अद्वैत वेदांत / परंतप मिश्र
अपरिमित बुद्धिमत्त्व सागर में प्रज्ञाप्रतिभासितदर्शन की लहरों पर मनीषियों के विज्ञत्व का प्रवाह सर्वदा मेधा सम्पन्न रहा है। विद्यमानमति कुशलबुद्धि विवेचक की विदर्शना ने जगत के अविज्ञान को सूक्ष्मदर्शिता से विबुधत्व को स्थापित किया है। अभिविख्यात दर्शन में प्रमुखतः दो धाराएँ प्रख्यात हैं-प्रथम भारतीय दर्शन और पश्चात्य दर्शन। ज्ञान के आलोक में विकसित दोनों ही दर्शन आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने की पहले थे। समय और परिस्थितियों के मानक मूलत्व को प्रभावित नहीं कर सकते हैं।
भारतीय दर्शन प्रबुद्धता कि समृद्ध आधारशिला पर सुशोभित है। समान्यतया अनिर्वचनीय का निर्वचन आत्मघात के रूप में देखा जा सकता है। पर भारतीय दर्शन का शिरमौर वेदांत की प्रकृतिस्थ विवेचकता प्रशस्ततम है। पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय दर्शन को अपनी दृष्टि से देखा है। मुख्यतया भारतीय दर्शन को उन्होंने अव्यवहारिक और निराशावादी समझा है।
एक जर्मन विद्वान हुए हैं, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद फ्रांस की नागरिकता स्वीकार कर लिया था। श्री अल्बर्ट श्वित्जर उन्होंने भारतीय दर्शन के विषय में कहा है कि "जीवन और जगत का निषेध करने वाले दर्शन हैं भारत में, ये निराशावादी और पलायनवादी हैं"। उनका यह वक्तव्य समस्त भारतीय दर्शन को लेकर है, पर इसके मूल में वह वेदांत दर्शन के अद्वैतवाद को चिन्हित करने का प्रयास किया है क्योंकि उपलब्ध सभी दर्शनों में यह सर्वश्रेष्ठ है। अतः उनका अभिमत अद्वैत दर्शन से सम्बन्धित है। इसी क्रम में कुछ भारतीय समीक्षकों का भी प्रयोजन अद्वैत वेदान्त का तिरस्कारपूर्ण विवेचन कर इसे जगत और जीवन का निषेधक माना है।
सत्यता तो यह है कि भारतीय दर्शन का सबसे जीवंत दर्शन अद्वैतवाद शाङ्कर दर्शन ही है और यहाँ पर हम विश्लेष्ण कर उसको पुर्णतः प्रतिस्थापित करते हैं। वेदांत की अविरल धारा के भारतीय मनीषी भाष्यकारों में प्रमुखता से दो भाष्यकार हुए हैं जिहोने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा है, एक आचार्य शङ्कर और दूसरे आचार्य रामानुज। आचार्य शङ्कर का भाष्य "शारीरक-भाष्य" के नाम से विख्यात है तो आचार्य रामानुज विरचित भाष्य "श्री-भाष्य" के नाम से प्रसिद्ध है।
दोनों ही मनीषी आचार्य शङ्कर एवं आचार्य रामानुज की बौद्धिकता का लालित्य यह है कि एक ही सूत्र की विवेचना अपने-अपने कौशल से उसमें भिन्न-भिन्न अर्थ और पृथक-पृथक संदर्भ को देखते हुए वेदांत की दो अग्रणी सिद्धांतों को प्रतिस्थापित किया है। यह भाष्यकार की ज्ञानावस्थित प्रबुद्धता का अनुपम उदाहरण तो है ही, साथ ही साथ व्ख्याकर की स्वतंत्र मेधा शक्ति का प्रमाण भी।
बहुशः विश्लेषक विषय को अपनी योग्यता और ज्ञान के आधार पर वर्णित करते हैं और ऐसा करते समय वह रचनाकार के मूल तत्व से स्वचिन्तन का मिश्रण कर नये प्रतिमान स्थापित कर जाते हैं। जो लेखक के चिन्तन से भिन्न होता है पर यह समीक्षक की मुक्तवर्णनात्मक शैली होती है।
