अदालत और जन सामान्य के फैसले / जयप्रकाश चौकसे

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अदालत और जन सामान्य के फैसले
प्रकाशन तिथि :24 दिसम्बर 2015


निर्भया प्रकरण का दोषी, जो अपनी कम उम्र के कारण मात्र तीन वर्ष के लिए जेल भेजा गया था और उसकी रिहाई की डेडलाइन के बाद लोकसभा और राज्यसभा में इस बाबत एक कड़ा कानून पारित हुआ। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद उसका गजट में नोटिफिकेशन होगा तथा इस प्रक्रिया में दस दिन लग सकते हैं। अत: उस अपराधी को लाभ मिल गया है। अमेरिका में बेसबॉल के शिखर सितारा खिलाड़ी पर उसकी पत्नी की हत्या का आरोप लगा परंतु केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य के कारण उसे अदालत ने बरी किया, जबकि जज पूरी तरह से आश्वस्त था कि कत्ल उसी ने किया है परंतु फैसला तो कानून के दायरे में ही किया जाता है और उसमें जनता के लोकप्रिय विचार पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता परंतु भारत में एक आतंकवादी के फैसले में जाने कैसे यह संकेत आ गया कि जनभावना के मद्‌देनजर फैसला किया गया है। जब सड़क के जुनूनी हुल्लड़बाजी के तत्व संसद में घुस आते हैं तो संसद ही सड़क बन जाती है और सड़क संसद की तरह हो जाती है। बहरहाल, अमेरिकी सितारा खिलाड़ी अदालत में बाइज्जत बरी होकर अपने भव्य महलनुमा बंगले में पहुंचा तो बंगले के चौकीदार ने उसे घर की चाबियां देकर यह कहा कि उनके दर्जनभर सेवक अदालती फैसले से नाखुश होकर त्यागपत्र दे चुके हैं और वह केवल सबके त्यागपत्र अौर चाबियां देने के लिए रुका था। शिखर खिलाड़ी ने रेस्तरां में अपने लिए टेबल बुक करनी चाही तो इनकार कर दिया गया। वह स्वयं अपने प्रिय रेस्तरां पहुंचा, जो लगभग खाली था परंतु उसे टेबल नहीं दी गई। अमेरिका की अदालत के फैसले ने उसे बरी किया परंतु अमेरिका की अघोषित जन अदालत ने उसे दंडित किया और कमाल की बात यह है कि यह कोई प्रायोजित अांदोलन नहीं था वरन् हर व्यक्ति ने अपने विवेक से यह निर्णय लिया था।

इस तरह का अनियोजित सामाजिक बहिष्कार भारत में संभव नहीं लगता, क्योंकि हमारे जीवन से नैतिक मूल्यों का पतन तो उसी दिन शुरू हो गया था, जब आम लोगों की बातचीत में यह फूहड़ वाक्य शामिल हो गया, 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी,' जबकि गांधीजी ने अपने जीवन में किसी मजबूरी के तहत कोई काम नहीं किया केवल अंतिम दिनों में अनेक शहरों और कस्बों में सांप्रदायिक दंगों के कारण देश के विभाजन का वे विरोध नहीं कर पाए परंतु इसको इन्होंने मन से स्वीकारा भी नहीं। उनकी नृशंस हत्या के विषय में सिमो द ब्वूवा एवं ज्यां पॉल सार्त्र का कथन है कि यह एक महान जीवन का 'काउंटर क्लोजर' है, जिसका अर्थ है कि अपनी विजय के क्षण में व्यक्ति मन ही मन महसूस कर ले कि उसके आदर्श हार गए हैं। इस आशय की बात सिमोन द ब्वूवा की पुस्तक 'कमिंग ऑफ एज' में वर्णित है।

दरअसल, किसी भी सख्त कानून से सामाजिक व्यवहार में आशाजनक परिवर्तन नहीं हो पाता। यह परिवर्तन केवल परिवार में नैतिक मूल्यों की स्थापना से संभव है। जब तक परिवार का एक सदस्य अपने परिवार के भ्रष्ट सदस्य के खिलाफ खड़ा नहीं होता तब तक भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून भी विफल ही होगा। हमारे यहां तो राजनीतिक दल अपने ही सदस्य को गुनाहगार होने के बावजूद उसके साथ एकजुट होकर खड़े होते हैं। लियॉन यूरिस के उपन्यास 'क्यू बी सेवन' में दूसरे विश्वयुद्ध के यातना शिविरों में मानव अंग काटने वाला डॉक्टर किसी तरह लंदन में सम्मानित जीवन जी रहा है और उस दौर के आरोपियों को तलाशने वाला एक दल अखबार में डॉक्टर के खिलाफ लेख लिखता है और तिलमिलाया हुआ डॉक्टर उस लेख के लेखक के खिलाफ एक लाख पाउंड का मानहानि मुकदमा दायर करता है। पूरे उपन्यास में अदालत की कार्यवाही का संपूर्ण विवरण है। जज यह महसूस करते हैं कि वे अमानवीय ऑपरेशन किए थे परंतु केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर उसे दंडित नहीं किया जा सकता।

जज कमाल का फैसला देता है और लेखक को मानहािन केस का मुजरिम मानता है परंतु एक लाख पाउंड के बदले वह उसे न्यूनतम एक पेन्स के भुगतान का आदेश देता है और डॉक्टर जीतकर भी हार गया तथा उस लेख को लिखने वाला हारकर भी जीत गया! प्रेमचंद का 'पंच परमेश्वर' भी पढ़िए, वहां भी यही अहसास है, लेकिन साथ में हृदय परिवर्तन होकर मानवीयता की जीत भी है।