अधखिला फूल / समर्पण / हरिऔध

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श्रील श्रीयुत मानोन्नत अखिलगुण गौरवालंकृत सी.ई. क्राफोर्ड साहब बहादुर मुहतमिम बन्दोबस्त आजमगढ़ बिबुधबृन्दविभूषणेषु!

प्रभुवर!

बालार्कअरुणरागरंजित प्रफुल्ल पाटलप्रसून, परिमलविकीर्णकारी मन्दवाही प्रभात समीरण, अतसीकुसुमदलोपमेयकान्ति नवजलधरपटल, पीयूषप्रवर्षणकारी सुपूर्ण शुभ्र शारदीय शशांक, रविकिरणोद्भासित वीचिविक्षेपणशीला तरंगिणी, श्यामलतृणावरण- परिशोभित उतुंग शैलशिखरश्रेणी, नवकिशलयकदम्बसमलंकृत बासंतिक विविध विटपावली, कोकिलकुल-कलंकीकृत कंठसमुत्कीर्ण कलनिनाद, अत्यन्त मनोमुग्धकर और हृदयतलस्पर्शी हैं। किन्तु इन अलौकिक प्रमोदकर प्राकृतिक पदार्थों की अपेक्षा किसी पुरुषरत्न के पवित्र औदार्य्यादिगुण विशेषहृदयग्राही और विमुग्धीकृत-मन:प्राण हैं। अतएव कश्चित् आश्चर्य का विषय नहीं है, यदि महोदय के लोकोत्तरगुणप्राण औदार्य्य, धर्य्य, दया, दाक्षिण्य, अदम्य उत्साह, अद्भुत साहस, विलक्षण कार्य्यदक्षता और अश्रुतपूर्व अमायिकता इत्यादि मेरे हृदय को हर्षोत्फुल्ल और विमुग्ध करें। आज वही हर्षोत्फुल्ल और विमुग्ध हृदय अपने भक्त्युद्गार-स्वरूप इस 'अधखिला फूल' नामक उपन्यास का विनीत भाव सेआपके करकमलों में सादर समर्पित करता है। यह सत्य है कि यह साधारण उपहार महानुभाव के पदमर्य्यादासम्मुख बहुत ही तुच्छ है, किन्तु जिन मानवमौलिमुकुट महाराजाओं के सन्निकट एक विभवशाली व्यक्ति का समर्पित रत्नाकीर्ण आभरण उपढोकनस्वरूप परिगृहीत होता है-उन्हीं के चरणकमलों में एक दीन भावुक जन के अर्पण किये हुए कतिपय साधारण प्रसून भी आदृत और स्वीकृत होते हैं। विशेष लिखना लोकलोचन भगवान भास्कर को दीप दिखलाना है।

विनयावनत,

हरिऔध

भूमिका

आज ठेठ हिन्दी की यह दूसरी पुस्तक आप लोगों के सामने है। मुझको इस बात का खेद है कि यह पुस्तक स्वर्गीय श्रीयुत बाबू रामदीन सिंह की उपस्थितिमें न तो पूरी लिखी जा सकी और न छप सकी। उनको इस पुस्तक के आद्धोपान्त अवलोकन का, और जहाँ तक शीघ्र सम्भव हो सके, इसके प्रकाश कर देने का एकान्त अनुराग था। किन्तु समय ने उनकी यह इच्छा पूरी न होने दी, वे इसको अधूरा छोड़कर स्वार्गारूढ़ हुए-और हम लोगों को अपार शोक से संतप्त कर गये। उनके स्वर्गगमन के एक वर्ष उपरान्त आज यह पुस्तक प्रकाशित होती है-और आप लोगों के सम्मुख उपस्थित की जाती है। यद्यपि आज वे इस धरातल में नहीं हैं, तथापि उनकी प्रत्येक सदिच्छा की पूर्ति-हम लोगों का वैसा ही कर्त्वय है-जैसा कि उनकी उपस्थिति में होता। अतएव आज भी इस ग्रन्थ के प्रकाशन द्वारा, उनकी एक इच्छा को पूरी होते देखकर हम यह समझते हैं, कि उनके विषय में हमारे जितने कर्त्वय हैं, उनमें से एक का पालन हुआ,और हमारे लिए यह एक सन्तोष का विषय है।

जिस भाषा में यह भूमिका लिखी गयी है-यह भाषा आजकल हिन्दी लेखकों को अभ्यस्त सी है। क्योंकि अधिकतर ग्रन्थ और समाचार पत्र इसी भाषा में लिखे जाते और प्रकाशित होते हैं। जिस विषय में जिसको अभ्यास है, उसमें वह प्रत्येक कार्य सुविधा के साथ कर सकता है। इसी सूत्र में इस भूमिका की भाषा में आजकल कोई उपन्यास किम्वा ग्रन्थ लिखना, इतना दुष्कर नहीं है, जितनी कि इसी भाषा की आनुसंगिक किसी नवीन भाषा में। मनुष्य स्वभावत: सुविधा को प्यार करता है और यथासामर्थ्य उसी ओर प्रवृत होने की चेष्टा करता है। तदनुकूल “ठेठ हिन्दी का ठाट” लिखने के पश्चात् उसी भाषा में कोई दूसरा ग्रन्थ लिखने का मेरा विचार न था। किन्तु मानोन्नत महात्मा डॉक्टर जी.ए. ग्रियर्सन साहब बहादुर की असाधारण गुणग्राहकता और अभूतपूर्व उत्साहप्रदान से, मैं “अधखिला फूल” नामक यह दूसरा ग्रन्थ भी ठेठ हिन्दी में लिखने को बाध्य हुआ। मेरे क्षुद्र ग्रन्थ का उक्त महात्मा ने जितना समादर किया है, उसके लिए मेरा समुत्सुक हृदय कृतज्ञताव्यंजक सद्भावसुमनांजलि द्वारा भक्तिभाव से यद्धपि उनकी पूजा करता है। उक्त महानुभाव की असाधारण गुणग्राहकता, अभूतपूर्व उत्साहप्रदान और अपूर्व समादर-वास्तव बात तो यह है कि केवल मेरे लिए ही नहीं-हिन्दीहितैषी मात्र के लिए कृतज्ञता-प्रकाश की वस्तु और अपार आनन्द की सामग्री है। अतएव आत्मश्लाघा दोष से दूषित होने का भय होने पर भी मैं उनको प्रकाश करना चाहता हूँ। पाठकगण देखें वीर बृटिश जाति का हृदय कितना गुणग्राही है-और वह गुण का कहाँ तक समादर करती है।

श्रीयुत स्वर्गीय बाबू रामदीन सिंह जी द्वारा “ठेठ हिन्दी का ठाट” पाकर प्रशंसित महोदय ने उसके विषय में जो अनुमति प्रकाश की है-उससे न केवल उनका पूर्ण हिन्दी-भाषानुराग ही द्धोतित होता है-वरन उनकी सहृदयता और सज्जनता का भी पूरा परिचय मिलता है। वह अनुमति यह है-

टाउनसेन्ड

शिमला

5/7/1899

प्रिय महाशय,

“ठेठ हिन्दी का ठाट” के सफलता और उत्तमता से प्रकाश होने के लिए मैं आपको बधाई देता हूँ। यह एक प्रशंसनीय पुस्तक है।

मुझे आशा है कि इसकी बिक्री बहुत होगी जिसके कि यह योग्य है। आप कृपा करके पण्डित अयोध्या सिंह से कहिये कि मुझे इस बात का बहुत हर्ष है कि उन्होंने सफलता के साथ यह सिद्ध कर दिया है कि बिना अन्य भाषा के शब्दों का प्रयोग किये ललित और ओजस्विनी हिन्दी लिखना सुगम है। संस्कृत शब्दों का प्रयोग आधार-दण्ड की नाई है। लँगड़े यदि चलने के समय उस आधार से चलें तो ठीक है, परन्तु आप यदि किसी हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को उससे काम लेते हुए देखेंगे, तो हँसेंगे। उसी प्रकार हम लोगों को उस लेखक पर, जो हिन्दी लिखने में संस्कृत के बहुत से शब्दों का प्रयोग करता है, हँसी आवेगी। मैंने सम्पूर्ण कापियाँ इस पुस्तक की, जो आपने कृपा करके भेजी थीं, ऐसे मित्रों के पास भेज दी हैं, जो सम्भव है कि इसकी वृध्दि करने में सहायक होंगे। मैं कुछ पुस्तकें पश्चिमोत्तर प्रान्त के शिक्षा विभाग के उच्च कर्मचारियों के पास भेजना चाहता हँ।

आपका सच्चा

जार्ज ए. ग्रियर्सन

उक्त महात्मा केवल ऊर्ध्व लिखित अनुमति ही प्रगट करके शान्त नहीं हुए, उन्होंने कार्यदक्ष पुरुषों के समान अपने विचार को कार्य में भी परिणत करना चाहा। जिस समय कथित ग्रन्थ उनको प्राप्त हुआ, उनकी सेवा का समय पूर्ण हो गया था, और वे विलायत-यात्र के लिए प्रस्तुत हो रहे थे। कुछ ही दिनों पीछे वे भारतवर्ष को परित्याग कर विलायत पधार गये। अतएव उन्होंने जो कुछ विचार 'ठेठ हिन्दी का ठाट” के विषय में प्रान्तिक राजकर्मचारियों से प्रगट किया था वह कार्य में परिणत न हो सका। केवल बंगाल प्रान्त के शिक्षा-विभाग ने उसको बिहार प्रदेश की पुरस्कार-पुस्तकों में ग्रहण किया। किन्तु इससे उक्त महाशय भग्नोत्साह नहीं हुए, उन्होंने विशेष चेष्टा करके उसको 'सिविलसर्विस' परीक्षा की पाठयपुस्तकों में युक्त कराया और आजकल वह उक्त परीक्षा की पाठयपुस्तकों में परिगृहीत है। उक्त पुस्तक के कोर्स में परिगृहीत हो जाने पर प्रशंसित महोदय ने निम्नलिखित पत्र स्वर्गीय बाबू साहब को लिखा था।

Townsend,

Simla

5-7-99

My dear Sir,

I must congratulate you on the successful issued of "Theth Hindi ka That." It is an admirable book and I have written to Mr. Pedler and other friends strongly recommending its use in schools. I trust that it will have the large sale which it deserves. Will you kindly tell Pandit Ayodhya Singh how glad I am that be so successfully proved that it is easy to write elegantly and at the same time strongly in Hindi without having to use foreign words. The use of Sanskrit words is like a crutch. It is quite right for a lame man to use a crutch when he has to walk, but if you see a strong man using a crutch you only laugh at him. So you should laugh at a writer who uses many Sanskrit words when he wants to write Hindi. I have sent so good as to send me, to friends who would be likely to help it forward.

your very sincerely,

GEORGE A. GRIERSON

रथफार्नहम

किम्बरली

सरे-15-1-03

प्रिय महाशय,

आप यह सुनकर अवश्य प्रसन्न होंगे कि “ठेठ हिन्दी का ठाट” भारतवर्षीय सिविलसर्विस परीक्षा की पाठय पुस्तकों में यहाँ पर स्वीकृत हुआ।