एक छोटी-सी कहानी के माध्यम से व्याख्याकार के विचारों की कल्पना और स्वतंत्र विचार स्थपना का उदाहरण प्रस्तुत है। यह कहानी इस प्रकार है कि एक कवि थे और उनकी रचना का चयन विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर दिया गया था। कुछ समय बाद ऐसा सयोंग हुआ कि एक कक्षा में अध्यापक महोदय उनकी ही कविता को विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे और कवि महोदय उस कक्षा के समीप से जा रहे थे। अभी खिड़की तक ही पहुँचे थे की उन्हें अपनी रचना कि प्रथम पंक्ति सुनने को मिली। उन्होंने सोचा यहीं ठहर कर देखा जाय की अध्यापक महोदय मेरे कविता कि व्याख्या कैसे करते हैं, जो मैंने सोचकर लिखा है उसे समझ सके अथवा नहीं। छात्रों को इसका क्या अर्थ समझाते हैं? और अगर नहीं समझा पाते तो मैं स्वयं ही उपस्थित हूँ उसका वर्णन कर सकता हूँ। ऐसा विचार कर कवि महोदय वहीं खिड़की के पास चुपचाप खड़े हो गए।
अध्यापक महोदय ने कहने लगे " बच्चों कवि कहता है-'कह दो की शराब अच्छी है' अब अगर शराब अच्छी है तो उसे पी लेना चाहिए। इसमें कहने की तो कोई आवश्यकता नहीं थी और वह भी पहली ही पंक्ति में। पर बच्चों कवि जो होते हैं वह बड़े ही विज्ञ प्राणी होते हैं, वह बहुत सोच समझकर लिखते हैं, कुछ भी अकारण नहीं लिख सकते। अतः उनका पहली पंक्ति में यह कहना कि 'कह दो की शराब अच्छी है' निरर्थक नहीं हो सकता है। इसका ज़रूर कोई रहस्य है।
आगे अध्यापक महोदय ने व्याख्याकार की स्वतंत्रता का परिचय देते हुए कहा कि "बच्चों! जैसा कि हमसभी जानते हैं कि हमारी पांच इन्द्रियाँ हैं 1.आँख, 2.कान, 3.नाक, 4.जिह्वा और 5.त्वचा और इनसभी इन्द्रियों की संतुष्टि के प्रकार हैं। जैसे, आँख-वह देखकर संतुष्ट हो गयी, नाक-गंध को पाकर संतुष्ट हो गयी, जिह्वा-स्वाद लेकर संतुष्ट हो गयी और त्वचा-स्पर्श से संतुष्ट हो गयी पर पूर्ण संतुष्टि के लिए पाँचों इन्द्रियों का संतुष्ट होना अनिवार्य है। अतः कवि ने इसलिए कहा है कि 'कह दो की शराब अच्छी है' अर्थात अगर कह देंगे तो पाँचवी इन्द्रि कान भी सुन लेगा और सुन लेने से वह भी संतुष्ट हो जायेगी और इस प्रकार व्यक्ति पूर्ण संतुष्टि को प्राप्त कर पायेगा"।
कवि महोदय जो अभीतक खिड़की के पास ही खड़े होकर सुन रहे थे। अपने आपको रोक न सके और अध्यापक महोदय के सम्मान में ताली बजाते हुए कक्षा में प्रवेश किया। कहने लगे-"अध्यापक महोदय आप धन्य हैं और धन्य है आपके विचारों की गति। मैंने तो लिखते समय इसकी कल्पना भी नहीं की थी, जैसा आपने वर्णन किया है"।
इस कहानी में व्य्ख्याकर की स्वतंत्रता को हमने देखा जो लेखक के विचारों के आधीन नहीं है। उसका अपना दृष्टिकोण और मति है तभी तो वेदांत के दो महामनीषी आचार्य शङ्कर एवं आचार्य रामानुज मूल रूप से एक ही सूत्र की व्याख्या स्वतंत्र रूप से अपने-अपने सिद्धांतों की स्थापना में करते हैं और दोनों ही अद्भुत और वन्दनीय हैं।
यह भी एक स्वतंत्र निर्णय का उदाहरण ही कहा जायेगा कि दर्शन के जगत में विद्वानों ने उपर्युक्त मनीषियों के भाष्यों में अपना-अपना मत स्पष्ट किया है। दो ख्यातिलब्ध जर्मन विद्वान हुए हैं। उनमें से एक श्रीमान पॉल डायसन (जो स्वयं को 'देवसेन' संस्कृत नाम से सम्बोधित होना पसंद करते थे) और दूसरे श्रीमान जॉर्ज थिवो। इनमे से एक विद्वान श्री पॉल-डायसन वेदों के संदर्भ में अध्ययन पर अपनी टिप्पणी से आचार्य शङ्कर द्वारा