अधिनायक / दीप्ति गुप्ता
आनन्द के घर में घुसते ही, जैसे तूफान सा आ जाता है। धड़धड़ाते हुए चलना, चिड़चिड़ाते हुए भारी भरकम आवाज़ में जोर से बोलना, कमरों के दरवाजों और आस-पास रखे फर्नीचर से टकराना - घर में उसके आगमन का एलान करने के लिए पर्याप्त होता है। न जाने वह क्यों हर समय बौखलाया सा जल्दी में रहता है। कहीं जाना हो तो वह जल्दी में भागा-भागा सा होता ही है; पर कहीं न भी जाना हो तब भी वह जल्दी में होता है। असहज, बेचैन सा! कैसी प्रकृति, कैसा विचित्र स्वभाव है आनन्द का! घर के सभी लोग उसके आने पर असामान्य सा महसूस करने लगते हैं। ज़रा-ज़रा सी बात पर वह भड़क उठता है। किसी भी बात पर बिदक जाता है। माँ, बाबू जी, पत्नी, छोटा भाई, बच्चे, नौकर सभी उसके तानाशाह स्वभाव से त्रस्त हैं। माँ सोचती थी कि उसका औरंगज़ेब बेटा शायद शादी के बाद ठीक हो जायेगा, पर वह सुधरता तो क्या, पहले से और अधिक जबरजंग हो गया है। आनन्द के इस तीखे स्वभाव का सर्वाधिक शिकार होती है - उसकी पत्नी रमा। आनन्द की पुकार सुनते ही रमा ऐसी घबरा उठती है कि धरती पर पैर साधकर चलने के बजाय, वह पंजों पर दौड़- दौड़कर उसका हुक्म बजाती है। उसका मुँह गले को आने लगता है, चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगती है।
बचपन में आनन्द बड़ा सरल और शान्त हुआ करता था लेकिन बड़ा होते-होते वह न जाने क्यों ऐसा कुटिल और अशान्त हो गया! अक्सर वह दूसरों को सताने की हद तक क्रूर हो जाता और तब खोखली जीत से फूला - थुलथुले शरीर वाला ‘आनन्द सरीन’ अपनी माँ को सीले-सीले क्रोध से भर देता। वह आनन्द को शान्त करना चाहती है, समझाना भी चाहती है तो, समझा नहीं पाती क्योंकि वह कुछ भी सुनने व समझने को तैयार नहीं होता। बाबू जी अपने अपमान के भय से उससे दूर रहते है और छोटा भाई मिलिन्द घर में गरमा-गरमी न चाहने के कारण आनन्द से बात करने से कतराता है । बच्चे भी आनन्द से भयभीत रहते है।
परसों बाबू जी से घर के पीछे की जमीन के बारे में कुछ बातें करते-करते एकाएक आनन्द को क्रोध का ऐसा दौरा पड़ा कि उसकी चीख, चिल्लाहट, लाल आँखें देख बाबू जी को लगा कि वह उन पर हाथ ही न उठा बैठे कहीं। वो तो मिलिन्द और रमा झटपट कमरे में पहुँच गए और किसी तरह मिन्नतें कर-कर के उसका गुस्सा शान्त किया। बाबू जी तो अक्सर बुदबुदाते हुए भगवान से मनाते रहते है कि ऐसी बदमिजाज और बदतमीज़ औलाद किसी दुश्मन को भी न मिले! माँ जब-तब हाथ में रुद्राक्ष माला पर राम-राम जपती घर की सुख शान्ति की प्रार्थना करती रहती है। पर खुशियाँ तो घर में तब आए, जब आनन्द उन्हें घर में आने दे ! उसने तो सबका जीवन निरानन्द बना डाला है। इतनी अधिक कडुवाहट, इतनी अधिक नकारात्मकता उसके स्वभाव में, सोच में क्यों कर, कब और कैसे समा गई? प्नी रमा भी इस बारे में सोचती है तो उसे कोई कारण समझ नहीं आता। माँ और बाबू जी इतने वात्सल्य भरे, मिलिन्द भय्या आज्ञाकारी व शान्त स्वभाव के, घर में किसी बात की कमी नहीं, हर दृष्टि से सम्पन्न घर। आनन्द की शिक्षा-दीक्षा में किसी तरह की कोताही नहीं की बाबू जी ने। भाग्य ने भी भरपूर उस पर कृपादृष्टि की और वह साफ्टवेयर कम्पनी में उच्च पद पर आसीन हुआ। वैवाहिक जीवन भी