अधूरीपतिया / भाग 14 / कमलेश पुण्यार्क
बाबू का गला भर आया था। आगे कुछ कह न पाया। झुककर नानी के पैर छुये। फिर बूढ़े दादू की ओर लपके, किन्तु दादू ने हाथ पकड़ लिया- ‘ ये की करत हो बाबू ! ’
‘ हां दादू! क्यों नहीं, आप इस गांव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति हैं, और जबकि आप सबने मुझे अपना बना लिया, फिर पैर छूकर आशीष लेने से मुझे क्यों वंचित कर रहे हैं ?’- कहते हुये बाबू ने तपाक से उनका पैर छू लिया। दादू ने बाबू को बाहों में भर लिया- ‘लम्बी उमर दे तुम्हें बाबू, वाबा शंकरदेव।’
फिर बाबू ने वहां खड़े सोहनु और भिरखुकाका के भी पैर छुए, आशीष लिया। विदाई देने औरतें और बच्चे भी आजुटे थे। सभी बड़ों का पैर छुआ बाबू ने, और बराबर वालों से गले मिलकर सबको सम्मानित किया। बच्चे भी लपक-लपक कर, ललक-ललक कर बाबू के पैर छुए। सबकी आँखों में गंगा-जमुना उमड़ी पड़ी थी। सबका चितचोर कन्हैया, मानों आज रोते-बिलखते गोकुल को छोड़ मथुरा जा रहा था।
गोरखुआ, होरिया, और डोरमा कस्बे तक पहुचाने गये। बाबू को गाड़ी में बैठाते समय, गोरुखुआ फफक कर रो पड़ा। होरिया और डोरमा भी खुद को रोक न सके, रो ही पड़े। गाड़ी खुलने लगी तो हाथ जोड़कर गोरखुआ ने कहा, ‘ जल्दी लौट आना बाबू । याद है न मंगरिया को साथ लेकर गान्ही बाबा के पास चलना है।’
‘बाबू चला गया सो चला ही गया। लम्बा अरसा गुजर गया। मतिया आँखें बिछाये बैठी रही बाबू की आश में।’- मतिया की कहानी कहती युवती की आँखें भी डबडबा आयी। काफी देर से धीरज रखे, मतिया और पलटनवां बाबू की कहनी सुनते युवक की मानों नींद खुली अचानक। पांव समेट, पलथी मार, बैठते हुए बोला- “ घटना तो अच्छी सुनाई, और बड़े मौके पर सुनाई तूने। पर मुझे आश्चर्य हो रहा है कि मतिया और पलटनवां के बीच हुयी गुप्त बातों की जानकारी तुझे क्यों कर हुयी? ”
यवती कुछ कहना चाहती थी, तभी उसने देखा- कहानी सुनते हुए युवक ने अपने जेब में हाथ डालकर साड़ी के टुकड़े को निकाला, जिसे रुमाल की तरह पहले भी कईबार इस्तेमाल कर चुका था। टुकड़े को सूंघा, बड़े प्यार से, और चूम लिया। फिर ऊपर सिर उठाकर कुछ गौर करने लगा- सामने बैठी युवती के चेहरे पर। उसे पहचानने का प्रयास करने लगा, साथ ही अपने-आप में बड़बड़ाने भी लगा- ‘ पलटनवां के जाने के बाद क्या मतिया, पागलों की तरह बक गयी सब कुछ...सबसे...और बातों के साथ-साथ बाबू के जीवन की रहस्यमय गुत्थियां....उघाड़ गयी सारी बखिया...बेनकाब कर दी...कर ही दी तो फिर आगे क्या हुआ यह भी तो मालूम होना चाहिए...।’
एकाएक युवक कड़क उठा। आवेश में बोल उठा- ‘ क्या मतिया और पलटनवां की
कहानी खत्म हो गयी यहीं...?’
एक जोरदार मानसिक दौरे के प्रभाव की तरह युवक आवेशित हो उठा। चट्टान से उठ खड़ा हुआ, और अपना सिर धुनने लगा, बालों को नोचने लगा...। बारबार आँखें तरेर कर सामने बैठी युवती को देखने लगा। शायद उसका भुलक्कड़पन हवा हो गया था- मतिया और पलटनवां की कहानी सुनकर।
युवती ने उसके सवाल का कोई जवाब न दिया, देना उसे शायद जरुरी भी न लगा। चुप बैठी मुस्कुराती रही। उसका मौन मुस्कान तीर की तरह चुभता रहा युवक के कलेजे में। क्रोध में आंखे लाल अंगारे सी चमकने लगी थी। झटके से आगे बढ़, सामने दरख्त के सहारे खड़ी की गयी अपनी बन्दूक सम्हाल कर उसमें गोलियां भरने की कोशिश करने लगा- ‘दुष्टा, शैतान की खाला ! तू मुस्कुरा रही है मेरी स्थिति पर ? तूने मेरा इतना वक्त बरबाद किया, और अब पूछने पर बतलाती भी नहीं कि यह रहस्यमय कहानी तुझे क्योंकर मालूम चली, और मालूम भी हुयी तो अब आगे की बातें बतलाने में क्यों हिचक रही हो?’
