अथ मुर्ग़ा कथा / राजेन्द्र वर्मा
सवेरे चार बजे ही मुर्गे ने पूरी ताक़त से बाँग दी-"कुक्कड़ू कूँ! कुक्कडू कूँ!" पर उसे कोई जवाब नहीं मिला। उसने फिर बांग लगायी, जैसे कह रहा हो-'उठौ साहेब! सूरज निकल्लै वाला है!' मानो चेतावनी दे रहा हो-'अगर सूरज निकलने से पहले न उठे, तो कोई-न-कोई पहाड़ टूट पड़ेगा!'
मुर्गे को शायद मालूम नहीं कि उसकी तेंतीस पुश्तों पहले, जब रात नौ-दस बजे सो जाया करते थे, तो सवरे चार बजे उठ जाते थे। तब मुर्गे के 'कुकड़ू-कूँ' की ज़रूरत भी थी, क्योंकि उस समय अलार्म घड़ी नहीं थी। पर अब तो, रात बारह बजे से पहले कोई सोता ही नहीं। नौकरीपेशा हो या दुकानदार, सभी को घर आते-आते साढ़े आठ-नौ बज जाते है। खाते-पीते दस-साढ़े दस। टी.वी. देखने में आधा-एक घंटा-ग्यारह-साढ़े ग्यारह बज गया। तब जाकर कहीं बिस्तर नसीब होता है। ... सोते-सोते बारह बजता है। ऐसे में कोई चार बजे उठे भी तो कैसे? सात बजे उठ जाएँ, यही बहुत है! गर्मियों में छः-साढे छः बजे भले ही उठ जाएँ! ... अब मुर्गे मियाँ की 'कुकडू-कू' को कोई कैसे 'रेस्पांस' दे?
अंग्रेज़ भले ही हमें देर से सोना और देर से उठना सिखा गये हों, लेकिन अपने बच्चों को वे यही सिखाते हैं-'अर्ली टु बेड् एंड अर्ली टु राइज़ मेक्स ए मैन हेल्दी, वेल्दी एंड वाइज।' ठीक ही है-अंग्रेज़ तो वही कहलायेगा, जो अपने लिए कुछ तय करे और दूसरों के लिए कुछ! मीठी-मीठी बातों से ही तो किसी को गुलाम बनाया जा सकता है। तुलसीदास ने कटु अनुभव के बाद ही कहा होगा-"मनु मलीन तनु सुन्दर कैसे। विष रस भरा कनक घट जैसे॥"
मुर्ग़ा बनना और मुर्ग़ा बनाना प्रचलित मुहावरे हैं। इन मुहावरों को परवान चढ़ाने में शासन-प्रशासन में बड़ा योगदान है। पढ़े-लिखे और काइयों को बाद वाला मुहावरा अधिक प्रिय है। मुर्ग़ा कौन बनना चाहता है, लेकिन वक़्त के मारों को बनना पड़ता है। आदमी को मुर्ग़ा बनाने वाली कुछ संस्थाएँ हमारे आस-पास हैं, जैसे-थाना, अस्पताल, कचेहरी, नगरपालिका या सरकारी दफ्तर! इनमें से किसी से आपका काम पड़ा कि आप मुर्ग़ा बने! मुर्ग़ा बनाने वाले पत्थर-दिल होते हैं, इसलिए वे अपना कार्य डंका पीटकर सामूहिक तौर पर करते हैं। अपने साथियों के साथ वे दिन में मुर्ग़ा बनाते हैं और रात शुरू होते दारू के साथ खाते हैं। रात चढ़ने पर उन्हें मुर्गी हलाल करने में भी मज़ा आता है, लेकिन इसका मज़ा वे अकेले ही उठाते हैं! हाँ, दोस्तों के साथ इस मज़े की चर्चा ज़रूर कर लेते हैं, ताकि मुर्गियाँ बराबर हलाल होती रहें।
मुर्ग़ा हमें सवेरे-सवेरे जगाकर अपने हिन्दुस्तानी होने का फर्ज़ अदा करता है। हिन्दूवादी संगठन मुर्गे को आक्रमणकारियों के देश का बताते हैं। भारतीय संविधान लागू होने के बाद अब वह पूरी तरह से 'हिन्दुस्तानी' है, भले ही वह अफ़गानिस्तान या इरान-इराक़ से आया हो। आर्यश्रेष्ठ, राम ही कौन से भारतीय हैं? आर्य भी तो आक्रान्ता थे, लेकिन अब वे हमारे पूर्वज हैं और उनके नाम की माला जपवाकर भवसागर को पार कराया जा रहा है। उनके नाम की राजनीति कर बी.जे.पी. ने तीन बार सत्ता हथियाने में क़ामयाब हो चुकी है। ये हिन्दूवादी संगठन राजनीति को लेकर ही उदार बनते हैं, लेकिन मौक़ा पाकर परशुराम के फरसे से भी प्रश्नों के तीर चला देते हैं-कौन कहाँ से आया और अब यहाँ क्या कर रहा है?
हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि मुर्ग़ा हिन्दुस्तान के स्वास्थ्य की कितनी चिन्ता करता है! आयुर्वेद के वैद जी से लेकर यूनानी के हकीम साहब तक और बुजुर्गों से लेकर स्वास्थ्य विषेषज्ञ तक यही कहते हैं कि सवेरे की हवा में आक्सीजन अधिक होती है। सूर्य निकलने के पहले जो उठ जाते हैं, उन्हें अतिरिक्त स्वास्थ्य-लाभ होता है। सूर्योदय देखने से व्यक्ति दिन भर उत्साह से भरा रहता है। सूर्योदय पर कितने ही कवियों ने कविताएँ लिखी हैं, कितने ही लेखकों ने लेख लिखे हैं और कितने ही चित्रकारों ने चित्र बनाये हैं! ... हम लोग जब आठवीं में पढ़ते थे, तो आर्ट के मास्टर दो ही चित्र बनवाते थे-सूर्योदय का दृश्य और पर्वत से गिरता झरना!
आदमी और मुर्गे का नाता बड़ा पुराना है। मौलवी साहब जब भी बच्चों को पढ़ाते हैं, उन्हें मुर्ग़ा बनाकर ही पढ़ाते हैं। शरारती बच्चों को तो वे मुर्ग़ा बनाते ही है। हिन्दी के मास्टर भी उन्हीं की तर्ज़ पर बच्चों को मुर्ग़ा बनाते हैं। कई बच्चों ने तो मुर्ग़ा बन जाने के डर से पढ़ाई ही छोड़ दी! बेचारे अब पछताते हैं और गधे बने-बने ज़िन्दगी की लादी ढो रहे हैं। लेकिन आप पछताये होत क्या, जब गदहा बनिगे यार! ... हम भी कई बार मुर्ग़ा बने, परन्तु अंततः आदमी ही बन गये!
सवेरे-सवेरे मुर्ग़ा ही क्यों उठता है, मुर्गी क्यों नहीं? यह प्रश्न मुझे प्रायः परेशान करता है। कभी यह नहीं सुना गया कि मुर्गी 'कुकड़ू-कू' बोल रही है। हमेशा मुर्ग़ा ही बोलता है। इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी वज़ह से मुर्गियाँ मुर्गों पर भारी पड़ती हों और आधी रात बीतते-बीतते उन्हें बिस्तर-तो-बिस्तर, घर से बाहर निकाल देती हों! खिसयाया मुर्गा बेचारा क्या करे? ... घर से दूर 'कुकड़ूं कू-कुकडू कू' कर मुर्गी को डाँट-गरिया अपनी खीझ मिटाता रहता है। ... ध्यान से सुनिए, अन्तिम 'कुकडू-कुओं' में मुर्गे का स्वर शिकायती हो जाता है। अन्तिम 'कुकडू-कू' में लगता है, वह कुछ याचना कर रहा है। इस भाग के स्वर में 'आरोह' द्रुत और 'अवरोह' विलम्बित हो जाता है। ... मुझे तो यही लगता है कि जिस प्रकार कोई पहलवान अपनी पहलवालिन के हाथों परास्त हो दुनिया के सामने पहलवानी दिखाता-फिरता है, उसी प्रकार मुर्ग़ा भी दुनियावालों पर रौब गाँठने के लिए सवेरे-सवेरे निकल पड़ता है। मुर्गी आराम से सोती रहती है और मुर्गे मियाँ 'कुकडू-कू' में अपनी ताक़त ज़ाया किया करते हैं। ... हम समझते हैं कि मुर्ग़ा हमें जगाने आता है!
