अधजली / सिनीवाली

Gadya Kosh से
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इस घर के पीछे ये नीम का पेड़ पचास सालों से खड़ा है। देख रहा है सब कुछ। चुप है पर गवाही देता है बीते समय की। आज से तीस साल पहले, हाँ तीस साल पहले!

इस पेड़ पर चिड़ियाँ दिन भर फुदकती रहती, इस डाल से उस डाल। घर आँगन इनकी आवाज से गुलजार रहता। आज सुबह-सुबह ही चिड़ियों के झुंड ने चहचहाना शुरू कर दिया था, चीं—चीं—चू—चू। बीच-बीच में कोयल की कूहू की आवाज शांत वातावरण में संगीत भर रही थी कि तभी कई पत्थर के टुकड़े इस पेड़ पर बरसने लगे। चिड़ियों के साथ उनकी चहचहाहट भी उड़ गई, रह गई तो केवल पत्थरों के फेंकने की आवाज के साथ एक और आवाज, "उड़, तू भी उड़—उड़ तू भी—सब उड़ गईं और तू—तू क्यों अकेली बैठी है—तू भी उड़!"

"क्या कर रही हो बबुनी? यहाँ कोई चिड़िया नहीं है—एक भी नहीं, सब उड़ गईं, चलो भीतर चलो" , शांति कुमकुम का हाथ खींचती हुई बोली।

"नहीं, वह नहीं उड़ी—मेरे उड़ाने पर भी नहीं उड़ती। उससे कहो न उड़ जाए, नहीं तो—अकेली रह जाएगी बिल्कुल मेरी ही तरह!" बोलते हुए उसकी आवाज काँपने लगी, भँवें तनने लगीं और आँखें कड़ी होने लगीं। वह तेजी से भागती हुई बरामदे पर आई और बोलती रही, "अकेली रह जाएगी, अकेली—उड़, तू भी उड़—उड़—!"

बोलते बोलते कुमकुम वहीं बरामदे पर गिर गई. सिंदूर के ठीक नीचे की नस ललाट पर जो है वह अक्सर बेहोश होने पर तन जाती है उसकी। हाथ पैर की उंगलियां अकड़ जाती हैं। कभी दाँत बैठ जाता है तो कभी बेहोशी में बड़बड़ाती रहती है।

शांति कुमकुम की ये हालत देखकर दरवाजे की ओर भागी और घबराती हुई बोली, "सुनिएगा!"

ये शब्द महेंद्र न जाने कितनी बार सुन चुका है। शांति की घबराती आवाज ही बता देती है कि कुमकुम को फिर बेहोशी का दौरा आया है। कितने डॅाक्टर, वैध से इलाज करा चुका है, सभी एक ही बात कहते हैं, मन की बीमारी है।

"आ—आ—"

"तुम—तुम—मैं—मैं—!"

ये सब देखकर महेंद्र के भीतर दबी अपराध बोध की भावना सीना तानकर उसके सामने खड़ी हो जाती। कुमकुम की बंद आँखों से भी वह नजर नहीं मिला पाता। सिरहाने बैठकर वह उसके माथे को सहलाने लगता और शांति कुमकुम के हाथ पैर की अकड़ी हुई उंगलियों को दबा कर सीधा करने की कोशिश करने लगती।

महेन्द्र पानी का जोर-जोर से छींटा तब तक उसके चेहरे पर मारता जब तक कुमकुम को होश नहीं आ जाता। होश आने के बाद कुछ देर तक कुमकुम की आँखों में अनजानापन रहता। वह चारों ओर ऐसे शून्य निगाहों से देखती जैसे यहाँ से उसका कोई नाता ही न हो। धीरे-धीरे पहचान उसकी आँखों में उतरती।

कुमकुम धीरे से बुदबुदायी, "दादा—दादा!"

महेंद्र के भीतर आँसुओं का अथाह समुद्र था पर आँखें सूखी थी। वह कुमकुम का माथा सहलाता रहा।

"दादा, क्या हुआ था मुझे?" कुमकुम की आवाज कमजोर थी।

"कुछ नहीं—बस तुम्हें जरा-सा चक्कर आ गया था—ये तो होता रहता है—अब तुम एकदम ठीक हो।"

"हाथ पैर में दर्द हो रहा है, लगता है देह में जान ही नहीं जैसे किसी ने पूरा खून चूस लिया हो।"

"तुम आराम करो, भौजी पैर दबा रही है।"

"पता नहीं क्यों, —मैं बराबर चक्कर खा कर गिर जाती हूँ!"

महेंद्र के पास इसका कोई जवाब नहीं था। "इसका ध्यान रखना" , इतना बोलकर उसका माथा एक बार बहुत स्नेह से सहला कर वह बाहर चला गया।

महेंद्र के जाने के कुछ देर बाद तक कुमकुम, शांति को गौर से देखती रही।

"भौजी, दादा कुछ बताते नहीं, मुझे क्या हुआ है! डॅाक्टर क्या कहता है मुझे बताओ तो!"