गरजने को तैयार युवक की बन्दूक का कुछ भी असर, युवती के निर्भय मुस्कान पर न हुआ, बल्कि और ढीठ होकर, उसकी हँसी बाहर आने लगी- “ होश में आओ बाबू, होश में आओ। अब तक तो तुम्हें कुछ भी याद न आरही थी, अब पूछते हो मैंने मतिया की कहनी कैसे जान ली। थोड़ी देर में कुछ और भी पूछोगे। क्यों...क्या शर्त भी भूल गये- क्या कहा था मैंने?”
“कौन सी शर्त ? ” - युवक आवेश में बोला । युवती की निर्भीकता, और धृष्टता उसे पैने तीर सी चुभ रही थी।
“कहानी सुनाने और पतिया लिखाने की बात, और फिर मंजिल बतलाने की बात।”- पूर्ववत मुस्कुराती हुयी युवती ने कहा।
“ओफ मेरी मंजिल ! ”- युवक फिर बड़बड़ाने लगा। बन्दूक नीचे गिर गयी, उसके हाथ से। कांपते हाथों से सिर के बालों को नोचते हुए बोला- “ याद आगयी, याद आगयी,
मेरी मंजिल। खुद याद आगी। अब तम्हें बतलाने की जरुरत नहीं है।”
“वाह रे, खुद याद आगयी। तब तो लगता है, शर्त के मुताबिक मेरा काम भी नहीं कहोगे ? पतिया भी नहीं लिखोगे ?”
“क्या बकती हो, मतिया और पलटनवां की पतिया लिखवाने वाली तुम होती कौन हो-जरा ये तो बताओ ? ”- युवक चीख उठा।
“ छोड़ो बाबू मैं कौन होती हूँ, कौन नहीं।”- युवती ने उदास सा मुंह बनाकर कहा- “मैं जानती थी कि अन्त में तुम यही कहोगे। खैर, मत लिखो पतिया। मुझे इसकी परवाह भी नहीं। खुशी है इस बात की कि तुम्हें अपनी मंजिल याद तो आ गयी। यह भी जरुर याद आ गया होगा कि तुम कौन हो, क्या नाम है तुम्हारा, क्या, कब, किससे, कुछ कहा था तुमने।”- कहती युवती गम्भीर हो गयी, किन्तु उसके होंठों पर पूर्व मुस्कान की परछाई जो अभी भी मौजूद थी, एकाएक फिर उभर आयी, “यूं ही अन्धेरे में तीर नहीं मारती हूँ बाबू, तुम्हारी तरह।”
“क्या मतलब ?”- उत्तेजित युवक ने कहा- “क्या मैं अन्धेरे में तीर चलाता हूँ?”
“और नहीं तो क्या। इसे अन्धेरे में ही तीर मारना कहते हैं बाबू ! बिना जाने-समझे मुझ बेकसूर औरत पर बन्दूक तान रहे हो। तुम्हें अपनी बन्दूक का घमंड है, तो मुझे भी अपनी परख का। क्या मैंने मतिया और पलटनवां बाबू की कहानी किसी ऐसे आदमी को सुना डाली, जिसे सुनने का अधिकार नहीं था उसे ? यह तुम्हारी नासमझी है बाबू, पूरी तरह नासमझी। ”
“बहुत तेज है तुम्हारी परख।”- युवक मुंह बिचका कर बोला, “तो फिर कहती क्यों नहीं कि मैं कौन हूँ ? और जब पलटनवां बाबू चला गया वापस, तब फिर क्या हुआ आगे ?”
“क्या हुआ आगे, क्या किया पलटनवांबाबू ने, जाने के बाद क्यों नही आया, यह तो हम से ज्यादा तुम ही बतला सकते हो। हां, यह मैं जरुर तुमसे ज्यादा अच्छी तरह बतला सकती
हूँ कि बाबू के जाने के बाद मतिया का क्या हुआ। रही बात यह कहना कि तुम कौन हो, तो क्या इसे भी मैं ही बतलाऊँ ? ”- युवती पहले की तरह ही मुस्कुरा कर बोली। इस बार के मुस्कान का और भी तीखा असर हुआ युवक पर।
दांत पीसता हुआ नीचे झुका। चट्टान के नीचे गिर पड़े बन्दूक को उठाकर तान दिया फिर से युवती की ओर, जिसमें गोलियां तो पहले ही भर चुका था। निशाना साधते हुये बोला- “ये सब पहेलियां मत बुझाओ मुझे। मेरा सही परिचय जानती हो तो साफ-साफ कहो, या फिर मेरी बन्दूक का निशाना बनो। ”
इतने पर भी युवती जरा भी डिगी नहीं, और न उसके होठों पर से मुस्कान ही गयी। बड़ी ढीठाई से बोली- “तुम्हारी बन्दूक में इतनी ताकत नहीं है बाबू जो मेरी छाती में गोलियां दाग सके, और न तुममें ही.... ।”
“मेरी बन्दूक के साथ-साथ मुझे भी चुनौती देती है ढीठ-दगाबाज और ? जान प्यारी हो तो मेरी बातों का साफ-साफ जवाब दे, वरना....।”
“ वरना क्या होगा पलटनवांबाबू बतलाओ तो सही ? ”—युवती खिलखिला उठी।
“पलटनवां बाबू नहीं हूँ मैं। इस संबोधन से कहीं तुम मुझे चिढ़ा तो नहीं रही हो न ? ”- युवती के मुंह से पलटनवां बाबू का सम्बोधन सुन, युवक एकाएक नरम पड़ गया। बन्दूक नीची कर ली। क्रोध भी काफूर हो गया।
“तुझे चिढ़ाकर, तड़पाकर, मुझे क्या मिलेगा बाबू ? ”-युवती इस बार मुस्कुरायी नहीं, बल्कि गम्भीर होकर बोली- “सच कहना, क्या तुम वही अमरेश नहीं हो जो मतिया के पास से वापस जाने के बाद फिर एक षड़यन्त्र के शिकार हो गये, और भुला दिया अपने वायदे को, जो तुमने दिया था कभी... ? ”
“वही अमरेश !”- युवती के मुंह से इस बार स्पष्ट नाम सुनकर युवक चौंक उठा- “मैं अमरेश हूँ...पलटनवां बाबू हूँ...मतिया को वचन दिया था...षड़यन्त्र का शिकार हुआ हूँ... मगर तुम कौन हो पहेली पर पहेली बुझाने वाली? ”- युवती के चेहरे पर फिर से गौर करते हुए युवक ने कहा।
“यह भी जान जाओगे बाबू, यह भी जान जाओगे। सब कुछ जान ही गये। तुम्हारे भुलक्कड़पना का भूत भाग ही गया, तो इसे जानने में भी परेशानी न होगी, किन्तु पहले यह तो कहो बाबू कि मतिया के घर से विदा होने के बाद तुमने क्या-क्या किया?”