किया गया भाष्य 'शारीरक-भाष्य' को मूल रचना के प्रति अधिक श्रद्धावान मानते हैं। आचार्य शङ्कर के भाष्य को वह वेदों के मूल का सर्वाधिक सफल समीक्षक मानते हैं। उन्होंने आचार्य शङ्कर को "More Faithful to the Text. कहा हैं, तो वहीं दूसरे जर्मन विद्वान श्रीमान जॉर्ज थिवो भी वेदों के संदर्भ में अध्ययन करते हुए आचार्य रामानुज के 'श्री-भाष्य' को मूल रचना के प्रति अधिक निष्ठावान मानकर वह भी ऐसा ही कथन आचार्य रामानुज के लिए कहते हैं-" More Faithful to the Text" ।
कुछ विद्वानों की दृष्टि आचार्य शङ्कर तो कुछ विद्वानों की दृष्टि में आचार्य रामानुज अपने भाष्यों से वेदों के मूल के अधिक निकट हैं। पर अधिक और कम से भाष्यकारों की विद्वता प्रभावित नहीं होती। यहाँ पर यह मानना उचित होगा कि दोनों ही भाष्यकार आचार्यश्रेष्ठ मूल के प्रति श्रद्धावान हैं। बहुत से संदर्भ और अर्थ आचार्य शङ्कर ने अपने भाष्य में पिरो दिए हैं, जो सामान्यतः सूत्र में दृष्टिगोचर नहीं हैं परन्तु अर्थ में प्रकट हुए हैं।
भगवत्पाद आचार्य शङ्कर का शाङ्कर-दर्शन अत्यंत प्रौढ़ और प्रबुद्ध दर्शन है। जिसे दर्शन जगत में पुर्णतः सच्चे अर्थों में नहीं समझा गया। अतः इसे कुछ विद्वानों के द्वारा पलायनवादी या निराशावादी समझ लिया गया। भारतीय दर्शन के सबसे समृद्ध दर्शन को ही सबसे कम समझा गया या नासमझी बरती गयी है। किसी विद्वान ने कहा है "Perhaps the Shankara' s philosophy is the most misunderstood philosophy."
पश्चिम जगत के श्रेष्ठ जर्मन दार्शनिक एवं नीतिशास्त्री श्रीमान इमानुएल काण्ट के विषय में भी कुछ ऐसा ही कहा गया है। काण्टीयन एथिक्स (Kantian Ethics) की पुस्तक में एक लेख के अंश में कहा गया है, "Immanuel Kant's Ethics and Aacharya Shankara' s Brahmvad these are two most misunderstood philosophies in the history of philosophy."
समस्त दर्शन के इतिहास में सबसे अधिक न समझे जाने वाले जो दर्शन हैं, उसमें से एक पश्चिम जगत के श्रेष्ठ जर्मन दार्शनिक एवं नीतिशास्त्री श्रीमान इमानुएल काण्ट का नीतिशास्त्र पर उनका विवेचन है जिसे समझा नहीं गया और उसकी नासमझी भरी बहुत आलोचनाएँ हुई हैं। दूसरा दर्शन भगवत्पाद आचार्य शङ्कर का शाङ्कर-दर्शन है, जिसे समझा नहीं गया और उसकी नासमझी भरी बहुत आलोचनाएँ हुई हैं। ऐसे ये दो दर्शन हैं, जिसे सबसे कम समझा गया और ससे अधिक उसका खण्डन किया गया है।
समग्र दृष्टि के आभाव में अद्वैत दर्शन को लोक-निषेधक मान लिया गया पर यह पुर्णतः असत्य है। आचार्य शङ्कर ने लोक का निषेध कहीं नहीं किया है और उनका दर्शन पलायनवादी, निराशावादी और लोक-निषेधक तो बिल्कुल ही नहीं है।
आधुनिक अध्येताओं में अग्रणी डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन पर प्रसिद्ध पुस्तक 'इंडियन फिलॉसोफी' लिखी उस पुस्तक में वे अद्वैत-वेदांत की व्याख्या करते समय एक वाक्य लिखते हैं, "Illusory the world maybe but unreal it is not." उन्होंने स्पष्ट किया है कि जगत भ्रमात्मक तो हो सकता है। सम्भावना है पर असत्य नहीं हो सकता है। सम्भव है कि जैसा कल था वैसा आज नहीं है और जैसा आज है शायद कल नहीं होगा। पर यह असत्य नहीं हो सकता ऐसा ही आचार्य शङ्कर कहते हैं।