"तुम्हें आराम करने के लिए कहा है" , कुमकुम का हाथ सहलाती हुई शांति बोली।

"भौजी, क्या डॅाक्टर सब समझता है, मुझे क्या हुआ है?"

"हाँ, बबुनी! वह डॅाक्टर है न!"

"तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे वह डॅाक्टर नहीं भतार हो!"

शांति के चेहरे पर मुस्कुराहट की बड़ी महीन-सी लकीर खिंच गई.

"जाओ भौजी, तुम्हें भी काम होगा—मैं भी थोड़ी देर में आती हूँ—अभी उठा नहीं जाता!"

"मैं तो कहती हूँ थोड़ी देर सो जाओ, रात में भी देर तक जगना होगा।"

"क्यों?"

"याद नहीं कल सुषमा का ब्याह है और आज रात मड़वा (मंडपाच्छादन) है। मैं तो जा नहीं सकती, तुम्हें ही जाना पड़ेगा, नहीं तो कल कौन—" , बोलते-बोलते शांति बिना बात पूरी किए तेजी से बाहर निकल गई. बेहोशी से आई कमजोरी के कारण कुमकुम की आँख लग गई.

सपने में कुमकुम ने देखा, नीले आकाश में उजले-उजले बादल रुई की तरह तैर रहे हैं। दो उजले बादल आपस में टकराए और नीला आकाश सिंदूरी हो गया। जहाँ दोनों बादल टकराए थे, वहीं से एक सुंदर युवक निकल कर उसकी ओर बढ़ रहा है। उसकी माँग और वह भी सिंदूरी हो जाती है। युवक उसकी ओर मुस्कुराते हुए बढ़ता चला आ रहा है, आहिस्ता आहिस्ता। उसका सीना चौड़ा है और बाहें बलिष्ठ, होठों पर गुलाबी मुस्कान है और बाल काले घुंघराले हैं। आँखें, उसकी आँखों को देखने से पहले ही कुमकुम की आँखें लाज से झुकी जा रही हैं और वह लाज से लाल हुई जा रही है। युवक उसके पास, बहुत पास आ जाता है, उसकी सांसें तेज होने लगती हैं। उन दोनों की सांसें एक होतीं कि तभी बादलों का रंग अचानक काला हो गया और तभी, दो काले बादल आपस में टकराते हैं और भयंकर गर्जना होती है, आकाश में बिजली चमक जाती है। इस बिजली की चमक में उस युवक का चेहरा इतना डरावना और भयंकर दिखा कि कुमकुम डर से चीखने लगती है और वह पसीने से नहा जाती है। तभी उसकी नींद टूट जाती है।

" वही, हाँ वही तो थे पर इतना डरावना चेहरा!—क्यों हो गया उनका! पर कैसे कहूँ कि वही थे—उनका चेहरा आजतक तो ठीक से देखा भी नहीं है मैंने! वर्षों बीत गए, ठंडी सांस लेकर कुमकुम बिछावन पर लेट गई. हमारा ऐसा ब्याह हुआ कि—माँग तो भरी मेरी पर जीवन सूना रह गया। बारह बरस बीत गए इसी चैत में। उसकी कानों में भी बात गई थी पर उसे किसी ने बताया नहीं था कि शादी कहाँ होगी, किससे होगी। उसे बस यही पता था कि घरवाले जहाँ कहेंगे, जब कहेंगे उसे तैयार रहना है। उसे कुछ पूछना नहीं है बस चुपचाप सब करते जाना है। बेटियों को ऐसा ही होना चाहिए, जिसके पास प्रश्न नहीं होते।

वो भी तैयार थी पर उसके कान में बात आई. भौजी ने दादा से कहा था, "कर दो ब्याह, इतना अच्छा घर वर तो हम किसी जनम में नहीं कर पाएंगे। इस तरह का ब्याह तो होता रहता है। लड़का लड़की साथ रहते हैं तो सब ठीक हो जाता है और अपनी कुमकुम तो सुंदर भी है।" मेरी सुंदरता और मेरी देह! सबके लिए एक आशा की किरण थी कि सब कुछ ठीक हो जाएगा। दादा कुछ नहीं बोले।

लड़का अच्छी नौकरी करता है। दादा के दोस्त सूरज दा हैं न, उन्हीं के ननीहाल का लड़का है। कल लड़का घर लाया जाएगा। कल बढ़िया मुहूर्त है। पता लगा लिया गया है। ऐसी शादी में जो तैयारी हो सकती है, कर दी गई है। पुआल के साथ कच्चा बाँस, बसबिट्टी से कटवा कर आँगन में एक किनारे रख दिया गया है। पीली धोती और लाल साड़ी पलंग पर रखा देखा था मैंने। दोनों कपड़े एक साथ देखकर मीठी-सी सिहरन तो हुई पर उससे अधिक डर गई.