“क्या-क्या किया ! ”- युवक शान्त स्वर में बोला- “कहने में तो कोई हर्ज नहीं, किन्तु बिना परिचय जाने, अपना राज अपने मुंह से ही खोलना भी तो उचित नहीं, भले ही कोई कुछ कहता-जानता रहे। ”- युवक थोड़ा ठहरा, कुछ सोचने लगा। फिर बोला- “खैर, कोई हर्ज नहीं। यदि तुम किसी से कह भी दोगी, तो मेरा कुछ बिगड़ने वाला नही है अब। रह ही क्या गया है अब बिगड़ना...और बनना ही क्या...पर परिचय मिल जाता तुम्हारा तो थोड़ी तसल्ली होती। ”
“कह जाओ, बाबू, सुना जाओ। परिचय की परवाह न करो। वह तो खुद-व-खुद मिल जायेगा। अपना राज सुनाकर, मुझसे कुछ नुकसान का भी अंदेशा न करो। मैं ऐसी नहीं हूँ, जो ढ़िढोरा पीटती फिरुंगी।”- युवती ने यकीन दिलाया, किन्तु परिचय न दे पाने के कारण युवक की शंका का समाधान न हो सका।
लम्बी सांस खींची, छोड़ी, फिर खींची उसने, शायद दम घुट रहा हो। सांस लेने छोड़ने में कठिनाई हो रही हो। युवती के सिर से पैर तक कई बार उसकी नजरें चढ़ी-उतरी, गहराई भी, किन्तु बाहरी छिछलापन का चक्कर ही लगा पायी, क्यों कि पहचान का कोई सूत्र हाथ न लगा। सिर्फ लम्बाई पर, किसी के पहचान का पक्का मुहर तो नहीं ही लगाया जा सकता न! न सही रंग न रुप, न सौन्दर्य कुछ भी तो कहीं मेल न खारहा था- उसकी यादों की डायरी से। सब अनजान ही था। होंठों ही होंठों में बुदबुदाया, “ कैसे कहती है, ये लड़की कि परिचय खुद ब खुद मिल जायेगा ? ऐसी या इस तरह की कोई लड़की – कहीं तो नहीं दीखती यादों के झरोखे में।”
होंठ सिकोड़, सांस छोडते हुए मायूस सा होकर युवक ने कहा - “ ठीक है, तो जान ही लो कि फिर क्या हुआ आगे। सुना ही डालता हूँ। ”
युवक, जिसने अब खुद को अमरेश या मुन्ना, या पलटनवां होना स्वीकार कर लिया था, कहने लगा- “ उस बार मतिया के यहाँ से विदा होकर घर का रास्ता लिया। रास्ते भर मन आगा-पीछा होता रहा। कभी माँ के बारे में तो कभी पीछे छोड़ आये मतिया के बारे में सोचता रहा, उस मतिया के बारे में, जिसकी कोई निशानी भी नहीं रख पाया था। रह गया बस केवल एक...”- जेब में हाथ डाल, साड़ी का टुकड़ा निकाला, सूंघा और होंठों पर रगड़ने लगा, मानों मतिया के होंठ पर अपने होंठ रखे हुए हो। चूमा उस टुकड़े को एक बार, और कहने लगा- “ एक यही टुकड़ा मात्र...।”- टुकड़े को हवा में लहराते हुये, युवती को दिखाया- “ चलते समय अपनी साड़ी के टुकड़े में कुछ कलेवा बांध कर दी थी, रास्ते के लिए। पाथेय तो हजम हो गया कब का, पर टुकड़ा अभी तक संजोकर रखे हुए हूँ।”- टुकड़े को मुट्ठी में भींच कर बारबार चूमने लगा। सामने ढोंके पर बैठी, मुस्कुराती युवती, देखती रही मतिया के प्यार की निशानी –उस टुकड़े का चूमा जाना।
युवक ने आगे कहा- “ अखवार देखने के बाद से ही वदन में चिनगारियां सी उठने लगी थी, जो तब तक चैन न लेने दी, जब तक कि घर पहुँच न गया।
“...घर पहुँचा। आशा-निराशा के द्वन्द्व में बाहर का गेट खोला। सामने ही, वरामदे में आराम कुर्सी पर बैठी एक हमउम्र खूबसूरत युवती, जिसका पेट हंडिये सा निकला हुआ था, नवजात शिशु के लिए जुराबें बुन रही थी। गेट खुलने की आहट से चौंक कर सामने देखी। उसकी आँखों में जिज्ञासा भरे प्रश्न थे।”
“ जी, आपका परिचय ?”
