया है।

इतिहास से भी बहुत पहले के इतिहास को कवि ने इस महान कविता में स्थान दिया है। कवि ने वेद की तीन अलौकिक भूमियों के बाद कविता को चौथी भूमि माना है, जो लौकिक होने के साथ ही अथर्वा को तीनों कालों की अवधि में नैरंतर्य प्रदान करने के साथ संभव बनाती है।

'अथर्वा मैं वही वन हूँ' को इसके उदात्त कथानक, मानवतावादी दृष्टिकोण, अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष अर्थात चतुष्ट्य की प्राप्ति, अध्यात्म एवं विज्ञान, परा एवं अपरा शक्तियों का समन्वय, भारतीय और पाश्चात्य दर्शन का दिग्दर्शन, आधुनिक मानव की विकास यात्रा के साथ, मानवीय और जीवन मूल्यों की गहन संगति, पर्यावरण बोध, पश्चिम के असंतुलित भौतिकवाद का दिग्दर्शन तथा तत्सम शब्दावली से युक्त समर्थ भाषा और सौन्दर्यजनक उपकरणों से सहज ही सजी कवि की अभिव्यक्ति के कारण हिन्दी का श्रेष्ठ उपन्यासात्मक महाकाव्य कह सकते हैं। हिरण्यगर्भ वातायन, कुंडलवन, ब्रह्मावर्त, स्त्रीसूक्त तंत्रालोक, महाश्मशान प्रतिनारायण, लोपामुद्रा, मायादर्श, समुद्रकल्प, पृथ्वीसूक्त अतिमानस, जम्बूदीप, आनंद बल्ली और षोषडी जैसे सोलह सर्गों और सतासी उपखंडों में यह महाकाव्य विभक्त है। काव्य के साथ सोलह गद्यात्मक कथाओं में विनयस्त और आपस में सम्बद्ध रोचक तथा इतिहास, पुराण, ज्ञान विज्ञान से संपृक्त कथानक में मानव जीवन को प्रतिबिंबित करने वाले औपन्यासिक फलक को समेटने वाला यह ग्रंथ एक साथ उपन्यास और महाकाव्य दोनों का संश्लेष करने वाली एक नवीन विधा का श्रीगणेश करता है।

कवि आनंद ने एक बार बातचीत के दौरान मुझे बताया था कि उन्होंने ज्ञान की खोज और पढ़ने की अदम्य लालसा के कारण बार-बार शहर बदले हैं और उन शहरों के पुस्तकालयों में उपलब्ध तमाम प्राचीन और नवीन पुस्तकों का अध्ययन किया है। सागापाली, पटना, सुसनेर, उज्जैन, होशंगाबाद की अनेक बार यात्राएँ की है। प्रकृति के सूक्ष्म पर्येवेक्षण कर्ता कवि आनंद एक साधक हैं जिन्होंने अथर्वा और दीर्घतमा के वैचारिक चिंतन के माध्यम से क्रमशः सर्वात्मा जीवन-चेतना और पदार्थरूढ़ जीवन चेतना के प्रतिनिधि चरित्रों को काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। 'अथर्वा' की प्रारंभिक पंक्तियाँ इसके विराट दार्शनिक कलेवर को प्रकट करती हैं-

अनंत अंधकार के काले बुदबुद अंधेरे में

सोया है शांत एक शवाकार,

वायवी संरचना में जिसकी सुप्त तरंगों का

रह-रह उठता है झीना प्रकाश ज्वार

आवरण नहीं है वियन्मंडल में, कहीं नहीं आलोड़न

इसके पश्चात महाप्रकृति के प्रदीप्त अन्धगर्भ में सूनी तरंगों का वर्षण और शून्य के चिद्गुणों से संघर्षण, हरी वनस्पतियों से घिरी स्तूपाकार चैतन्य पहाड़ी के तमस में ज्ञानाग्नि का प्रज्वलन होना नीले लपटों वाली ज्वालमाल पार्वती का शून्य गोलक में बिम्ब बन कर आभासित होना, धू-धू करती पारदर्शी निर्विकल्प चेतना का वायवी सत्व के बीज बन कर छा जाने और प्रकृति के गर्भाधान करने, महाचिति के परम उद्भव को संभव करने बिन्दु और कलल के विचित्र समुदय में, अज्ञान और उसकी बहिन तमिस्रा के अचानक आँखे मलने से हिरण्यमय महाविस्फोट की तरंगे मचलने लगती हैं-

कसमसाती नीरंग ज्वालाएँ

आत्ममुखी शून्य महाकाश में भरती हैं प्राण-स्फुलिंग अव्यक्त

जो आगे चलकर ब्रह्मांडों के निर्माण में

पृथ्वी पर जीवन रचेंगे,

धूसर आभा वाली जड़ता जीवन को प्रकट करेगी-

मौन सोयी इन ज्वालाओं के सपने

बिखरती मनुष्यता के स्वप्न बनेंगे

और रंग-बिरंगी सुषमाओं का इन्द्रजाल

यहीं पर खोजेगा अपने पितर।

यहाँ कवि आनंद ने एक ओर विज्ञान के महाविस्फोट के सिद्धांत और भारतीय दर्शन से कविता का प्रारंभ किया है। हमारे भारतीय पुराणों में वर्णित मत्स्य पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना एक सुनहरे गर्भ मंे ब्रह्मा के प्रवेश कर जाने से हुई है। इसीलिए इसे हिरण्यगर्भा कहा गया। जबकि सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरूष के मिलन से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है। इस दर्शन के अनुसार पुरुष शुद्ध चेतन स्वरूप है तथा प्रकृति तमस, रजस तथा सत्य नामक त्रिगुणों से युक्त एक अचेतन तत्व है। सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व प्रकृति के तीनों गुण साम्य अवस्था में होते हैं किन्तु अनादिकाल में पुरुष की निकटता से प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न होता है और तीनों तत्व कंपायमान अवस्था में आकर सृष्टि का निर्माण करने लगते हैं।

