अधूरा सच / रमाकांत दीक्षित / पृष्ठ 1
समीक्षा: अवनीश सिंह चौहान
(डा. रमाकांत क्षितिज ‘अधूरा सच‘, शिवा प्रकाशन, निकट आइडियल स्कूल, लेक रोड भांडुप (पं0, मुंबई-400078, प्रथम आवृत्ति-2008, मूल्य-रु.100/-,पृष्ठ-15)
‘साहित्य सम्पूर्ण सामाजिक अस्तित्व की अभिव्यक्ति है। हमारा आज का जीवन न सम्पूर्ण है, न सामाजिक, न सच्चे अर्थों में जीवन है, तब इसकी अभिव्यक्ति सम्पूर्ण कैसे हो?‘ (जगदीश चन्द्र माथुरः ‘भोर का तारा)' ।
शायद इसीलिए रमाकांत क्षितिज अपनी पन्दह कहानियों के संग्रह का शीर्षक ‘अधूरा सच‘ रखते हैं और इस बात को बड़ी ही साफगोई से स्वीकारते लगते हैं कि सच चाहे गढ़ा हुआ हो या कि जिया हुआ, अभिव्यक्ति में हमेशा कुछ न कुछ छूट ही जाता है कभी संघर्ष सूत्रों को ठीक से याद न रख पाने के कारण, तो कभी वैचारिकी पर पड़ने वाले परिस्थिति जन्य पभावों के चलते फिर भी इस अधूरे सच के प्रकाशन से आज के महानगरीय जटिल जीवन संदर्भो को बारीकी से व्यक्त करने की सामर्थ्य रखने वाले इस नवोदित कथाकार की रचना प्रक्रिया बड़ी ही सहजता, तारतम्यता एवं पारदर्शिता से कहानी चोला पहनती है और अपने कथ्य की विशिष्टता एवं विश्वसनीयता के बल पर पाठकों को झकझोर कर रख देती है।
आज ‘रेसिंग‘ का दौर है, तेज दौड़ती जिंदगी पर सबकी नजर है। और इस दौड़ में आगे निकल जाने की होड़ में जाने कितने लोग पीछे छूट जाते हैं, उनकी ओर मुड़कर देखने की फुर्सत भी नहीं होती है हमारे पास। ऐसे पिछड़े लोगों की लाइफ ट्रेन पटरी पर है भी या नहीं, इस ओर भी हमारा ध्यान नहीं जा पाता। किंतु जब कोई कलमकार इन उपेक्षित एवं पीड़ित लोगों की कुछ दुखद स्थितियों से संवेदित होकर उन्हें शब्द देता है तो निश्चय ही उस शब्द-शिल्पी के साहस और सजगता की सराहना की जानी चाहिए। ऐसे ही सहजग एवं संवेदनशील कथाकार रमाकांत क्षितिज आम और बदनाम जीवन और उससे जुड़ी तमाम बातों को बड़ी बेबाकी से व्यंजित करते हैं अपने इस रचना संसार में। उनकी ये कहानियां आजादी के बाद के बदले भारतीय समाज की असंगतियों-असमानताओं को अपने छोटे से फलक पर इतनी कलात्मकता से उकेरती है कि इनके शब्द-चित्र, घटनाएं, पात्र जीवन्त हो उठते हैं और लगने लगता है कि भारतीय समाज के नवीन खांचे में बहुत कुछ परिवर्तन की आवश्यकता है और जब तक यह परिवर्तन, परिर्वधन नहीं होता तब तक मनुष्य की पीड़ा को कम से कम कर एक सुखद एवं संस्कारित समाज की रचना का सपना, सपना ही रहेगा।
सामाजिक कहर, वर्तमान एवं भविष्य के खतरों से घिरी बचपन में ही अनाथ होने वाली फटपाथी जीवन जीती भिखारिन बच्ची रमिया की बेहद दुखद कहानी से प्रांरंभ होता है यह कहानी संग्रह। कातर दो ऐसे युवा प्रेमियों की भावनाओं को प्रकट करती है जो अलग-अलग वर्ण के होने के कारण एक दूसरे से वैवाहिक संबंधों में बंधने का साहस नहीं जुटा पाते। भस्मासुर कहानी उन लोगों पर करारा व्यंग्य है जिन्हे बड़े विश्वास से अपने समाज का प्रतिनिधित्व करने का जिम्मा सौंपा गया था किंतु जिन्होंने स्वार्थों के वशीभूत होकर अपनों के साथ ही विश्वासघात करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। साइड इफेक्ट कहानी पाश्चात्य जीवन श्ौली की देखा-देखी भारतीय परिवेश में अप्राकृतिक लेसवियन संबंधों के कटु अनुभवों की ओर संकेत करती है तो परिवर्तन कहानी में राहुल और मान्यता प्रेम में एक साथ जीने-मरने की बातें तो करते हैं किंतु विवाह किसी और से रचाकर अलग-अलग घर बसा लेते हैं। इस प्रवृत्ति से आधुनिक पीढ़ी की जियो और मौज करो की मानसिकता परिलक्षित होती है। मीठा जहर कजहरी जैसी सैक्स कर्मियों एवं सुनील जैसे परदेश में अकेले रहने, खाने-कमाने वाले अति सामान्य लोगों की बेवसी एवं बदहाली में जानलेवा बीमारियों का शिकार हो जाना बढ़ते महानगरीय संत्रास को उद्घाटित करती है। जबकि निपंग महानगरीय गुण्डागर्दी को सारी रोगी को ठीक न कर पाने की स्थिति में डॉक्टर द्वारा इस शब्द से अपनी असमर्थता जताने का आसान तरीके को, कांच की चूड़ियां दाम्पत्य जीवन की कड़ुवाहट को, हाथी का दांत, दहेज की दानवी प्रवृत्ति को 9:14 सी.एस.टी. लोकल ट्रेन में सफर करने वालों की दैनिक दास्तान को, खोइया वृद्धों की दारूण दशा को, अधूरा सच प्रशासन, खासकर पुलिस मकहमे की कलाई खोलने के प्रयास को तथा अंतिम कहानी छब्बीस जुलाई प्राकृतिक प्रकोप का शिकार हुए मुंबई-वासियों की पीड़ा को रूपायित करती है। हालांकि इस संग्रह की कुछ कहानियों की बुनावट एवं उनका कथानक कमजोर है फिर भी उनमें भरपूर ताजगी एवं सरसता विद्यमान है। कुल मिलाकर इस संग्रह की कहानियां जीवन को हर हाल में शिद्दत से जीने का संकेत तो करती ही हैं, विषम स्थितियों से जूझने और उनका निदान खोजने के लिए उकसाती-जगाती है उन लोगों को जिनके हृदय में पीड़ितों के प्रति सहानुभूति एवं दया के स्वर स्पंदित होते हैं।