अथ चरण-पुराण / कमलेश पाण्डेय

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आम तौर पर चरण शब्द से अर्थ आदमी के शरीर के निचले भाग में पाए जाने वाले बाँस-सरीखे पायों का लिया जाता है जो उपरी धड़ को थामे रहते हैं। ये संख्या में दो होते हैं। अगर किसी वज़ह से ये जोड़ा टूट जाए तो उसकी कसर बांस, बेंत या किसी भी लकड़ी की बैसाखी से पूरी कर ली जाती है. आजकल तो स्टील भी प्रयोग किया जाने लगा है। अवसरानुकूल चरणों को टांग पांव, पैर, टंगड़ी या पाद आदि कहा जाता है। बहरहाल यहाँ चर्चा उस टाँग की नहीं होने जा रही जो टूट जाती है या मार कर तोड़ी जाती है न ही उन पाँवों की जो कुछ प्राकृतिक कारणों से भारी हो जाते हैं, बल्कि उन चरणों की होगी जो छुए, चूमे, पखारे या धो-धो के पिए जाते हैं और अक्सर जिनकी धूलि को माथे पर लगा लिया जाता है.

कुछ लोगों को कुछ लोगों के चरण कमल सरीखे लगते हैं. आपकी अपनी आँखों से ऐसा दिखे ये ज़रुरी नहीं, क्योंकि चरण अमूमन एक बदशक्ल-सी चीज़ होते हैं, जिनमें पंखडी, पराग और सुडौल पत्तों का अख्श नहीं मिल सकता. बल्कि ज़्यादा संभावना तो इस बात की है कि वहां बेडौल उँगलियों, गंदे नाखूनों और फटी बिवाईयों का एक वीभत्स-सा कोलाज मिले. ज़ाहिर है ऐसे चरणों को कमल मान कर उनपर वारी जाने के पीछे कुछ उद्दात भाव होते हैं, जैसे श्रद्धा या स्वार्थ-सिद्धि, अन्यथा यदि कमलों को ये पता चल जाए कि उनकी उपमा किसे दी जा रही है तो निश्चित जानें कि वो अपने कीचड़ में ही डूब मरेंगे. वैसे चरण और कमल की कोई व्यवहारिक तुलना हो सकती है तो यही कि दोनों कीचड़ के निकट संपर्क में रहते हैं.

चंद चरण चूमें जाते भी देखे जाते हैं. ये आस्था के विभोर हो जाने वाली पराकाष्ठा है. इसी पोज़ की इंतेहा है चरण धो कर पी जाना. चरणों के निचले भाग को तलुआ कहते हैं जिन्हें कई चरण-प्रेमी भक्त चाटते रहते हैं. चरण जैसी वस्तु के साथ ऐसा आत्मीय व्यवहार ये सिद्ध करता है चरण चूमने वाले चरणों के ऊपर निगाह तक नहीं डालते. अगर वो इन चरणों के ऊपर टिके माले-मुफ्त से अघाए हुए विशाल पेट, या उससे ज़रा ऊपर अन्दर छुपे काले ह्रदय या उससे भी ऊपर एकदम शीश पर धरी धूर्तता से भरी हांडी सरीखे सर को देख-समझ लें तो चरणों की चूमा-चाटी छोड़ कर उन्हें धरा से ही उखाड़ फेंकने की जुगत में लग जाएँ.

इन वन्दनीय चरणों के स्वामी और उनकी आरती उतारते वे भक्त, जो ये गाते फिरते हैं कि फलां-फलां के चरण वन्दनीय हैं, कौन हैं - ये हम सब से छुपा हुआ नहीं है. इन चरणों को विशिष्ट सिद्ध करने यानी आज की शब्दावली में मार्केट वैल्यू बढाने में काफी मशक्क़त की गयी है. हम ये भी देखते सुनते आए हैं कि श्रद्धानत होकर श्रद्धेय के चरण-रज लेने की विशिष्ट भारतीय परम्परा को एक धूर्तता भरी नट कला में बदल देने वाले ये चरणदास तब तक ही चरणों में झुके रहते हैं जबतक वरदान देने वाले हाथ न उठ जाएँ.