ब्याह के नाम पर सतरंगी सपने जो आँखें देखतीं, उनमें खुशी की जगह डर समा गया। क्या होगा? कैसे होगा? जबरदस्ती के ब्याह में अगर वह नहीं माने तो! लेकिन मैं किससे कहती! इस डर से तो लड़कियां गुजरती ही हैं। ये सोचकर अपने को समझा लिया। कहीं न कहीं अपने भीतर ये भरोसा भी था कि किसी भी तरह मैं उनका मन जीत लूंगी।

पर, कहाँ जीत पाई! इतने बरस बीत गए, ब्याह करके जो गए फिर लौट कर नहीं आए. बाबू जी उनके आने का रास्ता देखते-देखते दुनिया से चले गए और मैं—, रास्ता देखते-देखते अहल्या बन गई.

ब्याह के समय एक बार तुम्हारे चेहरे पर नजर गई थी। पंडी जी मंत्र पढ़ रहे थे। उसी पवित्र अग्नि में तुम्हारा चेहरा दिखा था। तुम गुस्से से तमतमाए हुए थे। उस गुस्से में भी अपनापन दिखा, बस, तुम्हारी हो गई. पंडी जी ब्याह के बाद बोले कि सियाराम की जोड़ी है। सच में सियाराम की जोड़ी ही है हमारी कि आँखें कभी मेरी सूखती ही नहीं।

उसी समय मेरे जीवन में सूरज उगा था पर क्या पता था कि ये सूरज उगने के साथ ही डूब जाएगा और बच जाएंगी काली अंधेरी रातें। कौन कौन-सा पूजा पाठ न किया, किस मंदिर के द्वार पर माथा न रगड़ा। कई बार दादा तुम्हारे घर गए. तुम्हारे घर वालों ने उन्हें क्या नहीं कहा पर वह मुझे हर बार आकर यही कहते, घरवाले बहुत अच्छे हैं, लड़का नौकरी के काम से बाहर गया है, लौटते ही यहाँ आएगा। शुरु-शुरु में तो वह यही कहते रहे फिर लौटते तो कुछ नहीं बोलते। लेकिन उनकी चुप्पी कहती, नहीं आने वाले, कभी नहीं आते।

आ जाते तुम एक बार, तो मैं तुम्हें बताती कैसे बीते हैं ये बारह साल। वनवास तो बारह बरस का था उनका पर मेरा तो पूरा जीवन ही वनवास बन गया। तुम्हारे मन में न बसी, तुम्हारे साथ घर न बसा सकी, तो—मैं वनवासी हुई न, अकेली जंगल में भटकती हुई. एक-एक दिन ऐसे बीतता है जैसे हर दिन जहरीला काँटा बनकर मेरी देह में चुभता जाता है। इन बीते सालों में मेरी पूरी देह में काँटा ही काँटा भर गया है। छटपटाती हूँ दर्द से। इन काँटों का घाव भीतर तक होता है लेकिन इन घावों से सिर्फ़ आँसू निकलते हैं। इन बीते दिनों का दर्द मेरी हाथ की लकीरों में उतर आया है तभी तो सभी रेखाएँ एक दूसरे को काटती रहती हैं और मेरी भाग्य रेखा तुम्हारी भाग्य रेखा से नहीं मिल पाती है।

सोचती हूँ इस ब्याह से क्या मिला? काँच की चूड़ियाँ और माँग में सिंदूर। कुमकुम नाम है मेरा पर काली स्याही पुती है मेरे जीवन में। तुमसे ब्याह होते ही जहर घुल गई ज़िन्दगी में। तुम्हारा तो कुछ नहीं बदला पर मेरा शरीर छोड़ कर सब कुछ बदल गया। यहाँ तक की ये घर भी अब मेरा नहीं रहा। अब ये घर, घर नहीं नैहर हो गया। सब कहते हैं, बेटियाँ नैहर में अच्छी नहीं लगतीं। परगोत्री हो गई. दान होते ही बेटी दूसरे गोत्र, दूसरे घर की हो जाती है। जैसे मैं इंसान नहीं सामान हूँ। मेरी कोई इच्छा नहीं, कोई ज़रूरत नहीं। सामान हूँ, दान कर दी गई. सामान हूँ तुम चाहो तो ले जाओ नहीं चाहो तो—! कभी-कभी सोचती हूँ मैं तुम्हारा नाम लेते-लेते मर जाऊँ तो—तुम्हारे हाथ का आग भी मुझे नहीं मिलेगा, मुझे पैठ नहीं मिलेगा। मैं पूछती हूँ तुमसे, हमारे सारे धर्म ग्रंथ क्या पुरुषों ने ही बनाए हैं कि बिना पुरुष के औरतों की कोई गति नहीं। धर्म कहता है, मेरी देह पर पहला अधिकार तुम्हारा है।

