अथ कथा ढेलमरवा गोसाईं / प्रभात रंजन
उस दिन सारे गाँव में हल्ला हो गया। जिधर देखिए उधर यही चर्चा थी गाँव के पुराने जमींदार स्व. कामेश्वर सिंह के पोते साजन के सपने में भगतजी आए थे। मुखियाजी के दरवाजे पर साजन बैठा था। गाँव के बड़े-बुजुर्ग एक-एक करके आते जा रहे थे। सबसे पहले उनको ही बताना उचित समझा साजन ने... मुखियाजी ने सबको खबर करने के लिए आदमी भेज दिया। जैसे-जैसे लोगों को पता चलता जा रहा था वे आते जा रहे थे। जो सुनता वही भागा-भागा आ रहा था।
बात ही ऐसी थी।
मत पूछिए! वही धुआ-धजा। माथे पर तिलक लगाए, हाथ में लाठी लिए - मुझे तो लगा साक्षात आ गए हैं। कहने लगे अपने गाँव में ढेलमरवा गोसाईं का स्थान है। उनको पूजो, चढ़ौना चढ़ाओ। गाँव के दक्षिण पाकड़ के पेड़ के पास ढेलमरवा गोसाईं का मंदिर बनाओ। इसी में जितवारपुर का कल्याण है। कहकर उन्होंने एतना जोर से ढेला चलाया कि मैं नींद में बिस्तर से गिर पड़ा। अब कह नहीं सकता कि यह चोट बिस्तर से गिरने पर लगी या उनके ढेले से - अपने माथे में निकले गूमड़ को दिखाते हुए साजन वहाँ उपस्थित लोगों को बता रहा था।
बोलो ढेलमरवा गोसाईं की जय! सरपंच रामबरन मंडल ने उठकर जयकारा लगाया। चारों दिशाओं में यही आवाज गूँजने लगी - ढेलमरवा गोसाईं की जय! ढेलमरवा गोसाईं की जय! कामेश्वर बाबू के बड़े लड़के यानी साजन के पिता लक्ष्मेश्वर सिंह माहौल की गर्मी को भाँपते हुए उठे और मुखियाजी के घर के बाहर उपस्थित भीड़ से मुखातिब होकर बोलने लगे - भगतजी जब तक जीवित रहे गाँव के कल्याण के बारे में ही सोचते रहे, जड़ी-बूटी से सबका इलाज करते रहे, वह भी बिना किसी स्वार्थ के। अरे ऊ आदमी नहीं देवता थे देवता। हम उनकी इस इच्छा को जरूर पूरा करेंगे। अपने गाँव में गोसाईं का ऐसा मंदिर बनेगा जैसा पटना में एक पुलिस अफसर ने महावीर मंदिर का निर्माण करवाया था। आप सब लोगों के सामने इस शुभ काम के लिए आज शुक्लपक्ष एकादशी के दिन मैं... मैं... उन्होंने थोड़ा रुककर भीड़ को देखा, खँखारकर गला साफ किया फिर बोले, पचास हजार अपनी ओर से देने की घोषणा करता हूँ।
ढेलमरवा गोसाईं की जय! भीड़ ने उत्साह में फिर जयकारा लगाया।
उसी समय मुखियाजी ने मंदिर निर्माण समिति बनाने की घोषणा भी कर दी। उसके संयोजक बनाए गए बाबू लक्ष्मेश्वर सिंह। आखिर उन्होंने सबसे पहले पचास हजार का चंदा देने की घोषणा जो की थी। प्रसंगवश, उन्होंने चंदा दिया या नहीं इसके बारे में कहानी लिखे जाने तक पता नहीं चल पाया। भरी सभा में मुखियाजी ने मौजूद लोगों से यह विनती भी की पुण्य के इस काम में दिल खोलकर दान दीजिए। याद रखिए यह मंदिर नहीं अपने गाँव की प्रतिष्ठा का स्मारक बनने जा रहा है... एक दिन इसी मंदिर से अपने गाँव का नाम सारी दुनिया पहचानेगी...
लगातार दूसरी बार चुनाव जीतकर मुखिया बने श्री गिरधारी लाल शर्मा जैसे भविष्यवाणी कर रहे थे आने वाले उस दौर के बारे में जिसके बारे में न किसी ने कभी सोचा था न देखा था।
सब ढेलमरवा गोसाईं की महिमा है, जो भी जितवारपुर आता यही कहता आता यही कहता वापस चला जाता। खैर... यह सब बाद की बातें हैं...
पहले सब कुछ सामान्य था। देश के लाखों गाँवों की तरह नेपाल की सीमा पर बसे इस छोटे-से गाँव जितवारपुर को भी कोई नहीं जानता था। देश के विकास की जो तस्वीर पेश की जाती उसमें लाखों गाँवों की तरह इस गाँव का भी कोई जिक्र नहीं होता था।
इस सबकी शुरुआत भगतजी की दुर्घटनावश हुई मृत्यु से हुई। रामचरण दास उर्फ बंडा भगत उर्फ भगतजी की मृत्यु के बाद... उनको गुजरे अभी तीन महीने भी नहीं हुए थे कि जितवारपुर में कुछ-कुछ ऐसा होने लगा जिसके बाद वहाँ लोग जहाँ भी जुटते आपस में बात-बात में यही कहते सचमुच चमत्कार हो गया। वह भी ठीक उसी स्थान पर जहाँ एक दिन सवेरे-सवेरे नदी की ओर दिशा-मैदान करने जाने वालों ने, भैंस चराने वालों ने रामचरण जी... मेरा मतलब है भगतजी को औंधे मुँह पड़े देखा था। सड़क के किनारे पाकड़ के पेड़ के पास।
पास में ही लखनदेई नदी के किनारे छोटा-सा गाँव है रामपुर परोरी। उसी गाँव के रघुनाथ राय का लड़का जगन्नाथ साइकिल से जा रहा था इंटर का रिजल्ट देखने। आसपास के पाँच कोस में जितवारपुर ही एक गाँव है जहाँ पक्की सड़क बनी जो जितवारपुर को एक ओर शहर से जोड़ती थी दूसरी ओर नेपाल से। इसलिए शहर जाने के लिए आसपास के गाँवों के लोग भी वही रास्ता पकड़ते थे। चोरी-छिपे नेपाल माल ले जाने वाले या वहाँ से माल लानेवाले भी रात के अँधेरे में वही रास्ता पकड़ते। जगन्नाथ ने भी वही रास्ता पकड़ा। पिछली बार फेल हो गया था, इसीलिए इस बार हनुमान भक्त जगन्नाथ मंगलवार को रिजल्ट देखने जा रहा था। उम्मीद अपने से कम हनुमानजी से ज्यादा थी। नदी पार करके जब वह साइकिल से जितवारपुर के दक्षिणी छोर पर सड़क के किनारे खड़े उस पुराने पाकड़ के पेड़ के नीचे से गुजर रहा था कि ठीक पीछे से मिट्टी का एक ढेला आकर सिर पर लगा। वह तो गर्मी से बचने के लिए गमछे का मुँड़ेठा बाँध रखा था इसलिए चोट अधिक नहीं आई।
नहीं तो ढेला इतनी तेज गति से आया था कि माथा दो फाँक हो गया होता - बाद में उसने गाँव के लोगों को बताया।
पहले उसे लगा कोई भैंस चरवाह बदमाशी कर रहा है। नदी के किनारे दोपहर के समय आसपास के कई गाँवों के भैंस चरवाहे नदी में भैंस को बोहियाने, नहीं समझे, नहाने आते थे। भैंसों को पानी में छोड़कर वे या तो वहीं नदी किनारे कुश्ती खेलते या आसपास आम-लीची के बागानों में डोला-पाती। उसको लगा डोला-पाती खेलते चरवाहों में से किसी ने उसके साथ चुहल किया है, खिलवाड़ी की है। साइकिल से उतरकर जब उसने इधर-उधर देखा तो सिवाय दोपहर के सन्नाटे के दूर-दूर तक कुछ और दिखाई नहीं दे रहा था। ध्यान आया रास्ते में नदी पार करते समय भी उसे भैंसें नहीं दिखाई दी थीं। हो सकता है एकाध रही हों पर उसकी नजर जल्दी-जल्दी नदी पार करने के चक्कर में उनके ऊपर न पड़ी हों। उसे कुछ भय हो आया। साइकिल से उतरकर उसने वहीं आँखें मूँदीं और हनुमान चालीसा का एक साँस में पाठ कर लिया। अदृश्य भगवान को प्रणाम किया और बिना पीछे देखे तेजी से पैडिल मारने लगा।
अगले मंगलवार सवेरे जब वह उस पेड़ के नीचे सिंदूर से पूजकर चढ़ौना चढ़ाने लगा तो आसपास गुजरते लोग कौतूहलवश खड़े हो गए। उनको कथावाचक की तरह जगन्नाथ ने जो बताया उसकी उसी दिन नहीं कई दिनों तक चर्चा होती रही।
सब कहते चमत्कार ही हो गया...
