अधूरीपतिया / भाग 10 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस घटना के बाद मतिया का जी और भी घबराने लगा। रात सपना देखी, सुबह ही अनहोनी हो गयी- अब भला मछली पानी में डूब जाय, तैरना भूलकर, बन्दर पेड़ पर से गिर पड़े, तो इससे बड़ी अनहोनी और किसे कहेंगे? तलहथी पर रोंये ऊग आये ये तो। ओफ ! न जाने क्या होगा आगे? मतिया घबरा उठी।

गठरी खोल, कपड़े बदली, फिर साथ लाये गये सामानों में से थोड़ा कुछ खा पायी। जी बहुत ही घबरा रहा था उसका। गीले कपड़े वहीं चट्टान पर पसार दिये सूखने के लिए। बाबू भी भांप रहे थे कि मतिया घबरा रही है। खाने के बाद उसका मन बदलने के लिए बाबू ने फिर चुहलबाजी शुरु कर दी - ‘अच्छा मतिया ये बतलाओ कि अभी यदि कोई शेर दहाड़ता हुआ यहाँ आ जाये तो क्या होगा?’

‘होना क्या है, पहले तुम ये बताओ कि ऊँचे पेड़ पर चढ़ सकते हो या नहीं? मैं तो खट से उस सामने वाले दरख्त पर चढ़ जाऊँगी, भेड़ को पीठ पर लाद कर।’

‘तो ऐसा करना कि ऊपर चढ़ कर भेड़वाली रस्सी नीचे लटका देना, मैं उसके सहारे ऊपर आ जाऊँगा, या फिर भेड़ की तरह मुझे भी अपनी पीठ पर लाद लेना।’

‘मुझे क्या गोरखुआ समझ लिये हो जो तुम्हें पीठ पर लाद कर ऊपर चढ़ सकूँगी ? हाँ पहला वाला उपाय ही ठीक रहेगा। ’

‘और यदि शेर यहीं बैठ कर इन्तजार करने लगे हमलोगों के ऊतरने का तब क्या होगा?’

‘हाँ ये तो बड़ी कठिनाई वाली बात हो जायेगी, फिर तबतक इन्तजार करना पड़ेगा, जब तक शेर को कोई दूसरा शिकार नजर न आ जाये।’

कुछ ऐसी ही बेतुकी बातें चलती रही दोनों के बीच। आज पूरे दिन बाबू को मतिया के साथ एकान्त में गुजारने का मौका मिला। उधर-उधर की बातों में उलझाकर बाबू ने उसके मन की गहराई थाहने की कोशिश की, और काफी हद तक सफल भी हुआ। मतिया के सच्चे निश्छल प्रेम से सराबोर हो उठा।

लौटते वक्त रास्ते भर दोनों करीब-करीब मौन ही रहे- अपने आप में ही खोये, उलझे से रहे। कभी-कभी बाबू पूछ बैठता- उस पहाड़ी के पार क्या है..कौन सा गांव है...ये कौन का पेड़ है...ये किस काम में आता है....?

मतिया की चुप्पी का कारण उसकी भीतरी घबराहट थी। वह जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहती थी, और गोरखुआ से मिलकर रात से लेकर अब तक की सारी घटनाओं को बता कर उसका कारण और परिणाम जानना चाहती थी।

दोनों घर पहुँचे। नानी पहले से ही आ चुकी थी। भेड़ बांध, चल दी मतिया सीधे गोरखुआ के घर, ‘ मैं अभी आयी बाबू , तब तक तुम नानी से बातें करो।’

गोरखुआ से मिलकर, मतिया ने सारी बातें कही। उसने कहा- ‘कोई खास चिन्ता-फिकर की बात नहीं है मतिया, सपने के बारे में ज्यादा सोचना फिजूल है। कभी-कभी यूँ ही सपने आया करते हैं।’


‘वैसे सपने कुछ न कुछ तो अकसर देखा करती हूँ, परन्तु आज की अनहोनी बात से ज्यादा फिकर हो रही है।’

गोरखुआ के बहुत समझाने-बुझाने पर मतिया को कुछ दम-दिलासा हुआ, पर बात खटकती ही रही मन में। इस थोड़े ही समय में गांव वालों ने मतिया के मन को एकाएक काफी सयाना कर दिया था। कल तक की मतिया जो ऐसी बातों की कल्पना भी न करती थी, आज सारा दिन इन्हीं विचारों में घुटती-घुलती-खोयी सी रही। कल तक की अल्हड़ छोरी आज अचानक लजाना-शर्माना, आँखें मटकाना सीख गयी। दिल तो रोज धड़का करता था, हर कोई का धड़कता ही है, पर आज की धड़कन...जो अचानक कल रात से शुरु हुयी है...है भी कोई उपाय इस नये तरह की धड़कन का...सुझा सकता है कोई कारण इसका...?