आदमियों से शिकायत कर-कर जब मुर्ग़ा ऊब गया, तो उसने अल्ला मियाँ से शिकायत की। लेकिन अल्ला मियाँ के पास मुर्गे की शिकायत सुनने का वक़्त कहाँ? पहले वे दुनिया की नायाब चीज़-आदमी की शिकायतें तो पहले सुन लें! आदमियों की शिकायतें सुनते-सुनते अल्ला मियाँ बूढ़े हो गये, मगर शिकायतें हैं दिन दूनी, रात चौगुनी होती जा रही हैं। ... जितनी आबादी बढ़ रही है, उससे दो गुनी शिकायतें बढ़ रहीं हैं। ... आबादी बढ़ने पर पहले वे ख़ुश होते थे कि चलो, एक और नामलेवा पैदा हुआ, मगर अब मुसीबत बढ़ती जा रही है! ... आदमी औलाद पैदा कर अल्लाह के लिए तो काम बढ़ाता जा रहा है-वे उसका मुक़द्दर लिखें, शैतान से उसकी रक्षा करें और नमाज़ के बाद इमदाद मुहैया करायें! ... आख़िर क्या-क्या करें वे बेचारे? ... पुराने वालों से अभी निज़ात मिली नहीं, ये नये वाले और आ धमके! क्या मुसीबत है? अब अल्ला मियाँ अपनी मुसीबत किसके सामने बयान करने जाएँ?
साल बीत गया मुर्गे को अल्ला मियाँ से प्रार्थना करते-करते, लेकिन ऐसा कोई सुबूत नहीं मिला कि जिससे ज़ाहिर हो कि अल्ला मियाँ कुछ पसीजे! ... लोग पता नहीं किस तुफ़ैल में चिल्लाते रहते हैं-अल्लाह, बड़ी रहमतवाला है! ... आख़िर एक दिन मुर्गे ने कमर कस ली कि अगर आज अल्ला मियाँ ने उसकी इबादत न सुनी, तो वह कल से अपना मज़हब बदल देगा!
अब इसे संयोग कहिए या मुर्गे की मज़हब बदलने की धमकी का असर, अल्ला मियाँ का दिल पसीज उठा। उन्होंने मुर्गे को उसकी परेशानी से छुटकारा दिलाने के लिए उसके पास अपने एक बन्दे को भेजा। बन्दे ने एक और बन्दे से मिलवाया। मुर्ग़ा जब बन्दे नम्बर-दो से मिला, तो उसे बड़ा अजीब लगा-उसका हुलिया और उसके हाव-भाव मुर्गे को कुछ जँचे नहीं! सिर पर छोटी-सी जालीदार गोल टोपी, चौड़ी काले बालों वाली छाती पर जालीदार बनियाइन और कमर से टखनों तक चारखाने की लुंगी! 'बड़ा बालक' बीड़ी के लम्बे-लम्बे कश लगाते उसने पैनी और तौलती हुई नज़रों से मुर्गे को देखा। उसके चेहरे पर कसाइयित का भाव था! उसे देख मुर्गे के चेहरे पर मुर्दनी छाने लगी! ... दिल बैठने लगा! ...