पिछले मंगलवार को जब इस पेड़ के नीचे मेरे सिर में ढेला लगा था उसके बाद तो समझिए चमत्कार ही हो गया। आप लोगों को क्या बताऊँ, तैयारी पूरी होने के बावजूद इस बार भी इंटर की परीक्षा में अंग्रेजी के पेपर में 20 नंबर का कोश्चन छूट गया था, पास होने का कोई उम्मीद फिर नहीं लग रहा था। लेकिन ढेला लगने के बाद जब मैं आँखें मूँदे जाप कर रहा था तो ऐसे लगा जैसे नाटे कद की एक छाया है जो मुझसे कह रही है कि जल्दी से जाओ फल तुम्हारी प्रतीक्षा में है। साइकिल से जब भागता हुआ मैं कॉलेज पहुँचा तो जैसे चमत्कार ही हो गया। मैं पास ही नहीं हुआ, सेंकेंड डिवीजन से पास हुआ। तभी मैंने सोच लिया था यहाँ आकर 21 रुपए का पेड़ा चढ़ौना में चढ़ाऊँगा। कल ही महावीर स्थान के किशोरी साह से पेड़ा ले आया था। हो न हो ई ढेलमरवा गोसाईं का स्थान है, वहाँ खड़े लोगों को उसने प्रसाद देते हुए कहा। मुझे याद है दादी कहानी सुनाती थीं - कहकर जगन्नाथ ने कंधे से गमछा उतारा मुँड़ेठा बाँधा और अपनी हीरो रॉयल साइकिल पर सवार हो गया।
गाँव के लोग चमत्कार की उस कथा को लेकर दो वर्गों में बँट गए - काशी साव की चाय-नाश्ते की दुकान पर जुटने वाला एक वर्ग जगन्नाथ की कथा में आए नाटे कद की छाया के कारण उसे रामचरण जी उर्फ बंडा भगत उर्फ भगतजी की काया से जोड़ता। काशी तो खुलेआम अपना फैसला सुनाता था - अरे और कोई नहीं अपने भगतजी हैं। जिंदगी भर बंडा बने रहे। ढेला की तरह गुड़ुक-गुड़ुककर जड़ी-बूटी पहचानते रहे। देखिए मर गए तो अब ढेला फेंक-फेंक कर सबको आशीर्वाद दे रहे हैं। जीवन में कब किसका बुरा चाहा था जो अब चाहेंगे। भूल गए! आखिर उसी जगह पर उस दिन सवेरे गाँव के भैंस चरवाहों ने उनकी लहास देखी थी।
दूसरा वर्ग जगन्नाथ की चमत्कार कथा में आए ढेलमरवा गोसाईं की कथा की याद दिलाता था। गाँव के बूढ़-पुरनिया मिलते-बैठते तो उस कहानी को याद करते जिसमें ढेलमरवा गोसाईं होते थे जो ढेले का ही चढ़ावा लेते थे, ढेले मारे जाने पर खुश होते और उनके स्थान पर जानेवाले ढेले का ही प्रसाद ले जाते थे। इस भूली हुई कहानी को याद करते हुए मनोरंजन बाबू कहते, किस्सा-कहानी में कोनो झूठ थोड़े होता है, देखिए आखिर इतने दिन बाद अपने गाँव में ही ढेलमरवा गोसाईं का स्थान निकला जिनके महातम की कथा हम बचपन से ही सुनते आए थे!
उस दिन के बाद से तो अक्सर कुछ न कुछ ऐसा हो जाता कि लोगों को फिर-फिर कहना पड़ता चमत्कार हो गया...
एक दिन तो गजब ही हो गया। सवेरे-सवेरे जितवारपुर वालों ने देखा पाकड़ के पेड़ के नीचे उसी स्थान पर एक आदमी औंधे मुँह लेटा है। उसके आसपास सामान बिखरा पड़ा है। शायद अलग से बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि उसके आसपास बड़े-बड़े ढेले भी बिखरे हुए थे - ऐसा लग रहा था कि किसी ने ढेलों से उसे इतना मारा कि वह बेहोश हुआ पड़ा है। थोड़ी देर में उसका रहस्य भी खुल गया। गाँव में हल्ला हुआ कि रात में पुरवारी टोले में लक्ष्मेश्वर सिंह के घर चोरी हो गई। जब उनके परिवार के लोगों ने वहाँ आकर देखा तो सामान पहचान गए और आगे की कहानी के सूत्र गाँववालों ने जोड़ लिए।
लक्ष्मेश्वर सिंह के बेटे साजन ने खुद बताया कि बाकी सब समान तो है बस गहनों की एक पोटली नहीं मिल रही है। इससे एक कहानी तो यह बनी कि जब वह चोर भाग रहा होगा तो किसी ने उसको घेर लिया होगा। पिटाई करने के बाद जब सामान टटोला होगा तो गहनों की उस पोटली के अलावा कुछ भी काम का नहीं लगा होगा। जो वह अज्ञात लेके चला गया। वैसे, गाँव के बाबूसाहबों का पुराना हजाम केवल ठाकुर चटखारे ले-लेकर और ही कहानी सुनाता - अरे, इस चोर ने एक काम तो अच्छा किया इन हवेली वालों के घर की असलियत हमारे सामने उघाड़ दी। गहने वाली बात तो बाबूसाहेब इसलिए कर रहे हैं ताकि उनके बाप-दादों के नाम का थोड़ा-बहुत रोब तो गाँववालों पर बना रहे। इनके पास टुटही हवेली के अलावा बच क्या गया है? जो बचा-खुचा था ढेलमरवा गोसाईं की कृपा से बच गया नहीं तो कुछ भी नहीं बचने वाला था।
वैसे केवल ठाकुर की इस चुटकी में कितनी सचाई थी, सचाई थी भी या नहीं यह तो भगवान जाने या ढेलमरवा गोसाईं लेकिन एक बात तो सच थी ही कि जितवारपुर गाँव में कभी जमींदार समझे जाने वाले बाबूसाहबों के पास अपने पुरखों के नाम, पुराने किस्सों के अलावा खंडहर होती जाती हवेली ही बच गई थी। कई तो खेत बेच-बाचकर शहरों में जा बसे थे। कुछ ही परिवार थे जो अब भी यहीं रह रहे थे। पुराने जमींदार कामेश्वर सिंह का परिवार भी उन्हीं में से एक था। उनके गुजरने के बाद उनका लड़का लक्ष्मेश्वर सिंह और पोता साजन सिंह रह गए थे।
बहरहाल, उस दिन जब साजन ने अपनी स्वप्न कथा सुनाई तो शायद ही कोई ऐसा रहा हो उस गाँव में जिसके मन में ढेलमरवा गोसाईं की कहानी को लेकर किसी प्रकार का शुबहा रह गया हो। वैसे उसी दिन हरिजन टोले के फेकू दास ने शाम को काशी साव की दुकान पर जुटी मंडली के सामने कुछ बुदबुदाते हुए अंदाज में कहा था - कामेश्वर सिंह के परिवार ने पहले तो जीते जी भगतजी को ढेलमरवा बना दिया। मर गए तो अब ढेलमरवा गोसाईं बनाने पर तुले हैं। लेकिन फेकू के भँगेड़ी होने की ख्याति ऐसी थी कि उसकी किसी बात को गाँववालों ने न तो कभी गंभीरता से लिया था न इस बार लिया।
पुरानी कहानियाँ सुनाने वाले कहते कामेश्वर सिंह के पोते साजन और भगतजी के भाग्योदय का समय कुछ आसपास का ही था। राजमजदूर सुन्नर दास के लड़के रामचरण दास ने कब सोचा था कि एक दिन ऐसा आएगा उसकी जिंदगी में कि वह जिले के मालिक यानी कलेक्टर साहब का खास अर्दली बन जाएगा। कहाँ तो बरसों से समाहरणालय में अलग-अलग विभागों में चपरासी के रूप में गुड़ुक रहा था। इतने सालों बाद भाग्य खुला भी तो ऐसा कि डी.एम. साहब का खास अर्दली बन गया। कल तक जिले के हजारों चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों की तरह गुमनाम रामचरण दास एक दिन ऐसे प्रसिद्ध हुआ कि जिले भर के लोग उसको न केवल पहचानने लगे, रामचरण जी कहकर बुलाने भी लगे। गाँव में भी उसको रमचरणा कहनेवाले अपने टोले में भी कम होते गए। उन्हीं दिनों उनका नाम भगतजी प्रकाश में आया। बंडा भगत नाम की चर्चा तो उसके बाद शायद ही सुनाई दी हो...
भगतजी के नाम से बड़ी पुरानी एक कहानी याद आ रही है। याद आ रही है तो क्या पता उसका कुछ गहरा संबंध अपनी कहानी वाले भगतजी से जुड़ता हो। क्या पता! आजकल तो विद्वान कहने लगे हैं हर चीज हर किसी दूसरी चीज से जुड़ी होती है...
कई बरस हो गए पास के ही पुरनहिया मठ में न जाने कहाँ से एक नौजवान आ गया। न नाम का पता न गाम का। पहले लोगों को संदेह हुआ। कहीं चोरी-डाका डालकर तो नहीं आ गया है, किसी का खून करके तो नहीं भागा है। लेकिन जल्दी ही गाँव में ही नहीं आसपास के इलाके में भी उनकी ख्याति भगतजी के रूप में बढ़ने लगी। डॉक्टर-अस्पताल विहीन इलाके में रहनेवालों की हर बीमारी का उनके पास इलाज होता था किसी न किसी जड़ी के रूप में। तब आयुर्वेद इलाज पद्धति का प्रचलन उतना नहीं हुआ था न ही लोग उसकी विद्याओं से खास परिचित थे। इसलिए जड़ी-बूटी से इलाज करनेवालों को बड़ी ऊँची निगाह से देखा जाता था। उस नौजवान भगतजी की बड़ी महिमा हो गई थी उस इलाके में। लेकिन जड़ीवाले भगतजी अधिक दिन तक वहाँ टिके नहीं। वे जिस तरह बिना बताए अचानक आ गए थे उसी तरह बिना बताए एक दिन सवेरे उठकर दिशा-मैदान के लिए ऐसे निकले कि फिर उस गाँव उस मठ में कभी नहीं लौटे जहाँ वे दो वर्ष से भी अधिक समय से रहते आ रहे थे। पीछे छोड़ गए ढेरों कहानियाँ। देखिए आज इतने बरसों बाद मैं भी उनको याद कर रहा हूँ...