बहुत सोच -विचार करने पर भी कुछ सूझ न पाया। याद आयी एक बात- मंगरिया कहती थी एक दिन- ‘अरे दैया, क्या कहूँ, आज अकेले में पकड़ लिया गोरखुआ...भींच लिया पकड़कर अपने सीने से सटा लिया...ओफ ! दिल कैसा धड़धड़ कर रहा है अभी भी...याद कर-करके...।’- यह कहते हुए मंगरिया के गाल सुर्ख हो आये थे टेसू के फूल की तरह, किन्तु इसे तो बाबू ने ऐसा कुछ- छू-छा, छीना-झपटी जैसा कभी कुछ नहीं किया, फिर क्यों लग रहा है ऐसा...। मतिया कुछ सोच न पायी, समझना तो बहुत दूर की बात थी। सोच पायी, समझ पायी तो सिर्फ इतना ही कि शहरी बाबू ऐसी जंगली-गंवार को चाहेगा कभी?

समझाने के बाद भी, मतिया को उदास बैठे हुए देख, माथे पर हाथ फेरते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘एकदम बच्ची है तू। कहा न चिन्ता न कर। सपने सपने हैं...जा घर जा, मैं भी आता हूँ तुरन्त। ’

मतिया उठ खड़ी हुयी। चलने लगी तो गोरखुआ ने कहा- ‘आज बाबू का खाना मत बनाना। उन्हें मेरे यहाँ खाना है- बोल देना।’

दिल में उमड़ती तूफान को किसी तरह झेलती, मतिया घर आयी। बाबू से कुछ कही भी नहीं, सीधे अपने रसोई में जुट गयी।

थोड़ी देर बाद गोरखुआ आया। आते ही कहने लगा- ‘हो गया न आज बदला पूरा?’

‘आओ बैठो गोरखुभाई ! क्या कह रहे हो, कैसा बदला? कुछ समझा नहीं मैं।’

‘मतिया ने तुम्हारी जान बचायी, तुमने मतिया की जान बचा दी।’- गोरखुआ हँसते हुये बैठ गया वहीं चटाई पर। बाबू भी अपनी खाट खींचकर, कुछ नजदीक ले आया, कारण कि खाट ढावे के दूसरी छोर पर बिछी हुयी थी।

‘मतिया की बात कुछ और है गोरखुभाई। मैंने तो उसे केवल पानी से बाहर निकाल भर दिया, पर उसने तो मेरे लिये बहुत जोखिम उठाया।’

‘जो भी हो, पानी से निकाला या कि मौत के मुंह से, बात तो एक ही है बाबू।’- कमर में खुसी खैनी की चुनौटी निकालते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘आज इतनी जल्दी चल क्यों दिये थे तुमलोग? मैं सुबह-सुबह आया तो भेंट न हुयी। टाटी लगी हुयी थी, और तुम चारो जन में कोई नहीं था यहाँ।’

‘चारों में... ? चार कौन?’-बाबू ने आश्चर्य किया।

‘हाँ तो...तुम, मतिया, नानी और मतिया का भेंड़- क्यों चार जन नहीं हुए?’- गोरखुआ की बात पर बाबू हँसने लगा- ‘अच्छा तो मतिया का भेंड़ भी एक ‘जन’ हो गया।’

बाबू का जवाब सुन गोरखुआ भी हँस दिया। बाबू ने कहा - ‘सुबह उठकर झरने की ओर चला गया था। उधर से आया तो मतिया की राय हुयी जंगल चलने की, और कोई खास बात तो न थी। ’

‘खैर कोई बात नहीं। हाँ, मतिया बतलायी है कि नहीं- आज रात का खाना मेरे यहाँ ही है। ’

‘नहीं तो, मतिया कुछ बोली नहीं है, पर इसमें क्या लगा है, मतिया के घर खाऊँ या कि तुम्हारे घर। ’-बाबू ने कहा।

‘तो चलो तैयार हो जाओ, चला जाय। कुछ देर बातचित भी होगी वहीं। ’- चटाई पर से उठते हुए गोरखुआ बोला। बाबू भी उठ खड़ा हुआ। और दोनों चल दिये।

