अधिकार लेकर रहेंगे / शम्भु पी सिंह

Gadya Kosh से
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बिहार के एक जिले की नक्सली समस्या पर रिपोर्टिंग करने की जिम्मेदारी मिली थी। मौका था नक्सली हिंसा में कुछ नक्सलियों के साथ पुलिस की गोली से दो ग्रामीणों के मारे जाने पर रैली का आयोजन। पहाड़ से सटे दलितों की एक छोटी-सी बस्ती, जिसमें मुश्किल से पच्चीस-तीस घर। फूस के बने घर। बस्ती से पहले तक पक्की सड़क, उस सड़क के अंतिम छोड़ पर अर्धसैनिक बलों की टुकड़ी का टेंट लगा ठिकाना। उसके आगे कच्ची पगडंडी के सहारे बसा गांव। बिल्कुल शांत, लेकिन ठीक इसके उलट पहाड़ के उस पार के मैदान में रैली का शोरगुल। रैली में जाने का रास्ता मुख्य सड़क से कनेक्टेड था, लेकिन मैंने चुना बस्ती से होते हुए पहाड़ के संकरे गलियारे का रास्ता। हालांकि पुलिस ने अकेले इस दुर्गम रास्ते से जाने को मना किया था। वजह रास्ता नहीं था, पिछले दिनों मुखबिरी के आरोप में नक्सलियों द्वारा बारह ग्रामीणों का मारा जाना। पुलिस के मना करने के वाबजूद मैं अकेले आगे बढ़ता गया। जगह-जगह दस-बीस के झुंड में लोग नजर आ रहे थे। मैं भी उस ओर बढ़ गया। यह पूरा इलाका नक्सलवादियों का गढ़ माना जाता है।

समस्याओं के निदान में कभी-कभी जो कदम उठाये जाते हैं, वह एक नयी समस्या को जन्म दे देता है। नक्सलवाद भी उसी में से एक है। एक नेता जी कुछ लोगों के साथ बात करते नजर आए। शायद ये-ये भी रैली की तैयारी में लगे हैं। आज नक्सलवाद के कुछ समर्थकों ने बिहार बन्द का भी आह्वान किया है। कुछ नक्सली नेताओं और ग्रामीणों के मारे जाने के विरोध में। बंद किसी के द्वारा आहूत किया गया हो उसका एक मात्र मकसद शक्ति प्रदर्शन ही होता है। रैली में जा रहे अधिकांश लोग गरीब ही लगे। नंगे पैर या फिर टायर वाली चप्पल, घुटनों से ऊपर गाँधीनुमा धोती समेटे। कुछ नंगे बदन या फिर एक गंजी या कुर्ता। शायद ही किसी के कपड़े की ठीक से धुलाई की गई हो और कुछ धुली भी लगी तो मुड़े-चुड़े हुए सत्तर से नब्बे दशक के समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस की याद दिलाते हुए, हाथों में बांस के करची से बंधे झंडे को थामे निराला की पंक्ति को सार्थक करता, 'वह आता दो टूक कलेजे को करता, पछताता पथ पर आता' नारे लगाने को मजबूर। कोई अपने सिद्धांतों से मजबूर होकर आया था, तो कोई एक जून की रोटी की तलाश में, तो कुछ ऐसे भी थे जो किसी के कहने पर बिना कुछ सोचे समझे आ गए। उनकी तरह हमारे जैसे पत्रकार भी दो रोटी के लिए ही तो ऐसे जगहों की तलाश में मारे-मारे फिरते हैं।

वामपंथियों की रैली में ग्रामीण क्षेत्रों से आने वालों की संख्या अधिक होती है। शहरी तो भाषण देने ही पधारते हैं। इधर-उधर नजरें दौड़ा ही रहा था कि सामने लगभग सत्तर एक वर्षीय बुजुर्ग दिख गए।

"बाबा! आप कहाँ से आ रहे हैं और इस रैली में शामिल के पीछे आपका मकसद क्या है?" एक बुजुर्ग से मैंने सीधा और सपाट सवाल किया।