“ जी, मुझे लोग...जी अमरेश कहते हैं...और आप....?”
अपने ही दरवाजे पर अनजान की तरह, ठमकता हुआ खड़ा होना, बड़ा अजीब लगा। परिचय बताना तो उससे भी अजीब । मेरा नाम सुनते ही युवती बिना कुछ अपना परिचय दिये, हाथ में पकड़े ऊन की लच्छी और कांटे सम्हालती, लगभग दौड़ती हुयी सी, अन्दर चली गयी- “ अजी सुनते हो ! अमरेश आ गया...अमरेश...।”
मैं अब तक वरामदे की सीढियां भी नहीं चढा था। नीचे ही ठमका खड़ा था। घर से परायेपन की दुर्गन्ध आरही थी। खूबसूरत युवती की आवाज सुनते ही भीतर बैठक से निकल कर पिता महाशय बाहर आये।
“अहा आ गये बेटे ! आओ..आओ, अन्दर आओ। बाहर क्यों खड़े हो अनजान की तरह ?”- चरण-स्पर्श के जवाब में पिता ने कहा, और वापस मुड़ चले बैठक की ओर। उनके पीछे मैं भी हो लिया।
वैठक में आकर, पिता पड़ रहे पलंग पर। शायद तबियत कुछ कमजोर रही हो। मैं वहीं सामने सोफे पर बैठ गया। उधर वह युवती भीतर जा नौकरानी को आवाज लगा रही थी- “ अरे कहाँ मर गयी रे नगेसरी, देखो अमरेश आया है। जल्दी से कुछ नास्ता-वास्ता ले आ इसके लिए।”
युवती के मुंह से बारबार अपना नाम सुनकर, नाम घिसता हुआ सा लगने लगा। आज तक पिताजी ने कभी नाम लेकर पुकारा नहीं। माँ हमेशा मुन्ना कहकर ही काम चला लेती है। कहती है- बेटे का नाम लेने से उसकी आयु कम होती है। घर के और सदस्य मां के ही तर्ज पर मुन्ना कहना पसंद करते हैं। दोस्तों और परिचितों में सिर्फ महज उपाधि से ही काम चल जाता है। पूरा नाम कोई आजतक लिया नहीं। हां एक थी- पूरे नाम की उपयोग करने वाली, किन्तु वो भी मिस्टर अमरेश कहा करती थी, वह भी खास जरुरत पड़ने पर ही।
नौकरानी को नाश्ते की फरमाइश कर, युवती अपनी लच्छियां सम्भालती, अन्दर आ, सीधे पलंग पर जा बैठी, जहां पिता पड़े हुए थे। मुझे यह देखकर आश्चर्य सा लगा। मेरे चेहरे से मनोभावों को पढ़ने का प्रयत्न करते हुए पिता ने कहा- “ क्यों बेटे पहचाना नहीं न इन्हें? ये तुम्हारी माँ है।”
मैं ऊंचे आसमान से सीधे बबूल की झाड़ी पर गिर गया। पुराने समय में एक वृद्ध
ऋषि थे- च्यवन, जो नहाने के लिये औषधियों से युक्त तालाब में घुसे, और निकले तो बिलकुल युवा बन कर, नतीजन उनकी युवती पत्नी सुकन्या भी पहचानने से कतराने लगी थी। कुछ वैसे ही धर्मसंकट में मैं पड़ गया। आश्चर्य चकित होकर बोला- ‘ माँ ! माँ है ये ?’ और बुदबुदाया- माँ कैसे हो सकती है ?