अगर रामचरण जी का नामकरण भगतजी हुआ तो उसका कारण गाँववालों की स्मृतियों में बची उस गुमनाम भगत की छवि थी जिसके पास हर बीमारी के लिए कोई न कोई जड़ी होती थी। रामचरण जी भी दिन भर समाहरणालय में नौकरी करते बाकी समय जड़ी-बूटी में उलझे रहते। किसी को असाध्य घाव हो जाए अंकोए का दूध लगा देते और घाव ऐसे छूट जाता जैसे किसी ने जादू कर दिया हो, किसी को पेट में बाई उखड़ जाए तो न जाने किस पेड़ की छाल पीसकर खिला देते। उनके अपने नुस्खे थे, अपनी जड़ी-बूटियाँ थीं। हर बीमारी के लिए उनके पास एक ऐसी जड़ी होती थी जिससे उस बीमारी से छुट्टी मिले न मिले आराम मिल जाता था। जिन लोगों के पास शहर जाकर डॉक्टर से दिखाकर अंग्रेजी दवाई लेने के लिए पैसे नहीं होते वे उनकी मुफ्त सेवाओं का लाभ उठाकर संतोष कर लेते। ज्यादातर मरीज उनके अपने टोले के होते जो बदले में उनको दुआएँ देते। लंबी उमर की दुआएँ। वे बुढ़ाते जा रहे थे लेकिन अब भी लोग उनको एक से दो होने की दुआएँ देते। कहते अब तो एक से दो हो जाओ या बंडा भगत ही बने रहने का इरादा है।
लोग चाहे बंडा भगत बुलाएँ या भगतजी उनको किसी भी रूप में भगत नाम सुनना अच्छा लगता था। सुनकर वे सचमुच भूल जाते कि उनका जन्म जिस समाज में हुआ था उस जमाने में अपने आपको ऊँचा बताने के लिए कुछ लोग उस समाज के लोगों के हाथ का छुआ पानी भी नहीं पीते थे। गाँव में कुछ पुरनिया तो कानाफूसी में यह भी कहते कि पुरनहिया मठ वाले भगतजी ने ही इसको जाते-जाते अपनी विद्या का ज्ञान दे दिया था। वे आपसी बातचीत में एक दूसरे को यह याद दिलाना नहीं भूलते थे कि जिन दिनों वह भगत आया था उन दिनों डेली वेज पर रामचरण पुरनहिया हाईस्कूल में ही काम कर रहा था। उनका तो कहना था कि रामचरण की भगतजी के साथ खूब छनने लगी थी। इसलिए जाते-जाते उसने जड़ी-बूटियों की कुछ पहचान इनको भी करवा दी। वैसे इस बात का कोई आधार नहीं था न ही उनकी जड़ी-बूटियों के उतने अचूक होने की ख्याति थी। इसीलिए इस तरह की चर्चा कानाफूसी के चरण से आगे नहीं बढ़ पाई। इतना संयोग जरूर था कि पुरनहिया वाले भगतजी के जाने के बाद ही रामचरण दास नाम के उस चतुर्थवर्गीय कर्मचारी ने जड़ी-बूटी देकर लोगों का इलाज करना आरंभ किया और धीरे-धीरे भगतजी के नाम से बुलाया जाने लगा।
बड़ा अच्छा लगता था। रात में जब अकेले होते तो खुद को धीरे से भगतजी कहकर बुलाते, यह देखने के लिए कि यह नाम सुनना अपने आपको कैसा लगता है। मन प्रसन्न हो जाता था इस संबोधन को सुनकर। इसी खुशी में दिनभर की थकान, साहब लोगों की डाँट सब भूल जाते थे और उनको नींद आ जाती। भगतजी! लोग कहते जड़ी-बूटी के इस चक्कर से क्या मिला। पिता की मृत्यु के बाद जड़ी-बूटी के चक्कर में ऐसा ओझराए कि एक से दो होने का ख्याल ही नहीं आया। इसीलिए तो लोग पीठ पीछे जिले के डी.एम. साहब के अर्दली होने से पहले तक उनको बंडा भगत भी कहकर बुलाते थे। वैसे कभी-कभी अकेले में उनका मन भी होता था जब रात को डी.एम. कोठी से अपनी ड्यूटी पूरी करके लौटें तो कोई घर में हो जो उनसे कहे भगतजी आ गए! लेकिन वे जानते थे कि इन सब चीजों की उम्र अब बीतती जा रही थी। जब कोई इस प्रसंग को छेड़ता तो कहते बचपन में ही जड़ी-बूटी से बियाह कर लिया था। इतने साल से इसमें लगे हैं मगर अभी भी कितनी कम जड़ियों की पहचान कर पाए हैं। दुनिया में इतने रोग हैं और उनको ठीक करने वाली इतनी जड़ी-बूटियाँ! लेकिन अभी सारी बूटियों को वे कहाँ पहचान पाते हैं। अब तो इसी में उनको खुशी मिलती थी कि कोई भगतजी कहकर उनके इस काम को सम्मान दे जो चतुर्थवर्गीय कर्मचारी के रूप में उनको प्राप्त नहीं था।
कहते हैं न इंसान जो सोचता है जो चाहता है वह कम ही हो पाता है अक्सर उसके जीवन में वह हो जाता है जिसके बारे में उसने सोचा भी नहीं होता है। हरिजन कही जानेवाली एक जाति में पैदा होनेवाले रामचरण दास ने कब सोचा होगा कि एक दिन बड़े-बड़े महात्माओं की तरह उनको भी लोग सचमुच भगतजी बुलाने लगेंगे। जड़ी-बूटियों से उपचार करते-करते उम्र बीतती जा रही थी। उनकी इस विद्या से लाभ तो सब उठाते थे लेकिन कोई उनको अधिक गंभीरता से नहीं लेता था। उनसे इलाज करवाने वालों के मन में इस बात का अफसोस बना रहता था कि पैसे के अभाव में वे अंग्रेजी इलाज नहीं करवा पा रहे हैं। जिनका यह अभाव दूर हो जाता वे फिर शहर के अस्पतालों-डॉक्टरों का ही रुख करते थे। आयुर्वेद चिकित्सा को लोग जानने तो लगे थे मगर लेकिन उसकी लोकप्रियता का वह दौर अभी नहीं शुरु नहीं हुआ था जैसा आज है।
कहते हैं न भगवान जिसको देता है छप्पर फाड़कर देता है। रामचरण दास, चतुर्थवर्गीय कर्मचारी, सीतामढ़ी समाहरणालय के साथ यही हुआ। कम से कम उन दिनों उसके जाननेवाले जो कहानी सुनाते थे उसके अनुसार तो ऐसा ही हुआ। इस किस्से का इतना आधार जरूर है कि उन दिनों उनकी ड्यूटी नए-नए पदस्थापित डी.एम. साहब की कोठी को ठीक-ठाक करने के लिए साफ-सफाई करने में लगाई गई थी। एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि सब कहने लगे आलोक रंजन प्रसाद जिले में डी.एम. बनकर क्या आए बंडा भगत की किस्मत ही बदल गई। सैकड़ों चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों में से जब रामचरण दास का चुनाव उन्होंने अपने अर्दली के रूप में किया तो गाँव में भी लोग कहने लगे रमचरणा का भाग खुल गया। अनेक जलने वाले तो यह भी कहते डी.एम. ने अपने जात भाई को अर्दली बनाया तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है।
ऐसे लोग कहाँ नहीं होते जिनको हर घटना के पीछे कोई न कोई कहानी दिखाई देती है। रामचरण दास के डी.एम. के खास अर्दली बनने के पीछे की कहानी भी बतानेवाले कुछ और ही बताते। कहानी सच हो झूठ हो या कहानी की तरह केवल कहानी लेकिन जीवन के उस दौर में भगतजी कहाने की उनकी साध अगर पूरी होती दिखाई देने लगी तो उसमें काफी कुछ हाथ इस कहानी का भी था। कहने वाले कहते कि असल में जड़ी-बूटियों के इस ज्ञान ने ही उनको जिलाधिकारी महोदय के इतने करीब ला दिया। कहानी सुनाने वाले बताते कि उस नौजवान जिलाधिकारी ने परीक्षा की तैयारी के दौरान रात-रात भर जागकर इतनी पढ़ाई की थी कि उनको अनिद्रा का रोग हो गया था। रात-रात भर नींद नहीं आती थी। कहते हैं नींद की कई गोलियाँ खाते तब जाकर किसी तरह दो-तीन घंटे की नींद आती। बड़े-बड़े डॉक्टर वैद्य सब फेल हो गए।
घर की साफ-सफाई के दौरान वे अक्सर देखते कलेक्टर साहब किसी डॉक्टर से इस बीमारी के बारे में पूछ रहे हैं या उनके ऑफिस में आया उनका कोई जानकार उनको किसी ऐसे वैद्य का पता दे रहा होता या होम्योपैथी के किसी ऐसे डॉक्टर के बारे में बता रहा होता जिसके पास हर असाध्य बीमारी का इलाज होता था। उन्होंने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया कि साहब के लिए यह बीमारी बड़ी परेशानी बन चुकी है। एक दिन उसने हिम्मत करके साहब से कहा कि उसकी गुस्ताखी को क्षमा करें तो वह उनसे कुछ अर्ज करना चाहता है। साहब के गर्दन हिलाने पर उसने न जाने कौन सी जड़ी देते हुए कहा कि अगर केवल चार खुराक इसकी खा लें बीमारी फिर भी दूर नहीं हुई तो वह इस नौकरी को छोड़कर खुद ही चला जाएगा।
साहब पर उसकी बातों का असर हुआ और दवा का भी। इस घटना ने उनकी अर्दली के रूप में प्रोन्नति ही नहीं करवाई भगतजी के रूप में उनकी ख्याति भी फैल गई। एक ऐसे भगतजी के रूप में जिसकी जड़ी खाकर जिले के कलेक्टर की असाध्य बीमारी भी ठीक हो गई। कहानी में सचाई थी या नहीं इसका कोई आधार तो नहीं मिला लेकिन इतना सच जरूर था कि एक दिन कलेक्टर साहब ने उसको अचानक अर्दली बना लिया। वह भी अपने साथ-साथ गाड़ी में चलनेवाला अर्दली।