आपका सच्चा

जार्ज ए.ग्रियर्सन

एक दूसरे अवसर पर जो उन्होंने अपनी अनुमति मेरे विषय में प्रकट की है-उसके लिए मैं उक्त महोदय को शतश: धन्यवाद देकर भी तृप्त नहीं होता हूँ। मिर्जापुर निवासी बाबू काशीप्रसाद से हिन्दी भाषा के सुलेखक भली भाँति परिचित हैं। वर्तमान हिन्दी साहित्य-सेवकों में एक यह महाशय भी हैं। इन्होंने उक्त महोदय के पास एक पत्र लिखकर हिन्दी भाषा के आथरों के विषय में कुछ प्रश्न किये थे। इनके पत्र के उत्तर में जो कुछ उक्त महात्मा ने लिखा है उसका अविकल अनुवाद नीचे प्रकाश किया जाता है। पाठकगण देखें एक क्षुद्र लेखक का उत्साह इस पत्र में किस प्रकार वर्द्धन किया गया है।

“आपने मुझसे पूछा है कि हिन्दी में मेरी अनुमति अनुसार सबसे बड़ा आथर (ग्रन्थकार) कौन है? मैं बिना किसी आगा-पीछा के कहता हूँ कि मेरे विचार में भारतवर्षीय ग्रन्थकारों में तुलसीदास निर्विवाद सबसे बड़े ग्रन्थकार हैं। मैं उनको संस्कृत के सबसे बड़े ग्रन्थकारों से भी बढ़कर समझता हूँ। मुझको अच्छी हिन्दी पढ़ने में बहुत आनन्द प्राप्त होता है। विचार प्रगट करने के हरिऔध से आजकल जितनी सर्वांगपूर्ण भाषायें प्रचलित हैं, मैं उनमें से एक इस भाषा को भी समझता हूँ। परन्तु मेरा विचार है कि संस्कृत शब्दों को मिलाकर उस लेखप्रणाली द्वारा जो थोड़े दिनों से...में प्रचलित हो रही

Rathfarnham,

Camberley

Surrey

15-1-03

DEAR SIR,

You will no doubt be glad to hear that Theth Hindi ka Thath has been made a text-book for the Indian Civil Service in this country.

Yours very sincerely,

GEORGE A. GRIERSON.

है, इसकी बहुत बड़ी हानि की जा रही है। शुद्ध ठेठ हिन्दी एक उत्कृष्ट भाषा है, हिन्दी और संस्कृत शब्दों का सम्मेलन जो...में प्रचलित है, मेरे विचारानुसार बहुत ही भयानक सम्मिश्रण है, और उसी प्रकार व्यर्थ है, जैसा कि फारसी शब्दों से भरी हुई उर्दू-जिसको कोई-कोई मौलवी काम में लाते हैं, तुलसीदास ने जिस विचार को चाहा, ठेठ हिन्दी में प्रगट किया, मुझको कोई कारण ऐसा दृष्टिगत नहीं होता है कि जिससे लोग यह सोचें कि वह उनसे अधिक जानते हैं।

दूसरे ग्रन्थकार जिनका मैं विशेष अनुरक्त हूँ 'बिहारीलाल' हैं और मुझको सूरदास की रचनाओं के पढ़ने का भी अनुराग है। कतिपय लल्लूलाल के गद्य भी बहुत ही हृदयग्राही हैं, परन्तु उनके समय से मेरे विचार में बहुत ही कम लोग शुद्ध (ठेठ) हिन्दी के लिखनेवाले हुए हैं।

मेरी इच्छा है कि और लोग भी 'हरिऔध' के बनाये हुए “ठेठ हिन्दी का ठाट” के स्टाइल में लिखने का उद्योग करें और लिखें-जब मैं देखूँगा कि पुस्तकें वैसी ही भाषा में लिखी जाती हैं, तो मुझको फिर यह आशा होगी कि आगामी समय इस भाषा का अच्छा होगा, जिसको कि मैं तीस वर्ष से आनन्द के साथ पढ़ रहा हूँ।”*

इस अवसर पर मैं उन दूसरे सज्जनों को भी नहीं भूल सकता कि जिन लोगों ने भी मेरी इस पुस्तिका को आदर की दृष्टि से देखा है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के उत्साही सभासद उक्त सभा के नवें वार्षिक विवरण के पृष्ठ 21 में लिखते हैं-

“इस वर्ष एक सभासद ने यह प्रश्न किया कि हिन्दी गद्य और पद्य की कौन-कौन ऐसी उत्तम पुस्तकें हैं, जिन्हें सब लोगों को और विशेष कर उन लोगों को पढ़ना

(*Letter from Dr. G.A. Grierson to B.Kashi Prasad)

Rathlrarnham,

Camberely.

Surrey. 10.1.04.

You ask me who in my opinion is the best author in Hindi. I have no heasitation in saying that I am certain that the greatest author in any Indian language was Tulsi Das. I Consider him a greater writer than even the best Sanskrit authors. I delight in reading good Hindi, which I consider to be one of the most perfect language in existence when consider as a medium for expressing thoughts but I consider that it is very greatly injured of late years by the fashion which is growing up in...of using Sanskrit words in writing Hindi. Pure Theth Hindi is a magnificient language, The mixture of Hindi and Sanskrit which is current in...is to my mind a horrible concoction, quite as unnecessary, as the highly persianised Urdu employed by some Maulvis. Tulsi Das was able to express all that he wanted in Theth Hindi, and I do not see why people of the present day should think that they know better than him, Another very favourite auother of mine is Bihari Lal and I am also fond of reading Sur Das Some of Lallu Lal's Prose Hindi is very charming, but since his day, in my opinion, there have been very few writers of pure Hindi at all. I wish more people would try. and write in the style of the Theth Hindi ka Thath of Hariaudh. When I see books written in that language I shall again have hopes for the future of the language which it has been my pleasure to study for the last thirty Years."

चाहिए, जो हिन्दी में योग्यता प्राप्त करना चाहें। बहुत विचार कर सभा ने निश्चय किया कि नीचे लिखी गद्य और पद्य की पुस्तकें हिन्दी में उत्तम हैं, और इनके पढ़ने से हिन्दी का अच्छा ज्ञान तथा इसके इतिहास और गठन में किस प्रकार परिवर्त्तन हुआ है और किस काल में कैसी भाषा का प्रचार था-इसका भी पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त हो जाएगा।”

इतना लिखकर पृष्ठ 21 में 21 गद्य ग्रन्थ के और 20 पद्य ग्रन्थ के नाम उक्त महोदयों ने लिखे हैं¹। मैं इन महाशयों का अत्यन्त अनुगृहीत हूँ और उनको अनेक धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने इक्कीस गद्य ग्रन्थों में एक मेरी क्षुद्र पुस्तिका 'ठेठ हिन्दी का ठाट' को भी स्थान दिया है।

हिन्दीभाषा के सुप्रसिद्ध लेखक पं. श्यामबिहारी मिश्र, एम.ए., डिप्टी कलक्टर जिला बस्ती, ने अपने 17 मार्च सन् 1901 के पक्ष में, और स्वनामख्यात प्रसिद्ध पुरुष पं. महाराज नारायण शिवपुरी, डिप्टीकलक्टर मथुरा ने अपने 7 मई सन् 1902 की चीठी में, उक्त ग्रन्थ के विषय में अपनी उत्तम अनुमति प्रगट की है, अतएव मैं इन महाशयों को भी अनेक धन्यवाद प्रदान करता हूँ। खेद है कि भूमिका के विस्तार भय से मैं उन पत्रों को यहाँ उद्धृत नहीं कर सकता।

मैं स्वनामधन्य पुरुष आनरेबुल श्रीयुत पं. मदनमोहन मालवीय महाशय का भी बाधित हूँ और उनको भी उन शब्दों के लिए-जिनको कि उन्होंने सेवा में उपस्थित होने के समय उक्त ग्रन्थ के विषय में मुझसे कहे थे-विनीतभाव से अनेक धन्यवाद देता हूँ।

'अधखिला फूल' नामक इस दूसरे ग्रन्थ को भी मैंने ठेठ हिन्दी में ही लिखा है, यह मैं पहले कह चुका हूँ। ठेठ हिन्दी किसे कहते हैं। और उसकी उत्पत्ति क्या है। ये सब बातें मैंने 'ठेठ हिन्दी का ठाट' की भूमिका में लिख दी हैं, अतएव यहाँ फिर उनको लिखकर मैं पिष्टपेषण नहीं करना चाहता। हाँ, यह अवश्य है कि जो परिभाषा मैंने ठेठ हिन्दी के उक्त ग्रन्थ में लिखी है, उसके विषय में मेरे कतिपय


¹ इक्कीस गद्य वो बीस पद्य ग्रन्थ निम्नलिखित हैं-

गद्य ग्रन्थ-1 चन्द्रावली, 2 सत्यहरिश्चन्द्र, 3 कर्पूरमंजरी, 4 मुद्राराक्षस, 5 शकुन्तला, 6 राजा भोज का सपना, 7 ठेठ हिन्दी की कहानी, 8 ठेठ हिन्दी का ठाट 9 प्रेमसागर, 10. बेकन विचार रत्नावली, 11 रत्नावली, 12 कादम्बरी, 13 हितोपदेश, 14 बादशाहदर्पण, 15 दु:खिनी बाला, 16 प्राकृतिक भूगोल चन्द्रिका, 17 भाग्यवती, 18 स्त्रीशिक्षा सुबोधिनी, 19 वनिताबुध्दिप्रकाशिनी, 20 रणधीरे प्रेममोहिनी नाटक, 21 श्रीनाथजी की प्राकटयवार्ता।

पद्य ग्रन्थ-1 बिहारी सतसई, 2 सुखसागर तरंग, 3 सुजान सागर, 4 सूरसागर, 5 रामचरितमानस, 6 रासपंचाध्यायी, 7 उत्सव माल, 8 हम्मीरहठ, 9 जगतविनोद, 10 भाग्यशिक्षा, 11 एकान्तवासी योगी, 12 संगीत शाकुंतल, 13 अनुरागबाग, 14 प्रेमरत्न, 15 पद्मावत, 16 कबीर का बीजक, 17 दादू की बानी, 18 रामचन्द्रिका, 19 जरासन्धबध महाकाव्य, 20 पृथ्वीराजरासो।

भाषामर्मज्ञ मित्र अपनी कुछ स्वतन्त्रता अनुमति रखते हैं-किन्तु उन लोगों की यह स्वतन्त्रता अनुमति भी एक दूसरे से विभिन्न है। वो फारसी, अरबी, तुरकी, अंग्रेजी, और फ्रेंच शब्द, जो टूट फूट कर सर्वथा हिन्दी भाषा के आकार में परिणत हो गये हैं, ठेठ हिन्दी का शब्द कहलाने योग्य है या नहीं? ठेठ हिन्दी लिखने में उनका उसी आकार में प्रयोग होगा जैसा कि वे सर्वसाधारण द्वारा बोले जाते हैं, या उनके शुद्ध रूप का? यदि ऐसे शब्दों का प्रयोग ठेठ हिन्दी की पुस्तकों में होगा, तो किस नियम के साथ और कैसे स्थल पर होगा? ये सब बातें अवश्य विचारणीय हैं। और यदि समय हाथ आया तो मैं अपने एक दूसरे उपन्यास की भूमिका में-जिसको मैं स्वयं प्रवृत्त होकर ऐसी ही एक प्रकार की भाषा में लिख रहा हूँ-इन सब बातों की यथासामर्थ्य मीमांसा करूँगा। इस समय मैं इस विषय में कुछ नहीं लिखना चाहता।