देह हाँ देह, न जाने क्या सोचकर ईश्वर ने बनाया इसे कि इसे भी भूख लगती है। उस समय डर जाती हूँ मैं। मेरे बिछावन पर साँप लोटने लगते हैं। हाँ, काला, सरसराता हुआ, रेंगता हुआ मेरी ओर आता है। मैं डर जाती हूँ पर मैं भाग नहीं पाती। मैं देखती रह जाती हूँ। सरसराता हुआ साँप मेरी देह पर चढ़ता है, फिर रेंगता है हर अंग पर आहिस्ता आहिस्ता। उफ्फ, कैसे बताऊँ तुम्हें ये सिहरन! फिर साँप मुझे डँसता है। पूरे शरीर में जहर चढ़ जाता है। जहर भरी देह में एक और जहर। कभी-कभी ये मुझे बहुत डराता है तो कभी ये मुझे अच्छा लगने लगता है। उस जहर में भी प्रेम है। लिपटी हूँ मैं उस साँप से! देखो ज़रा भी लाज नहीं बची मुझमें! हाँ नहीं बची क्योंकि लाज के परे भी तो कुछ होता है।

सब बेकार हो गया—मेरी देह, मेरा मन, मेरा जीवन, एक तुम्हारे बिना। तुम पर गुस्सा आता है। जब तुम आओगे तब मैं तुम्हें बताऊंगी, मैं चंदन की लकड़ी कितनी तपी कितनी जली, एक तुम्हारे बिना। फिर भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ा, तुमसे प्रेम करना। सब कहते हैं तुम कभी नहीं आओगे पर मैं जानती हूँ कि तुम आओगे—और वह रात भी आएगी, जिसमें सांसें एक होती हैं।

तन और मन शांति का भी सूखा था। सब कहते हैं, उसकी कोख भी सूख गई. नहीं तो इतने बरस में इस सूने घर में बच्चों की किलकारी नहीं गूँजती। कहने वाले तो ये भी कहने लगे हैं कि अब इस घर का वंश ही खत्म हो गया। भौजाई को न सही ननद का ही होता तो भी कहने के लिए भी तो इस घर का कोई होता। कुमकुम ऐसी अभागिन निकली कि पति का दुहराकर मुँह नहीं देखा और शांति तो बांझ ही हो गई. बांझ शब्द शांति के कानों के भीतर ऐसे उतरता जैसे किसी ने जलता हुआ लाल दहकता कोयला डाल दिया हो और ये आग उसके कलेजे को धू-धू कर जलाती है। पर वह किससे कहे, कैसे कहे कि वह वसंत तो आया ही नहीं कि उसकी कोख में कोंपल फूटता। उसका जीवन तपता रेगिस्तान बन गया जिसमें एक हरी दूब भी नहीं बची। दूर-दूर तक बस तपता जलता बालू ही बालू।

पति महेंद्र को बस घर से खाने तक का ही मतलब रह गया था। दिनभर गाय और खेती के कामों में उलझे रहते। जो समय बचता भी उसे द्वार पर बैठ कर बिता देते। कभी दो चार लोगों के साथ तो कभी अकेले ही। रात भी उंगली पकड़ कर महेंद्र को शांति के कमरे तक नहीं पहुंचा पाती। इस घर के भाग्य में लगता है सूनी रातें ही लिखी हैं।

सब बातों से शांति समझौता कर लेती पर अपने भीतर की ममता को कैसे समझाती। अनजाने ही उसकी कोख में हलचल होने लगती। छाती फाड़कर भीतर से कुछ निकल जाना चाहता। उसका मन करता उसे भी कोई माँ कहे। कान कहते आज तक इतना कुछ तो सुना पर माँ न सुना। संसार का सबसे मीठा शब्द माँ होता है। इस सूने घर आँगन में वह डगमगाते हुए चले। जिसकी काजल भरी आँखें और तुतलाते हुए बोल माँ कहे और वह दूर से भी सुन ले। दौड़ती हुई आकर उसे उठाकर अपनी छाती से लगा ले। पर—पर नहीं ये छाती जलती रहेगी, इसमें कभी दूध न उतरेगा। कोई उसे माँ नहीं कहेगा। वह बांझ ही रहेगी। माँ न बनेगी कभी।

एक उसकी जिद ने उसके हँसते जीवन में आँसुओं की बाढ़ ला दी। उसने कहा था, ब्याह दो कुमकुम को उस नौकरिया लड़के से। किसी भी हाल में ऐसा लड़का नहीं उतार पाएंगे हम और ऐसा तो उसने बहुत बार देखा था। शुरु शुरू में लड़के वाले नखरा करते हैं लेकिन लड़की के एक बार घर में घुसते ही अपनी सेवा के दम पर पूरे परिवार का मन जीत लेती है। फिर तो वही उस घर में पुजाने लगती है। कुमकुम भी जीत लेगी सब कुछ, वहाँ जाकर। लेकिन जीतती तो तब जब वह वहाँ जाती। कैसा कसाई परिवार है, एक बार भी नहीं ले गया कुमकुम को। हमलोग हर कोशिश कर के हार गए. उस परिवार से बेइज्जती के सिवाय कुछ नहीं मिला। लोगों ने कहा, देवस्थान जाकर धरणा दो। छ: महीने कुमकुम को लेकर वहाँ भी रही। सुबह शाम मंदिर में झाड़ू बुहारु, पूजा पाठ, व्रत उपवास सब कराया। ये करते हुए वर्षों बीत गए, भाग्य नहीं बदला। शायद विधाता के पास इस घर का भाग्य बदलने के लिए स्याही नहीं थी। अब तो ऊपर वाले से भी कोई आस नहीं रही।