डी.एम. साहब के अर्दली बनने के बाद उनका जीवन बदलने लगा। अब वे जितवारपुर के रामचरण दास नहीं रह गए थे जिसको कोई रमचरणा बुलाता, पीठ पीछे जिसे लोग बंडा भगत बुलाते। अचानक उनका उठना-बैठना जिले के बड़े-बड़े लोगों के दरवाजे पर होने लगा। साहब जहाँ भी जाते वह भी उनके साथ होते। गाँव-देहात के बड़े-बड़े लोगों के दरवाजे पर उनका भी आदर-सत्कार होता। बढ़िया खाने को मिलता। उनका जीवन बदलने लगा था। वे पहले वाले रामचरण नहीं रह गए थे। न अब वे पहले की तरह ऑफिस से लौटकर जड़ी-बूटी लेकर बैठते कि कोई आए जिसका इलाज करें न काशी साव की दुकान पर बैठते जहाँ अधिक लोगों से बातचीत करनी पड़ती हो। सड़क पर भी वे सिर झुकाए चलते। उनकी इस गंभीरता का असर भी दिखाई देने लगा था। उन दिनों जब वे गाँव की सड़कों से गुजरते तो लोग उनको नमस्कार करने लगे थे। जिसका जवाब वे अपने साहब की तरह सिर झुकाए-झुकाए ही गर्दन हिलाकर देने लगे थे। कोई परणाम कहता तो जवाब में गर्दन हिलाते हुए कहते - परणाम! परणाम! और आगे अपनी दिशा में बढ़ जाते।
उन दिनों उनको सबके साथ उठने-बैठने का मन भी नहीं करता। उनका मन करता बड़े-बड़े लोगों के साथ बैठें। देश-समाज की बात करें। लेकिन इसमें एक समस्या यह थी कि गाँव में बड़ा कहाने वाले लोग जो थे वे या तो गाँव छोड़ चुके थे या उनके घर उनका आना-जाना नहीं था। जमाना भी बदल रहा था। जब समाहरणालय में चतुर्थवर्गीय कर्मचारी के रूप में उनका चयन हुआ था तब अपने गाँव में अपने समाज के वे पहले ही व्यक्ति थे जिसका चयन सरकारी मुलाजिम के रूप में हुआ। अब तो उनके अपने ही टोले के कम से कम तीन व्यक्ति अधिकारी हो गए थे। उनके जैसे छोटे-मोटे मुलाजिम तो कई थे। वे अपने समाज के अपने जैसे मुलाजिमों के साथ उठना-बैठना नहीं चाहते थे और अपने समाज के अफसर भी उनके साथ वैसे ही व्यवहार करते थे जैसे दूसरे अफसर। गाँव में एक लक्ष्मेश्वर सिंह का दरवाजा ही था जहाँ पहले भी कभी-कभार जाते थे। सामाजिक हैसियत के मुताबिक वही एक बड़े आदमी थे जिनके दरवाजे पर वे बिना बताए जा सकते थे।
अर्दली बनने के बाद एक दिन जब वे बाबू लक्ष्मेश्वर सिंह के दरवाजे पर पहुँच भी गए तो बाबूसाहब आरामकुर्सी डालकर धूपसिंकाई कर रहे थे। लगता है उनको रामचरण की इस तरक्की का पता चल चुका था। क्योंकि जैसे ही रामचरण उनको यह सूचना देकर जमीन पर बिछी चटाई पर बैठने जा रहा था कि लक्ष्मेश्वर सिंह ने उनको टोक दिया - अरे रामचरण ओने नहीं एने कुर्सी पर बैठिए तो उनको सचमुच अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ।
विश्वास तो मुझे भी नहीं हुआ सुनकर। आखिर इतने बड़े जमींदार कामेश्वर सिंह का लड़का और एक अछोप को, हरिजन कहे जानेवाले जात के आदमी को वह भी अर्दली जैसे मामूली आदमी को अपने दरवाजे पर कुर्सी पर बैठने के लिए कहे...
यही तो बात है। जमाना सचमुच बहुत बदल चुका था। गाँव में कामेश्वर सिंह जैसे भूमिहार जमींदारों के किस्से ही किस्से बच गए थे। जमींदारों के परिवार में पट्टीदारी में जिनके बच्चे बाहर पढ़े-लिखे उनके बच्चों ने बाहर बसना ही बेहतर समझा और पीछे से उन बच्चों के माता-पिता भी वहीं जा बसे - दिल्ली-मुंबई-बंगलोर-हैदराबाद वगैरह-वगैरह... गाँव की बची-खुची जमीन या तो बेच चुके थे या बेचते जा रहे थे। कभी-कभार गाँव वालों को अपनी याद दिलाने छठ के परब पर आ जाते। पुराने लोगों के साथ बैठकर पुराने दिनों को याद करते, दो-चार दिन खेत-खलिहानों में घूमते-टहलते। बच्चों की जिद को दोष देते और परब खतम होते ही चले जाते।
पुरवारी टोले के भूमिहार जमींदारों में एक कामेश्वर सिंह का परिवार ही बचा था जिसकी तीसरी पीढ़ी भी गाँव में ही रह गई थी। बाबू कामेश्वर सिंह के इकलौते लड़के लक्ष्मेश्वर सिंह कभी-कभार दालान में टँगे उस जमींदारी बांड को देखते जो सरकार की ओर से उनके पिताजी को मिली थी तो उनको इस बात की कसक जरूर होती कि उनका बेटा दिल्ली पढ़ने नहीं जा सका। कुछ तो पिताजी की बीमारी का दिल्ली-भेल्लोर में इलाज करवाने में जमीन खिसकी कुछ उनके मरने के बाद बरबरना भोज यानी बारहों वर्ण के लोगों के लिए भोज करने और बची-खुची तीन बेटियों की परिवार की प्रतिष्ठा के अनुरूप शादी करने के चक्कर में। उसके बाद एक तो अपने इकलौते बेटे को पढ़ने के लिए दिल्ली भेजने लायक उनकी हैसियत नहीं रह गई थी और दूसरे अपने चचेरे भाइयों की तरह लड़के को दिल्ली भेज पाने के बारे में सोचने का भी अवसर उनके लड़के साजन ने नहीं दिया। इंटर में तीन बार फेल होने के बाद उसने आगे परीक्षा देने से ऐसा इंकार किया कि उन्होंने भी अपने लड़के को आगे पढ़ाने के बारे में सोचना छोड़कर उसके लिए मुफीद रोजगार के बारे में सोचना शुरु कर दिया जिसके सहारे वह अपना आगे का जीवन इज्जत-प्रतिष्ठा से काट सके। अपनी तो कट ही चुकी थी चिंता बस बेटे की लगी रहती थी।
लेकिन बिना पूँजी के क्या रोजगार करवाएँ इसका कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। नाते-रिश्तेदारों में तो कई थे जो बड़े-बड़े शहरों में बड़े-बड़े पदों पर काम करते थे लेकिन उनके बारे में उनको खुद कुछ तभी पता चलता था जब कोई दूसरा आकर बताता था। किसी से जब कोई आस हो मदद तभी माँगी जा सकती है। यहाँ तो उनको यह डर लगा रहता कि अगर गलती से वे किसी रिश्तेदार के यहाँ पहुँच जाएँ तो कहीं वह पहचाने ही ना। उससे भी बढ़कर यह बात भी थी किसी से नौकरी वगैरह में सिफारिश करने के लिए कहते भी तो किस मुँह से - लड़का बी.ए. पास भी नहीं था। पहले वाला जमाना तो था नहीं। आजकल तो बी.ए. कोई भी कर लेता है तो भी उनको नौकरी नहीं मिलती। ऐसे में ग्रेजुएट नहीं होना कितनी बड़ी मुश्किल है इस बात को वे समझते थे। सोचते कोई कलेक्टर के ऑफिस में या सहकारी बैंक में अपना होता तो सरकारी लोन मिल जाता और लड़का कोई रोजगार शुरू कर पाता। बहुत सोचने पर यही एक रास्ता सुझाई पड़ता था उनको - सरकार द्वारा बेरोजगारों को लोन दिए जाने की योजना में सरकारी लोन या सहकारी बैंक से लोन।
लेकिन अपने समाज का न कोई कलेक्टेरिएट में था न ही किसी और सरकारी विभाग में कोई काम करता था कि किसी तरह की पैरवी करके कोई सरकारी लोन दिलवा पाता न ही उनका कोई अजीज बैंक में काम करता था। अपने कहाने वाले अपने समाज के जो भी थे वे तो अब दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद जैसे शहरों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करते जो उनके किसी काम नहीं आ सकते थे। गाँव में हरिजनों की बस्ती में कई लोग इधर जरूर सरकारी नौकरियों में आए थे लेकिन उनमें से वे किससे कहने जाते। कभी-कभार सुन्नर का बेटा रामचरण दास उनका हालचाल पूछने आ जाता था लेकिन वह किस काम का।
अब इसे महज संयोग कहा जाएगा या कथानक रूढ़ि सुन्नर दास के लड़के बारे में उन्होंने सोचना शुरू किया और वह उनका हालचाल पूछने आ गया। आकर दूर से ही प्रणाम करने के बाद जब उसने लक्ष्मेश्वर बाबू को बताया कि उनके आशीर्वाद से कलेक्टर आलोक रंजन प्रसाद ने उनकी बहाली अपने साथ-साथ चलनेवाले अर्दली के रूप में कर ली है। उसके अंतिम वाक्य में लक्ष्मेश्वर सिंह ने न जाने क्या भाँप लिया था कि कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए उसे बैठने का इशारा कर दिया। इस वाक्य को सुनकर उनको न जाने कैसा अनुभव हुआ कि सुनने के बाद भी कुछ देर वैसे ही खड़े रह गए। जब बाबू लक्ष्मेश्वर सिंह ने अपना कथन दोहराया तब जाकर उनको पास ही रखी कुर्सी पर बैठने का ध्यान आया। शायद सोचने लगे हों कि इतनी साधारण सी दिखाई देनेवाली काठ की इस कुर्सी पर बैठने में उनको कितना समय लग गया... शायद पचास वर्ष या कुछ पीढ़ियाँ...