यह वह शख़्स था जिसकी एक अदद दुकान थी और उस पर किसी हबीब पेंटर द्वारा काले और रहे रंगों में बड़ी स्टाइल से लिखा बोर्ड लगा था-"यहाँ ताज़ा चिकन मिलता है।" मुर्ग़ा पढ़ा-लिखा तो था नहीं कि समझ पाता कि बोर्ड की इबारत क्या है? वह थोड़ा अनमना हो गया! ... नयी जगह पर आने से वह जितना ख़ुश हुआ था, उससे दुगुना सहम गया-पता नहीं, यहाँ के लोग कैसे हैं? यहाँ की मुर्गियाँ कैसी हैं? मेरी वाली जैसी ही हैं, या 'राखी सावन्त' जैसी!
राखी सावन्त का ख़याल आते ही मुर्गे में अजीब-सी सनसनी फैल गयी! तुरंत ही उसने अपनी कलंगी लहरायी और अपने छोटे-छोटे पंख फुलाकर मटकने की मुद्रा में आ गया। ... दो-चार ठुमके लगाना ही चाह रहा था कि तभी दुकानदार उस आदमी के पास आया जिसके साथ वह यहाँ तक आया था। आदमी ने दुकानदार से कुछ बातचीत की। उनकी बातचीत तो मुर्ग़ा नहीं समझ सका, लेकिन उसने यह अवश्य देखा कि दुकानदार ने आदमी को सौ का नोट दिया। नोट लेकर वह चलता बना।
मुर्ग़ा अकेला पड़ गया। उस माहौल में उसे साज़िश की बू आ रही थी। सी.आई.डी. नजरों से वह इधर-उधर देखने लगा। ... दुकान पर बाँस की चिक पड़ी थी। मुर्गे को जिज्ञासा हुई कि आखि़र दुकान के भीतर कौन-सी मूल्यवान चीज़ रखी है जो सबसे छिपायी जा रही है! उसने चिक की पतली दराज में आँख गडाकर देखा-वहाँ पर पीढ़े जैसा लकड़ी का बड़ा-सा बोटा रखा था जिस पर लाल-लाल कुछ पुता-सा लग रहा था। उसी पर एक गडांसा रखा था जिसके आगे के हिस्से में भी लाल रंग-सा कुछ लगा था। ...
मुर्गे की समझ में ज़्यादा कुछ तो न आया, मगर अब तक उसे यह अहसास ज़रूर हो चुका था कि अब उसे उसी आदमी के साथ निभाना था जिसे उसने एक नज़र में नापसन्द कर दिया था! लेकिन एक बार फिर उसने ठंडे दिमाग़ से सोचा कि दुनिया में रहते हुए हमें ज़्यादातर वही करना पड़ता है जो हमारा दिल नहीं करना चाहता! अरे मियाँ! इसी का नाम दुनियादारी है! फिर, चेहरे-मोहरे में क्या रखा है, असल बात तो यह है आदमी भीतर से कैसा है? किसी से मिलते ही उसके बारे में कैसे जाना जा सकता है कि वह कैसा आदमी है? खूबसूरत आदमी बदसूरत दिल का हो सकता है और बदसूरत आदमी खूबसूरत दिल का!