मुहावरे वाले इन चरणों में से कई में स्वर्ग छुपा होता है. ऐसे चरण ज़्यादातर पतियों के होते हैं, जिनकी सगी पत्नियां ही उनके चरणों में स्वर्ग होने की अफवाह फैलाती हैं. जबतक पति इस पर यकीन करता है, उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते. चरणों में स्वर्ग हो या स्वर्ग में चरण- दोनों स्थितियों में चरण ज़मीन पर नहीं हो सकते क्योंकि स्वर्ग तो परम्परा से आसमान में ही होता आया है. जल्द ही पति जान लेता है कि वो तो इस भ्रम में उलटा लटका हुआ है और स्वर्ग जो है उसके चरणों से सरक कर उस ज़मीन पर बस गया है, जिसपर उसकी पत्नी खुद खड़ी है. ज़मीन पर जन्नत बनाने वाली तमाम चीजें जो बेचारा पति अपनी मेहनत मशक्क़त से पैदा करता है, वो ये चरणों की दासी ही भोगती है.

गर्दन और ऊपरी हिस्सों को सजाने संवारने में तमाम तरह की चीजें प्रयोग में लाई जाती हैं. स्त्रियों के मामले में तो सारा अंग-प्रत्यंग ही सजाने-संवारने योग्य माना जाता है. चरण अपनी सारी महत्ता के बावजूद ले-दे कर एक ही श्रृंगार योग्य समझे जाते हैं. दो तो हाथ भी हैं, पर एक घडी पहनता है तो दूसरा अंगूठी और ब्रेसलेट. ये दो हाथ अगर किसी नारी के हों तो साज-श्रृगार की वस्तुओं की गिनती कठिन हो सकती है. पर चरणों को ज़्यादा से ज़्यादा जूते-मोज़े नसीब होते हैं, वो भी जोड़ों में, एकदम एक जैसे. मेरी जानकारी में कुछ महिला चरणों के अपवाद को छोड़ दोनों पैरों में दो किस्म के जूते पहनने का रिवाज़ जूतों के इतिहास में कभी नहीं रहा. आधुनिक सन्दर्भ में चरण और जूते अक्सर एकाकार हो जाते हैं, इसलिए जूतों पर लगी धूल को ही चरण-धूलि मान लिया जाता है. जूते चूंकि धोये नहीं जाते, सो उन्हें रुमाल से पोंछ कर जेब में रख लेने को ही चरण धोकर पी लेने के वज़न का माना जाने लगा है. पौराणिक युग में चरण-पादुकाओं ने सत्ता का प्रतीक तक बनकर जैसा सम्मान पाया, अब वैसी बात नहीं रही, क्योंकि न तो पादुकाएं ही राम की हैं न उन्हें पूजने वाले भरत ही अस्तित्व में हैं पर बदले हुए अर्थों में भी चरणों को कैद रखने वाली इन महान पादुकाओं का महत्त्व कम नहीं है.

चूंकि चरणों के चलने से उनके चिन्ह बनते हैं, कुछ लोग स्वतः ही उनपर चलने लगते हैं. आजकल चरणों के चिन्ह दरअसल जूतों के चिन्ह होते हैं जो जूतों में लगे कीचड़, गोबर या विष्ठा से उकेरी गयी चरणों की प्रतिकृति होते हैं. कुछ चरणों के रास्ते पर फूल बिछे होते हैं, जिन्हें वे कुचलते हुए चलते हैं. ऐसे चरणों के चिन्ह वस्तुतः पंखडियों के लहू से बनते हैं. इन चरण-चिन्हों पर चलने वाले भी चरण छूने-चूमने वालों की तरह ही चरणों के ऊपर क्या है इसकी परवाह किये बिना आँखें खोले या मूंदे चलते चले जाते हैं, चाहे ये चिन्ह उन्हें किसी कुएं या दलदल की ओर ले जाएँ या किसी मीनार की चोटी पर जाकर विलुप्त हो जाएँ जहां से आप ये अनुमान लगाते रह जाएँ कि ये ऊपर को गए या नीचे. किसी किसी चरण के पीछे भागना यों महामारी की तरह फैलता है कि एक बड़ी रैली का रूप ले लेता है. ये चरण-चिन्हों पर चलने वाले चरणों के स्वामी का पीछा जीते-जी तो करते ही हैं, मरने पर भी नहीं छोड़ते. ये नहीं कि बस खुद ही चल लें, दूसरों को भी उनके पीछे लगाए रखने में मिशन भाव से लगे रहते हैं. चरण-चिन्हों को पूजने का रिवाज़ पुराना है. कई बार देवता की जगह उसके चरण-चिन्ह ले लेते हैं और उसी पर फूल-पत्र और चढ़ावे चढ़ने लगते हैं. ये लोग और ज़्यादा भक्ति पर उतारू हुए तो चरण चिन्हों की फोटो बनवाकर बंटवाने या दीवार पर टांग कर आरती गाने लगते हैं. ये चरण-चिन्हों का बेहद लाभ-पूर्ण व्यावसायिक पक्ष है.