इसी दर्शन की सुन्दर काव्यात्मक अभिव्यक्ति में कवि ने ब्रह्मंड की उत्पत्ति और भविष्य में पृथ्वी और उस पर जीवन उद्भव की क्रमिक यात्रा को चित्रित किया है। कवि ने सुंदर काव्यात्मक उक्तियों, उपमानों बिम्बों और प्रतीकों से युक्त अपनी काव्यभाषा स्वयं निर्मित की है जिसमें वे ब्रह्मांड शिशु को अक्षर सीखते हुए चित्रित करते हैं-

इसी आकाश गंगा की कुर्सी पर धूप सेंकने वाली

काल-रसवर्षिणी

महासरस्वती का छंदमय आलोक पढ़कर

यह ब्रह्मांड शिशु अक्षर सीखता—सा लगता है,

यह उसका भाषा ज्ञान है जिसके सहारे वह

अनन्तर कर सकेगा दूसरे ब्रह्मांडों से संवाद।

समान्तर सोच वाली ये आकाशी शक्तियाँ

लगता है लचर हो गई है-

और पृथ्वी की माया इनसे ढोयी नहीं जाती,

नहीं तो पृथ्वी का वर्तमान संघर्ष महाद्वीपों पर बिखर कर हत ज्ञान

केवल युद्धोन्मादों की भूमिका रचता है।

इसके पश्चात आत्माहुति, स्वस्ति आवाहन, आद्या, शब्दगायत्री वन वृन्द, तातनियम पर प्रलय, चिरन्तन पृच्छा, महाविस्फोट और नासदीय के साथ 'हिरण्यगर्भ' पांडुलिपि का समापन होता है।

शब्द और निःशब्द के क्षितिज पर उद्भासित प्रणव साँसों की डोरियों के सहारे हिरण्यगर्भ इतनी ऊँचाई पर आ जाता है जहाँ समय विलीन हो जाता है। कवि ने अथर्वा को सृष्टि की सर्जन प्रक्रिया को जानने वाले दूसरा प्रजापति निरूपित किया है। कवि आनंद ने अथर्वा वृद्धश्रवा, श्वेतकेतु, सनत्कुमार, अब्राहम अलमुस्तफा, अगस्त्य, मार्कण्डेय, अपाला, दीर्घतमा और एक भारतीय आत्मा जैसे पात्रों को मूर्त किया है जिन्होंने उपेक्षित रह गये कविता के देश को पुनः बसाया। सुमेरू पर्वत पर एक उपत्यका में हवन कुंड के चारो ओर वे कवि बैठे हैं जो अलग-अलग मत-मतांतरों से सम्बंध रखते हैं और उन मतों की मीमांसा करते रहते हैं। इनमें दीर्घतमा जैसे कवि हैं जो उत्तर आधुनिकता वादी कवियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये संदेहवादी हैं और प्रत्येक को संदेह की दृष्टि से देखते हैं यही संदेह उन्हें शब्दों में ही भटकाता रहता है वे अर्थ तक नहीं पहुँच पाते। यहाँ तक कि स्वयं को भी नहीं खोज पाते।

शब्द गायत्री भाषिक स्फोट का वर्णन है। कवि आनंद स्वयं भाषा शास्त्री हैं इसलिये वे पाणिनि और भर्तुहरि की भाँति स्फोटात्मक निरवय नित्य शब्द को ही सच्चिदानंद ब्रह्म मानते हैं। इसे ही जगत का कारण मानते हैं और पश्यन्ति वाक् को ही परब्रह्म मानते हैं-

भाषिक सर्जन यह जगत का शब्द स्फोटमय

पंचभूतात्मक ध्वनियों के बल से रहस्यमय

सिरजता है परमाणुओं के विक्षुब्ध कंपन

तन्मात्राओं के अनुनाद और प्रकाशों का जीवन

वनवृन्द में कवि ने पृथ्वी के सारे वृक्षों के मिलकर एक हो जाने और अक्षयवट में परावर्तित हो जाने की सुन्दर परिकल्पना की है। इस कल्पना के उदय के मूल में हमारी श्रुतियाँ, स्मृतियाँ और पौराणिक ग्रंथ ही हैं। प्रकृति के विक्षुब्ध आलोड़न ने कैसे वृक्षों को नष्ट कर दिया कैसे विशाल डायनासोर नष्ट हो गये यह अत्यंत चित्रात्मक भाषा में कवि ने वर्णित किया है।