चलते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘आज सुबह नानी मेरे घर गयी थी। मैंने उससे मतिया के बारे में राय जाननी चाही। ’

‘फिर क्या कहा नानी ने? ’- -बाबू ने उत्सुकता जाहिर की।

‘नानी कहती है- मेरे भाग इतने जागे हैं, जो बाबू से मतिया की शादी हो सकेगी? ’

‘इसमें भाग्य जागने जैसी क्या बात है गोरखुभाई? शादी तो किसी मर्द की किसी औरत से ही होती है न? ’

‘तो फिर कह दूँ नानी से ? बात पक्की रही न ? ’- बिहँस पड़ा गोरखुआ।

‘इसके लिए अभी इतनी हड़बड़ी क्या है? सबकी राय-सलाह हो जाने दो। शादी-व्याह का मामला इतनी जल्जबाजी में तय होना अच्छा नहीं। मैं क्या कहीं भागे जा रहा हूँ?’- जरा ठहर कर बाबू ने कहा- ‘एक बात और है- मतिया की राय भी तो...। ’

‘यह कोई बड़ी बात नहीं है। जहाँ तक मुझे भरोसा है, उसके ना कहने का सवाल ही नहीं है। अगर इच्छा ही है साफ जानने की, तो कहो आज ही मंगरिया से कहकर दरियाफ्त कर लेता हूँ। हो सकता है मन की बात हमसे कहना न चाहे। ’

बात करते, घर पहुँच गया गोरखुआ।

आज बाबू के स्वागत के लिए काफी तैयारी की थी उसने। खूब पूछ-पूछ कर खिलाया। बाबू ने भी छक कर खाया क्यों कि लगता था हर सामान बाबू से पूछ कर ही बनाया गया हो मानों, सबकुछ पसन्द का था।

‘आज तो मथुरा के चौबे जैसा खा लिया गोरखुभाई ! अब तो मुझसे चला भी नहीं जायेगा। ’- हाथ धोते हुए बाबू ने कहा।

‘तो क्या यहाँ खाट-विस्तर नहीं है, सो जाओ यहीं। या कहो तो कंधे पर उठाकर, मतिया के दरवाजे पर धर आऊँ। ’

‘अब क्या बार-बार धरोगे? एक बार तो धर दिये ऐसा कि ‘डिहवार’ की तरह डिगने का नाम नहीं ले रहा हूँ। ’- हँसते हुये बाबू वहीं खाट पर पसर गये, जो पास ही ऊख की अंगेरी वाले ‘झाले’(ढाबा) में विछी हुयी थी।

बाबू को लेटते देख, गोरखुआ भी पास में बैठ गया। तमाखू मलते हुए गप शुरु होगया। बहुत देर तक बातें होती रही। उसके लिए तो सबसे जरुरी बात हुआ करती है- गान्हीं बाबा और सुराज।

गोरखुआ जब पहुँचाने आया मतिया के घर, उस समय वह खा-पीकर सोने की तैयारी में थी। कुछ देर यहाँ भी गप्पें होती रही। मतिया ने बताया कि नानी बहुत रोने लगी थी झरने में डूबने की बात सुन कर।

गोरखुआ ने बाबू को न्योता क्या दिया, मानों पूरे गांव में छूत की बीमारी-सी फैल गयी- अगले दिन से सोहनु काका…भेरखु दादू...भिरखु काका...डोरमा...होरिया...मंगरिया… सबके यहां एक के वजाय दोनों जून जीमने का सिलसिला शुरु होगया। सुबह का जलपान मतिया के घर, और दोनों बार का भोजन किसी और के घर। एक शाम बाबू के पसन्द का, तो दूसरे शाम वनवासियों के मन का खाना... किसको ना कहते बाबू ! सब तो अपने ही हो गये थे...गैर कोई कहाँ रह गया था...?