जवाब में रामचरण ने बड़े लोगों जैसी विनम्रता के साथ कहा कि वह परंपरावादी आदमी है और अपने को आज भी उनके बराबर बैठने के काबिल नहीं समझता जिनके पिता के नाम से आज भी जितवारपुर गाँव को याद किया जाता है। जवाब में लक्ष्मेश्वर सिंह ने कहा कि जब जिला के सबसे बड़े हाकिम ने तुमको अपने साथ अपनी गाड़ी में बैठने लायक समझा है तो हम कौन हैं। वैसे भी न अब पहले वाला जमाना है न हमारे खयालात पुराने हैं। उस दिन लक्ष्मेश्वर सिंह के बगल में वे ऐसे बैठे कि उठने-बैठने का सिलसिला ही चल पड़ा। उस दिन लक्ष्मेश्वर बाबू काफी देर तक उनसे बातें करते रहे और थाहते भी रहे। जब भगतजी चलने लगे तो कहा जब भी छुट्टी मिले आ जाया करो इतना अकेला पड़ गया हूँ, कोई देखने भी नहीं आता। पिताजी ने गाँव में इतने लोगों को बसाया कोई खोज-खबर भी नहीं लेने आता। एक बस तुम ही हो बेटा जो आ जाते हो। अब इस गाँव में कोई अपना ही नहीं बचा। देखते-देखते सब पराए हो गए।
रामचरण जी जानते थे कि आज उनके अपने टोले में ही कई ऐसे परिवार हो गए थे जिनकी हैसियत लक्ष्मेश्वर सिंह जैसे जमींदार से अधिक थी। लेकिन दूसरी तरफ यह सचाई भी थी कि इतना सब कुछ होने के बाद भी जितवारपुर गाँव को लोग उसके पिता कामेश्वर सिंह के नाम से ही पहचानते थे। उस दिन की घटना ने उनको अभिभूत कर दिया या इतने बड़े जमींदार के दरवाजे पर बार-बार कुर्सी पर बैठकर साहबों की तरह चाय पीने का लोभ कह नहीं सकता लेकिन उस दिन के बाद वे लक्ष्मेश्वर सिंह के दरवाजे पर उसका आना-जाना पहले से नियमित हो गया। उसे जब भी अपने जिम्मेदारी भरे काम से फुरसत मिलती वह बाबूसाहेब के दरवाजे आ जाता उनसे अपने सुख-दुख बाँटने। आखिर वह अब बड़े लोगों के साथ उठने-बैठने लगा था। लक्ष्मेश्वर सिंह की आज जैसी भी हालत हो गई हो लेकिन समाज में कभी बड़े-बड़े लोगों के साथ उनके परिवार का उठना-बैठना था। बैठकी में फ्रेम करवाकर टँगा जमींदारी बांड अपने आपमें सारी कहानी कह देता था।
उधर लक्ष्मेश्वर बाबू से जब उसकी कुछ अंतरंगता बढ़ी तो एक दिन मौका देखकर उन्होंने रामचरण उर्फ भगतजी के सामने अपना दुखड़ा रोना शुरू कर दिया। कहने लगे तुमने अच्छा किया विवाह नहीं किया औलाद से ऐसा दुख तो नहीं भोगना पड़ता। एक बेटा है। तुमसे क्या छिपाना अब अपने समाज में कोई हमारे दरवाजे का रुख भी नहीं करता। घर की हालत कैसी है तुमसे छिपी नहीं है। किसी तरह इज्जत बची हुई है।
रामचरण ने समझा शायद लक्ष्मेश्वर जी पैसे की माँग करेंगे। उसने तत्काल कहा, कोई रोजगार शुरू काहे नहीं करवा देते हैं। कहिएगा तो कुछ पैसे हम भी दे देंगे। ज्यादा तो है नहीं आपको पता है अभी पिछले ही साल सीतामढ़ी वाले रोड पर जमीन खरीदे थे। छप्पर डालकर एक खपरैल भी बनवाए थे। इस साल तो उसको पक्का भी करवा लिए हैं। हाथ तो टाइट है लेकिन बउआजी अगर कोई दुकान डाल लें नेपाली समान का तो खूब चलेगा।
अरे तुम एतना सोचे यही बहुत है। आजकल दूसरे के बारे में कौन सोचता है। समय आएगा तो तुमसे ही कहेंगे और किससे कहेंगे। लेकिन अभी हम दूसरा बात कह रहे थे - लक्ष्मेश्वर बाबू ने माहौल को थोड़ा और रहस्यमय बनाते हुए कहा।
कौन बात? बताइए-बताइए! भगतजी की उत्सुकता बढ़ चुकी थी।
अरे तुमसे क्या कर्जा लें। तुम कलेक्टर साहब के एतना नजदीक रहते हो। तुमको तो पता ही होगा सरकार ने शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार देने के खयाल से स्कीम शुरू किया है। सोच रहे हैं उसी में साजन से अप्लाई करवा दें। कर्जा मिल जाए तो कुछ और पैसा मिलाकर मारुति वैन खरीद देंगे। गाड़ी चलवाने में थोड़ा इज्जत-प्रतिष्ठा भी है कमाई भी अच्छा है। पढ़ा-लिखा तो नहीं लेकिन लोग कहते हैं गाड़ी खूब बढ़िया चलाने लगा है... अपने चलाने में शरमाएगा तो ड्राइवर रख लेगा। आजकल तो कम पैसा में ही ड्राइवर मिल जाता है। घरे-घरे लइका लोग ड्राइवरी सीख लिया है... बाकी गाड़ी का अच्छा जानकारी होने से कोई ठग नहीं पाएगा। नहीं तो आजकल ड्राइवर सब ही लूटकर खा जाता है।
ऊ तो आप ठीक कह रहे हैं लेकिन बउआजी तो बी.ए. पास भी नहीं हैं शिक्षित बेरेाजगार वाला लोन तो बी.ए. पास लोगों के लिए है... बात काटते हुए भगतजी बोले।
वही तो तुमसे कह रहे थे रामचरण, लक्ष्मेश्वर बाबू ने खँखारते हुए कहा। कलेक्टर से अगर तुम किसी तरह कहकर लोन पास करवा दो तो बड़ी मेहरबानी होगी - कहकर उन्होंने भगतजी के सामने हाथ जोड़ दिए थे। बाद में इस घटना के एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी ने लोगों को बताया। भगतजी के सामने गाँव के पुराने जमींदार का वारिस ऐसे हाथ जोड़कर विनती करे। उस दिन उनको अपने महत्व का पता चला। कहना तो चाहते थे चाहे जो हो जाए ई काम करवाकर ही रहेंगे, आप हाथ जोड़कर जो बोले हैं। लेकिन बड़े-बड़े साहबों की सेवा करते-करते सरकारी भाषा का उनको भी अच्छा अभ्यास हो गया था इसलिए उनके मुँह से निकला, काम तो बहुत मुश्किल है लेकिन आप अप्लाई करवा दीजिए हम मौका देखकर साहब से बोलेंगे। करना न करना तो उनके हाथ में है।
तुम कहके तो देखो। बाकी तो सब भगवान के हाथ में है।
कहा नहीं जा सकता भगवान की कृपा थी या भगतजी की बात का असर। इधर साजन ने अप्लाई किया और दो महीने में लोन पास भी हो गया और पंद्रह दिन में दुआरे पर नया मारुति वैन भी आ गया। कहानियाँ तो तरह-तरह की चलीं। कहते हैं कि भगतजी ने एक दिन सुबह जब कलेक्टर साहब को अकेले पाया और उनको गाना गुनगुनाते देखकर यह अनुमान भी लगाया कि साहब का मूड ठीक है तो डरते-डरते उसने साहब से साजन के लोन के बारे में कहा। लोग बताते भगतजी ने कलेक्टर के इतने नजदीक रहने के बावजूद उनको न उससे पहले किसी काम के लिए कहा था न उसके बाद ही कहा। कलेक्टर साहब सुनकर कुछ देर तो चुप रहे फिर कहा कल उसको बुला लेना।
लोन मिलने के बाद फेकू दास ने कहा था अरे ई भूमिहार के फेर में पड़ गए हैं भगतजी। जब इनको सोध लेगा तब पता चलेगा। लेकिन उसकी बात पर किसने कब ध्यान दिया था जो तब देते। साजन जरूर लोन मिलने के बाद अकेले में भगतजी को चाचा भी कहने लगा था। उसका वैन चलने लगा और लक्ष्मेश्वर सिंह के घर में भी थोड़ी बहुत समृद्धि वापस आने लगी। बरसों बाद उनकी उस टुटहा हवेली की मरम्मत भी हुई और पुताई भी। गाड़ी के आने के बाद उनके घर में समृद्धि भी मारुति वैन जैसी तेज गति से आ रही थी। कहनेवालों का क्या इसी को लेकर कहानियाँ बनाने लगे। बीआरएफ 2939 गाड़ी पर सवार साजन सिंह कथानायक बनता जा रहा था उनके लिए। ऐसा कथानायक जो दिन में तो खादी झाड़कर अपने सफेद वैन में सवार होकर चलता। रास्ते में गुजरने वालों को वैसे ही हाथ उठाकर सलाम करता हुआ जैसे देश के बड़े-बड़े नेताओं को करते हुए टीवी पर देखता था।