'वातायन' शीर्षक से पांडुलिपि दो की कथा वर्णित है। जिसमें इतिहास जन, महाकाश, हिरण्या, तद्वन संगीत, शीर्षक की कविताएँ इतिहास के वातायन से व्यक्ति समाज और सत्ता के अन्तःसम्बंधों की खोज करती हैं। साथ-साथ अथर्वा द्वारा दीर्घतमा की इतिहास सम्बंधी जिज्ञासाओं का समाधान भी किया जाता है। दीर्घतमा इतिहास की जटिलताओं से भयभीत और संस्कृतियों की चीख से व्यथित है। वह मानता है कि इतिहास व्यक्तिगत मसला बन चुका है-

सुना नहीं तुमने? यह व्यक्तिगत मामला बन चुका

सिर्फ परकोटों और धान्यगारों को भरने के लिये ही उपयोगी हैं इतिहासजन

शरण्य हैं कलाविद् मात्र ताँबे की कुल्हाड़ियाँ बनाने को।

तब अथर्वा के मुख से कवि आनंद ने कहा है कि-"इतिहास स्वयं कर्ता नहीं है उसकी प्रतिष्ठा का आयोजन स्वयं यह महाप्रकृति ही रचती है। जनमानस की परिवर्तित धारा अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप रूपक रचते रहते हैं। कवि इतिहास के तमस से बाहर आकर संवेदना की बात करते हैं।" यहाँ कवि आनंद ने फूकोयामा के उन विचारों का तार्किक रूप से खंडन किया है जो उन्होंने 'द एंड ऑफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन' में अभिव्यक्त किये थे। कवि आनंद ने कविता में इतिहास की जो व्याख्या की है, जिस तरह उसका स्वरूप निर्धारित किया है वह इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिये विश्व के बुद्धिजीवियों को एक नयी दृष्टि प्रदान करता है।

पांडुलिपि: तीन का शीर्षक कुंडल वन है। इस पांडुलिपि का नामकरण कुंडलवन (कश्मीर) करके कवि आनंद ने उस ऐतिहासिक स्थान कुंडलवन का स्मरण करा दिया जहाँ सम्राट कनिष्क के समय में (लगभग 120 ई.) में चौथी बौद्ध संगीति का आयोजन वसुमित्र की अध्यक्षता में हुआ था इसके उपाध्यक्ष प्रख्यात लेखक अश्वघोष थे, जिन्होंने बुद्ध चरित्र लिखा था। विभाषा शास्त्र नामक ग्रंथ का संकलन भी कुंडलवन में ही किया गया था। इसी चैथी संगीति के बाद बौद्ध धर्म हीनयान और महायान दो सम्प्रदाओं में विभाजित हो गया था। इतिहास से इस नाम को ग्रहण कर कवि आनंद ने इसे अपनी कल्पना वैचारिकता और सृजनशीलता से इस पांडुलिपि की कथा और कविता को रचा है। इस पांडुलिपि को तरंग पत्रों से पालि भाषा में रूपांतरित किया गया था और ह्वेनसांग ने विहार के एक कोने की निर्जन नीरवशांति और तैलद्वीप के मद्धिम प्रकाश में इसे ग्रहण किया था।

आचार्य शीलभद्र महायान परंपरा की ज्ञानज्योति की उस परंपरा के पूंजीभूत रूप थे जो असंग, वसुबन्ध और धर्मपाल में अपने शिखर पर ज्योतित हुई थी। शीलभद्र ने यह संकेत दिया था कि तथागत को अश्वत्थ वृक्ष के नीचे इसी कुंडलवन ने बुलाया था क्योंकि षोडसी विद्या इसी पांडुलिपि में बंद है। यहाँ कवि आनंद ने उपनिषदों में वर्णित उस सनातन कथा का उल्लेख किया है जिसे भारत वर्ष में पुनः संभव करने के लिये भगवान बुद्ध अवतरित हुए थे। हम मान सकते हैं कि गौतम बुद्ध ही अतिमानसिक चेतना के प्रतीक थे। कुंडलवन में ही दीर्घतमा की कुंडलिनी शक्ति का स्फुरण हुआ था यहीं दीर्घतमा का आध्यात्मिक उन्नयन हुआ था। कुंडलवन के वर्णन में कवि ने वनों के प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ हमारे पुराणों में वर्णित उन प्रसंगों को उठाया है जिनकी कथाओं ने हमें चेताया है-

जहाँ जिस वन के अच्छोद में कादम्बरी स्नान करती है

जहाँ एक ही साथ यौवन और जरा के बहुकालिक ययाति

सतृष्ण कामनाओं के यजन करते जल जाते है।

जिस गहन वन में नचिकता अनशन पर बैठ जाता है।

जिन शिवालिकों के कुंडल से फेनोच्छव सित जल

ब्रह्मा के कमंडल में भर जाता है

जहाँ नींद के माया जंगल में

नल दमयन्ती को छोड़ पछताता निकल जाता है।

विज्ञानवन, अर्धनारीश्वर, एकानंशा, सच्चिदानंद और केवल मैं जैसे उपशीर्षकों में विभाजित कुंडलवन दीर्घतमा की साधना और क्रमशः चेतना के उत्कर्ष का आख्यान है। स्व की खोज और आत्मसाक्षात्कार की राह पर चलकर आध्यात्मिक उन्नयन तक पहुँचकर दीर्घतमा शांति की अनुभूति करता है। वनों को सच्चिदानंद का ही एक रूप मान गया है। हिन्दी साहित्य में वनों को जिस व्यापकता और गरिमा के साथ कवि आनंद ने प्रस्तुत किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