अब हम चरण-स्पर्श पर बात करेंगे. इसकी कई मुद्राएँ बताई जाती हैं. सभी मुद्राओं में छूने वाले को चरणों के स्वामी के आगे झुकना पड़ता है. एक मुद्रा में कमर को एक सौ बीस डिग्री तक ही झुका कर हाथों को स्पर्श योग्य चरणों के ऊपर घुटने तक लाया और उन्हें छू लेने का भ्रम पैदा किया जाता है. यह चरण-स्पर्श की मज़बूरी वाली मुद्रा है जैसे दामाद द्वारा श्वसुर के नाते रिश्तेदारों के पैर छूना. दूसरी मुद्रा में कमर पर नब्बे डिग्री का कोण बनता है और हाथ चरण का स्पर्श कर झट हट जाते हैं. यह कृपा बनाए रखने की प्रार्थना वाली मुद्रा है, जैसे छात्रों द्वारा स्कूल कालेज के गुरु जनों का या छुटभैये नेताओं का स्थानीय या प्रदेश पार्टी अध्यक्ष का आम दिनों में चरण-स्पर्श. तीसरी मुद्रा में चरण एकदम पकड़ लिए जाते हैं और तब तक नहीं छोड़े जाते जब तक चरणों वाला काम करा देने का वादा न कर ले. छात्र उन गुरु जनों के पैर इसी मुद्रा में छूते हैं जिनके पास परीक्षा की कॉपी हो. चुनाव-टिकटार्थी पार्टी अध्यक्ष के चरण पकड़ने की बजाय एकदम जकड लेते हैं और उसपर दबाव-सा बनाते हैं जिसमें ये इशारा छुपा होता है की अगर टिकट नहीं दिया गया तो आपके और पार्टी के पाँव क्षेत्र से उखाड़ भी दिये जा सकते हैं. अंतिम मुद्रा चरणों पर लोटने की है जिसमें निरीहता के चरम पर पहुँचा भक्त खुद को चरणों वाले के हवाले कर देता है. इस मुद्रा को चरणों में नाक रगड़ना भी कहा जाता है. अपने यहाँ कोई भी किसी के समक्ष अपना काम निकालने के लिए इस मुद्रा को साध लेता है. चरण स्पर्श के मामले में स्थिति इन दिनों इतनी नाज़ुक हो चली है कि लोग बात-बात में सीधे इस चौथी मुद्रा पर आ जाते हैं. चरणों वाले खासे घाघ हो चले हैं, पहली तीन मुद्रा से सधते ही नहीं.

आधुनिक प्रजातंत्र के नए माहौल में आजकल इन चार मूल मुद्राओं के कॉकटेल से चरण-स्पर्श की कई नई मुद्राएँ निकल आई हैं. ऎसी एक मुद्रा है मंत्री पद की शपथ लेने के बाद विधायक द्वारा मुख्य-मंत्री के चरण-स्पर्श की. इस मुद्रा के भाव संचालन पर गौर करने से झुकाने के कोण, हाथ और चरण के संयोग की अवधि और स्पर्श की क्रिया संपन्न हो जाने के बाद सीधे खड़े होने की गति से ही जाना जा सकता है कि विधायक प्राप्त विभाग से कितना संतुष्ट या रुष्ट है.

हमारे वर्ग-विभाजित समाज में सदियों से ये तय रहा है कि छुए जाने वाले चरण कौन से हैं और छूने वाले हाथ कौन. इधर बदलते सामाजिक समीकरणों के कारण कई बार दोनों की भूमिकाएं परस्पर बदल जाती हैं तो कुछ नई स्पर्श मुद्राओं का जन्म होता है. आशीर्वाद में उठने को आदी हाथ नये-नये स्पर्श योग्य बने चरणों के घुटने तक भी नहीं पहुँचते और मामला कुछ-कुछ जापानी अभिवादन पर समाप्त हो जाता है. शुरू में संकोच और परम्परा निर्वाह के तनाव से पाँव छूने को झुकी कमर सीधे होते ही राहत की सांस लेती है पर धीरे-धीरे मौक़ा-परस्ती हर कठिन मुद्रा को सहज बना देती है.

मुझे आशा ही नहीं वरन पूर्ण विशवास है कि चरण-चूने-छुलाने की ये द्वय परम्परा प्रजातांत्रिक रिवाजों के साथ और फूलेगी फलेगी और सदियों चलती रहेगी.