लोग कहते दिन में तो वह बस ऐसे ही लोगों को दिखाने के लिए गाड़ी चलाता है। इतना शान से ही रहना था तो लोन लेकर गाड़ी क्यों खरीदा? कोई कहता उसकी गाड़ी का असल खेला तो रात में शुरू होता है। असल में तो उसकी गाड़ी रात में सिंडिकेट के लिए काम करती जो इस पार उस पार के व्यापार के लिए जानी जाती। रात होते ही गाड़ी में इस पार से तेल, नमक भरकर जाता जिनकी उन दिनों नेपाल में बड़ी कमी थी। उधर से लौटते तो गाड़ी में गाँजा भरकर जिसकी इस तरफ बड़ी माँग थी। सीमा के दोनों ओर रहने वाले लोगों की इसी कमी को पूरा करने के उद्देश्य से सीतामढ़ी रोटरी क्लब द्वारा वर्ष के सर्वश्रेष्ठ उद्यमी के रूप में दो बार सम्मानित महेश सिग्रीवाल ने सिंडिकेट का गठन किया था। अच्छी गाड़ी चलाने वाले और किसी भी परिस्थिति में साहसपूर्ण व्यवहार करनेवाले सिंडिकेट के सामूहिक व्यापार का हिस्सा बन सकते थे। लोग कहते साजन सिंडिकेट का सबसे जुनरबी है - न किसी से डरनेवाला न किसी की परवाह करनेवाला।
तमाम कहानियों की तरह इस कहानी का भी कोई आधार तो नहीं था लेकिन साजन की बातचीत से अक्सर लगता था कि वह इस तरह के काम कर सकता है इसीलिए उससे जुड़ी इस तरह की कहानियों को बल मिलता गया। अपने इंटर पास न कर पाने की बात वह बड़े गर्व से बताता था। कहता देश-विदेश के अनेक बड़े-बड़े नेता-अभिनेता इंटर पास नहीं कर पाए... और तो और दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति बिल गेट्स भी इंटर पास नहीं है। अब बहुत पढ़ने-लिखने से कुछ नहीं होता। असली बात यह है कि आपको दुनिया की कितनी समझ है। पैसा का युग है। जिसके पास जितना पैसा है उसी की ठाठ है। कोई नहीं पूछता पैसा कहाँ से आ रहा है। असल चीज है कि आपके पास पैसा होना चाहिए... गाँव के बड़े-बूढ़े उसकी बातों से प्रभावित होकर कहते पैसे के बारे में इसकी समझ इतनी साफ है कि एक दिन जरूर खूब पैसा बनाएगा। पिता लक्ष्मेश्वर सिंह को भी लगता था एक दिन उनका लड़का परिवार की खोई हुई प्रतिष्ठा वापस जरूर लाएगा...
इधर साजन की किस्मत मारुति वैन के सहारे दौड़ रही थी कि उसके मुँहबोले चाचा की गाड़ी फिर से गुमनामी की पटरी पर चल पड़ी। अचानक आलोक रंजन प्रसाद का तबादला हो गया और उसी के साथ भगतजी की प्रसिद्धि का दौर भी बीत गया और उस सम्मान का भी जो कलेक्टर के खास अर्दली के रूप में उनको प्राप्त था। उनको समझ में आ गया था दुनिया में सब मतलब के लिए यारी करते हैं। जब आपके पास पावर रहता है तो सब सलाम करते हैं पावर खत्म सब खत्म। डी.एम. के अर्दली के रूप में जो पावर उनको मिला था खत्म हो गया। कारण नए कलेक्टर के अर्दली वे नहीं बन पाए। उनका तबादला फिर से किसी गुमनाम विभाग में हो गया और जिले के कई हजार चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों की तरह वे भी एक बार फिर पहचानविहीन हो गए।
आसपास की दुनिया से ऐसा विराग उपजा कि अपनी नौकरी का बाकी समय जड़ी-बूटियों की खोज में लगाने लगे। इधर जबसे कलेक्टर को जड़ी देनेवाली बात फैली थी भगतजी को लोग गंभीरता से लेने लगे थे। पहले उनकी इस विद्या का लाभ केवल कुछ गरीब वगैरह ही उठा पाते थे। लेकिन पिछले वर्षों में जबसे जड़ी-बूटियों की यह विद्या आयुर्वेद के रूप में पुनर्जीवित होने लगी थी पढ़े-लिखे लोगों की दिलचस्पी भी इसमें बढ़ी थी।
ऐसे लोग भी भगतजी से असाध्य बीमारियों की जड़ी जानने आते तो उनको लगे हाथ यह सलाह भी दे देते उनको अपनी जड़ी-बूटियों वाली दवाओं को तैयार करके बाजार में बेचना चाहिए। उनमें से कई उनको किस्से सुनाते कि किस तरह हजारों कंपनियाँ देश में ऐसी दवाएँ बनाकर बेच रही हैं। इनकी माँग लगातार बढ़ती जा रही है। वे उनको सलाह देते कि जिस तरह की जड़ी-बूटियाँ वे देते हैं ऐसी कोई नहीं देता। शर्तिया उनका नुस्खा लोकप्रिय होगा।
ऐसा नहीं था कि भगतजी से सबने मुँह फेर लिया हो। उनको चाचा कहनेवाले साजन ने उनसे उसी तरह संबंध बनाए रखा। उसके पिता लक्ष्मेश्वर सिंह से मिलने जाते भगतजी तो साजन भी उनके पास बैठ जाता। रास्ते में कहीं पैदल आता देखता और अगर वह गाड़ी से होता तो गाड़ी रोककर भगतजी को भी बिठा लेता। साजन के बारे में कहा जाता कि वह पैसे कमाने का कोई भी नुस्खा हाथ से नहीं जाने देता। उसके दिमाग में भी भगतजी के आयुर्वेदिक नुस्खों को लेकर कुछ न कुछ चल रहा होगा क्योंकि उसने भी अपने मुँहबोले चाचा को अकेले में यह सलाह देना शुरू कर दिया था आपके पास ई जो जड़ी-बूटी का ज्ञान है न समझिए अनमोल रतन है। आप आजतक अपने जड़ी का भेद किसी को नहीं देते हैं लेकिन जानते हैं इसको बाँटिएगा तो समाज का केतना भला होगा। ई कभी सोचे हैं। अरे हमरा मानिए तो अपना सारा जड़ी के बारे में नुस्खा के साथ लिख दीजिए। हम किताब छपवा देंगे। आपको तो साले साल पैसा मिलेगा ही किताब की बिक्री होगी तो समझिए जो पढ़ेगा उसी का भला होगा। साजन सिंह अकेले में अक्सर उनके कान में यह सलाह डाल देता और वह मौन सोचते रह जाते। भगतजी भले मौन रह जाते हों लेकिन भतीजे ने अपनी तरफ से कहना नहीं छोड़ा।
पैसे कमाने के नए-नए तरीकों पर नजर रखने वाला साजन अच्छी तरह जानता था कि जड़ी-बूटी की इस विद्या पर आधारित आयुर्वेदिक दवाइयों का कारोबार कितना फल-फूल रहा है। देश-विदेश में इसकी कितनी माँग है। वह खुद अपनी गाड़ी से नेपाल में मिलनेवाली एक दुर्लभ जड़ी की खेप चोरी-छिपे एक मल्टीनेशनल कही जानेवाली कंपनी के लिए लाता था जो ताकत की दवा बनाने के लिए उसका इस्तेमाल करती थी। चोरी-छिपे और बड़ी सफाई से उनका काम करने के कारण कंपनी के बड़े लोगों से उसका अच्छा परिचय था। उनसे वह आयुर्वेद के बारे में पूछता-समझता रहता था।
भतीजे ने चाचा को इस तरह से घेरा कि अंत में वह अपनी गुप्त जड़ियों और उनके नुस्खों के बारे में साजन को लिखाने के लिए तैयार हो गए। एक शर्त पर कि जब किताब छपे तो उसकी कीमत इतनी कम हो कि गरीब आदमी भी उसे अपनी कमाई से खरीद सके। सीतामढ़ी में अपने गाड़ी के काम के लिए जो अपना ऑफिस साजन ने बना रखा था उसी में चाचा-भतीजा मंडली बैठने लगी। ऑफिस से छूटते ही वे साजन के ऑफिस आ जाते अगर साजन फुर्सत में होता तो किताब लिखवाना शुरु कर देते। कहते मेरा तो आगे नाथ न पीछे पगहा लेकिन यह किताब रहेगी तो लोग इसी से याद रखेंगे। कभी पूछते किताब में फोटो भी छपेगा? जब साजन जवाब में हाँ कहता तो फिर पूछते फोटो रंगीन छपेगा या ब्लैक एंड व्हाइट। साजन कहता प्रकाशन कंपनी की तरफ से फोटो खींचने वाले आएँगे। विदेशी कैमरा से फोटो खींचेंगे। सुन-सुनकर मन ही मन खुश होते और अपने सारे नुस्खे लिखवाते जाते।
इधर किताब पूरी हो रही थी उधर एक और प्रसंग इस बीच बार-बार उभर रहा था। मुँहबोले चाचा ने भतीजे के लोन के लिए जब डी.एम. साहब से कहा तब आप लोगों को याद होगा कि डी.एम. ने कहा था कल बुला लेना। अगले दिन जब साजन को लेकर वह पहुँचा तो डी.एम. ने कहा कि एक जिम्मेदार गारंटर ले आओ अभी के अभी लोन दिलवा देते हैं। साजन ने छूटते ही कहा चाचाजी यहाँ हैं ही किसी और को ढूँढ़ने जाऊँगा और समय लग जाएगा। भतीजे के मुँहबोले चाचा ने जो भरोसा उस दिन उसके ऊपर दिखाया था वही अब इस बुढ़ापे में उन पर भारी पड़ता जा रहा था। कारण तो आप समझ ही गए होंगे। जी, साजन ने लोन नहीं चुकाया।