ब्रह्मावर्त प्रागैतिहासिक भारत के निर्माण की कथा बताने वाली पांडुलिपि है। यह प्राचीन उद्गीथों के द्वारा भारत के जागरण की कविता है। ' वेत केतु कविता और इतिहास का समवाय घटित करना चाहते हैं। उन्होंने अपनी साधना के प्रकाश में अनार्य इतिहास का संग्रथन किया है। मातृसत्ताओं के आशीर्वचन में दूर्वा विनयावत होकर झुक जाती है। कृष्ण द्वैपायन और महाभारत, नृसिंह हिरण्य कशिपु के उपद्रव के बाद विभिन्न कबीलों के रक्तपात का वर्णन भी इस पांडुलिपि में है। सप्तचक्रों के उष्णीय कमल में कन्याकुमारी के जागने की बड़ी सुन्दर निदर्शना कवि ने की है।

'स्त्रीसूक्त' अथर्वा का एक महत्त्वपूर्ण खंड है जो स्त्री सौन्दर्य को प्रकट करने के साथ स्त्री के मनोभावों का भी सूक्ष्म चित्रण करता है। उन्होंने भारत की ऋषिकाओं की प्रतिनिधि के रूप में वैदिक ऋषिका अपाला को बड़े मन से गढ़ा है। 'स्त्री सूक्त' में कवि आनंद ने चित्रित किया है कि बुद्ध के समय भारत और चीन में स्त्रियों की स्थिति लगभग एक-सी थी। ह्वेनसांग ने भारत के पुरुषपुर में पहले पहल बौद्ध मठ देखे थे जो विद्या और साधना की दृष्टि से अच्छी दशा में थे लेकिन बुद्ध के निर्वाण पथ पर चलने के बाद भी स्त्रियों को दोयम दर्जे का स्थान प्राप्त था। उन्हें अठ्ठगरूधम्य का पालन करना पड़ता था। कवि आनंद ने दीर्घतमा की अपाला से प्रेम अनुरक्ति का बहुत सुंदर चित्रण किया है। कामायनी में प्रसाद ने जिस तरह श्रद्धा के रूप सौन्दर्य का चित्रण करते हुए अनेक मौलिक और नवीन उपमान चुने हैं, उसी तरह आनंद ने भी अनेक मौलिक और नए उपमान प्रयुक्त किये हैं-

ओ मेरी आत्मा, हृदय की कोमल आँखों से देखा है तुमने,

ओ नन्ही रोशनी,

छिपी थी कहाँ तुम मेरे भविष्य के अनागत भविष्य में?

चन्द्रमा की कला षोडशी, ओ विश्वविजयिनी सुनयना!

चुरा ली है तुमने सूरज की उगती आशा अनंत से,

कवि आनंद ने प्रेम के वास्तविक स्वरूप को, प्रेम के देह और देहेतर प्रेम को, स्त्री-पुरुष के मनोभावों को अत्यंत कलात्मकता के साथ कविता में पिरोया है। प्रेम अपनी इयत्ता का नकार और सबकी अस्मिता का सहज स्वीकार है, प्रेम-परिष्कार है। कवि ने पृथ्वी सूक्त में दीर्घतमा और अपाला के बहाने से वर्तमान संदर्भों में स्त्री-पुरुष सम्बंध, लिव इन रिलेशन आदि समस्याओं पर गहरायी से विचार किया है। प्रेम देह से ऊपर उठकर आध्यात्मिक उन्नयन की भूमि तक पहुँचाने में सहायक हो सकता है। छठी पांडुलिपि 'तंत्रालोक' में कवि ने सभी धर्मों के निचोड़ को प्रस्तुत कर दिया है। 'महाश्मशान' में कवि आनंद ने अत्यंत विवेक सम्मत ढंग से भारत विभाजन और भारतीय इतिहास के उन मुद्दों को उठाया है जिन्हें आज सही परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। महात्मा गाँधी की हत्या, सुभाषचंद्र बोस के योगदान का समुचित मूल्यांकन करते हुए भारतीय आत्मा को खोजने का उपक्रम इस पांडुलिपि में है।

प्रतिनारायण नारायण के स्वरूप को उद्भासित करने के लिए आवश्यक है। कवि आनंद ने लिखा है-

मैं अनंतकाल से अज्ञान का अँगरखा पहने

विधाता के राजभवन में विदूषक-सा विचरता

जटिल हँसी बिखेरता प्रतिनारायण मैं नारायण का ढोग करता हूँ।

नर से प्रतिज्ञान होता कहाँ है, मेरी मनोभूमि तो बेहद गंभीर है।

मै कुटिल युग में अन्तःसम्बंधों को अंदर से तोड़ता

द्रव्यों का विकल सिलसिला उभारता हुआ

प्रतिनारायण वह है जिसने वैज्ञानिकों को विखंडित बुद्धि से भर दिया है। यह अपसर्जनाएँ करता है, पूँजी की ताकत से सम्पन्न है, अपनी आसुरी शक्तियों और विस्फोटक रसायनों के प्रतिसंहारक विषैले धुएँ से इस ग्रह से नष्ट करने पर आमादा है। कवि ने हमें प्रतिनारायण की पहचान करायी है तथा उससे सचेत रहने की सीख दी है।