कुमकुम बोलती कुछ नहीं, सब कुछ ऐसे पी जाती है जैसे पानी। लेकिन जब उसे दौरा आता है तो उसे भी पता नहीं चलता, वह क्या-क्या बकती है। शुरु में तो मुझे लगा नाटक करती है। फिर लगा गेहूँ की तरह तपती उमर है, ऐसी उमर में भूत प्रेत पकड़ते हैं अकेली पाकर। जब बालियाँ कटने को तैयार हो जाती हैं, हवा के झोकों के साथ झन-झन बजती हैं, न काटो तो उसी हवा के थपेड़ों से जमीन पर बिखरते हुए कितनी देर लगती है!

मुझे डर लगने लगा, उसका वह रूप देखकर। उसकी देह थरथराने लगती। आँखें लाल-लाल जैसे चिता की आग हो। मुँह ऐसे खोलती जैसे सबको चबा जाएगी। फिर जोर-जोर से रोने लगती, चिल्लाने लगती, जाने दो—चल चल—! फिर कहाँ-कहाँ से भूत झाड़ने के लिए ओझा न आया। कितने कबूतर, दारु, पान, सुपारी, सिंदूर, बताशा और अड़हुल के फूल चढ़ाए गए. मंत्र पढ़ा गया। ओझा कहता, ये जिन्न है—ऐसे नहीं छोड़ेगा—अपने साथ लेकर जाएगा—कुंवारा जवान लड़का मरा है—वो प्यासा है। इसे अपने साथ लेकर जाएगा—नहीं मानेगा—किसी भी हाल में नहीं मानेगा। लेकिन वह नहीं आया जिसकी ज़रूरत थी। पान पर सिंदूर लगता रहा और कुमकुम अपने लिए रंगहीन हो चुके सिंदूर में कुमकुम-सा लाल रंग खोजती रही। ओझा से ठीक न हुआ तो डॅाक्टर के पास गए. डॅाक्टर बोला कोई बीमारी नहीं है। केवल पति का साथ ही इसे ठीक कर सकता है।

एक गलती ने किस तरह बदल दिया सबका जीवन! जबरदस्ती नहीं सहमति से साथ होता है। जीवन भर का साथ रंग रूप देह पर टिकता है लेकिन सबसे ज़्यादा ज़रूरी मन का मिलना है, अब समझ में आ रहा है। इस गलती की कीमत कुमकुम ही नहीं, ये घर भी चुका रहा है। मैं माँ नहीं बन पाई, वह पति को तरसती है। सब उसका दुख समझते हैं, मैं तो पति के सामने रहते पति को तरसती हूँ, मेरा दुख कौन समझेगा!

कई साल हो गए, उस रात के बाद वह रात कभी नहीं आई. उसी रात से मेरा पलंग सूना हो गया और मैं भी। उस रात बाहर से ऐसे चीखने की आवाज आई जैसे किसी ने किसी का गला दबा दिया हो। उस रात को याद कर अभी भी सिहर उठती हूँ। मुझे लगा रात के इस पहर भूत की आवाज है। मैं डर कर उनके सीने से लिपट गई. उन्होंने कहा, डरो नहीं कुछ होगा। मैं उनके सीने से लगी उनकी धड़कन सुनकर हिम्मत बांध ही रही थी कि किवाड़ पीटने की आवाज आने लगी। अब तो मेरे प्राण सूख गए. दरवाजा पीटते पीटते, फूट-फूट कर रोने की आवाज रही थी। रोते हुए बोलने लगी, तुमने ही मुझे उजाड़ा, तेरे ही कारण मेरी रातें सूनी रह गईं और तुम—-! ये कुमकुम की ही आवाज थी। उसे फिर दौरा आया था। आवाज डरावनी हो गई थी। उन्होंने उठकर किवाड़ खोला। सामने कुमकुम बेहोश पड़ी थी। उसी रात के अंधेरे में मेरी सारी रातें खो गईं।