पहले भी तकाजे साजन के पास आते रहे खुद भगतजी ने भी कई बार उससे कहा। वह टाल जाता। कभी कहता किस्त ही तो नहीं चुका रहा हूँ। एक बार में ही सारा दे दूँगा। लेकिन नए डी.एम. ने सारे पुराने कर्ज की उगाही के उद्देश्य से यह आदेश जारी कर दिया लोन अगर कर्जदार न वापस करे तो उसके गारंटर से वसूला जाए। लोग भी ऑफिस में उसे समझाते कि अब तो ऐसा कानून बन गया है कि अगर लोन नहीं चुकाए तो सरकार गारंटर से पूरा वसूलती है, उसे भी जेल जाना पड़ता है। कोई बताता कि अगर गारंटर सरकारी नौकरी में हो तो सरकार उसकी पेंशन वगैरह भी रोक लेती है। वह परेशान था। कई बार साजन से उसने कहा भी था। गुस्से में किताब का काम भी बीच में छोड़ दिया था। उनको भरोसा था कि साजन उनके साथ धोखा नहीं करेगा। इस तरह उस पर दबाव बनाएँगे तो जल्दी ही सरकार का कर्जा लौटा देगा।
किताब का काम छोड़ दिया तो साजन से मिलना भी बंद हो गया। लेकिन उनको भरोसा था अपने ईश्वर पर, भगत बनकर इतने दिनों से गरीबों की सेवा कर रहे थे। उनके साथ तो भगवान बुरा नहीं ही होने देंगे। विश्वास तो था लेकिन चारों ओर लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे। जमाना कितना बदल गया था इस बात को वे नहीं समझ पाए। वे नहीं समझ पाए कि ऐसा समय आ चुका है कि कोई भी पैसे के लिए कुछ भी कर सकता है। कौन कब दगा दे जाए कहा नहीं जा सकता... किसके मन में चोर बसा हो कहा नहीं जा सकता...
जिन दिनों सरकारी लोन वाला प्रकरण गाँव में चर्चा का विषय बना हुआ था और किसी मनचले का का बनाया यह तुक्तक आपसी बातचीत में दोहराया जा रहा था - हम कहनी चरना साले से, मत कर यारी भूमिहारे से... उन्हीं दिनों भगतजी को इस बात का पहला संकेत मिला - शायद साजन वैसा नहीं है जैसा वे समझते आए थे। इसका पहला संकेत उनको अपने एक मरीज के माध्यम से मिला। पहले मैंने बताया था कि जबसे आयुर्वेद का प्रचलन बढ़ा था भारत-नेपाल के आसपास के शहरों के कुछ लोग भी उनसे कब्ज, बवासीर आदि की जड़ी लेने आते रहते। ऐसे ही उनके एक मुरीद थे सीतामढ़ी के कोर्ट बाजार स्थित सेंट्रल बैंक में कैशियर रघुनाथ राज। उन्होंने एक दिन बताया जैसी जड़ी-बूटी की दवा वे देते हैं वैसी ही दवा पिछले सप्ताह जब वे दिल्ली गए थे तो देखा आयुर्वेदिक दवाओं की दुकान में बिक रही थी। किसी मल्टीनेशनल कंपनी की बनाई हुई थी - हर्बल इंटरनेशनल नाम था कंपनी का। मैंने ली नहीं। उससे तो अच्छी दवा तो आपकी होती ही है। ये विदेशी कंपनियाँ कुछ नहीं कर रही हैं देशी नुस्खों पर अपना लेबल चिपकाकर महँगे दामों में बेच रही हैं। बस आगे की बातचीत पर उनका ध्यान नहीं टिका। उनके ध्यान में तो एक ही नाम अटक गया - हर्बल इंटरनेशनल। उनको याद आया अक्सर बातचीत में साजन इसी कंपनी का नाम लेता था। एक बार उसने बताया भी था कि नेपाल से वह इस कंपनी के लिए एक दुर्लभ जड़ी अपनी गाड़ी में लेकर आता है। उसने भगतजी को बताया था कि वह उस कंपनी के कुछ बड़े अफसरों को जानता है। वह उनको भी नुस्खा दिखाएगा भगतजी का। अगर वे तैयार हो गए तो उनकी दवाएँ दुनिया भर में बिकेंगी और और उनको मुनाफे में हिस्सा भी मिलेगा... तो क्या...
रात तो नहीं हुई थी शाम का अँधेरा गहरा गया था। आम तौर पर यह समय शहर गए लोगों के गाँव लौटने का होता। वे उसी समय शहर की ओर निकल पड़े। घर में कोई तो था नहीं कि बताकर जाते कि कहाँ जा रहे हैं। वह तो चौक पर कुछ लोगों ने उनको जाते हुए देख लिया नहीं तो कोई जान भी नहीं पाता कि वे कहाँ गए। कहाँ से आए। आगे की कथा का यही सूत्र बना कि वे सीतामढ़ी की ओर गए थे। दो दिनों तक उनको किसी ने नहीं देखा। दो दिनों बाद वे जिस अवस्था में दिखे उसके बारे में तो किसी ने कुछ सोचा भी नहीं था। बहरहाल, उन दो दिनों को लेकर भी कई कहानियाँ चलीं। लेकिन जो कहानी अधिक प्रचलित हुई इस कहानी में मैं भी उसी के माध्यम से उनके जीवन के उन दो गायब दिनों के सूत्र जोड़ूँगा।
सुनाने वाले ऐसे सुनाते जैसे सब कुछ उनकी नजरों के सामने घटित हुआ हो। उस रात जब वे मेनरोड स्थित अपने घर से निकलकर शहर की ओर गए तो कहते हैं सीधा साजन के ऑफिस गए जहाँ उसने ऊपर एक कमरा बनवा लिया था और उसी में रहने भी लगा था। उनका मन भरा हुआ था। पहले लोनवाली बात अब यह दवावाली बात। उस दिन सब कुछ साफ-साफ करने के इरादे से निकले थे। करीब घंटे भर की पैदल यात्रा के बाद जब वे उसके ऑफिस वाले स्थान पर पहुँचे तो वहाँ उन्होंने जो नजारा देखा उससे दंग रह गए। वहाँ चारों तरफ गाँजे की गंध भरी हुई थी और उसके वैन से छोटे-छोटे बोरे उतर रहे थे। जड़ी-बूटियों के इतने बड़े जानकार से यह बात नहीं छिप पाई कि उन बोरों में क्या भरा था। वे सीधा साजन के पास पहुँचे और उससे सख्त आवाज में बात करने लगे। उससे उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि उसको गारंटर बनाकर जो लोन उन्होंने लिया है उसको जल्दी से चुकाए नहीं तो वे उसका यह राज हाकिमों के सामने फाश कर देंगे। यही नहीं उस दिन उन्होंने उससे कड़ककर अपने नुस्खों पर विदेशी कंपनी द्वारा बनाई जा रही दवाओं के बारे में भी पूछना शुरू कर दिया।
जवाब में साजन ने कुछ नहीं कहा। चुपचाप मुस्कराता सुनता रहा। कहता रहा, चाचा आइए इत्मीनान से बात करते हैं यहाँ स्टाफ लोग है। उसके बाद चाचा को लेकर वहाँ से चला गया। कहाँ गया उसने अपने चाचा के साथ क्या किया इसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं। जब दो दिनों बाद वह उसी पाकड़ के पेड़ की ओर वाली सड़क से केवल लंबा सफेद कुर्ता पहने गाँव की ओर आते दिखाई दिए तो लोगों ने कहानी के सूत्र आगे सहज ही जोड़ लिए। लोग कहते जड़ी-बूटी के इस पारंगत भगत को उनके उस मुँहबोले भतीजे ने उनके द्वारा ही लिखाए गए नुस्खे के अनुसार भाँग में धतूरा मिलाकर एक ऐसी जड़ी खिलाई जिसका दिमाग पर अचूक असर होता है। मात्रा ज्यादा हो तो दिमाग फिरने का शर्तिया अंदेशा रहता है। जब उसका असर पक्का हो गया तब रात में उसी पाकड़ के नीचे उनको छोड़ दिया। न किसी को पहचान रहे थे न किसी की बात का कोई जवाब दे रहे थे। जब भी कोई कुछ बोलता तो उसको जवाब में कोई दवाई बताने लगते। वह भी इस तरह जैसी किसी वैद्य ने किसी को कभी न बताई हो।
काशी साव एक कहानी सुनाता कि एक दिन बिना धोती के लंबा कुर्ता पहने जेबों में ढेला भरे चले जा रहे थे तो मैंने आवाज लगाई भगतजी चाय तो पीते जाइए। जवाब में वे बोले, शाम को नियमित तौर पर औषधि की तरह भाँग का सेवन करने से पेट की कोई बीमारी नहीं होगी। न कब्ज की शिकायत होगी न पेट कभी खराब होगा। अच्छी नींद आएगी सो अलग। किसी तरह का तनाव भी नहीं होगा। मैं उनको देखता रह गया...