मुर्ग़ा अभी दुकानदार के चेहेरे-मोहरे में उलझा हुआ था कि दुकानदार से उसकी आँखें चार हुई। मुर्गा तो बड़ी ही आशा और ललक से दुकानदार की ओर देखा, लेकिन दुकानदार की आँखें उसे तौलती-सी लगीं। ... वह घबराकर इधर-उधर देखने लगा। दुकान की दायीं ओर एक जालीदार बक्से में बीस-पचीस मुर्गे-मुर्गियाँ बन्द थीं। मुर्गे को लगा कि ये मुर्गे-मुर्गियाँ तो बीमार हैं। अस्पताल ले जाने की तैयारी में शायद इन्हें बक्से में रखा गया है। ठीक ही है, इन्हें इस तरह ही रखना चाहिए, वरना ये बीमारी की हालत में भी इधर-उधर भागती फिरेंगी और आदमी इन्हें कैसे संभाल सकेगा! ... मुर्गियों की चंचलता पर मुर्गे ने मन-ही-मन अच्छा ख़ासा वक्तव्य दे डाला जिसे न तो मुर्गियों ने सुना और न दुकानदार ने। ... कुछ पलों के बाद मुर्गे को लगा कि कुछ अधिक बोल गया है, वह स्वयं शांत हो गया।
मुर्गियों की आदत पर मुर्गे ने अपने विचारों का शमन किया ही था कि उसकी नज़र आस-पास की झुग्गियों से सटे हुए दस फीट बाई पांच फीट में बिखरे हुए कूड़े के बेतरतीब ढेर पर पड़ी। इस बेतरतीब ढेर को नीर-क्षीर की प्रक्रिया का खेल खेलती कुछ किशोरी मुर्गियाँ कूडे में से दाना चुगकर अपना मांस बढ़ा रही थीं ताकि जल्दी ही से किसी मुर्गे के सम्पर्क में आकर माँ बन सकें। ... फिर अपने चूजों को साथ लेकर दाना चुगें। तब कितना अच्छा लगेगा जब वे और उनके चूजे साथ-साथ घूमें-फिरेंगे!
उन बेचारियों को क्या मालूम कि आगे चलकर वे सपरिवार चिकन बेचने वाले आदमी के हाथों इस मलिन जीवन से मुक्ति पाने वाली हैं। जीवन कितना ही मलिन क्यों न हो, सभी को उससे प्रेम होता है! जीवन का अन्त कोई नहीं चाहता-वह चाहे पशु-पक्षी हो अथवा मनुष्य! ...पर यह बात चिकन बेचने अथवा चिकन खाने वालों के दिमाग़ में कैसे आ सकती है?
पड़ोस में ही मस्जिद थी जिसमें ढाई बजे वाली अजान हुई। 'अल्लाहोअकबर' के साथ मुर्ग़ा भी अकस्मात् बोल पड़ा-'कुकड़ू-कू!' तीन बार 'कुकडू-कूं' करने के बाद वह चुप हो गया। ... अपने अनुभव से उसने अब तक जान लिया था कि जितनी देर तक अजान खिंचेगी, उतनी देर उसकी 'कुकडू-कूं' को सुनने वाला कोई नहीं है! अजान अभी भी जारी थी। ... मुर्गा इधर-उधर टहलने लगा। टहलते-टहलते वह एक भर-जवान दिलकश चेहरे-मोहरे वाली मुर्गी के पास पहुँचा जो उससे साल भर छोटी ज़रूर रही होगी। वह उससे ख़ूब बातें करना चाहता था, पर उसने लिफ्ट नहीं मारी। खिसियाया मुर्ग़ा किसी प्रौढ़ा मुर्गी की तलाश में लम्बे-लम्बे डग भर रहा था कि दुकानदार ने उसे पैनी नज़रों से देखा।
मुर्ग़ा दुकानदार की नज़र की ज़द में ही था, मगर फिर भी उसे लगा कि वह कहीं निकल न जाए, सो वह लपककर आया और मुर्गे को दोनों हाथों से पकड़ लिया। मुर्गे ने पहले तो भागने की कोशिश की, पर जब वह समझ गया कि वह दुकानदार की पकड़ से निकल नहीं पायेगा, तो स्वयं ही ढीला पड़ गया। ... उसके ढीले पड़ जाने पर दुकानदार ने भी अपनी पकड़ ढीली कर दी, लेकिन जैसे ही उसने मुर्गे को उलटा लटकाकर उसकी दोनों टांगें पकड़नी चाहीं, वह उसकी पकड़ से निकल भागा! ...