“हां बेटे, मां ही है...नयी माँ। ”- मुस्कुरा कर, पिता ने अपनी ओर से मानों खुशखबरी दी, और ऊन और कांटे की मदद से प्रेम का जाल बुनती युवती की ओर देखने लगे। युवती ने भी कनखियों से उन्हें देखा, और मुस्कुरा पड़ी।
“और माँ ? ” - बरबस निकल पड़ा मेरे मुंह से। साथ ही याद आयी, आजतक माँ ने कभी नौकरानी के हाथ का बना खाना नहीं खाने दिया था- न हमें न घर के किसी अन्य सदस्य को। कहती थी- “ मेरे हाथ में क्या मेंहदी लगी है, जो मुन्ने को नौकरानी खाना बनाकर खिलायेगी ? ” नौकरानी तो सिर्फ ऊपरी कामों के लिए रखी जाती थी।
पिता उठकर बैठ गये, तकिये का ढासना लगाकर, थोड़ा ऊँचा होकर। उदास सा मुंह बना कर कहने लगे- “ तुम्हारी मां को गुजरे आठ महीने हो गये बेटे, पूरे आठ महीने।”
पिता की धीमी-दबी आवाज कानों में सनसनाहट के साथ घुसी, और गर्म शीशे के तरह अन्दर उतरती चली गयी। पेट में नाभी के पास मानों एक गैस-गुब्बारा छूटा, और सन -सन करता हुआ ऊपर हृदय और फेफड़ों को मड़ोरता हुआ गले में आकर फंस गया। पूरे वदन में खून का दौड़ना बंद सा हो गया। आँखों तले छोटे-छोटे पीले-नीले तारे चमके, और फिर एकाएक अन्धकार....।
सामने की मेज पर देर तक सिर टिकाये, उस घनघोर अन्धकार में भटकता रहा। खोजता रहा रास्ता...।
थोड़ी देर बाद अन्धकार एकाएक गायब हो गया। सारी वस्तुयें पहले की भांति नजर आने लगी। टेबल से सिर उठाया। एक बार सामने पलंग पर बैठे पिता को देखा, और फिर सिर टिकाकर हुचक-हुचक कर रोने लगा। दिल बैठा जा रहा था। सांसे घुट रही थी।वदन में झुरझुरी हो रही थी। चाहा था कुछ कहना, किन्तु कह न पा रहा था, कांपती सांसों के साथ सारा पिंजर हिल रहा था।
बड़ी कोशिश के बाद मुंह से आवाज निकली- “ आठ महीने, यानी कि मेरे जाने के पांच महीने बाद...। हाय माँ ! तुम मुझे छोड़कर चली गयी ! ओफ कितना अभागा हूँ मैं !”
मां कही जाने वाली नयी युवती मेरे पास आयी। सिर पकड़कर चुप कराती हुयी बोली- “चुप रहो अमरेश, चुप रहो। रोओ मत। रोने से अब कुछ होने वाला नहीं है। वह तो चली गयी, लौटकर थोड़े जो आ सकती है। वैसे भी अब तुम बच्चे नहीं हो...।”
यह सही है कि माँ चली गयी। यह भी सही है कि जो चला जाता है, वो लौट कर वापस नहीं आता- रोने वाले के पास। यह भी सही है कि मैं अब बच्चा नहीं हूँ; किन्तु माँ की ममता और प्यार की जरुरत क्या सिर्फ दुधमुंहें बच्चे को ही होती है ? बच्चा तो बूढा हो जाये फिर भी माँ के लिए बच्चा ही रहता है। और बच्चे को तो मां की जरुरत हरदम होती ही है, होनी ही चाहिए। परन्तु क्या इस युवती को ही माँ मान लूँ, जो उम्र में मुझसे भी कुछ छोटी ही होगी !
देर तक सिर झुकाये सोचता रहा। आँखों के आँसू धीरे-धीरे सूख गये, पर दिल में बहते आँसू को कैसे रोका जाय, जो रुकना भूल गये थे !
मुझे चुप देख युवती फिर जा बैठी पलंग पर ही। पिता कहने लगे- “ तुम्हारे जाने के बाद धीरे-धीरे सब कुछ टूटने लगा बेटे। बिगत तेरह महीनों में ही बहुत कुछ टूटा...बहुत कुछ बिखरा..पहले तेरी दादी गयी..फिर तुम्हारी माँ..मरते दम तक तेरा नाम लेती ही रही- मुन्ना से अब भेंट न हो सकेगी...। मैंने भी काफी प्रयास किया...रेडियो, अखबार में कई बार प्रचारित करवाया...कुछ पता न चला...मां तो चली ही गयी तुम्हें याद करती...मैं भी तुम्हारे जीवन से निराश होता गया...सब बुरे सपने आते रहे...तन्त्र–ज्योतिष भी कुछ काम न आया...अन्त में भाग्य के भरोसे छोड़कर बैठ जाना पड़ा...तुम चले ही गये त्याग कर...।”- लम्बी सांस छोड़ते हुए पिता फिर कहने लगे- “ मैं निराधार और अनाथ हो गया...पागल से भी बदतर मेरी स्थिति हो गयी...पागल को तो कम से कम उचित-अनुचित का ज्ञान भी नहीं रहता, इसलिए निश्चिन्त तो रहता है...पर मैं... दिल के दौरे लागातार पड़ने लगे...मित्रों ने राय दी- देखभाल के लिए दूसरी शादी करने की...सोचा- इस उम्र में शादी क्या शोभा देगी...घर की शोभा घरनी ही होती है बेटे...चन्द महीनों में ही बिन घरनी घर भूत का डेरा बन गया...क्या करता, लाचार पड़ गया...आस-पड़ोस, इष्ट-मित्र का दबाव बढ़ने लगा...लाचार होकर शादी करनी पड़ी...अब से तीन महीने पहले इसे व्याह लाया...बरबाद होते घर की देखभाल के लिए...बड़े गरीब घर की बेटी है बेचारी...सोचा- चलो एक लड़की का उद्धार तो हुआ...।”