जिस समय मैंने 'ठेठ हिन्दी का ठाट' लिखा था उस समय साधारण लोगों की बोलचाल पर बहुत दृष्टि रखता था। और जिन संस्कृत शब्दों को एक साधारण से साधारण ग्रामीण को मैंने बोलचाल के समय काम में लाते देखा था, उन्हीं शुद्ध संस्कृत शब्दों का प्रयोग मैंने उक्त ग्रन्थ में किया है, किन्तु ये शुद्ध संस्कृत शब्द दो अक्षरों के हैं, जैसे रोग, दुख, सुख इत्यादि। मैंने उस ग्रन्थ में तीन अक्षर के शुद्ध संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी किया है, किन्तु अल्प, उपाय इत्यादि दो ही चार शब्द इस प्रकार के उसमें आये हैं। कारण इसका यह है कि उस समय तक मैंने कतिपय तीन अक्षर के संस्कृत शब्दों के विषय में यह निश्चित नहीं कर लिया था कि ये शब्द अवश्य सर्व साधारण की बोलचाल में व्यवहृत हैं-उस समय ये सब शब्द मीमांसित हो रहे थे। किन्तु अब मैंने इन शब्दों के विषय में निश्चय कर लिया है कि ये सब अवश्य सर्वसाधारण की बोलचाल में आते हैं, अतएव इस ग्रन्थ में मैंने इन सब शब्दों का प्रयोग निसंकोच किया है-ये तीन अक्षर के शब्द चंचल, आनन्द, सुन्दर इत्यादि हैं।

'ठेठ हिन्दी का ठाट' की भूमिका में मैंने ठेठ हिन्दी लिखने में से ऐसे शुद्ध संस्कृत शब्दों का प्रयोग करना उत्तम नहीं समझा है कि जिनके स्थान पर अपभ्रंश संस्कृत शब्द प्राप्त हो सकते हैं, और इसीलिए 'कहानी ठेठ हिन्दी' में जो चंचल शब्द का प्रयोग हुआ है उस पर मैंने कटाक्ष किया है। किन्तु अब मैं इस विचार को समीचीन और युक्तिसंगत नहीं समझता, क्योंकि यदि इस नियम को मान कर ठेठ हिन्दी लिखी जावेगी, तो उसका परिमाण विस्तृत होने के स्थान पर संकुचित हो जावेगा। जल एक शुद्ध संस्कृत शब्द है, और उसी प्रकार सर्व साधारण का परिचित है जिस प्रकार पानी-अतएव प्रयोग स्थल पर ठेठ हिन्दी लिखने में शुद्ध संस्कृत शब्द जल उसी प्रकार रखा जा सकता है, जिस प्रकार संस्कृत अपभ्रंश शब्द पानी-क्योंकि ठेठ हिन्दी लिखने में विशेष विचारणीय विषय यही है कि उसमें सर्वसाधारण के बोलचाल की रक्षा लिखित भाषा के नियमों का पालन करते हुए की जावे। निदान इसी सूत्र से आनन्द और सुन्दर का पर्यायवाची हरख और सुघर शब्द मिलते हुए भी मैंने 'अधखिला फूल' में इन शब्दों का प्रयोग यथास्थान किया है।

एक बात और है, वह यह कि कोई-कोई शुद्ध संस्कृत शब्द अपने पर्यायवाची किसी दूसरे शब्द किम्वा अपभ्रंश संस्कृत शब्द से विशेष परिमाण में व्यवहृत होते हैं। अतएव इस उपयोगिता का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। यदि इस उपयोगिता का ध्यान हम न रखेंगे, तो भाषा के माधुर्य, सौन्दर्य और विस्तार का कियदंश में विनाश होगा। मेरे इस कथन का यह भाव नहीं है कि यहाँ सर्व साधारण की बोलचाल का विचार छोड़ दिया जावे-वरन इस बात की सर्वथा रक्षा करते हुए उक्त विचार को कार्य में परिणत करना चाहिए, यह मेरा वक्तव्य है। जैसे चंचल शब्द है-इसका पर्यायवाची चुलबुला एक दूसरा शब्द है। हम ठेठ हिन्दी लिखने में चंचल शब्द के प्रयोग की जहाँ आवश्यकता हो, वहाँ चुलबुला शब्द का प्रयोग कर सकते हैं। किन्तु इस शब्द का व्यवहार उतने परिमाण में नहीं हो सकता जितने परिमाण में कि चंचल शब्द का व्यवहार होता है। चुलबुली लड़की, चुलबुला घोड़ा, हम लिख सकते हैं, पर चुलबुली आँखें नहीं लिख सकते। पर चंचल शब्द का प्रयोग हम तीनों स्थानों पर एक-सा कर सकते हैं-जैसे चंचल लड़की, चंचल घोड़ा, चंचल आँखें। इसलिए सर्व साधारण के व्यवहार में चंचल शब्द रहते हुए भी यदि शुद्ध संस्कृत शब्द होने के कारण हम चंचल शब्द को ठेठ हिन्दी लिखने में स्थान न देंगे, और उसके स्थान पर चुलबुला शब्द ही प्रयोग करेंगे-तो इस अवस्था में हम अवश्य कियदंश में भाषा के माधुर्य, सौन्दर्य और विस्तार को नष्ट करेंगे-और यही विषय मैंने ऊपर निरूपण किया है।

'अधखिला फूल' में ऊमस, नेह, बयार, निहोरा, सजीला, छबीली, बापुरे, सरबस, अनोखा, निबारती, नेरे, घनेरे, चेरे, इत्यादि शब्द भी लिखे गये हैं। इनमें से और ऐसे ही बहुत से शब्द, 'ठेठ हिन्दी का ठाट' में भी आये हैं। वर्तमान काल के कई एक विद्वानों ने मुझसे इन शब्दों और इसी प्रकार के अपर शब्दों के प्रयोगविषय में कई प्रकार के तर्क किये हैं। उन लोगों का कथन है कि यदि हिन्दी भाषा में इन शब्दों या इसी प्रकार के अपर शब्दों का स्वतन्त्रता से प्रयोग होता रहेगा, तो निम्नलिखित आपत्तियाँ उपस्थित होंगी-

1-हिन्दी भाषा की सर्वस्वीकृत लेखप्रणाली और नियम में व्याघात होगा, और स्वेच्छाचार को प्रश्रय मिलेगा।

2-लब्धप्रतिष्ठत लेखकों की स्थापित परंपरा और शैली का उल्लंघन होगा।

3-अप्रचलित और नवीन शब्दों का प्रयोग होगा।

4-भाषा को ग्रामीण होने का लांछन लगेगा।

मैं यह नहीं कह सकता कि उन लोगों के ये विचार कहाँ तक समीचीन और सुसंगत हैं। परन्तु इस विषय में मेरी जो सम्मति है, मैं उसको यहाँ लिखना चाहता हूँ, जिसमें दूसरे भाषा मर्मज्ञ विद्वानों को उक्त महाशयों की अनुमति और मेरी सम्मति पर दृष्टि रखकर उचित आलोचना करने में अवसर हस्तगत हो।

प्रथम आपत्ति यह है कि हिन्दी भाषा के सर्वस्वीकृत लेखप्रणाली और नियम में व्याघात होगा, और स्वेच्छाचार को प्रश्रय मिलेगा। पहले यह देखना है कि इस आपत्ति के उत्थापित होने का मूल कारण क्या है? मैं इस कारण को सविस्तार नीचे लिखता हूँ-

उर्दू लिखने में जिस प्रकार लखनऊ और देहली की बोलचाल और उस भाषा के प्राचीन लेखकों की लेखप्रणाली का ध्यान रखा जाता है-हिन्दी लिखने के समय अनेकांश में वैसा नहीं किया जाता। उर्दू के समाचारपत्र कलकत्ते और बम्बई से भी निकलते हैं, परन्तु उनमें मरहठी और बंगाली की छूत तक नहीं लगती। जिस रंग और स्टाइल में ढले हुए आप दिल्ली, लखनऊ और लाहौर के उर्दू समाचारपत्रों को देखेंगे, ठीक उसी रंग और स्टाइल में ढले हुए इन समाचारपत्रों को भी पावेंगे-मजाल नहीं जो शब्दविन्यास और मुहाविरों में भेद हो सके। यही दशा उर्दू ग्रन्थकारों और अपर लेखकों की भी है-ये लोग चाहे कलकत्ते और बम्बई में बैठकर उर्दू लिखें, चाहे नागपुर और सिंध में, किन्तु इन लोगों की उर्दू वही साँचे की ढली उर्दू होगी-कहीं भी वे चूकते दिखलाई न देंगे। किन्तु हिन्दी भाषा के पत्र जिस प्रान्त से निकलते हैं, उनमें उस प्रान्त के भाषा की छूत कुछ-न-कुछ अवश्य लग जाती है। हिन्दी भाषा के कई एक ग्रन्थकार और अपर लेखक भी इस दोष से मुक्त नहीं है। यदि इसी प्रान्त के अंशभूत बैसवारे के रहनेवाले अपने लेखों में 'भरुका' शब्द का प्रयोग कर देते हैं, तो भोजपुरी महाशय 'नीमन' शब्द का प्रयोग करने से नहीं चूकते, और बुन्देलखंडी महाशय 'भंडिआ' शब्द लिखने से नहीं घबड़ाते। प्रयोजन यह कि यदि युक्तप्रान्त से कई सौ कोस दूर बम्बई और कलकत्ते में बैठे हुए पत्र-सम्पादकगण किसी स्थलविशेष पर उस प्रान्त का शब्द प्रयोग करने पर, किम्वा वाक्य रचना में त्रुटि होने पर, इस विषय में एकांश में दोषी हैं, तो इस प्रान्त में बैठे हुए लेखक और ग्रन्थकारगण इस प्रकार की भूल करने के लिए अनेकांश में दोष भागी हैं।

इस लेख से सम्भव है कि किसी महशय को कुछ भ्रम होवे, अतएव मैं इसको कुछ और स्पष्ट करके लिखना चाहता हूँ। जो कुछ ऊपर लिखा गया है उसका यह भाव नहीं है कि अब तक हिन्दी भाषा के लिए कोई प्रणाली या नियम निर्धारित नहीं या अन्य प्रान्तों के जितने सम्पादकगण हैं और इस प्रान्त के जितने ग्रन्थकार और लेखक हैं वे सभी भाषा लिखने में यथेच्छाचार में प्रवृत्त हैं, और सभी मनमाना अप्रयोज्य शब्दों का प्रयोग करके भाषा को कलुषित करते हैं। वरन् अभिप्राय यह है कि हिन्दी भाषा की जो लेखप्रणाली उद्भावित होकर नियमबद्ध हुई है, कई एक पत्र सम्पादकों और नवोत्साहित अभिनव लेखकों और ग्रन्थकारों द्वारा उसकी यथोचित रक्षा नहीं हो सकती है। कितने लोग स्वयं प्रवृत्त होकर इस दोष में लिप्त होते हैं और कितने ही अमनोनिवेश, भ्रान्ति और अप्रगल्भतावश ऐसा करते हैं। प्रमाण में 'हितवार्ता' और 'हिन्दोस्तान' पत्र के सम्पादकगण और बिहार प्रान्त के निधर्रित वर्तमान पाठय पुस्तकों के लेखकगण बतलाये जा सकते हैं। निदान इन्हीं सब विषयों पर दृष्टि रखकर प्रथम आपत्ति उत्थापित की गयी है।

अब यह देखना है कि हिन्दी भाषा की सर्वस्वीकृत लेखप्रणाली और नियम क्या हैं और ऊमस इत्यादि शब्दों से स्वेच्छाचार को प्रश्रय मिलता है या नहीं।

हिन्दी गद्य के जन्मदाता पं. लल्लू लाल और उन्नतकर्ता बाबू हरिश्चन्द्र हैं। पं. लल्लू लाल ने हिन्दी गद्य लिखने में अधिकांश ब्रजभाषा की क्रियाओं, सर्वनामों, कारक चिह्नों, और अव्ययों से काम नहीं लिया। उसमें उन्होंने खड़ी बोल-चाल की क्रियाओं इत्यादि का प्रयोग किया है और अपने विचारों को अधिकतर संस्कृत शब्दों में प्रगट किया है-तथापि उसमें ब्रजभाषा के शब्द इस अधिकता से भरे हुए हैं कि प्रति पृष्ठ में बीसियों दिखलाये जा सकते हैं। कहीं-कहीं ब्रजभाषा की क्रिया और सर्वनाम इत्यादि भी पाये जाते हैं। पाठकगण! प्रेमसागर के निम्नलिखित पैरे पर दृष्टि डालिए, और देखिए, उसमें जिन शब्दों के नीचे आड़ी लकीर खिंची है-वे सब ब्रजभाषा के शब्द हैं या नहीं?