"हम्मे बांका जिला से ऐयलो छिये। हमरो गाँव के मुखिया छिकै अनिरुद्ध बाबू। उन्हीहें कहलकै आवै लेली तॅ हम्मे आवि गेलिये। हमरा तॅ कहलकै दू सौ रुपया मिलतै, तॅ घरै बैठी कॅ कि करथिये हम्मे आवि गेलिये। एकरा से जादे हमरा आरु कुछो नै पता छौं बेटा। बांकी तोयं अनिरुद्ध बाबू से पूछी ले।" सीधे सवाल का बुजुर्ग ने बहुत ही सीधा और सटीक जवाब दिया। बुजुर्ग ने जो कुछ कहा उसके बाद उनसे पूछने को कुछ रह भी नहीं गया था। "अच्छा बाबा! ये अनिरुद्ध बाबू कहाँ मिलेंगे?" पूछते ही बुजुर्ग ने एक पेड़ के पास कुर्ता-पायजामा वाले एक शख्स की ओर इशारा किया। बुजुर्ग की बातों से मेरी जिज्ञासा बढ़ी। मैं उस तरफ बढ़ गया, जहाँ वह महाशय अपने साथियों को इशारे से कुछ निर्देश दे रहे थे।

"महोदय! मेरा नमस्कार स्वीकार करें। मेरा नाम राकेश है। मैं अंग्रेजी पत्र 'हेलो इंडिया' में काम करता हूँ। अगर आप आज के अपने व्यस्त टाइम में थोड़ा निकाल पाएँ तो बड़ी कृपा होगी।" , "जी! जी! क्यों नहीं। पूछिए क्या पूछना है। हम रैली के माध्यम से अपनी बात जनता तक ही तो पहुँचाने आये हैं। उन तक पहुँचाने के माध्यम तो आपलोग भी हैं। इसलिए जो पूछना हो पूछिए।" नेता जी के चेहरे पर चमक आ गयी।

"इस भीड़-भाड़ से थोड़ा अलग हटकर बात करें तो शायद हमदोनों को सहूलियत होगी।" मेरे अनुरोध को उन्होंने मान ली और थोड़ी दूर हटकर हम खड़े हो गए।

"आपकी पार्टी एक वामपंथी पार्टी है। सरकार और समाज के खिलाफ जिन लोगों ने बंदूक उठा ली है। आपकी पार्टी उनका समर्थन करती है। आपकी रैली आज भी एक एक्शन में पुलिस द्वारा मारे गए कुछ नक्सली नेताओं के समर्थन में सरकार के खिलाफ है। आपको क्यों नहीं लगता बन्दूक किसी समस्या का निदान नहीं हो सकता। जनतांत्रिक तरीके से बात कर भी तो समस्या का निदान ढूँढा जा सकता है। खून किसी का भी बहे, है तो सभी हमारे ही लोग। चाहे नक्सली हो या पुलिस।" मैं कुछ और पूछना चाह रहा था, लेकिन नेता जी ने हाथ के इशारे से रोक दिया।

"बिल्कुल सही कहा आपने! लेकिन सरकार शायद इस बात को नहीं समझ पा रही। गरीबों के खिलाफ अर्द्धसैनिक बल को उतार दिया है। परसों की ही घटना को लीजिये, नक्सली के नाम पर बेकसूर ग्रामीणों की हत्या कर दी गयी। आप जान लीजिए, ये दबे कुचले लोग हैं। इनकी रोजी-रोटी सरकार ने छीन ली है। बन्दूक उठाने को बाध्य किया गया है। जंगल भी अब पूंजीवादी व्यवस्था की भेंट चढ़ गई है। कोई भी व्यक्ति शौक से बन्दूक नहीं उठाता। हम समतामूलक समाज चाहते हैं। हम समाज विरोधी नहीं हैं। ये सरकार द्वारा अफवाह फैलाई जाती है।" नेता जी पूरे रौ में थे। "अच्छा नेता जी आपके विचार, आपकी पार्टी के सिद्धांत का मैं भी कायल हूँ। इजाजत हो तो एक व्यक्तिगत सवाल पूछूं?"