सुख और सन्तोष भरा है। सुधड़ और सहनशील पत्नी रमा और दो प्यारे से बेटे। ईश्वर ने दिल खोलकर आनन्द को सब कुछ तो दिया है। फिर क्या कारण है - उसके क्रोधी और चिड़चिड़े स्वभाव का? उसका भयंकर स्वभाव सबके लिए एक पहेली बना हुआ है। बच्चे बड़े हो रहे हैं; रमा को डर है कि अब घर में हर रोज समस्या न खड़ी हुआ करे आनन्द के तेवरों के खिलाफ - किशोरावस्था में कदम रखते बेटों द्वारा। एक ओर यह सोचकर रमा मन ही मन डरती भी है, तो दूसरी ओर सिर से पाँव तक सन्तोष की एक ठण्डी लकीर उसे झनझना जाती है कि चलो बच्चे ही बड़े होते-होते आनन्द का दिमाग ठिकाने लगा सके काश! वह कभी तो चैन की साँस के एक कतरे का अनुभव कर सके ! वह पति के भड़कते- धधकते स्वभाव से तिल-तिल स्वाहा होती जा रही है। उसकी सहनशक्ति चुकने लगी है। पर वह उसके सामने मुँह नहीं खोल पाती। बरसों से उसे दबने की आदत जो पड़ गई है। अब भला विद्रोह करना उसके बस की बात कहाँ? इसका बीड़ा तो अब बस बच्चे ही उठायेंगे। छोटा बेटा बकुल - उसे लगता है कि बाप की बेबात की तानाशाही के खलाफ विद्रोह अवश्य करेगा। बकुल में उसे आनन्द पनपता नजर आता है। लेकिन सकारात्मकता के साथ। बड़ा बेटा मुकुल, बकुल की अपेक्षा गम्भीर व शान्त स्वभाव का है। आनन्द की तुलना में हर दृष्टि से दोनों बेटे बड़े सधे हुए, सुशील और समझदार हैं। हमेशा बड़ी सूझ-बूझ से बातें करते हैं।
आज आनन्द जब से ऑफिस से लौटा है - तब से खामोश है और बात-बात पर तुनक रहा है। खैर, तुनकमिजाजी तो उसकी रोज़ की आदत है किन्तु ‘खामोशी’ उसे कैसे घेरे है - इस बात का सबको आश्चर्य है। उससे भी अधिक आशंका इस बात है कि यह किसी आने वाले ‘तूफान’ से पहले का ‘सन्नाटा’ तो नहीं! अगला दिन, फिर तीसरा दिन, आनन्द उसी स्थिति में रहा वह ऑफिस जाता और क्रोध से भरा हुआ लौटता। यदि कोई उससे कुछ पूछने की हिम्मत भी करता तो वह उसके क्रोध का शिकार हो जाता। इसलिए अब उससे कोई पूछना भी नहीं चाहता था कि वह चुप-चुप क्यों है? शनिवार को उस असहज खामोशी का खुलासा खुद आनन्द ने ही कर दिया। जब उसने माँ बाबू जी से आँखे चुराते हुए यह कहा कि “वह नौकरी से इस्तीफा दे आया है“ - तो मानो उन पर वज्रपात हुआ। वे दोनों तो ऐसे हो गए जैसे उन्हें लकवा मार गया हो। फिर भी किसी तरह अपने को सम्हालते हुए बाबू जी बोले - “पर क्यों“? आनन्द गुर्राया - “क्यों से क्या मतलब? वो पाण्डे का बच्चा, न जाने क्या समझता है अपने आप को? मुझसे एक ही पद तो ऊँचा है और बनता है दुनिया का ‘बॉस’। जब देखो मुझे टोकता रहता था। मेरे हर काम में बीन-बीन कर खामी दिखाता। सो मैंने सारे झगड़े की जड़ ही काट दी और दे मारा इस्तीफा मैनेजर के मुँह पर।“
हिम्मत बटोर कर, माँ ने ताड़ना देते हुए आनन्द से कहा -
“कच्ची गृहस्थी, पढ़ते-बढ़ते बच्चे और रमा - इन सबके खर्चे पानी का कैसे होगा। ये सब सोचे बिना - बस दे दिया इस्तीफा। यह तो बड़ी भूल करी तूने। हमारी मत सोच, पर इनकी तो सोचता। आज तक मैं यह तो जानती थी - कि तू दिमाग फिरा है - पर तेरे दिमाग ही नहीं है, यह मुझे अभी पता चला।“