“इतनी कथा कह कर शुकदेवजी बोले, महाराज, अब मैं रितु बरनन करता हूँ-कि ऐसी-ऐसी श्री कृष्णचन्द्र ने तिन में लीला करी सो चित्त दे सुनो। प्रथम ग्रीष्म ऋतु आयी तिस ने आते ही सब संसार का सुख ले लिया, और धरती आकाश को तपाय अग्नि सम किया। पर श्रीकृष्ण के प्रताप से वृन्दावन में सदा बसन्त ही रहै यहाँ घनी-घनी कुंज के वृक्षों पर बेलें लहलहा रहीं, बरन-बरन के फूल फूले हुए, तिन पर भौंरों के झुण्ड-के-झुण्ड गूँज रहे, आमों की डालियों पर कोयल कुहक रहीं, ठण्डी-ठण्डी छाहों में मोर नाच रहे, सुगन्ध लिए मीठी-मीठी पवन बह रही और एक ओर बन के न्यारी ही शोभा दे रही थी। तहाँ कृष्ण बलराम गायें छोड़ सखा समेत आपस में अनूठे-अनूठे खेल खेल रहे थे कि इतने में कंस का पठाया ग्वाल का रूप बनाय प्रलम्ब नाम राक्षस आया, विसे देखते ही श्री कृष्णचन्द्र ने बलदेवजी को सैन से कहा”

19वाँ अध्याय

बाबू हरिश्चन्द्र ने इस लेख-प्रणाली को बहुत परिष्कृत किया और इसे वर्तमान ढंग से ढाला, और इस सौन्दर्य और माधुर्य के साथ संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया कि उनके लेखों को पढ़ते-पढ़ते मन मुग्ध हो जाता है। तथापि ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग इनकी भाषा में भी अधिकता से हुआ है, बरन संस्कृत शब्दों के साथ इन्होंने जहाँ ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग किया है-उनकी भाषा वहीं विशेष हृदयग्रहिणी और मधुर हुई है। निम्नलिखित कतिपय पंक्तियाँ ध्यान देने योग्य हैं।

क्यों जी “ऐसे निठुर क्यों हो गये हो? क्या वह तुम नहीं हो, इतने दिन पीछे मिलना, उसपर भी आँखें निगोड़ी प्यासी ही रहैं? मुँह न छिपाओ, देखो, यह कैसे सुन्दर नाटक का तमाशा तुम को दिखलाता हूँ। क्योंकि जब तुम अपने नेत्रों को स्थिर करके यह तमाशा देखने लगोगे, तो मैं उतना ही अवसर पा कर तुम्हारी भोली छबि चुपचाप देख लूँगा।”

पाखंड विडम्बन नाटक का समर्पण।

पं. प्रतापनारायण मिश्र, पं. अम्बिकादत्त व्यास, पं. राधाचरण गोस्वामी, पं. दामोदर शास्त्री, पं. बदरीनारायण चौधारी, पं. सदानन्द मिश्र, पं. बालकृष्ण भट्ट, बाबू श्रीनिवास दास, बाबू काशीनाथ, बाबू तोताराम, इत्यादि सुजन 'हरिश्चन्द्री हिन्दी' के प्रचार और पुष्ट करनेवाले हैं। इन लोगों ने पूर्णतया उनके दिखाये पथ का अवलम्बन किया है। जब आप लोग इन महाशयों के लेख को उठा कर देखेंगे, उस समय यह बात बहुत स्पष्ट हो जावेगी। विस्तार-भय से मैं इन लोगों का लेख यहाँ उद्धृत नहीं करता। वर्तमान काल के जो धुरंधर लेखक हैं उसको भी आप लोग अधिकांश में इस रंग में रँगा हुआ पावेंगे, क्योंकि हिन्दी लिखने में ब्रजभाषा के शब्दों का बिलकुल बायकाट इनमें से एक ने भी नहीं किया।

एक प्रकार से हम इस विषय को सिद्ध करेंगे। हम निश्चित करना चाहते हैं कि जिनके समवाय को हम शुद्ध हिन्दी भाषा, और संस्कृत शब्दों का मेल होने पर जिस समवाय को हम साधु भाषा कहते हैं, वह कौन से शब्द हैं। बाबू हरिश्चन्द्र ने हिन्दी भाषा और उसकी लेखप्रणाली को नियमबद्ध करने के लिए अपने 'हिन्दीभाषा' नामक ग्रन्थ में बारह प्रकार की हिन्दी लिखी हैं, जिनका लक्षण इस प्रकार निश्चित किया है। अधिक संस्कृत शब्द-युक्त हिन्दी, अल्प संस्कृत-शब्दप्रयुक्त हिन्दी, शुद्ध हिन्दी, अधिक फारसी शब्दयुक्त हिन्दी, बंगालियों की हिन्दी, अंग्रेजों की हिन्दी इत्यादि। अर्थात् संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी शब्दों के न्यूनाधिक प्रयोग और उच्चारणविभेद से हिन्दी के बारह भाग उन्होंने किये हैं। अब यहाँ यह स्पष्ट है कि हिन्दी के सम्पूर्ण विभागों के आधारभूत हिन्दी शब्द हैं-केवल संस्कृत और फारसी इत्यादि के शब्दों के अल्पाधिक प्रयोग से उसके विभाग होते हैं। इसलिए यदि इन बारह विभागों पर दृष्टि डाली जावे तो यह सिद्ध हो जायगा कि हिन्दी शब्द कौन है।

बाबू साहब ने इन विभागों के प्रदर्शन के पहले प्रत्येक प्रकार की हिन्दी का रूप पद्य में दिखलाया भी है-इनमें मुख्य ब्रजभाषा, बुन्देलखंडी, भोजपुरी और बैसवारी, इत्यादि हैं। और वास्तव में इन प्रान्तों में जो शब्द बोले जाते हैं, वे हिन्दी भाषा के ही शब्द हैं-ऐसी दशा में यह कहा जा सकता है कि इन सम्पूर्ण प्रान्त की भाषाएँ अपने शुद्ध रूप में, किम्वा न्यूनाधिक संस्कृत इत्यादि के शब्दों के साथ लिखी जावेंगी तो हिन्दीभाषा होंगी। परन्तु यह सभी जानते हैं कि ऐसा नहीं है। यह सब उस स्टाइल की हिन्दी न होगी कि जिन स्टाइल में वर्तमान हिन्दी भाषा लिखी जाती है। अब यहाँ यह विषय विवेचनीय है कि इनमें से उस स्टाइल की भाषा कौन हो सकती है? इस विषय की मीमांसा के लिए विशेष अनुसंधान की आवश्यकता नहीं है, बाबू साहब ने जो शुद्ध हिन्दी नाम की भाषा का निदर्शन उक्त ग्रन्थ में दिया है, उस पर दृष्टि रखकर विचार किया जावे तो इस विषय की मीमांसा आप हो जावेगी। क्योंकि जो शुद्ध हिन्दी का पैरा है, उसके शब्द अवश्य हिन्दी के शब्द गिने जावेंगे और उनका समवाय अवश्य हिन्दी भाषा मानी जावेगी। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इस शुद्ध हिन्दी पैरे को बाबू साहब ने लिखने योग्य हिन्दी स्वीकार की है। वह पैरा यह है-

“पर मेरे प्रीतम अब तक घर न आये, क्या उस देश में बरसात नहीं होती, या किसी सौत के फन्दे में पड़ गये, कि इधर की सुधा ही भूल गये। कहाँ तो वह प्यार की बातें, कहाँ एक संग ऐसा भूल जाना-कि चीठी भी न भिजवाना। हा! मैं कहाँ जाऊँ, कैसी करूँ, मेरी तो ऐसी कोई मुँहबोली सहेली भी नहीं कि उससे दुखड़ा रो सुनाऊँ-कुछ इधर-उधर की बातों ही से जी बहलाऊँ।”

हिन्दी भाषा

इस पैरे में सर्वनाम, अव्यय, कारकचिद्दों और क्रियाओं को छोड़कर प्रीतम, अब, घर, देस, बरसात, सौत, फन्द, सुधा, प्यार, एक संग, चीठी, मुँहबोली, सहेली, दुखड़ा, बात, जी, इत्यादि शब्द आये हैं। इनमें अब, घर, देस, बरसात, प्यार, एक संग, चीठी, बात और जी ऐसे शब्द हैं जो सुख, दुख, नाक, कान, आँख, इत्यादि शब्दों के समान युक्तप्रान्त के प्रत्येक भागों में एकरस बोले जाते हैं, अतएव इन शब्दों के विषय में कुछ वक्तव्य नहीं है। देखना तो यह है कि प्रीतम (पीतम), सौत, फन्द, सुधा, मुँहबोली, सहेली और दुखड़ा, किसी प्रान्तविशेष के शब्द हैं या क्या? यदि इन शब्दों के विषय में थोड़ा भी विचार किया जायगा, तो अवश्य कहना पड़ेगा कि ये सब शब्द ब्रजभाषा के हैं। अतएव यहाँ हमको यह मानना पड़ेगा कि जिन शुद्ध हिन्दी शब्दों के समवाय को हम हिन्दी भाषा कहते हैं-जिन समवाय में संस्कृत शब्दों का प्रयोग होने पर साधु भाषा बनती है, वे सब शब्द अब, घर, देस, बरसात, प्यार, एक संग इत्यादि के समान जन-साधारण में प्रचलित शब्द-समूह हैं, और इन शब्दों में यदि किसी प्रान्त-विशेष का कोई शब्द भाषा पथप्रदर्शक लेखकों द्वारा परिगृहीत हुआ है तो वह ब्रजभाषा है-और यही हम को सिद्ध करना था।

हम यह भी दिखलाना चाहते हैं कि क्या कारण है जो भाषा के पथप्रदर्शकों द्वारा ब्रजभाषा के शब्द कहीं-कहीं परिगृहीत हुए हैं। परन्तु इस विषय की मीमांसा करने के पहले हमको यह सोचना चाहिए कि भाषा में संस्कृत शब्दों के ग्रहण किये जाने का क्या कारण है? वास्तव में बात यह है कि प्रान्तिक ठेठ शब्दों की अपेक्षा संस्कृत शब्द अधिक व्यापक हैं। बैसवारे, भोजपुर और बुन्देलखंड में जो ठेठ शब्द व्यवहृत हैं, राजपूताने, मध्यहिन्द और बिहार में उनका समझना कठिन होगा। ऐसे ही राजपूताने, मध्यहिन्दी और बिहार के ठेठ शब्द, बैसवारे, भोजपुर और बुन्देलखंड में नहीं समझे जावेंगे, किन्तु इन शब्दों के स्थान पर यदि कोई संस्कृत शब्द रख लिया जायेगा तो उसके समझने में उतनी असुविधा न होगी। यह सुविधा इसलिए है कि अब भी संस्कृत का थोड़ा-बहुत प्रचार भारत के प्रत्येक प्रान्त में है। इसके अतिरिक्त श्राद्ध तर्पण और संस्कारों के समय, कथा-वार्ता और धर्मचर्चाओं में, व्याख्यानों और उपदेशों में, नाना प्रकार के पर्व और उत्सवों में, हमको पण्डितों का साहाय्य ग्रहण करना पड़ता है। पण्डितों का भाषण अधिकतर संस्कृत शब्दों में होता है। वे लोग समस्त क्रियाओं को संस्कृत पुस्तकों द्वारा कराते हैं-अतएव ऐसे अवसरों पर भी हमारा संस्कृत शब्दों का ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है। और ये हम लोगों के लिए दूसरी सुविधा है।

