अदृश्य होने की कामना के रहस्य / जयप्रकाश चौकसे

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अदृश्य होने की कामना के रहस्य
प्रकाशन तिथि :15 जून 2015


कभी-कभी ज्यों धूप के दिन बरसात, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार मनोरंजक सवाल करते हैं। रणबीर कपूर से पूछा गया कि आप एक दिन गायब, अदृश्य रहने की क्षमता पा सकें तो दिन कैसा बिताएंगे। जवाब दिया गया, 'मैं सारे विश्व को छुपाछाई खेलने की चुनौती दूंगा।' यह खुशी की बात है कि 'बॉम्बे वेलवेट' के हादसे के बाद भी उसका हास्य और हाजिर जवाबी कायम है। बचपन में हम सबने छुपने और पकड़े जाने का खेल छुपाछाई खेला है और संभवत: उन दिनों ही हमारे अवचेतन में कुछ समय के लिए अदृश्य होने की कामना का बीच पड़ जाता है। उम्र के हर दौर में अदृश्य होने की इच्छा होती है, क्योंकि हम वर्तमान से असंतुष्ट हैं और शत्रु शक्तिशाली है, अत: उनसे जीतने के लिए अदृश्य होने की आकांक्षा जागती है। लीलाधर मंडलोई की एक कविता की प्रारंभिक पंक्तियां इस तरह हैं 'सबसे बीच उपस्थित, दृश्य से बाहर, सबसे खतरनाक, मुजरिम है वह, इस सदी का' समूचे देश को आरामगाह में तब्दील करता, हमारे बुजुर्गवार की, शख्सियत से जोंक की तरह चिपका है वह' यह पूरी कविता ही इस काल खंड का परम सत्य है। मंडलोई विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं।

अदृश्य होने पर पांचवे दशक में 'मि.एक्स इन बॉम्बे' बनी थी, जिसका विराट स्वरूप उच्च तकनीकी गुणवत्ता से भव्य बजट में बोनी कपूर ने 'मि. इंडिया' में रचा था। सलीम-जावेद की लिखी फिल्म के अंतिम दृश्य में नायक अपनी अदृश्य होने के यंत्र को फेंककर खलनायक को कहता है 'अब आम हिंदुस्तानी बिना किसी दैवी आशीर्वाद के तुम्हें पराजित करेगा।' बस इसी संवाद को अगर आम हिंदुस्तानी अपने जीवन में उतार सकें तो अन्याय व असमानता के खिलाफ सार्थक लड़ाई लड़ी जा सकती है। हर देश ने अपना विकास देश की मेहनत और संपदा से अर्जित किया है। विदेशी निवेश अंततोगत्वा आर्थिक साम्राज्यवाद को सफल कर देगीं। हमारे मंदिरों, गिरजाघरों और गुरुद्वारों तथा मस्जिदों में जमा धन ही देश की कायापलट कर सकता है और इतने ही दैवी सहयोग यथेष्ठ है। गीता में स्वयं श्रीकृष्ण कहते है कि जब अंधकार व अन्याय गहराएगा मैं अवतार लूंगा परंतु मनुष्य का युद्ध मनुष्य ही लड़ेगा, मैंने तो कुरुक्षेत्र में भी रथ ही चलाया था, शस्त्र तो अर्जुन ने चलाए थे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे महान ग्रंथों का अनुवाद सही नहीं है और प्राय: हम अपनी सुविधा के अनुरूप उसके अंश ही दोहराते हैं।

बहरहाल, अदृश्य होने की आकांक्षा के पीछे हमारी लंपटता व दमित इच्छाएं भी शामिल हैं। इसकी गहराई में भी हमारी निर्बलता ही छुपी है और हमने अपने विविध मुखौटों से उसे छुपाने के प्रयास में ही अपनी शेष ऊर्जा भी गंवा दी है। बाबू देवकीनंदन खत्री ने 'चंद्रकांता' व 'भूतनाथ' नामक फंतासी में अपने अय्यार 'जासूस' पात्र को अदृश्य होने की क्षमता दी थी और वह लखलखा सुंघाकर बेहोश भी कर देता है। आजकल अत्यंत लोकप्रिय इस शैली को त्याग देना चाहिए कि हमारे भारत की खोज लखलखा ही क्लोरोफोर्म का पहला अविष्कार था। खेद है कि हमारी उदांत संस्कृति के खुलेपन से हम बचना चाहते हैं और थोथे दावे करने लगते हैं। फंतासी व इतिहास में अंतर है। गौरतलब है कि बाबू देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों के सवा सौ वर्ष पूर्व एचजी वेल्स व जूर्ल्स वर्न ने विज्ञान फंतासी रची थी।

अगर सचमुच हम सभी को अदृश्य रहने का वरदान एक दिन के लिए मिल जाए तो देश में दृश्य कैसा होगा? सत्ता की कुर्सी अदृश्य नेताओं की आपसी मारपीट में टूट जाएंगी या अपने अदृश्य होने की कामना करेगी। यह भी संभव है कि अनेक नारियां दमित इच्छाओं की शिकार होंगी। कुछ कत्ल भी होंगे। अदृश्य होने से हम अपनी संकीर्णता से निजात तो नहीं पाएंगे। यह तो फंतासी है परंतु कड़वा यथार्थ यह कि गरीब, दलित व शोषित वर्ग हमारे भाग्य विधाताअों के लिए हमेशा अदृश्य ही रहा है।