अदभुत त्याग / महात्मा गांधी
साँचा:GKCatBodhkatha अक्सर सामान्य पाठकय-पुस्तकों से हमें अचूक उपदेश मिल जाते है। मैं उर्दू की रीडरें पढ़ रहा हूं। उनमें कोई-कोई पाठ बहुत सुन्दर दिखाई देते है। ऐसे एक पाठ का असर मुझ पर तो भरपुर हुआ है। दूसरों पर भी हो सकता है। अत: उसका सार यहां दिये देता हूं।
पैगम्बर साहब के देहान्त के बाद कुछ ही बरसों में अरबों और रुमियों (रोमनों) के बीच महासंग्राम हुआ। उसमें दोनों पक्ष के हजारों योद्धा खेत रहे, बहुत से जख्मी भी हुए। शाम होने पर आमतौर से लड़ाई बंद हो जाती थी। एक दिन जब इस तरह लड़ाई बंद हुई तब अरब सेना का एक अरब अपने चचेरे भाई को ढूंढ़ने निकला। उसकी लाश मिल लाय तो दफनाये और जिंदा मिले तो सेवा करे। शायद वह पानी के लिए तड़प रहा हो, यह सोचकर इस भाई ने अपने साथ लोटा भर पानी भी ले लिया।
तड़पते घायल सिपाहियों के बीच वह लालटेन लिये देखता जा रहा था। उसका भाई मिल गया और सचमुच ही उसे पानी की रट लग रही थी। जख्मों से खून बह रहा था। उसके बचने की आशा थोड़ी ही थी। भाई ने पानी का लोटा उसके पास रख दिया। इतने में किसी दूसरे घायल की 'पानी-पानी' की पुकार सुनाई दी। अत: उस दयालु सिपाही ने अपने भाई से कहा, "पहले उस घायल को पानी पिला आओ, फिर मुझे पिलाना।" जिस ओर से आवाज आ रही थी, उस ओर यह भाई तेजी से कदम बढ़ाकर पहुंचा।
यह जख्मी बहुत बड़ा सरदार था। उक्त अरब उसको पानी पिलाने और सरदार पीने को ही था कि इतने मेंतीसरी दिशा से पानी की पुकार आई। यह सरदार पहले सिपाही के बराबर ही परोपकारी था। अत: बड़ी कठिनाई से कुछ बोलकर और कुछ इशारे से समझाया कि पहले जहां से पुकार आई है, वहां जाकर पानी पिला आओ।
नि:श्वास छोड़ते हुए यह भाई वायुवेग से दौड़कर जहां से आर्त्तनाद आ रहा था, वहां पहुंचा। इतने में इस घायल सिपाही ने आखिरी सांस ले ली और आंखें मूंद लीं। उसे पानी न मिला। अत: यह भाई उक्त् जख्मी सरदार जहां पड़ा था, वहां झटपट पहुंचा, पर देखता है तो उसकी आंखें भी तब तक मुंद चुकी थीं। दु:ख भरे ह्रदय से खुदा की बंदगी करता हुआ वह अपने भाई के पास पहुंचा तो उसकी नाड़ी भी बंद पाई, उसके प्राण भी निकल चुके थे।
यों तीन घायलों में किसी ने भी पानी न पाया, पर पहले दो अपने नाम अमर करके चले गये। इतिहास के पन्नों में ऐसे निर्मल त्याग के दृष्टांत तो बहुतेरे मिलते हैं। उनका वर्णन जोरदार कलम से किया गया हो तो उसे पड़कर हम दो बूंद आंसू भी गिरा देते हैं, पर ऊपर जो अदभुत दृष्टांत लिखा गया है, उसके देने का हेतु तो यह है कि उक्त् वीर पुरुषों के जैसा त्याग हममें भी आये और जब हमारी परीक्षा का समय आये तब दूसरे को पानी पिलाकर पियें, दूसरे को जिलाकर जियें और दूसरे को जिलाने में खुद मरना पड़े तो हंसते चेहरे से कूच कर जायं।
मुझे ऐसा जान पउ़ता है कि पानी की परीक्षा से कठिन नतर परीक्षा हवा की है। हवा के बिना तो आदमी एक क्षण भी जीवित नहीं रह सता। इसी से संपूर्ण जगत हवा से घिरा हुआ जान पड़ता है। फिर भी कभी-कभी ऐसा भी वक्त आता है जब आलमारी जैसी कोठरी के अंदर बहुत से आदमी ठूंस दिये गए हों, एक ही सूराख से थोड़ी सी हवा आ रही हो, उसे जो पा सके, वही जिये, बाकी लोग दम घुटकर मर जायं। हम भगवान से प्रार्थना करें कि ऐसा समय आये तो हम हवा को जाने दें।
हवा से दूसरे नम्बर पानी की आवश्यता प्यास है। पानी के प्याले के लिए मनुष्यों के एक-दूसरे से लड़ने-झगड़ने की बात सुनने में आई है। हम यह इच्छा करें कि ऐसे मौके पर उक्त बहादुर अरबों का त्याग हममें आये, पर ऐसी अग्नि परीक्षा तो किसी एक की ही होती है सामान्य परीक्षा हम सबकी रोज हुआ करती है। हम सबको अपने आपसे पूछना चाहिए "जब-जब वैसा अवसर आता है तब-तब हम अपने साथियों, पड़ोसियों को आगे करके खुद पीछे रहते है?" न रहते हों तो हम नापाक हुए, अहिंसा का पहला पाठ हमें नहीं आता।