शुरु शुरु में तो मुझे बहुत गुस्सा आता। बात-बात पर लड़ लेती उससे। पर कुमकुम ऐसे सुनती जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। आकाश की ओर न जाने क्या देखती रहती और चुपचाप मेरी बातें सुनती रहती। कभी कोई जवाब नहीं देती। आखिर थककर धीरे-धीरे मैंने भी समझौता कर लिया। सारी इच्छाओं को मन में समेटे मैं सूखी नदी हो गई, दो नदियां पास-पास पर दोनों सूखी और तपती हुई. जहाँ जीवन पलता वहाँ सन्नाटा भांय-भांय करता।

कभी कभी कुमकुम बाल गोपाल का फोटो दिखाती हुई बोलती, "भौजी, एक ऐसा ही गोलमटोल भतीजा मुझे चाहिए, मैं उसे नहलाउंगी, तेल लगाउंगी—और वह केवल गाय का दूध पीएगा, भैंस का एकदम नहीं क्योंकि भैंस का दूध पीने से बुद्धि मोटी हो जाती है।" कुमकुम की बातें सुनकर शांति न रो पाती न हँस पाती।

कबसे शांति ये बातें सोच रही थी। उसका ध्यान तब टूटा जब फंटूश की माँ ने हड़बड़ाते हुए आकर कहा, "दुल्हिन, जब जानती हो कम्मो का आसन हल्का है तो अकेले क्यों जाने देती हो इधर उधर, वह भी सांझ के इस पहर में। जाकर देखो बैर गाछ के नीचे बेहोश पड़ी है। गाँव भर जानता है उस गाछ पर भूत रहता है।"

"लेकिन!" , इतना ही बोलते हुए शांति दौड़ती हुई वहाँ पहुँच गई, देखा कुमकुम गाछ के नीचे बेहोश पड़ी है। वहीं उसके बगल में बच्चे का लाल-लाल कपड़ा, हाथ पैर में बांधने वाला लाल काला फुदनी और कजरौटा बिखरा पड़ा है। कल ही कह रही थी, सुग्गी आई है ससुराल से अपने बेटे को लेकर—देखने जाएगी। अपने दादा से कहकर उसने बच्चे के लिए कपड़ा और फुदनी मंगवाया था। रात भर जगकर उसने काजल बनाया था। शांति को याद आया कि पूरी रात कुमकुम आँगन में बेचैन-सी घूमती रही थी और अभी, कुमकुम और सबकुछ यहाँ बिखरा है।

आज शांति जिस गति से घर के भीतर गई, वह आज तक महेंद्र ने इतने सालों में नहीं देखा था। वह उसे जाते देखता रहा। उसका मन किसी आशंका से काँप गया। जब तक वह कुछ समझता, मिट्टी के तेल की तेज गंध आने लगी। वह तेजी से भागता हुआ घर के भीतर गया। जो उसकी आँखें देख रही थी उसे देखकर वह कुछ पल के लिए जैसे ठिठक गया। शांति ऊपर से नीचे तक मिट्टी तेल से नहाई हुई थी। आँखें जल रही थी और गुस्से में उसकी देह थरथरा रही थी।

महेंद्र को जैसे अचानक होश आया, "क्या कर रही हो? एकाएक क्या हो गया?"

"एकाएक कहते हो, मेरा तिल-तिल कर मरना तुम्हें दिखाई नहीं देता—अपने खून का दर्द तुम्हें दिख जाता है। मेरे लिए सोचने वाला कौन है—न साँय न बच्चा! बांझ हूँ मैं—बांझ! वह भी तुम्हारे कारण!"

"किसी ने कुछ कहा—?"

"किसी ने नहीं—सब कहते हैं—बांझ हूँ मैं!"

"कितनी बार कहा है, कहीं मत जाया करो—लोग जीने नहीं देंगे।"

"मंदिर गई थी, तो क्या वहाँ भी नहीं जाऊँ? इसी घर का सुख माँगने गई थी लेकिन जिसका सुहाग नहीं सुनता उसपर भगवान भी सहाय नहीं होता। लोग मुझे बांझ कहते हैं, अपनी बहू बेटियों को मेरी छाया से भी दूर रखते हैं। बताओ, क्या मैं बांझ हूँ?"

महेंद्र की समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे। इधर शांति चिल्लाती रही।

"मैं दुनिया भर की बातें सुनूँ और तुम चुप रहो। तुम दोनों भाई बहन ने मिलकर मेरा सत्यानाश कर दिया। सबसे बड़ा सुख मुझसे छीन लिया। मुझसे तुम्हारा खाने तक का ही मतलब है। दिनरात मैं तुम्हारे घर की चाकरी करुँ पर मेरे मतलब का क्या!"

महेंद्र केवल शांति को देखता रहा और वह गुस्से में बकती रही। "मैं मर भी जाऊँ तो तुम्हारा पेट और ये घर तुम्हारी बहन भी चला लेगी। उस कुलच्छिनी को तो यहीं रहना है जब तक कि सब की जान न चली जाए. न जाने किस नछत्तर में बियाह हुआ था इसका—!"