ब्रजभाषा के शब्द संस्कृत शब्दों की अपेक्षा भी अधिक व्यापक हैं, और यही कारण उनके भाषा के सुलेखकों द्वारा परिगृहीत होने का है। ब्रजभाषा शब्द संस्कृत शब्दों की अपेक्षा भी अधिक व्यापक हैं; इस विषय की सिध्दि के लिए विशेष प्रमाण संग्रह की आवश्यकता नहीं। सभी जानते हैं कि युक्तप्रान्त, राजपूताने, मध्यहिन्द और बिहार में संस्कृत ग्रन्थों वा श्लोकों के पढ़नेवालों की अपेक्षा, रामायण, ब्रजविलास, दधिलीला, दानलीला और भाषा के अपर काव्यों के पढ़नेवाले और सूरदास के पदों के गाने वाले अधिक मिलेंगे। वास्तव बात यह है कि ब्रजभाषा प्रान्तिक भाषा होने पर भी धर्मग्रन्थों और भाषा काव्यग्रन्थों के साहाय्य से आज पाँच सौ वर्ष से हिन्दी बोलनेवाले मात्र की सुपरिचित भाषा है।

जो कुछ ऊपर लिखा गया उससे स्पष्ट है कि वर्तमान हिन्दीभाषा ब्रजभाषा के आधार से गढ़ी गयी है-या यों कहें, ब्रजभाषा का पुट देकर हिन्दी भाषा पर रंग चढ़ाया गया है-और यह प्रणाली प्राचीन हिन्दी सुलेखकों द्वारा बहुत सोच-विचार कर युक्तिपूर्वक स्थापित हुई है। वादग्रस्त, ऊमस इत्यादि शब्द ब्रजभाषा के ही हैं, इसलिए यदि हिन्दीभाषा, मुख्यत: ठेठ हिन्दी, लिखने में इन शब्दों का प्रयोग किया गया, तो न तो इससे सर्वस्वीकृत लेखप्रणाली और नियम का व्याघात हुआ और न स्वेच्छाचार को प्रश्रय दिया गया। अतएव प्रथम आपत्ति की अयौक्तिकता सिद्ध है। अब हम दूसरी आपत्ति पर दृष्टि डालते हैं।

दूसरी आपत्ति यह है-”लब्धप्रतिष्ठत लेखकों की स्थापित परंपरा और शैली का उल्लंघन होगा” अर्थात आपत्तिकर्ता का यह कथन है कि हिन्दीभाषा के लब्धप्रतिष्ठत पथप्रदर्शक सुलेखकों द्वारा ब्रजभाषा से जो शब्द वर्तमान स्टाइल की हिन्दीभाषा में गृहीत हुए हैं, परवर्ती लेखकों को भी वही शब्द ग्रहण करने चाहिए। ब्रजभाषा से उनके अतिरिक्त नवीन शब्द ग्रहण करना एक स्थापित परंपरा और बँधी हुई शैली का उल्लंघन करना है। प्रमाण में वे उर्दू को उपस्थित करते हैं, और बतलाते हैं कि उसके मुस्तनद उस्तादों (प्रामाणिक लेखकों) ने जो शब्द उर्दू में ब्रजभाषा के ग्रहण किए हैं, उनके परवर्ती लेखकों ने भी उन्हीं शब्दों को अपने गद्य और पद्य में स्थान दिया है-नवीन शब्द ग्रहण करने का उद्योग कदापि नहीं किया। बरन कितने शब्दों को छोड़ भले ही दिया।

यह आपत्ति कियदंश में समुचित हो सकती है, सर्वांश में नहीं। उर्दू का प्रमाण हिन्दी के लिए यथातथ्य नहीं ग्रहण किया जा सकता। यदि उर्दूवालों ने उत्तरकाल में ब्रजभाषा से नवीन शब्द ग्रहण नहीं किये, बरन कतिपय गृहीत शब्दों को छोड़ दिया, तो उसका फल क्या हुआ? उसका फल यही हुआ कि उसमें अरबी और फारसी के अप्रचलित और अत्यन्त कठोर शब्द प्रचलित हो गये, और उसने लखनवी उर्दू की नींव डाली। आप लखनऊ के मुख्य शायरों की कविता उठाकर पढ़िये, देखिए उनमें मिर्जादबीर के “जश्रे कष्दमे वालिदा फिर दो सवरी है” इस मिसरे का अनुकरण सर्वत्र है या नहीं। इस मिसरे में आप देखेंगे, केवल उपसर्ग भाषा का है, और सम्पूर्ण शब्द फारसी अरबी के हैं। किन्तु एक शताब्दी भी नहीं बीतने पाई थी कि ऐसी उर्दू भाषा मर्मज्ञों की दृष्टि में निन्दनीय ठहराई गयी, और अब पुन: देहली वालों के अनुकरण पर आसान उर्दू लिखने की चेष्टा हो रही है। बुध्दिमान मनुष्य का यह कार्य है कि अपने आस-पास होते हुए प्रत्येक कार्य के हानि-लाभ पर दृष्टि डालकर सांसारिक कार्यों में प्रवृत्त हो। हमलोगों को उर्दू द्वारा जो यह शिक्षा मिली है, उसको कदापि न भूलना चाहिए। यदि हम समय और आवश्यकतानुसार अपर भाषा के प्रचलित शब्दों और ब्रजभाषा से नूतन शब्दों को हिन्दी भाषा में न ग्रहण करेंगे-तो अवश्य है कि एक दिन वह भी संस्कृत शब्दों से भर जावेगी कि जिसके विषय में पीछे हमको भी सतर्क होना पड़ेगा। फिर उर्दू हमारी जातीय भाषा नहीं है-यदि ब्रजभाषा के शब्दों के ग्रहण करने में वह संकोच करे तो कर भी सकती है, पर हिन्दी भाषा कदापि ऐसा नहीं कर सकती, ब्रजभाषा के शब्दों के लिए उसको अपना द्वार सदा उन्मुक्त रखना चाहिए।

यहाँ यह तर्क किया जा सकता है कि ऐसी अवस्था में फिर कोई परंपरा और शैली नहीं स्थापित हो सकती। किन्तु अभिनिविष्ट चित्त से थोड़ा विचार करने पर यह तर्क इस विषय में उपस्थित नहीं किया जा सकता। भाषा की जो परंपरा और शैली नियत है, यदि उसको छिन्न-भिन्न करके मैं कोई दूसरी परंपरा और शैली नियत करने को कहता, तो अवश्य यह तर्क किया जा सकता था। परन्तु जब मैं उसकी रक्षा करते हुए आवश्यकतानुसार यथा-समय दो एक शब्द मात्र उसमें युक्त कर लेने को कहता हूँ तो फिर इसमें तर्क करने का अवसर कहाँ रहा। मैं यह नहीं कहता, 'देखो' को 'द्यखा' लिखो, मैं यह नहीं कहता कि 'हम आते थे' को 'हमनीका आवत रहलीं' लिखो-मैं यह नहीं कहता कि 'हाँ सखी' के स्थान पर 'हम्बे बीर' लिखो-मेरा विचार कदापि नहीं है कि खड़ी बोलचाल की जो क्रियायें, कारक के चिह्न, और उपसर्ग इत्यादि उसमें व्यहृत होते हैं, उसमें परिवर्तन किया जाय-मेरा यह उद्देश्य भूल कर भी नहीं है कि वाक्य योजना और वाक्य विन्यास प्रणाली में नवीनता उत्पन्न की जावे-मैं यदि कहता हूँ तो यह कहता हूँ कि आवश्यकतानुसार कश्चित् संज्ञा या विशेषण या इसी प्रकार का कोई दूसरा शब्द हिन्दी भाषा में ब्रजभाषा से ग्रहण कर लिया जावे तो कोई क्षति नहीं। ब्रजभाषा क्या, समय तो हमको यह बतलाता है कि अंग्रेजी, फारसी, अरबी, तुर्की, इत्यादि के वे सब शब्द भी कि जिनका प्रचलन दिन-दिन देश में होता जाता है, और जिनको प्रत्येक प्रान्त में सर्वसाधारण भलीभाँति समझते हैं, यदि हिन्दी भाषा में आवश्यकतानुसार गृहीत होते रहें, तो भी कोई क्षति नहीं।

यहाँ यह पूछा जा सकता है कि फिर ब्रज प्रान्त छोड़कर युक्त प्रान्त के अन्य प्रान्तों और मध्यहिन्द एवम् राजपूताने और बिहार के ठेठ शब्दों ने कौन-सा अपराध किया है, जो उनको वर्तमान हिन्दी भाषा में स्थान न दिया जावे। वास्तव में उन शब्दों ने कोई अपराध नहीं किया है, किन्तु उनका उक्त शब्दों के इतना व्यापक न होना ही उनके स्थान न पाने का कारण है। किन्तु यदि दाल में नमक की भाँति आवश्यकतावश किसी स्थान विशेष पर कभी कोई शब्द प्रयुक्त हो जावे तो वह इतना गर्हित भी नहीं कहा जा सकता।

अब तीसरी आपत्ति को लीजिए-तीसरी आपत्ति यह है 'अप्रचलित और नवीन शब्दों का प्रयोग होगा”। यहाँ यह स्मरण रहे कि इस आपत्ति में अप्रचलित और नवीन शब्द का प्रयोग गद्य हिन्दी लेखों में अप्रचलित और व्यवहृत शब्दों के विचार से हुआ है। अतएव यह स्पष्ट है कि आपत्तिकर्ता पद्य में उन शब्दों के प्रचलित होने की उपेक्षा करके यह आपत्ति उत्थापित करते हैं-परन्तु उनकी यह उपेक्षा युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि भाषा के अंग गद्य पद्य दोनों हैं। इसके अतिरिक्त जब ऊपर कथन की गयी युक्तियों से व्यापक होने के कारण वे सर्वसाधारण के अनेकांश में परिचित हैं तो लेख में उनका अप्रचलित होना उनके पहले पहल व्यवहार किये जाने का बाधक नहीं है-क्योंकि उक्त दशा में वे सर्वसाधारण के लिए असुविधा के कारण नहीं हो सकते। रहा नवीनता का झगड़ा। उसके विषय में मुझको इतना ही वक्तव्य है कि वर्तमान काल के विद्वानों और भाषातत्तवविदों की अनुमति इस प्रणाली के उत्तम होने के अनुकूल है। उनका कथन है कि आवश्यकतानुसार नवीन शब्दों का प्रयोग करने से भाषा की वृध्दि और प्रसार में प्रश्रय मिलता है, और अभिनव भावों के प्रकाश करने में सुविधा होती है। प्रमाण में अंग्रेजी भाषा उपस्थित की जाती है, और दिखलाया जाता है कि आवश्यकतानुसार इस भाषा में सर्वदा नवीन शब्द गृहीत होते रहते हैं, इसलिए पृथ्वी तल की सम्पूर्ण भाषाओं में आज यह भाषा समुन्नत और वृध्दि-पर है। इसी सूत्र से थोड़े दिन हुए एक विद्वान ने उर्दू की वृध्दि और समुन्नत होने की सूचना दी है। प्रत्युत यह स्वीकार किया जा सकता है कि भाषा में नवीन शब्द ग्रहण की प्रणाली निन्दनीय नहीं है, वरन उत्तम है।

