अधूरा मफलर / लावण्या नायडू
बड़े कंपनी में नौकरी की वजह से मैं और मेरे पति इस बड़े से शहर में आ गए। यहाँ तो गाड़ियों की रफ्तार से ज्यादा तेज तो लोगों की जिंदगी भाग रही थी। न जाने सबको कहाँ जाना होता था इतनी जल्दी में, बड़े शहरों में किसी के पास बात करने के लिए भी फुर्सत नहीं होती।
मैं रोज शाम को अपनी बालकनी में आकर बैठती और नीचे सोसायटी के पार्क में बच्चों को खेलते देखती, कभी-कभी नजर दूसरी बिल्डिंग पर चली जाती। उस बिल्डिंग के एक घर पर हमेशा मेरी नजर जाकर रुक जाती, वहाँ एक बुजुर्ग दंपत्ति उजाले में भी लाइट चालू करके बैठते थे। वे भी मुझे देखते और मुस्कुराते। अब ये रोज का सिलसिला हो गया था, वह बुजुर्ग महिला हाथ हिलाकर मुस्कुरा देती जवाब में मैं भी हाथ हिला देती। वहाँ बैठकर कुछ बुना करती थी, दूर से मुझे दिखाती मैं भी सुंदर है का इशारा कर देती। कई बार सोचा उनसे जाकर मिलुं पर ये सोच कर अपने आप को रोक लेती पता नहीं उन्हें अच्छा लगेगा या नहीं।
2 दिन से उनकी बालकनी की ना लाइट जली हुई दिखी ना वे दोनों बालकनी में बैठे नजर आए। अगले दिन मैं हिम्मत करके उनके घर चली गई। उनके बेटे ने दरवाजा खोला, उसने बताया उसकी माँ का दो दिन पहले ही नींद में देहांत हो गया। मुझे झटका-सा लगा, मैं वापस आने को हुई तो अंकल बाहर आए उन्होंने एक मफलर मेरे हाथ में पकड़ाते हुए कहा "ये मेरी पत्नी तुम्हारे लिए बना रही थी। वह कहती थी अगर मेरा तजुर्बा सही है तो वह सामने वाली लड़की जरूर आएगी तब मैं उसे ये दूंगी। उसका तजुर्बा तो सही था बस उसे जल्दी थी जाने की, ये मफलर भी अधूरा छोड़ कर चली गई।"
मेरे आंसू रुक नहीं रहे थे, मेरे मुंह से एक शब्द ना निकला और वह अधूरा मफलर लेकर मैं आ गई। अब बालकनी में भी जाने का मन नहीं करता।