अदालती फैसला और फिल्म "अमर"/ जयप्रकाश चौकसे

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अदालती फैसला और फिल्म "अमर"
प्रकाशन तिथि :15 सितम्बर 2015


'वेलकम बैक' के साथ संजय लीला भंसाली की फिल्म का तीन मिनट का ट्रेलर देखा और एक दर्शक की प्रतिक्रिया थी कि यह तो "बाहुबली' की नकल लगती है। दरअसल, यह टिप्पणी उसके युद्ध के दृश्य के कारण की गई, जो विशेष प्रभाव की मशीनों द्वारा रचे गए हैं। आज ऐसा लेंस उपलब्ध है कि सौ की भीड़ दस हजार की लगे। दक्षिण की "बाहुबली' के अधिकांश हिस्से कम्प्यूटर जनित छवियों से रचे गए हैं। सिनेमा विधा में टेक्नोलॉजी ने फिल्मकार की हर असंभव कल्पना को साकार किया है। पहले हम फिल्म देखते तो आश्चर्य होता था कि यह जटिल दृश्य कैसे फिल्माया गया होगा और इस जादू से हम बंध गए थे परंतु टेक्नोलॉजी ने फिल्म बनाने के उस रहस्य को बच्चे का खिलौना बना दिया है। शायद इसी कारण अब जादू ताउम्र सिर चढ़कर बोलने वाला नहीं रह गया है। उसका आनंद अब उस स्ट्रॉ की तरह हो रहा है, जिसे आप पेय पीने के बाद कूड़ेदान में फेंक देते हैं। दरअसल, सारे आनंद तत्व अब कूड़ेदान में फेंक दिए गए हैं। जैसे अब महानगर हादसों में बदल रहे हैं और ग्रामीण जीवन का भोलापन केवल हमारे सपनों में ही रह गया है, वैसे ही कहीं सिनेमा कला भी विकृत न हो जाए और हमें टेक्नोलॉजी की प्लेट में बासी समोसे की तरह नज़र आने लगे!

आज सिनेमा के निर्णायक दर्शक बच्चे और किशोर हो गए हैं। 1968 के बाद हॉलीवुड में भी विज्ञान फंतासी फिल्में अधिक बनने लगीं। हालांकि उनकी विज्ञान फंतासी में मानवीय स्पर्श स्पष्ट नज़र आता है जैसे स्टीवन स्पीलबर्ग की 'ई.टी.' में उपग्रह निवासी की आंख में आंसू आने का दृश्य और उनकी ही 'आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस' में अधेड़ महिला के निर्देश पर बना शिशु के आकार का रोबो तब रोने लगता है, जब महिला को कैंसर होने की खबर आती है। सिनेमा अपने पहले 90 वर्षों के इतिहास में सभी वर्ग की पसंद की फिल्में रचता था। आज रॉम-कॉम, फूहड़ हास्य व मायथोलॉजी के नाम पर रचे चूं-चूं के मुरब्बे खूब सफल हो रहे हैं। यह क्या कम आश्चर्य की बात है कि चमत्कृत कर देने वाली कम्प्यूटर जनित छवियों से लबरेज 'बाहुबली' का व्यवसाय मानवतावादी 'बजरंगी भाई जान' से अधिक हुआ। एक राजनीतिक दल के मुखपत्र ने इसे हिंदू फिल्म कहा, जबकि फिल्में हमेशा धर्मनिरपेक्ष होती है।

लंबे समय तक सभी प्रकार की फिल्में बनती रहीं। सामाजिक व प्रेमकथाओं के साथ नाडिया की "हंटरवाली' भी खूब चलती थी और "अरेबियन नाइट्स' तथा रहस्य रोमांच की फिल्में भी बनती थी। कुछ फिल्मों में हीरे-जवाहरात व सोने-चांदी के खजाने एक कंदरा में छुपे होते थे और जलप्रपात के पीछे की चट्‌टान 'खुल जा सिम सिम' बोलने पर खुल जाती थी। इन फिल्मों की तरह ही सिनेमा की कंदरा टिकट खरीदते ही खुल जाती थी। आज टेक्नोलॉजी की शक्तियों का प्रचार भी बहुत हुआ है, अंत: दर्शक जानता है कि यह रोमांचक व असंभव-सा दिखने वाला दृश्य कैसे रचा गया है। अत: उसके तकनीक की जानकारी के अभाव में उसका रोमांच खूब उत्तेजक था। सिनेमा के इस रहस्य के लोप होने का भय है। पहले केक बनने की विधि के ज्ञान के बिना केक खाने का मजा ही कुछ और था। यह भी गौरतलब है कि टेक्नोलॉजी के सारे आविष्कार विशेषकर घातक हथियार पहले संगठित अपराध व धार्मिक माफिया को उपलब्ध होते हैं और सुरक्षा एजेंसियां उन्हें बाद में ही खरीद पाती हैं। टेक्नोलॉजी उस गर्भवती सर्पणी की तरह होती है, जो एक कतार में लगभग सौ अंडे देती है और बाद में अपने खाली पेट के कारण वह भूख की मारी वापसी में अपने ही अंडे खाती है और हवा या अन्य कारणों से कतार से लुढ़के अंडे बच जाते थे और सिनेमा भी उन अंडों में से एक रहा है। मनुष्य के पेट की आंतड़ियों में ही चिकनाई की मोटी परत होती है और वह न होती तो आंतड़ियां स्वयं को ही नष्ट कर देतीं।

जिन पांच तत्वों से संसार की रचना हुई है, उन पांच तत्वों से ही मानव शरीर भी बना है परंतु मनुष्य के शरीर के बाहर इन पांच तत्वों में विरोध भी है जैसे पानी अग्नि को बुझा देती है परंतु मनुष्य शरीर में भूख की ज्वाला के साथ ही पाचन का रसायन भी पैदा होता है। अत: मनुष्य ही श्रेष्ठतम रचना है।

आजकल सभी क्षेत्रों में विषैले विचारों ने मनुष्य से ही उसकी असीमित शक्तियों को छीन लिया है, राजनीति का विष नीले फीते के जहर की तरह सभी चीजों को निगल रहा है। मनुष्य के मनुष्य बने रहने के िलाफ एक षड्यंत्र है और यह वैचारिक जंग ही महत्वपूर्ण है। मनुष्य और उसकी करुणा एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही है। इस निराशा और तर्क के पतन के दौर में आशा मनुष्य की छुपी हुई शक्तियों पर टिकी है। ठीक ऐसे ही सिनेमा भी मर नहीं सकता। मानवीय करुणा में ओत-प्रोत फिल्म टेक्नोलॉजी के चमत्कार बाहुबली को परास्त कर सकती है। 'मसान' और 'मांझी- द माउंटेनमैन' न केवल सराहे गए हैं वरन् उन्होंने आंशिक लाभ भी कमाया है।