चौथी आपत्ति कुछ पुष्ट है, और वह यह है, “भाषा को ग्रामीण होने का लांछन लगेगा।” यहाँ यह विचार्य है कि भाषा के ग्रामीण न होने की चेष्टा क्यों की जाती है? और किसी परमावश्यक स्थल पर दो-चार ग्राम्य शब्दों के आ जाने से ही भाषा ग्रामीण हो जाती है या क्या? जो शिष्ट समाज की बोलचाल की भाषा होती है, लिखित भाषा वही हुआ करती है। कारण इसका यह है कि वह सब प्रकार सुसम्पन्न और पूर्ण होती है, इसलिए किसी विषय के लिपिबद्ध करने में विद्वानों द्वारा आदर उसी का होता है। और ऐसी दशा में भाषा के ग्रामीण न होने देने की चेष्टा स्वाभाविक है। किन्तु किसी परमावश्यक स्थल पर दो चार ग्राम्य शब्दों के प्रयोग से ही भाषा ग्रामीण नहीं हो सकती-भाषा ग्रामीण उसी समय होगी-जब हम शिष्टसमाज में गृहीत शब्दों को अनेकांश में न ग्रहण करेंगे-किम्वा शब्दों के लिखने में उनके उच्चारण और व्यवहार का ध्यान न रखेंगे। अर्थात् छत को छात, भूँकने को भूसने, और बाल को बार इत्यादि एवम् पाँव के स्थान पर गोड़-नाक के स्थान पर नकुरा-और समय और वेला के स्थान पर बिरिया इत्यादि लिखेंगे। यह भी स्मरण रहे कि जैसे कविता में संकीर्ण स्थल पर-कोई भावव्यंजक मधुर ग्रामीण शब्द कवियों द्वारा परिगृहीत हो जाता है और वह उतना निन्दनीय नहीं समझा जाता, प्रत्युत पद्य की शोभा ही वर्ध्दन करता है। उसी प्रकार किसी स्थानविशेष पर किसी मुख्य कारण से यदि गद्य में भी कोई मधुर ग्रामीण् शब्द प्रयुक्त हो जावे, तो केवल इसी कारण से ग्रन्थ की भाषामात्र को गँवारी होने का लांछन नहीं लग सकता।

उर्दू भाषा छील-छाल कर बहुत ठीक की गयी है। इस भाषा के गद्य और पद्य में जो शब्द आते हैं, वे बहुत ही बीछे बराये हुए शब्द हैं, तथापि ब्रजभाषा के अनेक ग्राम्य शब्द अब तक उसकी शोभावर्ध्दन कर रहे हैं। पाठकगण्! नीचे के शेरों को देखिए, इनमें जिन शब्दों के नीचे आड़ी लकीर खिंची हुई है, वे सब विशेष ध्यान देने योग्य हैं। अत: उर्दू के गद्य और पद्य दोनों की भाषा एक ही है, अतएव मैंने गद्य का कोई पैरा न उठाकर आप लोगों को मनोरंजन के ध्यान से कतिपय पद्यों को ही उठाया है।

दर्द- अय दर्द बहुत किया परेखा हम ने।

देखा तो अजब जहाँ का लेखा हम ने।

बीनाई न थी तो देखते थे सब कुछ।

जब आँख खुली तो कुछ न देखा हमने।

नसीम- बादे सहरी चली जो सन से।

वह शमा सिधारी अंजुमन से।

मोमिन- उम्र सारी तो कटी इश्क बुतां में मोमिन।

आखिरी वक्त में क्या खाक मुसल्मां होगे।

सौदा- जैसी सजधज थी गलेबीच हेमायल गुल की।

वैसी ही इत्र की बू वैसी ही सीधा की महंक।

इन्शां- कोई शबनम से छिड़क बालों पै अपने पौडर।

कुरसिये नाजप जल्वा को दिखावेगा फवन

अहल नज्जारा की आँखों में नजर आवेगी।

बाग में नरगिसे शोहला की हवाई चितवन॥

यदि परेखा, लेखा, सिधारी, सारी, सजधज, सीधे, फबन, चितवन शब्दों के ग्राम्य होने में सन्देह हो, तो यह तो सभी स्वीकार करेंगे कि यह ठेठ ब्रजभाषा के शब्द हैं। और जब इन ठेठ शब्दों के प्रयोग से दर्द इत्यादि उर्दू के लब्धप्रतिष्ठत शायरों की और निगोड़ी, सौत, फन्द, इत्यादि ऐसे ही शब्दों के प्रयोग से बाबू हरिश्चन्द्र इत्यादि सुलेखकों और पथप्रदर्शकों की भाषा को ग्रामीण होने का दोष नहीं लगा, तो आशा है कि मेरे ऊमस, नेह, निहोरा, इत्यादि शब्दों के प्रयोग से 'अधखिला फूल' और 'ठेठ हिन्दी का ठाट' की भाषा को भी ग्रामीण होने का दोष नहीं लगेगा, क्योंकि यह सब शब्द भी उसी टाइप के हैं। मुख्यत: उस अवस्था में जब कि ये दोनों पुस्तकें ठेठ हिन्दी में बिना अन्य भाषा और संस्कृत का कोई अप्रचलित शब्द प्रयोग किये लिखी गयी हैं।

हम यथासामर्थ्य चारों आपत्तियों की अयौक्तिकता सिद्ध कर चुके, साथ ही उस आशंका का भी निरसन हुआ, जो कि आपत्तियों के उत्थापन का कारण थी, सम्भव है कि इस विषय में भाषा मर्मज्ञों की कुछ और सम्मति हो, किन्तु अब मुझको कुछ वक्तव्य नहीं है।

इतना लिखने के पश्चात् भी यदि उन शब्दों के विषय में किसी महाशय को विशेष तर्क-वितर्क होवे, तो मेरी प्रार्थना यह है कि वे गम्भीर गवेषणा से काम लें, उस समय उनको ऊमस, अनोखा, सजीला का व्यवहार हिन्दी को कौन कहे उर्दू गद्य में भी मिलेगा। नेह, बयार, निहोरा, छबीली, बापुरे, सरबस, निबारती आदि का प्रयोग भी वे लब्ध प्रतिष्ठत हिन्दी-लेखकों के गद्य ग्रन्थों में पावेंगे। हाँ! नेरे, घनेरे, चेरे शब्दों का प्रयोग उनको शायद ही गद्य ग्रन्थों में मिलेगा। मैंने भी उनको गद्य में स्थान नहीं दिया है, ये शब्द पद्य में ही आये हैं। गद्य से पद्य में सर्वत्र कुछ स्वतन्त्रता होती है। मैं ग्रन्थों से वाक्यों को उध्दृत करके अपने कथन की पुष्टि भी करता, किन्तु इस विषय में ऊपर विस्तृत लेख लिखने के पश्चात् मैंने व्यर्थ इस भूमिका के कलेवर की वृध्दि उत्तम नहीं समझा।

जो कुछ मैंने अभी कतिपय पंक्तियों में लिखा है, यदि पहले ही मैं इसको लिख देता, तो इस विषय में विस्तृत लेख लिखने की आवश्यकता न होती। क्योंकि जब लब्धप्रतिष्ठत लेखकों द्वारा उनका व्यवहार सिद्ध है, तो फिर तर्क को स्थान कहाँ रहा। किन्तु ऐसी दशा में किसी सिद्धान्त पर उपनीत होना कठिन होता, और इसीलिए मुझको विस्तृत लेख लिखना पड़ा।

इस अवसर पर और एक विषय की मीमांसा आवश्यक है, वह यह है कि जस, अपजस, विपत, इत्यादि शब्द जो अशुद्ध रूप में व्यवहृत हुए हैं, क्या यह प्रणाली ठीक है? शब्दों को तोड़-मरोड़ कर रखने की अपेक्षा उनका शुद्ध रूप में व्यवहार करना क्या उत्तम नहीं है? जहाँ तक मैं समझता हूँ, कह सकता हूँ कि व्यवहार में पड़कर जो टेढ़े-मेढ़े शब्द-प्रस्तर-समूह घिसते-घिसते सुन्दर और सुडौल आकार में परिणत हो गये हैं फिर उनको उसी पूर्व रूप में लाने की चेष्टा व्यर्थ है। आजकल की हिन्दी भाषा में शुद्ध संस्कृत शब्द अधिकतर व्यवहृत होते हैं, और प्राय: धुरंधर लेखकों की चेष्टा शुद्ध संस्कृत शब्द-समूह व्यवहार करने की ओर अधिक देखी जाती है-किन्तु शुद्ध संस्कृत शब्दों के स्थान पर व्यवहृत अपभ्रंश संस्कृत शब्दों का प्रयोग मैं उससे उत्तम समझता हूँ। आँख, नाक, कान, मुँह, दूध, दही के स्थान पर लिखने के समय हम इनका शुद्ध रूप अक्ष, नासिका, कर्ण, मुख, दुग्ध, दधि इत्यादि व्यवहार कर सकते हैं, किन्तु भाषा इससे कर्कश हो जावेगी, जन-साधारण की बोधगम्य न होगी। साथ ही उसका हिन्दीपन लोप हो जावेगा। किसी भाषा के लिखने की चेष्टा करने पर यथासाध्य उसको उन्हीं शब्दों में लिखना चाहिए, जिनमें कि वह बोली जाती होवे-अन्यथा वह उन्नत कदापि न होगी। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि लिखित भाषा और कथित भाषा में सर्वदा कुछ-न-कुछ अन्तर अवश्य हुआ करता है-परन्तु यह अन्तर इतना न होना चाहिए जिससे कि आप उसके रूप पहचानने में भी कुण्ठित होवें।

यदि कोई वादग्रस्त विषय लिखना होवे, किम्वा कोई गूढ़ मीमांसा करनी हो, अथवा मनोभावव्यंजक कोई उपपुक्त शब्द भाषा में न प्राप्त होता होवे-तो हम संस्कृत शब्दों से हिन्दी लिखने के समय अवश्य काम ले सकते हैं-ऐसी अवस्था में हमको कोई दोष भागी भी न बनावेगा। किन्तु यदि हम कोई साधारण बात लिखना चाहते हैं, और भाषा के भण्डार से हमको आवश्यकतानुसार शब्द प्राप्त हो सकते हैं, और हम फिर भी संस्कृत शब्दों की तृष्णा नहीं त्यागते, और दौड़ कर भाषा के चिकने कोमल शब्दों को संस्कृत का पूर्वरूप देने का ही आग्रह करते हैं, तो अवश्य हम दोषभागी हैं।