'लोपामुद्रा' नौवी पांडुलिपि है। आनंद ने इसे इतिहास को संचालित करने वाली सूक्ष्म चेतना माना है। इसकी खोज आवश्यक है। गौतम बुद्ध ने दुख को आर्य सत्य माना है इस दुख से डरने की नहीं अपितु, इससे ऊपर उठने की आवश्यकता है। यद्यपि कवि ने लिखा है-

दुख ही छंद है सर्जन का

गति है मानस के ऊर्ध्व चरण की

कवि ने सच्चिद्वेदना को व्याख्यित करते हुए दुख को मानव चेतना का द्वारपालक माना है। महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती तीनों शक्तियों का एकीकृत रूप ईश्वर है।

मायादर्श पांडुलिपि जिसे आनंद ने फैंटेसी का मायावी शीशा कहा है। यह शीशा जो उत्तल, अवतल और समतल भी है वस्तुतः तीन प्रकार की इतिहास दृष्टियों का प्रतीक है। उत्तल दर्पण में आइंसटीन एक ऋषि है जो कक्षा में सबसे पीछे बैठकर काल सापेक्षता के स्फुलिंग लिखा रहा है। अर्बिन श्रडिंगर नकल करके ब्रह्मसूत्र की टीका लिख रहा है। सिग्मंड फ्रायड, जैक़ लकाँ जैसे पश्चिमी विचारक भाग रहे हैं। वस्तुतः आनंद यह बताना चाहते है कि सारे ज्ञान-विज्ञान की जनक तो यह भारत भूमि ही है। पूरे विश्व ने ज्ञान यहीं से प्राप्त किया है। मायादर्श में आनंद के गहन अध्येता होने का प्रमाण अंकित है। श्री अरविंद, दयानंद सरस्वती, रमण, गुरजियेफ, स्वामी विवेकानंद, मैथिलीशरण गुप्त, अंबेडकर, गाँधी, महादेवी, आण्डाल, इलियट, अज्ञेय, मुक्तिबोध और दिनकर, नेहरू की डिस्कवरी आॅफ इंडिया, फणीश्वरनाथ, रेणु, अश़फाक उल्ला खाँ, वीर सारकर, लोहिया, जयप्रकाश नारायण सभी एक फैन्टेसी की रूप में उपस्थित है। अवतल और समतल में भी मोहम्मद बिन कासिम अलाउद्दीन, महमूद गजनवी, नौरंग जेब (औरंगजेब) वाजिद अली शाह सभी उपस्थित है।

'समुद्रकल्प' पूर्ण परिवर्तन का दिग्दर्शन कराने वाली पांडुलिपि है। इस पांडुलिपि में समुद्र की तरह विराट, एक नयी धर्म ज्योति का वर्णन है, जिसका शिखर बौद्ध चेतना में है। 'पृथ्वी सूक्त' में पृथ्वी केन्द्र में है। पृथ्वी पर वर्तमान समय में पूँजीवादी ताकतें सक्रिय हैं। शोषण और दमनकारी शक्तियाँ किस तरह से अत्याचार कर रही हैं और अपने स्वार्थ के लिए पर्यावरण का विनाश कर रही हैं। इस अतिरेक को समाप्त करने के लिए महाक्रांति की आवश्यता है।
'अतिमानस' पांडुलिपि की कविता तमाम मतवादों से ऊपर उठकर मानवता को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है।

जम्बूदीप में भारत के सांस्कृतिक इतिहास का प्रकटीकरण है। ब्राह्मणवाद और श्रमणवाद की शक्तियों के साथ उनकी कमजोरियाँ, सभी मतवादों में सामंजस्य की आवश्यकता पर बल दिया गया है। धर्म, सम्प्रदाय और मजहब की संकीर्ण दीवारों को तोड़कर मानवता की नींव रखने वाला दीर्घतमा का पुत्र चाक्षुष है जिसके पास चैतन्य दृष्टि है। यही चाक्षुष मन्वतरण का आरंभ करता है।

आनंदवल्ली पांडुलिपि इस महाकाव्य के अंतिम लक्ष्य को प्रतिपादित करती है। जहाँ स्वयं कवि आनंद की जीवंत उपस्थिति है। कवि कविता को विचार नहीं मानता बल्कि संपूर्ण जगत की आत्मज्योति संपन्न दृष्टि है। यहाँ कवि ने अपनी रचना प्रक्रिया और सर्जन साधना के मूल रहस्य को भी उद्घाटित किया है-