बातचीत के सिलसिले में बाबू ने एक दिन गोरखुआ को समझाया- ‘जानते हो गोरखुभाई ! दिलों की दीवारें जब ढह जाती है...फिर अपने पराये की संकीर्ण सीमा का नामोंनिशान भी कहीं रह जाता है ? प्रेम की चादर जब पसरती है, तो सारे संसार को अपने में समेट लेती है...धरती और आकाश की दूरी भी रह नहीं जाती...धनी-गरीब...ऊँच-नीच... गोरा-काला.. हिन्दू-मुसलमान...सिया-सुन्नी..यवन-यहूदी...पंडित-मुल्ला-पादरी...ये सब तो कच्ची मिट्टी की बिलकुल कमजोर दीवारें हैं, जिन्हें चूने-गारे से पोतपात, चमका कर, हमने अपनी दुकानें बना रखी हैं....। लाख परेशानी झेलते हुए भी हम अपनी दुकानें बन्द करने को राजी नहीं हैं... इतना ही नहीं रोज नयी-नयी दुकानें भी खुलती जा रही हैं- किसी जमाने में सिर्फ शिव और बिष्णु की दुकान थी, फिर सनातन और गैर सनातनों की दुकानें खुली...और फिर तो सिलसिला शुरु हो गया...वौद्ध...जैन...पारसी...ईसाई...इस्लाम...सिख... साई...माओ...ताओ...गांधी...लोहिया...ये सबके सब महज दुकानें ही हैं गोरखुभाई ! और कुछ नहीं है इसके अलावे। किसकी दुकान कितनी चमकदार है, किसके यहाँ ग्राहकों की कितनी भीड़ है, कौन कितना मूड़ सकता है, कितना छल सकता है- धर्म, मजहब और सम्प्रदाय के नाम पर, पार्टी और विचार-धारा के नाम पर...ये सब अलग-अलग खूँटियाँ हैं गोरखुभाई! कुरता तो तुम्हारे पास बस एक ही है- परमात्मा का दिया हुआ तुम्हारा ये सुन्दर शरीर, और उसमें हाथ-पैर, आँख-कान, आदि दस मजदूरों के साथ ‘मेठ’ मन । बस इसी को सम्भालो, इसी को समझाओ। ये समझ गया, शान्त हो गया, तो समझो सब कुछ हो गया- मिल गया असली सुराज। ये सारे झगड़े-फसाद का जड़ यही है। ये जनमना-मरना भी इसी के कारण होता है। अब तुम जहाँ चाहो, जिस खूँटी पर टांग दो अपने कुरते को, क्या फर्क पड़ता है? तुम वही हो, वही रहोगे। कुछ और हो नहीं सकते। कुछ और होना भी नहीं है...। कुर्ता उतार फेंकों, और नंगे चल दो किसी एक ओर- जिधर जी चाहे। पूछो भी मत किसी से, कारण कि कोई सही राह बतलाने वाला नहीं है, जिससे पूछोगे, वह केवल अपनी दुकान का रास्ता बता देगा- कहेगा वहीं सिर्फ अच्छा सामान मिलता है, बाकी सबतो खटिया है। एक कवि हैं वच्चन जी, उन्होंने कहा है- ‘‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जायेगा मधुशाला...लड़वाते हैं मन्दिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला.....।’’ तुम्हारे गान्हीं बाबा ने शुरु में कवि के इन बातों का विरोध किया था, पर बाद में बात पल्ले पड़ गयी तो बहुत खुश हुए।’

देर से सांसे रोके गोरखुआ सुनते जा रहा था बाबू की बातें। आज उसे जी भर कर कुछ सुनने को मिला है। कोई सुनाने वाला मिला है। पी जाना चाहता है- बाबू के मुंह से निकलती रसधार को।

‘तो हमें क्या करना चाहिए बाबू? ये खूँटियां, ये कुरते वाली बात मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ी। आप कह क्या रहे हो ? ’

‘कह कुछ नयी बात नहीं रहे हैं गोरखुभाई! संतों ने बस एक ही बात कही है, उसे ही केवल दुहरा रहा हूँ। दुनियाँ जो देख रहे हो- कुछ नहीं है- परमात्मा है और उसका ही खेल है। हम सभी उस खेल के हिस्से हैं- खिलौने नहीं। खिलौने और हिस्से में फर्क होता है। परमात्मा तो बस एक और सिर्फ एक ही हो सकता है न? मेरा और तेरा...आदमी और इस भेड़ का परमात्मा अलग-अलग कैसे हो जायेगा? जरा सोचो तो। बस सोचो...सोचो सिर्फ शान्त मन से, थिर दिमाग से। करो कुछ नहीं, बस प्रेम का फैलाव करो। वही करो जो तुम करते आरहे हो। तुम वनवासियों का निश्चल-निश्छल प्रेम देख कर लगता है, कि परमात्मा सही में इन जंगलों और पहाड़ों में ही है; परन्तु मूर्ख-नादान इन्सान पत्थर के बने देवी-देवताओं में इन्हें ढूढ़ता फिरता है। मिला है किसी को आज तक परमात्मा? किसी को नहीं।’

‘सुनते हैं बाबू कि बड़े-बड़े महात्माओं को भगवान दर्शन देते हैं।सो कैसे?’