यदि यह कहा जावे कि “आँख नाक, कान इत्यादि जो अपभ्रंश संस्कृत शब्द हैं, वे वास्तव में जन-साधारण द्वारा ऐसे ही बोले जाते हैं, अतएव उनको शुद्ध करके लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। जस इत्यादि को इसलिए शुद्धरूप में लिखने को कहा जाता है कि वास्तव में उनका जन-साधारण में इस रूप में व्यवहार नहीं है, यह सब सर्वथा बने हुए और कल्पित अवगत होते हैं।” तो हम कहेंगे कि यदि यह विचार सत्य है, तो हमको भी कोई विरोध नहीं है, मैं भी उसी रूप में शब्द के व्यवहार का पक्षपाती हूँ कि जिस रूप में वह सर्वसाधारण द्वारा बोला जाता है, यदि सर्वसाधारण द्वारा वह उस रूप में नहीं बोला जाता है कि जिस रूप में वह लिखा गया है तो अवश्य त्याज्य है। किन्तु वक्तव्य यह है कि क्या यह विचार सत्य है? क्या सर्वसाधारण जस को यश अपजस को अपयश और विपत को विपत्ति बोलते हैं? कदापि नहीं, वरन उन का उच्चारण वही है, जैसा कि लिखा गया है। उच्चारण के विषय में इन शब्दों पर आक्षेप कदापि नहीं हो सकता। हाँ, यह कहा जा सकता है कि इस रूप में किसी ग्रन्थ में ये शब्द नहीं लिखे गये, परन्तु मैं इस बात को भी नहीं मान सकता। उर्दू में बराबर यश के स्थान पर जस का व्यवहार होता है। कविता में अनेक स्थानों पर अपयश के स्थान पर अपजस का प्रयोग हुआ है, सर्व साधारण में वह बोला भी इसी रूप में जाता है, विपत के विषय में भी वही कहा जा सकता है।

मैं उच्चारण को आदर्श मान कर, यत:कार्य करने का पूर्ण पक्षपाती हूँ, अतएव मैंने अपने अनुभव पर निर्भर करके उक्त दोनों ग्रन्थों में प्राय: शुद्ध संस्कृत शब्दों के स्थान पर बोलचाल में व्यवहृत अपभ्रंश संस्कृत शब्दों के व्यवहार की चेष्टा की है, और उन को उसी आकार और रूप में लिखा है कि जिस आकार और रूप में व्यवहृत होते हैं। या यों समझिये ठेठ हिन्दी में ग्रन्थ लिखने के लिए कटिबद्ध होकर मुझको विवशतानिबन्धन ऐसा करना पड़ा है। किन्तु मेरा यह पक्षपात सर्वथा निर्दोष है या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता। मैंने ऐसे शब्दों के व्यवहार की पुष्टि भी की है। परन्तु इस पुष्टि से मेरा यह अभिप्राय नहीं है कि किसी पुस्तक में इस प्रकार के किसी शब्द के प्रयोग मिलने पर ही उस शब्द का उस प्रकार हमको प्रयोग करना चाहिए। सिद्धान्त की बात तो यह है कि प्रत्येक लेखक को इस प्रकार का प्रयोग करने का अधिकार है। किन्तु उस अवस्था में जब कि वह निश्चय कर लेवे कि उस शब्द का व्यवहार सर्वसाधारण में उसी प्रकार होता है।

स्मरण रहे कि यह प्रयोग 'देखो' के 'द्यखो' लिखने के समान नहीं है, कारण इसका यह है कि देखो का व्यवहार अधिकतर प्रान्तों में इसी रूप में होता है-हिन्दी और उर्दू के सुलेखकों ने भी इसको इसी रूप में लिखा है-अतएव इन बातों पर दृष्टि देकर इसका इसी रूप में लिखा जाना सुसंगत है। किसी एक प्रान्त के उच्चारण का आग्रह कर के उस को 'द्धखो' लिखना ऐसा ही अनुचित है, जैसा सर्वसम्मत और भाषापरिगृहीत 'नाक' शब्द के स्थान पर किसी प्रान्तविशेष के उच्चारण का आग्रह करके 'नकुरा' लिखना असंगत है।

इस ढंग से शब्दप्रयोग करते प्राचीन हिन्दी लेखकों को भी देखा जाता है, प्रमाण में मैं बाबू हरिश्चन्द्र के सत्य हरिश्चन्द्र नाटक से एक पैरा नीचे उद्धृत करता हूँ। इस पैरे में जिन शब्दों के नीचे आड़ी लकीर है, वे सब शब्द ध्यान देने योग्य हैं।

“हाय! यह बिपत का समुद्र कहाँ से उमड़ पड़ा, अरे! छलिया मुझे छल कर कहाँ भाग गया! (देखकर) अरे आयुस की रेखा तो इतनी लम्बी है फिर अभी से यह बज्र कहाँ से टूट पड़ा। अरे ऐसा सुन्दर मुँह, बड़ी-बड़ी आँख, लम्बी-लम्बी भुजा, चौड़ी छाती, गुलाब सा रंग। हाय! मरने के तुझमें कौन से लच्छन थे, जो भगवान ने तुझे मार डाला! हाय! लाल! अरे बड़े-बड़े जोतसी गुनी लोग तो कहते थे कि तुम्हारा बेटा बड़ा प्रतापी चक्रवर्ती राजा होगा, बहुत दिन जीवेगा, सो सब झूठ निकला! हाय! पोथी, पत्र, पूजा, पाठ, दान, जप, होम, कुछ भी काम न आया! हाय! तुम्हारे बाप का कठिन पुन्न भी तुम्हारा सहाय न भया और तुम चल बसे! हाय!”

शैब्याबिलाप।

जैसे ब्रजभाषा शब्दों के व्यवहार के विषय में लोगों ने तर्क किये, उसी प्रकार कई महाशयों ने कतिपय शब्दों के स्त्रीलिंग और पुल्लिंग होने के विषय में भी वाद किया। इनमें मुख्य शब्द, उमंग, चाल चलन, और चर्चा हैं। मैं इन शब्दों के विषय में भी कुछ लिखना चाहता हूँ। लिंगविभेद का झगड़ा बहुत दिनों से उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओं में चला आता है। उर्दू ही में कुछ लोग एक शब्द को पुल्लिंग और दूसरे स्त्रीलिंग लिखते हैं। लखनवी और देहलवी उर्दू को मिलाकर देखिए उस समय आप को मेरे कथन के कितने ही प्रमाण मिलेंगे। हिन्दी भाषा में भी देखा जाता है कि बाबू हरिश्चन्द्र और उनके परवर्ती लेखकों के अनुसरण करनेवाले तो पुस्तक और आत्मा को स्त्रीलिंग लिखते हैं और पण्डितऊ हिन्दी लिखनेवाले इन्हीं शब्दों को पुल्लिंग लिखते हैं। ऐसा ही विभेद आप वायु और पवन शब्द में देखेंगे, इन शब्दों को कोई पुल्लिंग लिखता है, और कोई स्त्रीलिंग। ऐसे ही और शब्द भी बतलाये जा सकते हैं। किन्तु इस विवाद को छोड़कर मुझे वादग्रस्त शब्दों की ही मीमांसा करना है, अतएव मैं इसी कार्य में प्रवृत्त होता हूँ।

पहले मैं उमंग शब्द को लेता हूँ-और देखता हूँ कि हिन्दी भाषा के सुलेखकों ने इसको स्त्रीलिंग लिखा है वा पुल्लिंग। सबसे प्रथम मैं बाबू हरिश्चन्द्र के ग्रन्थ से ही प्रमाण उद्धृत करता हँ। उनके कर्पूरमंजरी सट्टक के पृष्ठ 23 में यह वाक्य है-

“राजा-परस्पर सहज स्नेह अनुराग के उमंगों का बढ़ना अनेक रसों का अनुभव, संयोग का विशेष सुख, संगीत साहित्य और सुख की सामग्री मात्र को सुहावना कर देना, और स्वर्ग का पृथ्वी पर अनुभव करना।”

बाबू राधाकृष्ण दास हिन्दी के वर्तमान सुलेखकों में हैं, बाबू हरिश्चन्द्र की जीवनी के पृष्ठ 16 में लिखते हैं-

“बाबू हरिश्चन्द्र के बाल्यकाल ही में इन के पूजनीय पिता ने परलोक प्राप्त किया। लोगों ने इनके उमंग का अच्छा अवसर उपस्थित देख उन्हें राय रत्नचन्द बहादुर से लड़ा दिया।”

कविवर भिखारी दास भाषा के प्रसिद्ध कवियों में हैं, उनके शृंगारनिर्णय के पृष्ठ 39 में यह सवैया लिखी हुई है-

सवैया

समीप निकुंजन कुंजबिहारी गये लखि साँझ पगे रसरंग।

इतै बहु द्योस मैं आय कै धाय नवेली को बैठी लगाइ उछंग।

उड़ी तहँ दास बसी चिड़ियाँ उड़िगो तिय को चित वाहि के संग।

बिछोह तें बुंद गिरे ऍंसुआँ के सुवाके गुने गये प्रेम-उमंग।1।

हिन्दी-कोष के पृष्ठ 30 में यह शब्द अर्थ के साथ इस प्रकार लिखा हुआ है, कोष्ठगत 'प' से उसी ग्रन्थ के आदि पृष्ठ की सूचना के अनुसार पुल्लिंग समझना चाहिए।

उमंग (प) मग्नता, धुन, तृष्णा।

ऊपर जो प्रमाण संग्रह किये गये, उन से स्पष्ट है कि हिन्दी में 'उमंग' शब्द को पुल्लिंग लिखते हैं।

अब कुछ उर्दू के शायरों की कविता नीचे लिखता हूँ, पाठकगण देखें, इस में 'उमंग' शब्द का व्यवहार 'स्त्रीलिंग' की भाँति हुआ है।

अकबर- साम्हने थीं लेडियाने माह वश जादू नजर।

यां जवानी की उमंग वो उनको आशिक की तलाश।

नैरंग- सहरा को खींचती है दिलेजार की उमंग।

बैठा रहे जो घर में यह किसको करार है।

अब चालचलन को देखिए।

सुप्रसिद्ध भारतमित्र पत्र के वर्तमान सम्पादक बाबू बालमुकुन्द गुप्त हिन्दी और उर्दू दोनों पर समान अधिकार रखते हैं, अतएव इन्हीं का लेख हिन्दी के विषय में प्रमाणस्वरूप यहाँ उद्धृत किया जाता है, क्योंकि केवल हिन्दी जाननेवाले की अपेक्षा हिन्दी और उर्दू दोनों जाननेवाले का लेख विशेष पुष्टि का हेतु होगा-

“जज्ज-अगर तुम नहीं मानोगे तो मैं सरकार में तुम्हारी चालचलन की रिपोर्ट करूँगा।”

एक दूसरी ठौर-

“अगर एक जिलाजज्ज एक बारिष्टर को गाली दे तो बारिष्टर जज्ज की चालचलन पर रिमार्क कर सकता है।

भारतमित्र 4 जून सन् 1904 ई. कालम चौथा पंक्ति 80, 81, वो 115, 116-

मोलवी हसन अली साहब मुहम्मद मिशनरी अपने नेकचलनी नामक प्रबन्ध में लिखते हैं।

“गो इन्सान पूरी लियाकत न रखता हो, और दौलत में भी कम हो, लेकिन अगर उसका चालचलन उम्दा और शाइस्ता है, तो उसकी कदर और मंजिश्लत हमेशा बढ़ती रहेगी”-

मुअल्लिमुत्ताहजशब पृष्ठ 72।

सर सैयद अहमद साहब 'अपनी मदद आप' शीर्षक प्रबन्ध के आठवें टुकड़े में लिखते हैं-

“लौर्ड बेकन का निहायत उम्दा कौल है-कि इल्म से अमल नहीं आता, इल्म को अमल में लाना इल्म से बाहर को इल्म से बरतर है, इल्म की निस्बत अमल और सवानेह उमरी की निस्बत उम्दा चालचलन आदमी को ज्यादा जश्जश् और काबिल अदब बनाता है”-