माँ के मुख से एक ही साँस में सहज प्रवाहित इस ताड़ना को सुनकर आनन्द के अलावा, आस-पास मौजूद अन्य सभी परिवार जनों ने एक सुकून और सुरक्षा का अनुभव किया कि घर के उस ‘आततायी - बेलगाम आदमी’ को उसकी गलती का एहसास कराने वाला भी कोई है घर में। साथ ही सबने साँस भी साध ली और अपना-अपना दिल भी थाम लिया कि अब भड़भड़या आनन्द यह लताड़ पाकर बवण्डर मचायेगा। पर आनन्द तो अवाक माँ को ताकता रह गया। क्रोध से लाल उबलती आँखें, तमतमाया हुआ चेहरा - उसके इस रौद्र रूप को देखकर रमा का दिल काँप उठा। तभी आनन्द का नपुंसक क्रोध ट्यूशन से लौटे बकुल पर निकला। उसे मारने के लिए जैसे ही आनन्द ने हाथ उठाया - बकुल तुरन्त तड़क कर बोला -
“हाथ तो मेरे भी है। दादी, पापा को समझा दो, किसी और का गुस्सा बेबात ही मुझ पर न उतारे, वरना बहुत बुरा होगा।“ यह विद्रोह वाणी सुनकर, आनन्द का हाथ उठा का उठा रह गया। आज दादी और पोते ने मिलकर आनन्द को इकठ्ठा ही परास्त कर दिया। रमा बड़ी ही चिन्तित और दुखी थी ‘कि अब घर गृहस्थी की गाड़ी कैसे खिंचेगी। इस पुश्तैनी भव्य घर के बजाय यदि वे सब किराए के घर में रह रहे होते तो मिनटों में सड़क पर पहुँचने की नौबत आ जाती। बच्चों की शिक्षा-दीक्षा बाकी है। कल को शादी-ब्याह होगा तो कैसे करेंगे हम। बाबू जी की पेंशन से माँ और बाबू जी की दवाईयाँ व अन्य खर्चे बँधे हैं। मिलिन्द भय्या भी विवाह के उपरान्त अपने गृहस्थी का बोझ सम्हालेंगे तो तब हमारी गृहस्थी कैसे चलेगी? अभी तो फिलहाल भय्या की तनख्वाह का सहारा रहेगा। पर यह तो आनन्द ने बहुत ही बुरा किया। आजकल नौकरी ढूँढे नहीं मिलती और आनन्द ने लगी लगाई - इतनी ऊँची और अच्छी नौकरी पर लात मार दी। आनन्द गुस्सैल और चिड़चिड़े स्वभाव का इतना गुलाम है कि इसके कारण अपना व अपने परिवार का जीवन बिगाड़ने पर तुला है’- रमा यह सब मन ही मन सोच-सोच कर बेहद व्याकुल और उखड़ी-उखड़ी थी।
अब इस्तीफे के बाद, आनन्द को दिन रात घर में झेलना, रेत में नाव खेने के समान दूभर हो रहा था। उसका स्वभाव पहले से भी अधिक कटु और तीखा हो गया था। साथ ही उसे उच्च रक्तचाप भी रहने लगा था। कल सुबह-सुबह नौकर पर खूब बरसा - चाय में चीनी कम थी, बस उसे मिल गया मौका अपनी भड़ास निकालने का। गरम-गरम चाय ही नौकर पर फेंक दी। बेचारा भौंचक सा देखता रह गया। दोपहर को माँ और रमा से बोला -
“हम अब इस घर में काम नहीं कर पायेंगे। साहब ने आज तो खौलती चाय ही फेंकी है - हम पर, कल तो हमें आग में ही झोंक देंगे। माँ जी हमारा हिसाब कर दीजिए। कहीं और नौकरी कर लेंगे; पर अब यहाँ नहीं रहेंगे।“ यह सुनकर उसके दर्द, उसकी भावनात्मक चोट को समझते हुए, रमा और माँ ने उसे समझाने की कोशिश की किन्तु वह इतना सहम गया था और नाराज हो गया था कि राजी ही नहीं हुआ, सो उसका हिसाब करना पड़ा।
रात को अपने कमरे में सोच में डूबे बाबू जी, माँ से बोले -“क्या होगा इस घर का ? यह आनन्द हमारा सुख चैन छीनकर ही मानेगा। पहले नौकरी गई, अब नौकर गया। एक-एक करके सब उठने वाला है - इस घर से, इस मनहूस के कारण। न जाने कौन दानव, इसके रूप में हमारे घर में जन्मा है ! लेटे-लेटे माँ पल्लू से आँसू पोंछ रही थी। चेहरे पर उभरा दर्द और भी गहरा गया था। माँ को लगा जैसे कुछ रोग लाइलाज होते है - वैसे ही आनन्द भी लाइलाज है।सारा घर इसकी वजह से रुग्ण और त्रस्त है। कब ठीक होगा आनन्द ?