कारण जो भी रहा हो गाँव में जब लोग जुटते तो यही कहते कि भगतजी की मति फिर गई है। उनके ही कारनामों की चर्चा रहती। लंबा कुर्ता पहने वे अचानक कहीं दिखाई दे जाते। उनको धोती या पाजामा पहनाने की जितनी भी कोशिश की जाती नाकामी ही हाथ लगती। यह सच है कि जब से वे गाँव वापस आए थे कुर्ते के नीचे कोई भी वस्त्र पहनाए जाने के खिलाफ सत्याग्रह ठाने हुए थे। सचाई जो भी रही हो एक कहानी उनके इस तरह नंगधड़ंग रहने के कारण भी चल रही थी। कहानी का स्रोत जो भी रहा हो लेकिन लोग कभी अफसोस के साथ तो कभी चटखारे लेकर यह कहानी एक दूसरे को सुनाते। कहने वाले सुनाते कि जब साजन ने यह पक्का कर लिया कि भगतजी की स्मृति जाती रही तो उसने उनको आजाद करने से पहले एक और कारस्तानी की। उनके पायजामे के पाँयचे में उसने बारीक मिर्च रगड़ दिया और फिर वही पायजामा उनको पहना दिया। उसके बाद उनकी क्या हालत हुई होगी आप समझ सकते हैं। वे दौड़ लगाने लगे, जब उससे भी अंगविशेष की जलन शांत नहीं हुई तो पायजामा खोलकर दौड़ने लगे। उसी दौरान गाँववालों ने उनको देख लिया था। कहानी सच रही हो या झूठ उनको पायजामा पहनाने की कोशिश जब भी की जाती वे ऐसे विद्रोह कर देते कि लोगों को लगता हो न हो पायजामे में मिर्च लगाने वाली कहानी में कोई न कोई सचाई रही हो।
गाँव में मर्यादा का संकट खड़ा न हो इसके लिए यह तय हुआ कि उनको घर में ही बंद करके रखा जाए। लेकिन सारी कोशिशें नाकाम हो जातीं। रात में वे उसी तरह प्रकृत अवस्था में घर से निकलकर सड़क पर आ जाते। गुजरती गाड़ियों पर ढेला चलाने लगते। कहने लगते इनमें तस्करी का माल है। देश के नौजवानों को बर्बाद करने का सामान है... कहते जाते और ढेला चलाने लगते। कई बार तो लोग देख लेते तो पकड़कर ले आते। कई बार जब बाद में गाड़ीवाले किसी पत्थर फेंकनेवाली आत्मा के किस्से सुनाते तो गाँववालों को समझते देर नहीं लगती कि वे किसकी कथा सुना रहे हैं। किसके बारे में बातें कर रहे हैं।
बाद में जब भगतजी के भक्तों ने उनकी कथा कहनी आरंभ की तो कहने लगे कि पाकड़ के इस पेड़ के नीचे सबसे पहले ढेलमरवा गोसाईं ने भगतजी जैसे पवित्र आत्मा को अपना स्वरूप दे दिया। उस दिन के बाद से अपनी जेब में वे ढेला लेकर चलते। केवल ठाकुर का कहना था कि ढेला तो वे कुत्तों और बच्चों को स्वयं से दूर रखने के लिए रखते थे जो उनको उस नंग-धड़ंग अवस्था में देखकर उनके पीछे लग जाते। बच्चे पागल समझकर उनके ऊपर पत्थर फेंकते और कुत्ते न जाने क्या समझकर उनके पीछे पड़ जाते। ऐसे में जेबों में भरे ढेले ही उनके काम आते। जिसके चलाते ही कु्त्ते और बच्चे दोनों भागते थे। उनके भक्तों ने बाद में जो कथा बनाई उसके अनुसार वे ढेला मार-मारकर लोगों को आशीर्वाद देने लगे थे। तब हम जैसे सांसारिक उनकी माया को नहीं समझ पाए उनके दैवी रूप को समझ नहीं पाए...
खैर... उनको घर में बंद करके रखने की जितनी भी कोशिशें की गईं सब नाकाम रहीं। न जाने कैसे वे रात को बाहर निकल आते और कहते हैं नेपाल की ओर जानेवाली सड़क पर देर रात चलनेवाली गाड़ियों पर ढेला चलाने का अपना दैनिक कार्यक्रम शुरू कर देते। एक सुबह वहीं उनकी लहास मिली थी। जेबों में ढेला भरा हुआ था जिससे उनकी बुरी तरह कुचली लाश को लोगों ने पहचाना था। देखकर लग रहा था जैसे सामान से भरे किसी ट्रक के नीचे आ गए हों।
...सब कहानियाँ पीछे छूटती जा रही हैं। अब तो बस जितवारपुर गाँव है और ढेलमरवा गोसाईं की कहानी। ढेलमरवा गोसाईं की कहानी सड़क से गुजरनेवाली गाड़ियों और उसके ड्राइवरों के माध्यम से सीमा के इस पार उस पार फैलने लगी। वहाँ मन्नत माँगने लोग दूर-दूर से आने लगे। अनेक लोग कहते मिल जाते कि ढेलमरवा गोसाईं ने किस तरह उनकी मुराद पूरी कर दी।
तीन साल से वहाँ ढेलमरवा गोसाईं का मेला लगने लगा है पौष मास के शुक्ल पक्ष में एकादशी से मेला शुरु होता है जो पूर्णिमा के दिन नदी में स्नान के साथ समाप्त होता है। मेला बड़ा लोकप्रिय हो गया है। हजारों लोग मन्नतें माँगने आते हैं। मन्नत पूरी होने पर ढेले का चढ़ौना चढ़ाने आते हैं। जबसे लिच्छिवी टीवी ने अपने धार्मिक कार्यक्रम में ढेलमरवा गोसाईं के प्रकट होने की कहानी का बखान किया है तबसे भक्तों की भारी भीड़ यहाँ जुटने लगी है।
आपको कहानी में ऊपर आई मंदिर की चर्चा का स्मरण आ रहा है तो उचित ही है। ...अब पटना के महावीर मंदिर जैसा भव्य मंदिर बनाना है तो धन इकट्ठा करने में समय तो लगता ही है न। गाँव में हमारे आपके जैसे लोग जब मंदिर को लेकर सवाल उठाने लगे तो पिछले साल मेले में हजारों की भीड़ के सामने लक्ष्मेश्वर सिंह ने एलान किया कि आप लोग धीरज रखिए जल्दी ही मंदिर निर्माण का काम शुरू हो जाएगा। वे चाहते हैं कि मंदिर निर्माण का काम एक बार आरंभ हो तो फिर रुके नहीं इसीलिए थोड़ा समय लग रहा है। आशा करनी चाहिए कि मंदिर निर्माण का काम जल्दी ही शुरू हो जाएगा।
आप सोच रहे होंगे कि साजन सिंह जैसा जुनरबी इस कहानी से गायब होकर कहाँ चला गया तो मैं आपसे माफी माँग लूँ यह बताना भूल जाने के लिए कि मेला का संयोजक साजन सिंह को ही बनाया गया और जिस तरह सफलतापूर्वक ढेलमरवा गोसाईं का मेला लगातार तीसरे साल आयोजित हुआ उससे उसका रुतबा भी काफी बढ़ गया है। भगवान भरोसे चलने वाली एक राष्ट्रीय पार्टी का जिला महामंत्री बन गया है और जिस तरह से पिछले साल मेले का उद्घाटन उसने पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव से करवाया है लोग कहने लगे हैं अगले चुनाव में विधानसभा का टिकट मिलना तो तय ही समझिए। लोग कहते हैं ढेलमरवा गोसाईं ने गाँव की किस्मत ही नहीं बदली उसकी तकदीर भी बदल दी।
कुछ पूछिए तो हाथ ऊपर उठाकर बड़ी अदा से कहेगा सब ढेलमरवा गोसाईं की महिमा है।