‘ वे झूठ बोलते हैं, अपनी दुकान की भीड़ बढ़ाने के लिए, और जो कोई बिरले सच्चा संत होता है, वह तो चुप्पी साधे बैठा होता है- क्यों कि परमात्मा के बारे में कुछ बोला ही नहीं जा सकता।ज्यूं ही परमात्मा का अनुभव होता है, आदमी बिलकुल गूंगा-बहरा सा हो जाता है, फिर वह क्या कह सकेगा कुछ? ज्यादा से ज्यादा इशारा करेगा, वस इशारा। हिन्दुओं का सबसे बड़ा धर्मग्रन्थ वेद कभी कहा परमात्मा के बारे में कि कैसा है? कभी नहीं। परमात्मा को तुम मुट्ठी में कैद नहीं कर सकते। धूप और हवा को जब मुट्ठी में बाँध कर कहीं ले नहीं जा सकते, फिर परमात्मा को क्या ले जाओगे? एक बात जान लो- परमात्मा मन्दिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों में कभी नहीं रहता। वहाँ तो नासमझी की बदबूदार सड़ांध है सिर्फ। ’

‘और बाबू ये सुराज?’- गोरखुआ ने सवाल किया।

‘मैंने कहा न अभी-अभी, ये सुराज भी जमीन पर खींची गयी लकीरें हैं- पानी पर खींची गयी लकीरों जैसी। इसका कोई मायने-मतलब नहीं है। आज यहाँ खीच दो, कल वहाँ खींच लो। पांच फुटी कच्ची मिट्टी की काया में परमात्मा का जो ये अंश कैद है, उसे मुक्त करो, उसे सुराज दिलाओ। असली सुराज भी वही है। तुम जो हो, उसे वस जान भर लो। सुराज मिला हुआ है, लेना नहीं है। जानना सिर्फ है। परमात्मा और सुराज को ढूढ़ने निकलोगे तो छटपटाकर मर जाओगे, जैसे यदि सागर को ढूढ़ने की बेवकूफी में कोई मछली पड़ जाये।’


और इसी तरह की बातों में बाबू का दिन गुजरने लगा। बीसियों दिन यूँ ही निकल गये। बाबू ने सबका दिल चुरा लिया था। बाबू भी रम गये –रमता जोगी की तरह, यहाँ सांझ, वहाँ सबेरा। आसपास के गांवों तक भी बाबू की चर्चा पहुँच चुकी थी। दादू के चौपाल की भीड़ भी बढ़ने लगी। कोई नहीं चाहता था कि बाबू यहाँ से जाये। इसी बात पर एक दिन दादू ने कहा- ‘इसी लिए तो बाबू को अब यहीं का बना रहा हूँ- मतिया से ब्याह करके।’

इस बीच बाबू ने भी काफी टटोला अपने मन को, साथ ही बहुत मौका मिला जानने-समझने का मतिया और गांव वालों के बारे में। बाबू ने पाया कि मतिया के साथ विवाह की बात कोरी भावुकता नहीं, बल्कि ठोस नपा-तुला कदम है। मतिया के साथ-साथ प्यार के पग बढ़ाकर बाबू ने कोई गलती नहीं की है- ऐसा उन्हें लगने लगा।

किन्तु जहाँ तक अपनी बात थी, बाबू ने भरसक कोशिश की छिपा ही रहने की, अपने मन की बात को। शुरु-शुरु में डोरमा, होरिया, गोरखुआ आदि जवां टोली ने काफी जोर दिया कि बाबू साफ-साफ कह डाले अपनी बात, क्यों कि लोगों को बड़ी बेसब्री होने लगी थी। पर बात बनती न देख इस विषय पर चर्चा फिर कम होने लगी। हाँ, यह बात सबके मन में जगी रही कि मतिया और बाबू की शादी जल्दी हो जाती तो बढ़िया होता। मगर मन की मन में ही दबी रही। हर बार बाबू ने यह कह कर टाला कि समय आने पर सबकुछ हो जायेगा।