दुकानदार को मुर्गे के प्रति की गयी अपनी नर्मी पर क्रोध आया, पर अब तक वह उसकी पकड़ से निकल ही चुका था! वह मुर्गे की तरफ़ तेज़ी से लपका, पर लड़खड़ा गया। ... मुर्गे ने इसका फ़ायदा उठाते हुए उचक-उचक कर वह दौड़ लगायी कि दुकानदार की पकड़ से आसानी से बाहर हो गया। ज़िन्दगी में पहली बार वह उड़-उड़ कर दौड़ा। ... दो दीवारों के बीच पतली-सी जगह में से वह सांय-से निकलकर इतनी दूर आ गया कि दुकानदार को उसे पकड़ने के लिए कम-से-कम आधे किमी। की दूरी तय करनी पड़ती! ... मुर्ग़ा अपने इलाक़े में आ चुका था। दौड़ता-फांदता वह अपने घर पहुँच गया! मुर्गी बाहर ही उसकी राह देख रही थी! सवेरे से ही वह अनमनी थी-'ठीक है, थोड़ी खटपट तो सभी में होती है, मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि मियाँ घर ही छोड़ दे! ...'
मुर्गे को देखते ही उसकी आँखों में चमक आ गयी। वह लपककर मुर्गे के पास पहुँची और अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगने लगी। घबराये मुर्गे ने उसे जल्दी से घर के भीतर चलने को कहा, पर मुर्गी ने इसका कुछ और अर्थ निकला-वह मुस्कुराने कर वह झटके से मुड़ी और घर के भीतर दाख़िल होने लगी, पर अचानक ठिठक गयी! फिर बाहर आकर अपने पंख फुलाकर मान करने लगी कि मुर्गे मियाँ आयें और उसे मना कर भीतर ले चलें। मुर्गी अभी स्वांग में डूबी थी कि मुर्ग़ा गुस्से से बाहर निकला और मुर्गी को एक तगड़ा-सा झापड़ रसीद करने के अन्दाज़ में बोला, "चल अन्दर, नहीं तो..."
वाक्य अभी पूरा न हो पाया था कि दुकानदार ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वहाँ आ धमका! उसे देख मुर्ग़ा जल्दी से घर के भीतर भागा। उसके पीछे-पीछे दुकानदार! ... किंकर्तव्यविमूढ मुर्गी उल्टी तरफ़ भागी, पर दो ही पलों में एक चक्कर काट घर की ओर फिर लपकी!
जैसे ही वह घर पहुँची कि देखती क्या है कि उसके मुर्गे मियाँ की टाँगों को बेरहमी से पकड़े आदमी घर से बाहर निकल रहा है। उल्टे लटके मुर्गे की भयभीत आँखों को देख मुर्गी काँप उठी। आदमी का पीछा करते-करते वह दूर तक दौड़ती रही। इधर-उधर नज़र भी दौड़ायी कि कोई मदद को आए, मगर कोई मददगार न दिखा। ... एकाध लोगों से उसने गुहार भी की, पर व्यर्थ! उसके अपने घर के लोगों से कुछ मदद की उम्मीद थी, पर वे उस समय थे ही कहाँ! मजदूरी पर गये थे। ...
आदमी मुर्गी से काफ़ी आगे निकल चुका था, पर अभी भी वह उसकी नज़र में था। दौड़ते-दौड़ते जब वह थककर चूर हो गयी, तो रास्ते में ही बैठ गयी। फिर दो ही पलों में उठकर चली। ... अचानक एक मोड़ आया और आदमी मुर्गा सहित न जाने कहाँ ग़ायब हो गया!
मुर्गी ने काफ़ी देर तक उसने इधर-उधर देखा, पर कुछ पता न चला। ... मायूस हो घंटे भर में घर लौट आयी। ...मुर्गी दिन भर बिना कुछ खाये-पिये पड़ी रही। जरा-सी आहट पर उठ बैठती-लगता कि मुर्गा आ गया है।
उधर, मुर्गा डेढ़ सौ रुपये किलो तुल रहा था।