"हाँ क्यों नहीं।"

"आपके कितने बच्चे हैं?" मेरा सवाल सुन वे थोड़ा असहज हो गये।

"दो लड़का, एक लड़की।"

"तीनों क्या कर रहे हैं?" मैंने जानना चाहा।

"बेटी दिल्ली में डॉक्टर है, एक सरकारी अस्पताल में। एक बेटा प्राइवेट कंपनी में मैनेजिंग डाइरेक्टर है और दूसरा फेलोशिप करने यूएसए गया है।"

"बहुत अच्छा, आपके लिए ये गौरव की बात है। आप भी मुखिया हैं। दसों उंगली घी में है। परिवार हो तो ऐसा।" मुखिया जी अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर रहे थे। चेहरे पर उनकी खुशी साफ-साफ दिख रही थी।

"लेकिन मुखिया जी। भीड़ के इन बच्चों के बारे में सोचें। इनकी राह का रोड़ा कौन है। सरकार यदि रोड़ा होती, तो आपके बच्चे भी आज इसी रैली में नजर आते। आपसे एक और सवाल का जवाब चाहूंगा। नेता का बेटा नेता तो बहुत है इस देश में। परिवारवाद पर तो हर चुनाव में बात होती ही है, लेकिन क्या वजह है कि एक भी नेता का बेटा नक्सली नहीं होता और न ही वामपंथी होता है। कोई बड़ा उदाहरण मिले तो ये रहा मेरा कार्ड फोन कर बता देंगें, बड़ी कृपा होगी आपकी।" नेता जी को तो काठ मार गया। मैंने उन्हें अपना कार्ड थमाया। वह एक टक मुझे देखते रहे, क्योंकि उन्हें और हमें भी पता है कि जबाव न आज उनके पास है और न ही आनेवाले कल में।

भोली-भाली जनता को बेवकूफ बनाकर ये नेता अपने परिवार का पोषण ही नहीं करते, उनके खून से अपनी राजनीति चमकाते हैं। नेता से किये गए सवाल का जबाव तो आजतक हम पत्रकार भी नहीं ढूँढ पाए। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सभी वामपंथी विचारधारा को मानने वाले एक जैसे हैं। हमारे देश में कई वामपंथी नेता हुए, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी विकास की दौर में पीछे छूट गए लोगों के लिए कुर्बान कर दी। हाँ यह बात सही है कि ज्यादातर लोगों ने इस विचारधारा के नाम पर अपना स्वार्थ ही साधा। नेता जी के रौ में मैं भी बह गया। हर सिक्के का दो पहलू होता है। देखने का अपना नजरिया होता है। पहली बार मुझे अपनी ही बात एक पक्षीय लगी।

"महोदय आप एक पत्रकार हैं इसलिए हम आपका सम्मान करते हैं लेकिन आपकी विचारधारा हमसे मेल नहीं खाती। यह सही है कि मैं सम्पन्न घरों से आता हूँ, इसलिए आज हमारे बच्चे अच्छी शिक्षा पा सके और अपने पैरों पर खड़े होने में समर्थ हो पाए। हम इन गरीब घरों के बच्चों के अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं, ताकि कल इनके बच्चे भी शैक्षिक और आर्थिक रूप से समर्थ हो पाएँ।" नेता जी का अपना तर्क था।

"आपने सही कहा। लेकिन आज जिन लोगों ने झंडा बुलंद किया हुआ है, उनमें से अधिकांश भोली-भाली जनता है। घने जंगलों और दूरस्थ इलाके में जहाँ सड़कें नहीं बन पाई, विकास नहीं हो पाया, नक्सलवाद के नाम पर उन्हें मुख्यधारा से अलग रखा जाता है, गाहे-बगाहे औरतों के शोषण की खबरें भी आती रहती है। उनकी इज्जत से खिलवाड़ किया जाता है। जबरदस्ती उनके बच्चों को नक्सली बनाने के लिए उठाकर ले जाते हैं। कभी इसपर भी सोचा है आपने। ?" नेता जी को मेरा ये सवाल थोड़ा असहज कर गया।