‘...मेरी निगाह उस युवती के उभरे हुए पेट पर गयी, जो अपनी उपस्थिति कम से कम छः-सात माह से बतला रहा था। तुम भी एक औरत हो। क्या तुम मान सकती हो कि तीन मास की व्याही औरत का पेट हंडिये सा उभरा हो सकता है? ’- युवक ने युवती की ओर देख कर पूछा, जिसे सुनकर युवती थोड़ा मुस्कुरायी, फिर बोली—
“ऐसा होना तो नहीं चाहिये बाबू, पर मैं क्या कह सकती हूँ ? इसका मुझे अनुभव ही क्या है।”
“खैर जो भी हो, तुम्हें अनुभव हो या न हो, मुझे तो ऐसा ही लगा।”- युवक ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा- “पिता की बातें मुझे झूठ, सरासर झूठ लगी। इष्ट-मित्रों का दबाव भी एक बहाना सा लगा। मेरे जन्म के समय का इतिहास भी इस बात का गवाह है। वास्तविकता तो कुछ और ही समझ आयी, जिसे खोल कर कहने में जुबान नहीं खुलती।
“मैं चुप सुनता रहा, पिता कहते रहे- “...व्याह तो लाया इसे, यह सोच कर कि थोड़ी शान्ति मिलेगी, घर फिर घर हो जायेगा, परन्तु एक नयी आफत सिर पर सवार होगयी अगले ही दिन...तुम्हारे चाचा-चाची की चख-चख शुरु हो गयी..घर में महाभारत छिड़ गया। उन्हें तो परेशानी होने लगी...सोचे होंगे कि बेटा भाग ही गया...बच्चे और हैं नहीं..अकेले सम्पति के वारिस बनेंगे वे ही सब मेरे बाद। नतीजा ये हुआ कि सप्ताह भर के किच-किच के बाद उनके हिस्से का निपटारा कर देना पड़ा। घर बंटा, रोजी-रोजगार बंटा, जमा पूंजी बंटी...और लगता है खानदान की मर्यादा और इज्जत-आबरु भी साथ में बंट ही गयी...सब कुछ बरबाद हो गया। जिस फैक्ट्री को गोद के बच्चे की तरह सहेज-सहेज कर सहला-सहला कर इतना बड़ा किया था, इतनी बड़ी प्रतिष्ठा दी थी...टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया सब कुछ...।”- कहते हुए पिता का गला भर आया। थोड़ा ठहर कर फिर कहने लगे- “ तुम विवाह का वचन देकर मुकर गये थे, उनसे पैसे लेकर व्यवसाय में खपा चुका था पहले ही, दरवाजे पर आकर गाली-गलौज इतना किया अगले ही दिन की हफ्तों बाहर न निकल सका मैं। ओफ ! मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी, जिसे आँख उठा कर देखने की हिम्मत न थी, वो भी आँख मिलाने लगा, थू-थू करने लगा...। ”
पिताजी तकिये के सहारे पड़े लम्बी-लम्बी सांस खींचते रहे। माँ कही जाने वाली युवती ने, उनकी पीठ सहलाते हुए कहा- “ इधर दिल का दौरा भी पड़ने लगा है अमरेश। न जाने कब क्या हो जाय...।”
मगर मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि यह दौरा अप्रतिष्ठा जनित है, या कि हाथ आयी मोटी रकम के खोने का!
थोड़ी देर में पिता सामान्य हो गये। नौकरानी नाश्ता ले आयी, जिसे देखकर मन भिन्ना उठा। जी चाहा, उठाकर फेंक दूँ। मगर फेंकता भी किस अधिकार से ? खाने की इच्छा जरा भी न थी, फिर भी थोड़ा उठा कर मुंह में धर, एक गिलास पानी उतार लिया हलक से। गला सूखा जा रहा था फिर भी।
“क्यों अमरेश खाया कुछ नहीं तुमने ?” – मां कही जाने वाली युवती का सवाल चुभ गया तीर की तरह।
“इच्छा नहीं है। प्यास थी, पानी पी लिया। ”- कहते हुए सोफे पर ही पसर गया।
“क्यों तबियत ठीक नहीं है क्या बेटे ? ”- पूछा पिता ने, जिसके जवाब में सिर्फ सिर
हिलाना ही जरुरी लगा।
वे फिर बोले- “ तब, कैसे कहां रहे इतने दिनों तक ? आज अचानक कैसे याद आ गयी घर की ...?”