मुअल्लिमुत्तहजीब, पृष्ठ 91

ऊपर जो वाक्य उद्धृत किये गये, उनके देखने से पाया जाता है कि हिन्दीवाले चालचलन को स्त्रीलिंग लिखते हैं-किन्तु उर्दू वाले इसी शब्द का प्रयोग पुल्ंलिग की तरह करते हैं।

अब चर्चा की चर्चा हमें और करनी है। सबसे पहले भारतेन्दु जी की एक सवैया हम नीचे लिखते हैं।

सवैया

जग जानत कौन है प्रेमबिथा केहि सों चरचा या वियोग की कीजिए।

पुनि को कही मानै कही समझे कोऊ क्यों बिन बात की रारहिं लीजिए।

नित जो हरिचंद जू बीतै सहैं बकि कै जग क्यों परतीतहि छीजिए।

सब पूछत मौन क्यों बैठि रही पिय प्यारे कहा इनै उत्तर दीजिए।

सुन्दरीतिलक, पृष्ठ 226 में यह सवैया लिखी है।

सवैया

पी चलिबे की चली चरचा सुनि चंद्रमुखी चितई दृगकोरन।

पीरी परी तुरतै मुख पै बिलखी बनि व्याकुल मैन सकोरन।

को बरजै अलि कासों कहौं मन झूलत नेह ज्यों लाज झकोरन।

मोती से पोइ रहे ऍंसुआ न गिरे न फिरे वरुनीन के कोरन।

उर्दू कवियों की भी दो कविताएँ देखिए-

अकबर- अकबर से आज हजरते वायज़ ने यों कहा।

चरचा है जा बजा तेरे हाले तबाह का।

कश्चित- दुनियें के जो मजे हैं हरगिज यह कम न होंगे।

चरचा यही रहेगा अफसोस हम न होंगे।

ऊपर की कविताओं के देखने से स्पष्ट है कि भाषा में चर्चा को स्त्रीलिंग लिखते हैं और उर्दू वाले उसको पुंल्लिंग बाँधते हैं।

अब यहाँ उलझन यह आन पड़ी कि जब भाषा और उर्दू लिखनेवालों के प्रयोग में इस प्रकार प्रभेद है-तो इन शब्दों के स्त्रीलिंग पुंल्लिंग की मीमांसा कैसे हो। वास्तव बात यह है कि इस प्रकार के शब्दों के लिंग की मीमांसा बहुत कठिन है। ऐसे अवसर पर हमारा कर्तव्य यही है कि जब हम भाषा लिखें तो ऐसे शब्दों के प्रयोग के विषय में भाषावालों का मार्ग ग्रहण करें, और जब उर्दू लिखें तो उर्दू वालों का। अन्यथा हमारा लेख पुल्लिंग, स्त्रीलिंग के दोष से मुक्त न हो सकेगा।

यह हम स्वीकार करेंगे कि भाषा लिखनेवालों में भी कोई-कोई उर्दूवालों के समान चालचलन को पुल्लिंग लिखते हैं, परन्तु अल्प। अधिकतर भाषा लिखनेवाले प्राचीन हिन्दी लेखकों का ही अनुसरण करते हैं। हाँ, उमंग की बात निराली है, भाषा-गद्य-पद्य लिखनेवालों में भी अधिक लोग इसको स्त्रीलिंग ही लिखते हैं। बाबू हरिश्चन्द्र ने चन्द्रावली नाटिका पृष्ठ 25 में इस को स्त्रीलिंग लिखा है-स्वर्गीय पं. प्रतापनारायण मिश्र इसको सदा स्त्रीलिंग ही लिखते थे। अतएव यदि व्यवहार के आधिक्य पर विचार किया जावे तो यह अवश्य कहना पड़ेगा कि इस शब्द का स्त्रीलिंग लिखा जाना ही अच्छा है। इसी प्रकार आधिक्य पर दृष्टि डालकर उन शब्दों की मीमांसा कर लेनी चाहिए, कि जो भाषा में भी दो प्रकार से लिखे जाते हैं-अर्थात् भाषा ही में जिनको कोई स्त्रीलिंग और कोई पुल्लिंग लिखता है।

वास्तव बात यह है कि शब्दों का स्त्रीलिंग और पुल्लिंग लिखा जाना और किसी वाक्य का ठीक-ठीक लिपिबद्ध होना समाज के बोलचाल पर निर्भर करता है। व्याकरण भी बोलचाल के अनुसार ही विधिबद्ध होता है, अर्थात् बोलचाल की विधिबद्ध प्रणाली ही व्याकरण है। अतएव समाज द्वारा जो शब्द जिस प्रकार काम में लाया जाता है, अथवा जो वाक्य जिस प्रकार व्यवहृत होता है, उसको उसी प्रकार काम में लाना और व्यवहार करना चाहिए।

दो-चार शब्दों के विषय में मुझको कुछ बातें और कहनी हैं, उनको कहकर अब मैं इस लेख को समाप्त करूँगा।

'अधखिला फूल' के पृष्ठ 89 पंक्ति में 9 में 'पतोहें' और पृष्ठ 110 पंक्ति 20 में देवतों, और पृष्ठ 129 पंक्ति 10 में बिपतों, शब्द का प्रयोग हुआ है। व्याकरणानुसार इन शब्दों का शुद्ध रूप, पतोहुएँ, देवताओं, और बिपत्तियों, होता है। अतएव यहाँ पर प्रश्न हो सकता है, कि इन शुद्ध रूपों के स्थान पर, पतोहें इत्यादि अशुद्ध रूप क्यों लिखे गये? बात यह है कि पतोहू और बिपत्ति शब्द का बहुवचन व्याकरणानुसार अवश्य पतोहुएँ, और बिपत्तियाँ होगा, परन्तु सर्वसाधारण बोलचाल में पतोहू के स्थान पर पतोह और बिपत्ति के स्थान पर बिपत शब्द का प्रयोग करते हैं, अतएव व्याकरणानुसार इन दोनों शब्दों का बहुवचन पतोहें, और बिपतों किम्बा बिपतें यथास्थान होगा। इसके अतिरिक्त उच्चारण की सुविधा, कारण, अब पतोहुएँ और बिपत्तियों के स्थान पर पतोहें व बिपतों शब्दों का ही सर्वसाधारण में प्रचार है, इसलिए पतोहुएँ और बिपत्तियों के स्थान पर पतोहें और बिपतों लिखा जाना ही सुसंगत है। हाँ देवतों शब्द किसी प्रकार व्याकरणानुसार सिद्ध न होगा, क्योंकि देवता शब्द का बहुवचन जब होगा तो देवताओं ही होगा। अतएव इस शब्द के विषय में अशुद्ध प्रयोग का दोष अवश्य लग सकता है। परन्तु स्मरण रहे कि व्याकरणानुसार यद्यपि देवतों पद असिद्ध है तथापि सर्वसाधारण की बोलचाल में देवताओं शब्द नहीं है, देवता का बहुवचन उन लोगों के द्वारा देवतों ही व्यवहृत होता है, और समाज की बोलचाल को सदा व्याकरण पर प्रधानता है, अतएव देवताओं के स्थान पर देवतों पद का ही प्रयोग किया गया है। किन्तु यदि इसमें मेरा दुराग्रह समझा जावे तो देवतों शब्द के स्थान पर देवताओं शब्द ही पढ़ा जावे, इस विषय में मुझको विशेष तर्क वितर्क नहीं है।

पतोहें, और बिपतों, किम्वा विपतें इत्यादि के समान पहले से भी प्रयोग होता आया है, आप लोग बाबू हरिश्चन्द्र के निम्नलिखित पद के उन शब्दों पर ध्यान दीजिए, जिनके नीचे आड़ी लकीर दी हुई हैं। उन शब्दों का बहुवचन रीतियाँ, नीतियाँ, प्रीतियाँ, व्याकरणानुसार होना चाहिए, परन्तु उनका उच्चारण रीत, नीत, प्रीत समझकर बहुवचन रीतैं, नीतैं, प्रीतैं बनाया गया है।

पद

कुढ़त हम देखि देखि तुब रीतैं।

सब पै इक सी दया न राखत नई निकाली नीतैं।

अजामील पापी पर कीनी जौन कृपा करि प्रीतैं।

सो हरिचन्द हमारी बारी कहाँ बिसारी जी तैं।

ठेठ हिन्दी का ठाठ, के बहुत प्रचार के साथ उसकी भाषा के विषय में लोगों की अनेक तर्कनायें भी हुईं, समय-समय पर श्रवण परंपरा से मुझको उनका ज्ञान होता रहा, परन्तु जब नागरी प्रचारिणी सभा के सभा-भवन-उत्सव पर मैं काशी गया तो वहाँ कई एक सज्जनों से इस विषय में विशेष बातचीत हुई। मेरे भक्तिमान कनिष्ठ सहोदर पं. गुरुसेवक सिंह उपाध्याय बी.ए. डिप्टी कलक्टर मिर्जापुर ने जब इस ग्रन्थ की एक-एक प्रति महामहोपाधयाय पं. सुधाकर द्विवेदी इत्यादि सुजनों को अर्पण की थी, तो उन लोगों ने भी इस विषय में कई एक बातें कही थीं। निदान जो-जो तर्क वितर्क 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' की भाषा के विषय में आज तक हुए हैं, मैंने यथासामर्थ्य उन सबका उत्तर इस भूमिका में लिख दिया है। किन्तु मेरा उत्तर सुसंगत हैं या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता। इसका विचार भाषा मर्मज्ञों के हाथ है। मुझको इस बात का खेद है कि मेरी इच्छा के विरुद्ध भूमिका बहुत विस्तृत हो गयी, किन्तु क्या करूँ, प्रसंगवश मुझको अनेक विषयों की अवतारणा करनी पड़ी-आशा है आप लोग विवश समझ कर क्षमा करेंगे।

मैंने इस 'अधखिला फूल' को भी ठेठ हिन्दी में ही लिखा है, और यथासामर्थ्य किसी अन्य भाषा के शब्द न आने देने की चेष्टा की है, ऐसा कई ठौर लिखा जा चुका है किन्तु इस पौने दो सौ पृष्ठ की पुस्तक में अनवधनता अथवा भ्रमवश भी अन्य भाषा का कोई शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है-यह मैं नहीं कह सकता। यदि ऐसी त्रुटि कहीं दृष्टिगोचर होवे, तो मैं अपने सहृदय पाठक से उसकी मार्जना और उससे अभिज्ञताप्रदान की प्रार्थना करता हूँ। किन्तु विनय यह है कि जवान और बच्चा इत्यादि शब्दों पर गम्भीर गवेषणा पूर्वक दृष्टि डाली जावे, क्योंकि यद्यपि ये शब्द फारसी ज्ञात होते हैं किन्तु वास्तव में ये संस्कृत शब्द युवन् और वत्स के अपभ्रंश हैं।

एक विषय में मैं बहुत लज्जित हूँ-और वह इस भूमिका की भाषा है। इस भूमिका में बहुत से संस्कृत शब्दों का प्रयोग करके मैं गोस्वामी तुलसीदासजी के इस वाक्य का कि 'पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।' स्वयं आदर्श बन गया हूँ। किन्तु क्या करूँ एक तो जटिल विषयों की मीमांसा करनी थी, दूसरे यह भूमिका बहुत शीघ्रता में लिखी गयी है, अतएव उक्त दोष से मैं मुक्त न हो सका। यदि परमात्मा सानुकूल है तो आगे को इस विषय में सफलता लाभ करने की चेष्टा करूँगा।

विनयावनत

'हरिऔध'