मंगरिया को कहकर गोरखुआ ने मतिया के मन की बात जान ली थी। पहले तो मतिया काफी छमक-छुमक की, किन्तु बाद में पूरी बात दिल खोल कर मंगरिया से कह डाली- ‘कौन लड़की नहीं चाहेगी मंगरिया कि उसे अच्छा सा आदमी मिले, और बाबू तो फिर बाबू है- हीरे की कन्नी को कौन नहीं चाहेगा अपनी अंगूठी में जड़ लेना? सबकी इच्छा है ही, नानी चाहती ही है, फिर मुझे क्यों एतराज होने लगा...परन्तु...।’

‘क्या बात है? तू साफ से कहती क्यों नहीं मुझसे? यदि कोई परेशानी वाली बात होगी तो जहाँ तक बन पड़ेगा, मैं और गोरखुआ मिलकर सलटाने की कोशिश करेंगे। आखिर तू मेरी प्यारी....।’

मंगरिया की बात पर मतिया का चेहरा थोड़ा मुरझा सा गया। लम्बी सांस भरकर बोली- ‘क्या सुलझाओगी बहिनपा! उस रात जो सपना देखी थी, अभी तक दिल से निकाल नहीं पायी हूँ- सपने के डर को।’

‘ सपना? ’चौंक कर बोली मंगरिया- ‘धत्ततेरे की! उस सपने की अभी तक माला जप रही है तू ? ’

‘सपना तो सपना था- मान ली तुम्हारी बात- आँखें खुली और गायब; परन्तु दूसरे दिन की वह अनहोनी घटना! उसे भी क्या सपना कह कर टाल दूँ? ओफ! उस दिन यदि बाबू न होता तो मेरी जान चली ही गयी होती। ’

‘और उस दिन तुम ना होती तो क्या बीच जंगल में पड़े चुटीले शहरी बाबू की जान न चली गयी होती? दोनों ने एक दूसरे की जान बचायी है- यह भी तो एक बड़ा संयोग है। अब अच्छा यही होगा कि तुम दोनों जीवन भर के लिए एक-दूसरे की हो जाओ, और एक दूसरे की जान बचाती रहो।’- मंगरिया ने समझाया।

‘पर, क्या बाबू चाहेगा मुझे?’-मतिया कह ही रही थी कि मंगरिया बीच में ही बोल पड़ी- ‘ क्या बात करती हो, बाबू तो जगे में भी तुम्हारे ही ख्वाब में रहता है। सामने पड़ने पर देखती नहीं हो, पलकें झपकना भूल जाती हैं। उनका बस चले तो तुम्हें उठाकर अपने कुरते की ऊपर वाली जेब में डाल ले, जो दिल के बिलकुल पास होती है..।’

‘धत्त! तुम तो ऐसा न कहती हो...’- मतिया लजाकर अपना सिर छिपा ली मंगरिया के कंधे पर।

‘कहती क्या हूँ झूठ-मूठ की ? बाबू सिरफ ऊपर से भोला-भाला बने रहते हैं, भीतर जरा झांक कर देखो तो पता चले कि कितनी हलचल है, कितनी बेताबी है तुम्हें पाने की।’

‘तो क्या तुमने देखा है, बाबू के दिल में झांककर?’- मतिया मुस्कुरायी।

‘देखी नहीं, तो क्या तुम्हारी तरह अन्धी हूँ ? किसी को किसी से प्यार हो जाये, यह छिपी रहने जैसी है ? प्यार का इजहार तो आँखें कर देती हैं। ’ – मुस्कुराती हुयी मंगरिया मतिया की आँखों पर अपनी अंगुली से इशारा करती हुयी बोली- ‘तो रही पक्की बात। आज ही मैं जाकर सबसे कहे देती हूँ कि मतिया और बाबू दोनों तैयार हैं व्याह करने को, और सोहराय के बाद ही यह शुभ काम कर लिया जाय।’

‘सबसे क्या कह दोगी, पगली हो गयी हो क्या? मुझे बदनाम करोगी?’- घबरानी सी सूरत बनाये मतिया चिपट गयी मंगरिया के सीने से।

‘बदनामी की कौन सी बात हो गयी रे ? असल में तुमसे जानने के लिए मुझे कहा था किसी ने।’- मंगरिया ठठाकर हँसती हुयी बोली- ‘और मैंने जान ली तुम्हारे मन की बात। अब घबराती क्यों हो सोनुआ रानी ! चोर तो पकड़ा गया...शोर तो मचेगा ही।’

‘खूब पकड़ा तुमने चोर। जानती हूँ- ये सब खुराफात किसकी है।’- मंगरिया के गाल पर प्यार से चपत लगाती हुयी मतिया ने कहा।