"देखिए! इस तरह की भाषा का इस्तेमाल विरोधी पार्टी के लोग किया करते हैं। एक पत्रकार की ऐसी भाषा नहीं होनी चाहिए। ठीक है, मैं मानता हूँ ऐसा होता होगा। आप किसी भी मुहिम को लें, कुछ न कुछ गलत लोगों का प्रवेश तो हो ही जाता है। इसका यह कदापि मतलब नहीं कि सिद्धान्त में बदलाव आ गया। वामपंथियों की विचारधारा पर शक नहीं किया जा सकता है।" नेता जी को मेरी बात नागवार लगी।

"देखिए! हम किसी विचारधारा के समर्थक नहीं होते। हम हमेशा समाज के पक्ष में खड़े होते हैं। जो समाज को ठीक लगता है, हम उसकी बात करते हैं। हम किसी खास विचारधारा का पोषक नहीं हो सकते हैं। हाँ किसी खास व्यक्ति के व्यक्तिव से प्रभावित हुआ जा सकता है।" हालांकि मुझे लगा कि उनकी बातों को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता है, लेकिन इस विचारधारा के नाम पर जंगल में निवास करने वाले लोगों के साथ नक्सलवाद के नाम पर जो अन्याय हो रहा है, रिपोर्टिंग करते हुए बहुत नजदीक से मैंने देखा है।

नेता जी से बात करते-करते मैं कुछ आगे बढ़ गया पहाड़ के उस पार। हजारों की भीड़ थी। एक स्थानीय नेता भाषण दे रहे थे। अधिकार पाने के लिए हथियार उठाने को बाध्य किये जाने की बात कर रहे थे। मैं भी ध्यान से उन महोदय को सुनने लगा। मेरे साथ आये नेता जी भी एक पत्थर पर साथ-साथ बैठ गए। तबतक मेरी नजर एक पंद्रह वर्षीय लड़की पर पड़ी, जो एक हाथ में लाल झंडा लिए हमारे ओर अकेली बढ़ रही थी और लाल सलाम की जय, अधिकार लेकर रहेंगे का नारा लगा रही थी। उसकी वेशभूषा और चलने के तरीके ने मुझे कुछ अटपटा-सा लगा।

"नेता जी ये लड़की कौन है। इतनी कम उम्र में इसे वामपंथ की समझ आ गई?" मेरी उत्सुकता बढ़ गई।

" ये पागल है। इसके साथ कुछ लोगों ने गलत किया है। ये लड़की गैंगरेप की शिकार हुई है। तब से इसकी ये हालत हो गई है। मजदूर की बेटी है, इलाज भी नहीं हो पाया। पागलपन में ये हमेशा यही नारा लगाती रहती है।

"कैसे और कहाँ हो गई ये गैंगरेप की शिकार?"

"कहते तो हैं लोग कि नक्सलियों ने ही ..."

"ओह शिट।" इसके अलावा मेरे पास कुछ कहने को नहीं था। नेता जी की जुबान में ताले पड़ गए। उन्होंने नजरें झुका ली। मैं कभी लड़की को तो कभी नेता जो को देखने लगा। अब रैली की रिपोर्टिंग को कुछ रह नहीं गया था। धीरे से उठा और अपने आये रास्ते की ओर मुड़ गया। मेरे साथ नेता जी भी उठे, लेकिन अब मुझे रोकने की हिम्मत उनमें नहीं थी। सुबह अधिकांश अखबारों का हेडलाइन था, 'वामपंथियों ने दिखाई अपनी ताकत रैली सफल रही। हजारों लोगों ने शिरकत की'।