‘संक्षेप में कुछ कह गया। सांस रोके, चुप बैठे पिता सुनते रहे मेरी बातों को। तथाकथित मां भी ध्यान लगाये रही। अंगुलियां उलझी रही ऊन-कांटों से, पर ध्यान मेरी बातों की ओर ही था। सब कुछ कह गया मैं। बीच में किसी ने कुछ भी टोक-टाक न किया। हां-हूं भी नहीं।
‘अन्त में मैंने कहा- उस लड़की को मैंने वचन दिया है। मां से मुलाकात कर लौट आने की बात कह कर आया हूँ।’
जरा ठहर कर, पिता के मनोभावों को पढ़ने का प्रयास करते हुए मैंने कहा- ‘अब माँ तो रही नहीं, किन्तु आप तो हैं। विचार यदि हो, आदेश दें, तो उसे व्याह कर यहां ले आऊँ।’
पिता ने इसबार भी कुछ नहीं कहा। तिरछी नजर से एक दफा उस शैय्याशायिनी युवती की ओर देखा, और आंखें नीची किये, चुप रहे।
मैंने फिर गौर किया- उनके चेहरे पर बनते-बिगड़ते भावों, और शिकन को समझने का प्रयत्न किया, फिर बोला- ‘यदि किसी तरह की परेशानी हो, प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा की बात हो तो, कृपया साफ कहें, क्यों कि मेरिना की तरह इसे खोना नहीं चाहता, खोया भी नहीं जा सकता, क्यों कि मेरिना उस देश की थी जहां प्रेम-प्यार सब ‘लव’ है, शारीरिक भूख की पूर्ति और मनोरंजन का साधन भर है, किन्तु यह अपने देश की बात है, वह भी भोली-भाली वन्य-बाला की, जिसके लिए प्यार ही जीवन है, तिरस्कार ही मृत्यु। आप यदि न चाहेंगे, उस स्थिति में भी मैं उसे कतई छोड़ूंगा नहीं। गृहस्थी बसाने का दूसरा कोई उपाय सोचूंगा उसके साथ। वैसे तो आपने पहले ही मुझे सम्पत्ति से बंचित कर दिया है, हरामी की उपाधि देकर। मुझे तो आना ही नहीं चाहिए था वापस, किन्तु मां की ममता खींच लायी। सब कुछ भूलाकर, कर आना पड़ा माँ के लिए।’
मेरा ठोस निर्णय सुन, पिता कुछ पल के लिए जरा सा बिचलित हुए। चेहरे पर कई तरह की भाव-रेखायें चहलकदमी कर गयीं।गर्दन घुमा, पलंग पर सटकर बैठी अपनी नयी ‘रायदेहिन्दे’ की आँखों में झांका। चार आँखों ने ही आपुस में कुछ वातें भी कर ली। उनके चेहरे की स्थिति बता रही थी, कि मेरी बातें जरुरत से ज्यादा कड़वी लगी। शायद सोचा हो, लम्बी भटकन के बाद बेटा सुधर कर आया हो, पर कुत्ते की टेढ़ी दुम ज्यों की त्यों नजर आयी।
कुछ सोच-विचार कर बोले- “अभी तक तुम्हारा बचपना गया नहीं। एकबार नादानी कर धोखा उठाये, दूसरी बार मुझे बदनाम किये, अब फिर वैसा ही रास्ता अख्तियार करने को तुले हो..। खैर, जैसी इच्छा हो करो। कोई बच्चे तो हो नहीं। अपना भला-बुरा खुद सोच सकते हो। अपने साथी-दोस्तों से भी हो सके तो सलाह ले ले। शादी-व्याह का मामला कोई खिड़वाड़ नहीं है, जीवन भर का सौदा है, समझौता है...।”
मैंने स्पष्ट कहा- आपको जितना सोचना हो सोच लें, दिन, दो दिन, दस दिन....। मुझे कुछ और सोचना नहीं है, और ना ही दोस्तों से मसविरा करना है, अपने जीवन के विषय में। मैं समझता हूँ- अपने विवेक से बढ़कर, दूसरा कोई सच्चा रायदेहिन्दा नहीं हो सकता। और मैं अपने विवेक की राय ले चुका हूँ, इस निर्णय के पहले ही।
इतना कह कर, मैं वहां से उठ गया, पिता को इत्मिनान से सोचने को छोड़ कर। सारा दिन इधर-उधर चक्कर मारता, देर रात गये घर आता। नौकरानी खाना लगा देती। दो-चार निवाले मुंह में जबरन डाल, पेट की ज्वाला शान्त करता, दिल की ज्वाला जलती ही रहती। उसे शान्त करने का कोई अन्य साधन न सूझ रहा था, और न किसी को किसी तरह की दिलचस्पी ही थी मुझ में। देर रात तक, पिता के बन्द कमरे से बाहर निकलकर भुनभुनाहट और खिलखिलाहट मेरे कानों में जबरन घुसती रहती। कभी मैं जीतता, कभी आवाज। इसी संघर्ष में करवटें बदलते कई रातें गुजर गयी।
सूरज रोज एक नया दिन लेकर आता, दुनियाँ के लिए, पर उसमें मेरा कुछ भी हिस्सा
नजर न आता। मेरे बाहर-भीतर अन्धकार ही अन्धकार छाया रहा। और इस तरह पन्द्रह रातें गुजर गयी।
एक दिन नौकरानी को भेजकर पिता ने अपने कमरे में बुलाया। वहां जाने पर उन दोनों को वैसे ही बैठे देखा, जैसा पहले दिन देखा था। मेरे बैठ जाने पर पिता ने कहा — “तुम्हारे विषय में मैंने हर तरह से सोच-विचार किया। औरों से भी राय ली। अन्त में इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि धूम-धाम से उसके दरवाजे पर बारात सजाकर ले जाने में हमारी सामाजिक अप्रतिष्ठा है। मान लो तुम सिर्फ कुछ आदिवासियों को साथ लेकर जाते हो, और वहीं शंकर देव के मन्दिर में विवाह करते हो, जैसा कि तुमने कहा, तो यह भी मुझे असंगत लग रहा है।”