‘किसकी है बता तो सही। बड़ी लालबुझक्कड़ बनी है।’- दोनों हाथों से मतिया के दोनों गालों को दबोचती हुयी मंगरिया ने कहा।

‘खुराफाती तुम्हारा ही अपना है...।’- मतिया मुस्कुरायी- ‘ क्यों गलत है मेरा अंदाजा? यह सब शैतानी गोरखुभाई के सिवा किसी और की हो ही नहीं सकती। मेरी बात तुमसे जानेगा, फिर पूरे गांव में ढिढोरा पीटेगा कि मतिया प्यार करती है पलटनवां बाबू से।’

‘प्यार करती ही है, तो कौन सा गुनाह करती है? उमर ही है प्यार करने की। क्या वही नहीं करता मुझसे?’- मंगरिया लिपट गयी मतिया से, और चूम ली उसके होठों को।

मतिया के मन की बात खुलकर जान ली गयी। मतिया से मंगरिया, मंगरिया से गोरखुआ, और फिर वे सारे लोग, जो इच्छुक थे, किन्तु बाबू कुछ कहे तब न बात बने आगे, क्यों कि अपने मन की बात साफ होकर बाबू ने कभी नहीं कहा। इसी सोच विचार में गोरखुआ जाल बुनता रहा, किसी तरह बाबू और मतिया की शादी हो जाय। बाबू यहीं बस जाये गुजरिया में ही, ताकि गुजरिया वालों का भला हो सके।


गुजरिया में बाबू को आये हुए महीने भर गुजर गये। महीना भर का लम्बा समय कैसे उड़ गया पंख लगाकर, इसका पता न बाबू को चला, और न गांव वालों को। देश में सुराज भले न आया हो, पर गुजरिया में तो सुराज ही सुराज है। गोरखुआ के लिए तो सिर्फ दो ही चीजें रह गयी हैं दुनियां में- गान्हीं बाबा और पलटनवां बाबू।

एक दिन गोरखुआ ने कहा- ‘बहुत दिनों से सोच रहा हूँ बाबू कि कहीं घूमने-घामने चला जाय।’

‘वैसे तो रोज ही घूम रहे है, मगर यह घूमना कोई घूमना है? ’- मस्कुराकर बाबू ने कहा- ‘कहां चलने का विचार है गोरखुभाई ?’

‘यहां रहते इतने दिन होगये। इधर के करीब-करीब पूरा जंगल, नदी, पहाड़, झरने सब तो देख ही लिये बाबू मगर सबसे जरुरी चीज अभी अछूती ही रह गयी है।’

‘सो क्या?’-उत्सुकता पूर्वक बाबू ने पूछा।

‘गुजरिया का पुराना बंगला, जहां कभी रहती थी हमारी जुगरिया। वहीं साहब का बनवाया हुआ एक पुराना गिरजाघर भी है, और वहां से थोड़ा और आगे जाने पर एक मंदिर भी है- शंकर देव का।’- गोरखुआ ने बाबू को बतलाया।

‘शंकर देव यानी कि भगवान शिव का मन्दिर है ? तब तो जरुर चलेंगे। बंगला भी देख लेंगे, गिरजाघर और गिरजापति का मन्दिर भी।’

बाबू की बात पर हंस कर गोरखुआ बोला-‘गिरजाघर तो सही में है, पर गिरिजापति के मन्दिर में भोलेबाबा नहीं हैं। शंकरदेव तो हमलोग जैसे ही एक वनवासी थे। बहुत पहले हुए थे, उन्हीं का स्थान है। बहुत-बहुत बढ़िया-बढ़िया बात जानने कहने वाले को हमलोग देव ही कहते हैं। अभी भी लोग जाते हैं, जब किसी का कोई काम अटकता है। वहां जाकर गंडा बांधते हैं, और मन्नत करते हैं, मुराद पूरी होने के लिए। ’

‘बात तो सही है गोरखुभाई! आदमी में अच्छे गुण हों, अच्छी बात करे, तो फिर उसमें और देवता में अन्तर ही क्या रह जाये? सच पूछो तो देवता कोई अलग नहीं, अच्छे गुण और व्यवहार का चिह्न है देवता, और बुरे व्यवहार का चिह्न है राक्षस।’

‘मेरा विचार है कि कल हमलोग वहीं चले बाबू।’- गोरखुआ ने कहा, तो बाबू ने सिर हिलाकर स्वीकार किया-‘हां, तो हर्ज ही क्या है, चला जाय कल ही।’