कितनी बार, यूँ ही कितनी बार

ऐ आनंद, तुम्हें अँधियाले स्वप्नों को छोड़कर

बनैले एकांत में जाना पड़ा, बेबस लाने

उर्जा कलशों में शब्दों की काँवर पर ढोकर

जबकि वे नहीं थे तैयार खोलने को अपनी बेहद मुँदी पलकें

तब, जगाना पड़ा था तुमको आदि कवियों की

देशनाओं के चपल छींटे मारकर

और चलना पड़ा था लाँघते हुए इतिहास के कालान्त सीवान,

और चेतना के द्वारहीन दरवाजे खोलकर

तुम्हें अपनी ही आत्मा के प्रकाश में खोजना पड़ा था

दुर्दान्त लिपियों के गोपन अर्थ सभी भाषाओं में एक साथ।

एक गोपन मंजुषा खोजना बाकी है इसी में षोडश विद्या बंद है। आज जीवन में संतुलन लाने वाली इस शक्ति की आवश्यकता न केवल भारत को है, अपितु, संपूर्ण विश्व को है। कवि आनंद ने 'अथर्वा मैं वही वन हूँ' की रचना धन, यश या मनोरंजन के लिये नहीं की है। इस ग्रंथ की रचना का उद्देश्य आत्म विस्तार, आत्म परिष्कार और संपूर्ण मानवता का कल्याण हैं। इस हेतु उन्होंने एक विशाल फलक को समेटा है।