महेंद्र शांति के गुस्से की आँधी के आगे थरथराता दीया बनकर रह गया। उसने आसपास चुपचाप नजर घुमाकर देखा कि कहीं कुमकुम तो नहीं है पर वह कहीं नहीं दिखाई दी।

"बताओ, मैं क्यों जीऊँ? तुम्हारा पेट और घर चलाने के लिए—न पति का सुख न बच्चे का ऊपर से लोगों की तरह-तरह की बातें। इससे तो अच्छा मेरा मर जाना है। क्या यही सुख देने के लिए मुझे ब्याह कर लाए थे?"

महेंद्र के पास कोई जवाब नहीं था। वह चुपचाप उसे देखता रहा फिर दो कदम आगे बढ़ कर महेंद्र ने कसकर उसे अपने सीने से लगा लिया। बहुत दिनों के बाद दोनों साथ मिलकर बहुत देर तक रोते रहे। एक गलती की सजा कितने लोगों को मिली। हाँ गलती ही थी एक बेरोजगार भाई ने अपनी बहन के लिए सुनहरे सपने देखे थे। उसने सोचा था कुमकुम बड़े घर जाएगी, सुख करेगी। समाज में प्रतिष्ठा बढ़ेगी पर इसके लिए उसके पास पैसा नहीं था।

महेश चाचा जो बैंक में किरानी हैं, बड़ा घर और इंजीनियर जमाई उतार लाए. खेत तो मुझसे भी कम है लेकिन दो नम्बर की नौकरी के दम पर बेटी को सुखी कर दिया और समाज में इज्जत भी बढ़ गई. मैं भी तो कुमकुम को वही ज़िन्दगी देना चाहता था। बाबू जी से कहा भी था, खेत बेचकर दे देते हैं! कितना है जो बेच कर दे दोगे, फिर तुम्हारा क्या होगा? खेत नहीं रहेगा तो कल खाओगे कैसे? 'कैसे' का जवाब हम जैसे किसानों के पास कहाँ होता है।

मेरे पास और क्या रास्ता था! वही जो ऐसी हालत में लोग करते हैं। लड़का उठाकर ब्याह लेते हैं फिर समय के साथ नाव किनारे लगती है या फिर मंझदार में डूब जाती है! मैंने भी जोखिम लिया। एक यही रास्ता बचा था। किसी गरीब के हाथ बहन देता तो बहन ज़िन्दगी भर सिसकती हुई मर जाती। शुरु-शुरु में परेशानी तो होगी, बहुत कुछ बरदाश्त करना होगा, कर लूंगा। पर ये न सोचा था जीवन मरण के बराबर हो जाएगा। बाबू जी कुमकुम को विदा करने की साध मन में लिए ही विदा हो गए. कुमकुम जीते जी लाश बन गई. उसकी इस हालत का जिम्मेदार तो मैं ही हूँ। उसकी लाश पर मैं अपनी दुनिया कैसे बसा लूँ? कुमकुम, शांति और ये घर, सबका अपराधी तो मैं ही हूँ।

धीरे धीरे एक-एक पत्ता झड़कर जैसे पेड़ को सूना कर जाता है उसी तरह इस घर की सभी खुशियाँ झड़ गई थी। घर, नंगे पेड़ की तरह हो गया था। नंगे पेड़ और जलते समय के साथ कुछ महीने बीत गए.

एक दिन कुमकुम बरामदे में बैठ कर कुछ कर रही थी कि देखा शांति आँगन में चक्कर खाकर गिर पड़ी। "अरे ये क्या हो गया?" बोलती हुई कुमकुम उसके पास दौड़ कर गई. देखा शांति का हाथ पैर ठंडा है। दादा-दादा चिल्लाती हुई उसका पैर रगड़ने लगी।

महेंद्र ने पहली बार इस तरह शांति को अचेत देखा तो उसकी आँखें भर आईं। क्या इसी दिन के लिए वह इसे ब्याह कर लाया था! आजतक कोई सुख नहीं दे पाया। वह चुपचाप तिल-तिल कर मरती रही और वो—! अगर उसे कुछ हो गया तो कोई नहीं है इस घर को और उसे देखने वाला। गाँव के डॅाक्टर ने कहा, "दुल्हिन को जनानी डॅाक्टर के पास शहर ले जाओ."

महेंद्र ने परेशान हो कर पूछा, "क्या हुआ है?"

