अद्वैत / गरिमा संजय दुबे
वह रोज़ शाम को चुपचाप मंदिर हो आती। घूंघट डाल कर। अंदर नहीं जाती अपराध बोझ से दब जाती। पल भर को ही सहीं उसके धधकते मन को चैन मिल जाता। जानती थी उस पर कईं नज़रे पहरा देती थीं वह तो बड़ी बाई साब ने पता नहीं कैसे उसे यहाँ तक आने की छूट दे रखी थी कहकर-"जा अब भगवान भी तेरी पुनः प्रतिष्ठा नहीं कर सकता, जो एक बार चकले पर बैठी फिर किसी बेदी पर नहीं बैठती, जा जोड़ आ उसके हाथ जिसने तेरी क़िस्मत में यह चकला लिख दिया है"। एक सन्यासी जो वहीं एक पेड़ के नीचे पिछले एक महीने से विराजे थे उसे रोज़ ऐसा करते देखते। एक दिन उसके पास जा कर पूछ बैठे तो वह घबरा कर वहाँ से चल दी। फिर धीरे-धीरे उन्हें उसकी असलियत पता चल गई। वे उससे फिर कभी नहीं बोले। एक दिन वे अद्वैत दर्शन पर प्रवचन दे रहे थे परमात्मा के हर निर्माण में उसी एक तत्व के दर्शन की बात कर रहे थे, यह सुन वह व्यंग्य से मुस्कुराती वहाँ से चल दी। सन्यासी उसकी व्यंग्य दृष्टि से आहत हुए, रात भर नींद नहीं आई, अगले दिन साहस से सन्यासी उसके सामने थे। उसने खड़े हो प्रणाम किया, सन्यासी सह्रदय थे मुस्कुराते बोले' क्या बात है बेटी, कल तुम अद्वैत दर्शन पर व्यंग्यात्मक तरीके से क्यों मुस्कुराई थी, तो उसने जवाब दिया, "जिसने मुझे धोखा दिया, जिसने मुझे बेच दिया वह भी परमात्मा के तत्व थे स्वामी जी"। स्वामीजी अचकचा गए वह फिर बोली " कल आप अद्वैत दर्शन की बात कर रहे थे, सब एक ही हैं उसी परमात्मा के तत्व, देह तो कुछ है ही नहीं, मुझे भी इसका कोईं सूत्र दे दीजिए ताकि मैं अपने हर ग्राहक में अद्वैत का दर्शन कर उसमें परमात्मा को देख सकूँ और अपनी देह का मुझे भान न रहे। सन्यासी निरुत्तर थे और वह अपने भाग्यविधाता के हाथ जोड़ आंखों में आंसू लिए वहाँ से चल दी।