बाबू के पूछने पर कि और कौन-कौन साथ चलेगा, गोरखुआ ने बतलाया कि मंगरिया और मतिया तो पहले से ही तैयार है, क्यों कि उसने कई बार पहले भी कहा है चलने को। हो सकता है डोरमा और होरिया भी चले। और बात पक्की हो गयी अगले सुबह की।

अगले सुबह ही सभी चल पड़े सैर को। खाने-पीने का सामान साथ में लेलिया गया। मौज-मस्ती में जवानों की टोली चल पड़ी।

मतिया और मंगरिया दोनों हाथ जुड़ाये चल रही थी। गोरखुआ और बाबू आगे-आगे, उनके साथ ही डोरमा और होरिया भी। मतिया का भेड़ तो सबसे आगे चल रहा था, मानों सही रास्ता उसे ही मालूम हो।

पहर भर में सभी साहब के बंगले पर पहुँच गये। जुगरिया की बहुत कुछ बातें बाबू को मालूम हो ही गयी थी। साहब के बंगले में पहुँच कर बाबू को अजीब सा अनुभव हुआ।

कल और आज के बीच समय की लम्बी गहरी दरार थी, किन्तु समय के थपेड़े सहता, साहब का बंगला आज भी काफी हद तक ठीक-ठाक नजर आया। खण्हर के भीतर अभी भी कई कोठरियां बच रही थी, जो सिर उठाये, साहब के काले कारनामों की कहानी सुनाने को ललक रही थी।

मतिया बचपन में एकाध दफा आयी थी इधर, मंगरिया भी। होरिया और डोरमा को आने का मौका न मिला था। गोरखुआ का तो चप्पा-चप्पा छाना-जाना था।

‘पहले नहा-धोआ लिया जाय। रास्ते की थकान मिट जायेगी। ’- बाबू ने कहा तो मतिया और मंगरिया एक साथ मुस्कुरा उठी एक दूसरे को देखती हुयी, ‘लगता है बाबू को भूख लग गयी है, आते ही आते नहाने की सूझने लगी। ’

‘नहा लेने से अच्छा ही होता। ’-कहते हुए गोरखुआ ने बतलाया-‘बंगले के पीछे से होकर एक रास्ता है, जिसमें बहुत करीब ही एक सुन्दर झरना है। जंगल, पहाड़ और झरने की मोहकता ने ही जंगल के ठेकेदार साहब को शायद यहाँ आबसने का न्योता दिया हो। उधर हमारे तरफ झरने तो कई हैं, चश्मे भी हैं, किन्तु उनका मजा केवल बरसातों में ही है। गर्मियों में चश्मा तो बिलकुल सूख ही जाता है, झरने में भी खास दम नहीं रहता, परन्तु यह झरना सालों भर एक सा मजा देता है। सुनते हैं कि साहब के समय गोरों का भारी जमघट यहाँ लगता रहता था।’

बंगले के अहाते से बाहर आकर, पीछे की ओर चल पड़े सभी। थोड़ा आगे बढ़ते ही कानों में अजीब आवाज गूँजने लगी। ज्यों-ज्यों लोग आगे बढ़े, ऐसा लगने लगा कि बहुत से जंगली हाथी आपस में जूझ रहे हैं, जिनके चिघ्घाड़ से उस ओर का पूरा जंगल गूंज रहा था। आवाज पर गौर कराते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘घबराओ नहीं बाबू! ये हाथियों का चिघ्घाड़ नहीं है। ’

‘सो तो कुछ-कुछ मुझे भी लग रहा है। तो क्या ये आवाज झरने की ही है? ’

‘ हाँ बाबू झरना अब बिलकुल पास आगया है, बस उस झरमुट के पास पहुँचे कि झरना दीख गया।’- सामने की झुरमुट को दिखाते हुए गोरखुआ बोला।

टोली थोड़ी और आगे बढ़ी। आवाज पल-पल तेज और स्पष्ट होती गयी- अब चिघ्घाड़ कल-कल में बदल गया। अन्त में आवाज इतनी तेज होगयी कि आपस में बातें करना भी मुश्किल होने लगा।

पास पहुँच कर, साथ लाये सामानों को एक डाल से लटकाकर, बैठ गये सभी। झरने पर निगाह पड़ते ही बाबू थिरक उठा, ‘ओह! इतना मोहक! सच में बड़ा ही रमणीक है। झरने तो कई देखे, किन्तु यह झरना तो अपने आप में बेमिसाल है। ’