"जो तुमने सोचा भी नहीं होगा" , डॅाक्टर ने कहा।

"हे भगवान, ये क्या हो गया!" , कुमकुम का धीरज जवाब दे गया।

उसी समय महेंद्र और कुमकुम दोनों शांति को लेकर शहर गए. महिला डॅाक्टर ने जो कहा, सुनकर दोनों भाई बहन के चेहरे पर कमल खिल गए. तो क्या भगवान ने हमलोगों के ऊपर भी नजर फेरी है! इस घर के भी दिन बदलेंगे।

फिर तो इस घर के दिन ही बदल गए. गुमसुम उदास-सा घर गुनगुनाने लगा। फूलों के साथ खुशियाँ भी खिलने लगीं। कुमकुम धीरे-धीरे सोहर गाती हुई देखती कि शांति के चेहरे का रंग बदल गया है। हमेशा मुरझाई रहने वाली भौजी अब खिली-खिली रहती है। शांति को खुश देखकर उसे भी अच्छा लगता। वह अब शांति को अधिक काम नहीं करने देती। भौजी के खाने का वह खास खयाल रखती और उसके पसंद का खाना बनाकर खिलाती रहती।

शांति ने कुमकुम का ये रूप कभी नहीं देखा था। इतनी ममता है इसके भीतर। इसके पहले कभी कुमकुम इतनी खुश नजर नहीं आई थी। सचमुच एक बच्चे के आने की आहट मात्र से कितना कुछ बदल गया। कुमकुम इठलाती हुई कहती, "भौजी, उसके आने के बाद मैं तुम्हारी खातिरदारी नहीं कर पाउंगी। मेरे पास समय कहाँ रहेगा, उसे नहलाना, खिलाना, सुलाना, घुमाना—सब मुझे ही तो करना है।" ये सब सुनकर शांति मन ही मन हँस देती।

छठा महीना शांति का लग गया। दिन जैसे-जैसे करीब आता जाता, सबके चेहरे पर खुशियाँ बढ़ती जाती। आज सुबह ही महेंद्र किसी ज़रूरी काम से गाँव से बाहर गया था और रात तक लौटकर आएगा।

दोपहर होते-होते शांति का मन भारी लगने लगा। वह आँगन में चटाई पर लेट गई. कुमकुम धीरे-धीरे घर का काम निपटाती रही। गुनगुनी धूप में शांति की आँख लग गई.

"खा लो भौजी!"

"नहीं बबुनी, मन अच्छा नहीं लग रहा है, बाद में खा लूंगी।"

"भौजी खा लो—पकौड़ी भी बनाई है तुम्हारे लिए, मन की साध कोई मन में ही न रह जाए, कल बोल रही थी।"

"खाने का मन नहीं है—जी ठीक नहीं लग रहा।"

एक बार फिर कुमकुम ने खाने को कहा। शांति ने कहा, "रख दो न बाद में खा लूंगी।"

मनुहार करके कुमकुम रोज शांति को खिलाती थी लेकिन आज धीरे-धीरे कुमकुम जिद पर उतर आई.

"कहा न खा लो—नहीं सुनती!"

कुमकुम की आवाज बदलने लगी। शांति इस बदलाव को पहचानती थी। वह डर गई. उसने सहमते हुए कुमकुम की ओर देखा। कुमकुम की भँवें तनने लगी और आँखें लाल होने लगीं। उसका ये रूप देखकर शांति का खून सूख गया। घर में आज अकेली है वह भी इस हालत में। डरते-डरते हिम्मत बांध कर इतना ही कह पाई, "मैं, मैं खा लेती हूँ—मैं तो ऐसे ही कह रही थी—मुझे तो बहुत जोरों की भूख लगी है।"

"तुम्ही तो खा गई मेरा सब कुछ और नखरा दिखाती है मुझे—मेरा जीवन तबाह करके अपना गोद भरने चली है और—तुम्हारे ही कारण मेरी सेज और गोद सूनी रही और तुम—!"

बोलते बोलते कुमकुम का चेहरा और विकराल होने लगा। भवें तनने लगीं, आँखें आग उगलने लगी। उसने झुककर खाना उठाया और जोर से पिछवाड़े की तरफ फेंक दिया जो नीम के पेड़ से टकरा कर वहीं बिखर गया। बिखर गया वहाँ इतनी साध से बनाया गया खाना और पकौड़ियाँ। वह पलट कर शांति को एक टक देखने लगी। शांति ने कई बार पहले भी देखा था, जब उसे दौरा आता है अगर वह होश में रह गई तो बहुत ताकत इसकी देह में न जाने कहाँ से आ जाती है। एक दो मर्दों को झटक कर ऐसे फेंक देती है जैसे तिनका। कुमकुम की आँखों में खून उतरने लगा और शांति के देह का खून जम गया। आज तो कोई है भी नहीं, वह क्या कर पाएगी। "नहीं नहीं मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ" बोलती हुई शांति वहाँ से धीरे-धीरे उठने की कोशिश करने लगी। जब तक शांति उठती, कुमकुम के दोनों हाथ उसकी गर्दन पर थे। इस बार शांति का हाथ पैर थरथरा रहा था, भवें तनी थी और आँखें—। कुमकुम के चेहरे पर अट्टहास था। शांति गिड़गिड़ाती हुई बेहोश हो गई. कुमकुम अट्टहास करते हुए शांति को वहीं छोड़ कर पूरे घर में दौड़ती रही।

पीछे खड़ा नीम का पेड़ जोर-जोर से डोलता रहा।