अथर्वा: मैं वही वन हूँ के कथ्य के बाद शिल्प पर बात करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि कवि ने इसका जो स्थापत्य रचा है वह हिन्दी कविता में नया है। कवि ने स्वयं इसे अनेक लंबी कविताओं के संयोजन-वियोजन (कोलाज़) से बनी हुई बड़े कैनवास की पेंटिंग सरीखी एक 'महाकविता' माना है। सृष्टि के प्रारंभ से लेकर वर्तमान तक फैली कविता का फलक अत्यंत विराट है। गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को जिस तरह अपना विराट रूप दिखाया था, जिस तरह बचपन में माँ यशोदा को अपने मुँह में ही तीनों लोकों के दर्शन करा दिये थे उसी प्रकार 512 पृष्ठों में फैली यह पुस्तक पाठक को अखिल ब्रह्माण्ड के दर्शन करा देती है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, जीवन उद्भव और विकास से लेकर ब्रह्मावर्त जम्मू द्वीप, आर्यावर्त, संपूर्ण भारतीय संस्कृति और उसकी परंपरा, बुद्धदेव के समय का भारत, कर्म आधारित समाज और वैदिक आधारों की पुनः स्थापना से लेकर काश्मीर के कुंडलवन महाविहार में इतिहास प्रसिद्ध चैथी बौद्ध-संगीति का आयोजन होना। संगीति में धर्म, संस्कृति कला और साहित्य के नवोत्थान के लिये बनी योजनाएँ मध्ययुग में वैचारिक अभ्युत्थान की दृष्टि से बने नये दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिष्ठित होना, उपनिषदों के गंभीर ज्ञान के साथ काव्य शास्त्र गणित, ज्योतिष आयुर्वेद के साथ कृषि, भवन, शिल्प, भवन निर्माण, रत्न परीक्षा जैसे बहुविध विषयों को इस कृति में भी कवि ने उद्घाटित किया है। पांडुलिपियों की खोज में फाह्यिान और ह्वेन-त्सांग के भारत आगमन से लेकर आधुनिक भारत के निर्माण में जिन विचारधाराओं और चिंतकों की भूमिका है उन सभी का सम्यक विवेचन इस काव्यकृति में किया गया है। इस महाकाव्य (मुझे महाकाव्य कहना ही समीचीन लगता है।) में सोलह गद्यात्मक कथाएँ भी है और प्रत्येक पांडुलिपि की कविता के बाद गद्य भी है। इन सभी कहानियों को क्रम से एकीकृत कर दिया जाये तो एक उपन्यास बन जाता है। इस तरह यह कृति गद्य और पद्य में निबद्ध है। साहित्य दर्पण में कहा गया है-"गद्य पद्यमयं काव्यं चंपूरित्र्याभधीयते" अथर्ववेद में कुछ स्थानों पर इस तरह गद्य और पद्य का समावेश मिलता है। त्रिविक्रम भट्ट द्वारा रचित 'नलचम्पू' और सोमदेव सूरि द्वारा रचित 'यश तिलक' इसी तरह के काव्य हैं। अथर्वा में गद्यात्मक कथाएँ हैं लेकिन इस आधार पर उसे चंपूकाव्य नहीं कहा जा सकता। दरअसल अथर्वा के कवि ने जिस विराट को कविता में साधा है उसके लिये ये गद्दात्मक कथाएँ एक भूमिका के रूप में आवश्यक हैं। कवि आनंद ने 'शब्द और संदर्भ शीर्षक से परिशिष्ट (ख) में लिखा है कि-"यद्यपि पांडुलिपियों की कहानियाँ वस्तुतः आनुषंगिक कथाएँ जिन्हें मूलतः कविताओं को अर्थ में प्रतिष्ठित करने के क्रम में विकसित किया गया है, तथापि कथाएँ सर्वप्रथम महाकाव्य के रूप में प्रकट होती हैं जिनसे कथारंभ होता है और जिनका आगामी विस्तार प्रत्येक पांडुलिपि में कथाविराम पर आ जाता है। यही वह मूल धागा है जो पांडुलिपियों की भीतरी कविता को धारण करता है। ... मैं यह नहीं कह सकता कि ये कथाएँ बाहरी कथानक हैं, उल्टे ये कविता के साथ-साथ ही संभव हुई हैं। कविताएँ यदि समय में' अन्तरावकाश'में या चेतना में उपस्थित हैं तो देश (स्पेस) या भाषा में अवतरित। स्थानित करने के लिये ही इन कथानकों का ढाँचा सृजित हुआ है। ये कथाएँ इतिहास पर निर्भर होकर भी स्वतंत्र निर्मितियाँ हैं जिनकी अर्थवत्ता इतिहास में नहीं, बल्कि, इस कविता की कायिक सहचारिता में है। इस तरह से पांडुलिपि की कहानियाँ प्रत्येक पांडुलिपि की कविता की अन्तर्रात्मा तक पैठने का प्रवेश-द्वार है और कविता की अंतश्चेतना से गहराई से जुड़ी है।" कवि के उपर्युक्त कथन पर विचार करें तो ये कथाएँ अपने उद्देश्य में और सर्जन प्रक्रिया में अपने को चम्पू काव्य के गद्य से अपने बिलग करती हैं। कवि आनंद अनुभूत सत्य और आत्मसाक्षात्कार के आलोक में' अथर्वा मैं वही वन हूँ'की कविता अवतरित करते हैं। उन्होंने इस कविता में अज्ञेय की भाँति शब्द संस्कार पर बल दिया है। वे अर्थवान शब्द के साधक हैं। अथर्वा में उनके बहुविषयक गहन अध्ययन के साथ उनकी भाषिक साधना के उत्कर्ष के दिग्दर्शन होते है। कवि आनंद ने हजारी प्रसाद द्विवेदी, जेम्सरेडफील्ड अम्बर्तो इको, खलील जिब्रान की कृतियों प्रभाव के साथ अपनी काव्य भाषा पर प्रसाद, पंत, निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा का प्रभाव स्वीकार किया है। महर्षि अरविंद की' सावित्री', प्रसाद की' कामायनी', दिनकर की' उर्वशी'के आंशिक प्रभाव को बड़ी ईमानदारी से स्वीकार कर साहित्यिक पितरों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है और परंपरा से प्राप्त इस ज्ञान धरोहर में' अथर्वा मैं वही वन हूँ'जैसी असाधारण कृति को रचकर अपना सार्थक दाय आगामी पीढ़ी को सौंप दिया है। इस कृति में भाषा केवल विचार अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है बल्कि रचनाकार के व्यक्तित्व का पर्याय है इसलिये उन्होंने अत्यंत अर्थवान शब्दों की बात की है। अथर्वा की काव्य भाषा में प्रयुक्त शब्द भारतीय सांस्कृतिक विरासत से ग्रहण किये गये हैं लेकिन इन शब्दों में नई अर्थच्छायाएँ भरने का रचनात्मक काम कवि आनंद ने अत्यंत कुशलता से किया है। अथर्वा में कवि ने एक नई काव्यभाषा का पुनर्सृजन किया है। तमिस्रा, वियन्मंडल, महोच्छल,' मश्रुमय, उदीषा, प्रस्रवण, नवार्ग, हुताशनाश घटनावर्त संकुल, चेतसा परमाणवी, तद्वन संगीत, नासदीय, व्याह्ति, एकानंशा, हृींकाश, समित्पाणि, विपश्चित, परगुम्फ जैसे सैकड़ों शब्द हैं जो वैदिक संस्कृत से और लौकिक संस्कृत से कवि ने ग्रहण किये हैं। इस महाकाव्य के उदात्त कथानक को रचने और इसके लोकउपकारी उद्देश्य के प्रकटीकरण में इन शब्दों की अहम भूमिका है। ये शब्द पाठक को कभी कठिन या नये भी लग सकते हैं पर आनंद ने परिशिष्ट में ऐसे शब्दों के अर्थ और विस्तृत संदर्भ भी दिये हैं जिससे मेरे जैसे अनेक पाठक समृद्ध हुए हैं। संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता से हम ये अनुमान न लगा लें कि कवि ने देशज या लोक में प्रचलित बलियों के शब्दों का प्रयोग बिल्कुल नहीं किया है। उफन, फफकना, अफराना, टुनटुन, बकवास, कोंछ, असीसें, झाँपियाँ, रेहन, खटना, अचक्के, गदीले, घटाटोप, गझिन, डाँगन, छपास, ढीठ, ठठरी, निछान और गुनताड़ा जैसे सैकड़ों शब्दों के साथ कविता में निहित भावों को मूर्त और परिवेश को सजीव करने के लिए कहीं-कहीं बेखौफ, बेमौत, इंसानियत, मौसम, कब्र, शागिर्द, आईना, दूरबीन, किताबें, इज़ाजत, उस्ताद, हिन्दोस्तान, रोशनी, मजबूर, तवारीख, कुफ्र, अदीब, ताज़, कसम, खतरनाक, बुत, कयामत, हुक्म, परीखाना, दरिया, शतरंज, वजीर, प्यादे, आखिर, रूह, ताउम्र जैसे सैकड़ों विदेशी शब्दों का प्रयोग मध्यकालीन इतिहास और तत्कालीन समय और समाज के प्रश्नों को कविता में उठाते हुए किया है। इसके अतिरिक्त 'तातनियम' जैसे अनेक स्वनिर्मित शब्दों का प्रयोग कवि के भाषिक सामथ्र्य को प्रकट करता है। वे दृश्यों की निर्मिति में समर्थ कवि हैं। इस ग्रंथ में उन्होंने इतिहास को फैन्टेसी के माध्यम से मूर्त किया है। कवि आनंद ने भारत के आर्ष ग्रंथों से लेकर आधुनिक ज्ञान विज्ञान नवीनतम और ब्रह्माण्डकीय खोजों का गहन अध्ययन किया है। अपनी सृजनात्मक मनीषा के साथ उन्होंने यायावरी की है और कविता में सत्य को ही वाणी दी है। वस्तुतः 'अथर्वा मैं वही वन का छंद' हूँ मैं कवि ने जिन शब्दों का संधान किया है वे भी ऋषि परंपरा के ज्ञान से अभिमंत्रित हैं और अर्थग्रहण कराने की अद्भुत सामथ्र्य रखते हैं। आनंद कविता के उद्गाता और शब्दों के सन्धाता हैं। पूरे ग्रंथ में बिम्बों की सुंदर नियोजना है। सृष्टि के आरंभ से लेकर आज के भौतिकतावादी, विज्ञानमय जीवन के अनेक चित्र इंद्रियगत अनुभव और तीव्र संप्रेषणीयता के साथ कविता में उपस्थित है। कविता में लयात्मकता, मूर्तविधान का सफल निर्वाह और दृश्यों की शृंखलाबद्ध उपस्थिति कवि की अनुभूति को पाठक तक तीव्रता से संप्रेषित कर देती है। दृश्य, श्रव्य, ध्राण, बिम्ब, आस्वाद्य बिम्ब कविता की अभिव्यंजना में वृद्धि करते हैं। पूरे ग्रंथ में अनेक सुन्दर बिम्बों की सजीव उपस्थिति है। दृश्य बिम्ब का एक उदाहरण बानगी के रूप प्रस्तुत है-