आनन्द ने नौकरी से इस्तीफे के कारण डगमगाई आर्थिक स्थिति को सम्हालने के लिए ‘शेयर्स’ का काम शुरू किया। सवेरे 10 बजे से शाम 5 बजे तक घर के बाहर अहाते में बने बड़े कमरे में बैठना, शेयरों के भावों की जाँच पड़ताल करना, उसने 50,000/-, 40,000/-, 25,000/- इस तरह धनराशि कुछ अपनी भविष्यनिधि में से, कुछ राशि अपने ससुर व मित्रों की लगायी। देश में राजनीतिक स्थिति डावाँडोल होने के कारण आनन्द का शेयर्स का काम भी डावाँडोल होता रहा और ऊपर से एक साथी ब्रोकर उसे 2 लाख रुपयों की चोट दे गया। ब्रोकर का रातों रात इतनी बड़ी राशि लेकर चम्पत हो जाना, कंगाली में आटा गीला होने जैसा था। इस धोखे का आनन्द पर बड़ा घातक असर पड़ा। उसका मनोबल खत्म हो गया। माँ, बाबू जी, रमा, मिलिन्द सभी आहत थे कि आनन्द एक-एक करके दुर्भाग्य को निमन्त्रित कर घर में चिन्ताओं का अम्बार लगा रहा था। सबसे अधिक चिन्ता थी - रफ्तार से बड़े होते होनहार बच्चों की। पता नहीं कैसा दिल दिमाग लेकर आया था आनन्द? न उसे माँ-बाबू जी की चिन्ता थी, न रमा और बच्चों से लगाव था और भाई के प्रति प्यार व ख्याल तो शायद शून्य ही था। कठोर से कठोर दिल वाले व्यक्ति का भी जीवन में किसी से तो लगाव होता है। लेकिन आनन्द तो न जाने किस मिट्टी का बना था। पूर्णतः अपने लिए जीता था शायद। वैसे माँ और बाबू जी की सेवा का दिखावा तो वह अक्सर करता था - पर जरूरत पड़ने पर कुछ करता नहीं था; उल्टे उनके साथ दुर्व्यवहार करने से पीछे न हटता। उसने जब से नौकरी छोड़ी थी - तबसे ‘पीने’ की लत और पाल ली थी। जरूरत से ज्यादा भोजन करना और सप्ताह में 5 दिन अपने कमरे में छुप-छुप कर पीना। इस पर, जब मन में आए, तब किसी को भी अपने क्रोध की भट्टी में झोंक देना उसकी दिनचर्या बन गया था। रमा की पीड़ा का तो पारावार न था। वह तो दुखी होकर यहाँ तक सोच बैठती थी कि न जाने पिछले जन्म में कौन से पाप किए थे जो उसे ऐसा तानाशाह, राक्षसी प्रवृत्ति का पति मिला है, जो तानाशाही के साथ-साथ गलत आदतों का शिकार भी होता जा रहा है। धीरे-धीरे पति-पत्नी में रात दिन झगड़े, बात-बात पर तू-तू, मैं-मैं होने लगी। माँ-बाबू जी रमा का दर्द, उसके दिल का बोझ समझते थे। अपने बेटे का तानाशाह रूप, तिस पर हाल ही में उपजा निकम्मापन उनकी बहू के मानसिक तनाव के लिए काफी था। किन्तु वे विवश थे, हर दृष्टि से असहाय थे।
होली का दिन था। त्यौहार तो शान्ति से मनाया सबने किन्तु दोपहर में नहाने धोने के बाद, भोजन से पूर्व, आनन्द अपने कमरे में जाकर शराब गिलास में डालकर पीने लगा तो बरामदे से कपड़े समेट कर, अचानक कमरे में आई रमा ने उसे धीरे से टोक दिया कि “दिन के मय नहीं पियोगे, तो कुछ बिगड़ तो नहीं जायेगा ?