जलती झाड़ियों के उत्सवानल में भुनते हैं वनपशु

घेरकर जिनको आदिम विहार करते हैं किम्पुरुष

गांगेय घाटियों में जब कालनाग की केंचुल उतर रही थी

चमकती त्वचा वाली स्पर्शाकुल लहरों में

विद्युन्मय प्रजातियाँ इन्हीं घनखेतों में चरती थी।

बिम्बों के अतिरिक्त प्रतीकों का भी सुन्दर सअभिप्राय प्रयोग कवि ने किया है। दीर्घतमा, अथर्वा, ' वेतकेतु, सन्तकुमार, अब्राहम, अलमुस्तफा जैसे पात्र भी प्रतीकात्मक हैं। महाकाव्य में वर्णित घटनाओं में भी प्रतीकात्मकता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास और वक्रोक्ति जैसे अलंकार काव्य के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते हैं। अथर्वा में अनेक पंक्तियाँ जिनमें कवि आनंद ने कवि और कविता को अत्यंत सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया है-

कवि है नवस्फोट पुष्प की तरह वृंत पर खिलकर

जो नवीन सज्जा से अपनी धज बिखरे देता है।

वर्ण उर्मियों की तरंग जो उठती भावोदधि से

अर्थ और सौन्दर्य तटी से टकराती रहती है

कवि वह जिसके हृदय प्रांत पर धवल स्वप्न से चलकर

एक मनोमय लहर भविष्यत् की आ टकराती है।

भारत देश के महान वैदिक चिंतन को प्रतिष्ठित करती यह कृति बौद्ध धर्म की शून्यता और पूर्णता पर विचार करते हुए दोनों धाराओं में एकात्म स्थापित करती है-

छू देती है अपनी दिव्य मनोज्ञ महाप्रतिभा से

अर्थ और तात्पर्य व्यंजना के सुकुमार भवन में

जहाँ शांत संप्रेषण के सुंदर कुमार सोते है।

सृजन सदैव समाजदृष्ट है, प्रसरित सर्जन क्षणों में।

वस्तुतः कवि की ये पंक्तियाँ स्वयं उनके काव्यग्रंथ अथर्वा मैं वही बन हूँ पर पूर्णतः खरी उतरती है। पहली पांडुलिपि हिरण्यगर्भ से लेकर अंतिम पांडुलिपि को कवि ने अपनी काव्यात्मक प्रज्ञा नवनवोन्मेष शालिनी प्रतिभा और सुन्दर कल्पना के संयोजन से जिस तरह कविता में उकेरा है वह हिन्दी साहित्य में अभूतपूर्व है। कवि ने स्वयं लिखा है-"मिथक और इतिहास के परे जो प्रागैतिहासिक या प्राक्कलनीय वैश्विकता है वह पहली बार एक सर्जनात्मक चेतना-प्रवाह का अविभाज्य हिस्सा बनकर उतरती है। यह आजकल की प्रचलित रूढ़ लीक से हटकर खोजी गई काव्यानुभूति है।" कवि के जीवनानुभवों और साधानुभवों के साथ काव्यात्मक विवेक विक्षोभ और संवेदना से निःसृत यह महाकविता निश्चय ही वैदिक ऋषि परंपरा की ही कृति है जिसके प्रणयन का उद्देश्य संपूर्ण मानवता का कल्याण है। अंत कवि की ही पंक्तियों से-

भारत महाज्योति भूमा है, सीमाबद्ध नहीं है

सूक्ष्म चेतना है विराट मंगल; अथर्वा-आनंद कुमार सिंह, नई किताब प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2021, पृष्ठ 512, मूल्य 496 / -


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