“ बस आनन्द ने आव देखा न ताव और रमा के मुँह पर तमाचा जड़ दिया। फिर क्या था जो त्यौहार अब तक घर में शान्ति से गुजर गया था, भोजन के समय उसने विकराल रूप धारण कर लिया। घर में एक कोहराम मच गया। रमा ने भी तैश में आकर कमरे की एक-दो चीजे फर्श पर पटक दीं। बदले में आनन्द ने उसके बाल खींच कर, पीठ-कमर, जहाँ भी बन पड़ा तड़ातड़ मारना शुरू कर दिया। शोरगुल, उठा पटक सुनकर मिलिन्द, माँ-बाबूजी, बच्चे सभी कमरे में आ खड़े हुए। मिलिन्द ने आनन्द की कौली भर, उसे धकेलते हुए पलंग पर बैठा दिया। माँ रमा को गले लगाकर दूसरे कमरे में ले गई । “अब ये ही होना बाकी था इस घर में ! औरत पर हाथ उठायेगा नालायक। वो भले की बात कहे, तो भी इस खूंखार को नागवार लगती है। हे, ईश्वर! इससे तो हमें ही उठा ले। इस लड़के को तो न भगवान का डर है - न हमारा लिहाज, न बच्चों की चिन्ता...!!“ माँ गुस्से में बड़बड़ाती, विलाप करती, रमा को सान्त्वना देती, स्वयं भी फफक पड़ी।
अगले दिन फिर उसी तरह सूरज निकला, सवेरा हुआ, सब उठे और अपनी-अपनी दिनचर्या में लग गए लेकिन आनन्द कमरे से नहीं निकला। माँ को चिन्ता हुई। माँ तो माँ ही होती है । कल की घटना के कारण रमा को आनन्द से दूर रखने की इच्छा से माँ खुद ही आनन्द के कमरे में गई। कम्बल हटाकर, उसका माथा छुआ, उसे धीरे से हिलाकर पुकारा तो, वह बेजान सा, थोड़ा सा कसमसाया और बोला- “माँ मेरा सिर चकरा रहा है। उठा नहीं जा रहा।“ उसके मुँह से यह सुनकर माँ घबरा गई। तुरन्त उसने रमा से डाक्टर को फोन करके बुलाने को कहा और बाबू जी को आनन्द के पास खींच ले गई। माँ बाबू जी दोनों बेचैन से, आनन्द के पास बैठे रहे। माँ आनन्द के पैर सहलाती रही। रमा भी उसकी सेवा में लग गई। थोड़ी देर में डाक्टर भी आ गया। सबसे पहले उसने रक्तचाप देखा। बहुत बढ़ा हुआ था, इतना कि कुछ भी हो सकता था आनन्द को। तुरन्त दवाईयाँ मँगवा कर, समय से गोलियाँ खाने की हिदायत देकर डाक्टर दो घन्टे बाद, फिर आने के लिए कह कर चला गया । डाक्टर बाहर गेट तक पहुँचा ही होगा कि पानी का एक घूँट पीने के लिए बैठा आनन्द एकाएक बिस्तर पर गिर पड़ा। माँ और रमा घबराहट में चिल्ला पड़ीं। मिलिन्द और मुकुल दौड़े-दौड़े डाक्टर के पीछे गए। डाक्टर उल्टे पाँव लौटा तो क्या देखता है कि आनन्द के मुँह से झाग निकल रही है। उसे जोर का हार्टअटैक हुआ था। डाक्टर ने तुरन्त अपने क्लीनिक, एम्बुलैन्स के लिए फोन किया। घर में ‘सौरविट्राल’ भी नहीं थी कि आनन्द की हालत को नियन्त्रित करने के लिए यह गोली उसके मुँह रखी जा सकती। देखते ही देखते उसकी हालत ऐसी बिगड़ती चली गई कि सम्हल ही न सकी। मिनटों में वह चीखने चिल्लाने वाला असहज इंसान - गहरी खामोशी ओढ़े सहजता से ‘ऊपर’ चला गया। जितना अशान्त वह जीते जी रहा, मृत्यु के समय उतना ही शान्त हो गया। वह कोहराम मचाने वाला तानाशाह - असहाय, निर्जीव, निश्चल हुआ बिस्तर पर प्राणविहीन पड़ा था। घर वाले दख विगलित तो थे ही, पर उससे अधिक उसके यूँ एकाएक, अचानक दुनिया से उठ जाने पर उन्हें एक अजीब सा धक्का लगा। पर होनी को भला कौन टाल सका है।