पिता की बात पर मैं मन ही मन भन्नाया- सबसे बड़ी तो आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा ही है....जो कब की धूल-धूसरित हो चुकी है, पर उसकी गंधाती लाश ढोये जा रहे है...।
पिता कह रहे थे- “ मैं यह नही कहता कि उसे छोड़ दो। मेरा विचार है कि दो आदमी भेज कर उस लड़की को ही यहीं बुला लिया जाय। मैं समझता हूँ- इसमें किसी तरह की आपत्ति नहीं होनी चाहिए तुम्हें। फिर यहीं लाकर, बिना आडम्बर के किसी मन्दिर में पुरोहित बुलाकर विवाह करा दिया जाय। भगवान बंटे हुए थोड़े जो होते हैं, सब जगह एक ही हैं। विवाह की विधि पूरी होनी चाहिए, उनके समक्ष।”
‘...पिता की इस अनूठी राय पर, सोचने को मैं विवश हो गया। हर पहलु पर गौर किया, किन्तु राय में किसी तरह की षड़यन्त्र की बूं न मिली। मैं भी नहीं चाहता था कि इस रुग्णावस्था में बूढ़े से जवान हो रहे पिता को अधिक मानसिक क्लेश दूँ। अतः उनकी खुशी को ही अपनी खुशी मान, स्वीकार कर लिया उनके प्रस्ताव को।
‘...दूसरे ही दिन दो आदमी भेजे गये मतिया को लाने के लिए। जाते वक्त मैंने एक लम्बी चिट्ठी लिखकर उन आदमियों को दे दी, यह समझाते हुए कि चिट्ठी पढ़कर सुनाना पड़ेगा तुम लोगों को, क्यों कि वह पढ़ी-लिखी नहीं है।
‘...चिट्ठी लेकर वे चले गये। पिता ने मोटी रकम उनके राह खर्च के लिए देदी। मतिया का बुलावा चला गया। अब जल्दी ही वह आ जायेगी...अपनी बन जायेगी..पूरे तौर पर...जीवन की गाड़ी उबड़-खाबड़ रास्ते से उठकर सही पटरी पर आजायेगी...सोच-सोचकर दिल की ज्वाला, सन्तोष के मरहम से कुछ-कुछ शान्त होने लगी। हालांकि घर स्थिति पहल जैसी ही बनी रही। कोई बदलाव न था।
‘...आदमियों को गये कई दिन हो गये। तीसरे दिन से ही पिता बारबार पूछने लगे- “ बहुत बीहड़ रास्ता है क्या...बहुत दिक्कत होगी उन लोगों को...कहीं रास्ता न भूल जायें...जंगल में कोई खतरा न हो जाय...।”
‘...हर बार पिता को समझाता रहा, किसी तरह की चिन्ता न करें। कोई ऐसी-वैसी बात नहीं होगी।
‘...समय सरकता गया...बीस दिन हो गये। मेरी चिन्ता बढ़ने लगी। दस दिन तक पिता बेचैन थे, और उसके बाद मैं। बाइसवें दिन आये वे लौट कर, मगर खाली हाथ, मुंह लटकाये हुए। पूछने पर जो भी जानकारी दी उनलोगों ने, सुनकर पैरो तले की धरती कांप गयी।
“कैसी बेवफ़ा से मुहब्बत की आपने मुन्ना बाबू ?”
“क्यों क्या हुआ ? ”- मेरे पूछने पर दो टूक उत्तर दिया उनलोगों ने मुंह बिचकाकर- “ जंगली-गंवारन क्या जाने प्यार मुहब्बत का मोल ! आपने उससे सच्ची मुहब्बत भले ही की हो, पर उसे इसकी परवाह थोड़े जो थी।”
“क्या बकते हो ? वैसा निश्छल प्रेम क्या कोई करेगा दुनियाँ में...।”- मेरे कहने पर बनावटी हँसी हँस कर कहा एक ने- “ निश्छल प्रेम आप कहें, क्यों कि आपने किया है, पर मुझे तो ऐसा नहीं लगता। वह वास्तव में गरजमन्द थी। आपको फंसाने के लिए झूठी मुहब्बत का ढोंग रचायी थी; और आपने अपने सूधेपन में उसे ही असली समझ लिया।”
‘...मेरा क्रोध भड़क उठा। मतिया की बेवफायी मुझसे सुनी न गयी। सूरज पूरब के वजाय पश्चिम में उग जाये, चांद गरम हो जाये, आग बरफ बन जाये...पर मतिया बेवफ़ा नहीं हो सकती, उसका प्रेम झूठा नहीं हो सकता...मतिया की मुहब्बत की गहराई तुम नहीं थाह सकते... अन्दाजा तुम्हें नहीं हो सकता... तुमलोग झूठ बोल रहे हो- मैं चीख उठा ।
“हर प्रेमी यही कहता है मुन्ना बाबू । अपनी महबूवा के विषय में, उसे इतना ही य़कीन होता है, क्यों कि वह प्रेम में अन्धा हुआ रहता है, किन्तु जब सच्चाई का सूरज निकलता है, और दुनियाँ का भोड़ापन सामने आता है, बेवफ़ाई का पर्दाफास होता है, तब पता चलता है। क्या आप हिम्मत करके उस सच्चाई का सामना कर सकते हैं?”
“तो क्या है सच्चाई कहते क्यों नही ?”- मैं चीख उठा।
“मतिया गर्भवती थी मुन्ना बाबू, इसी लिए आपको अपने जाल में फांस ली, अपना पाप आपके माथे मढ़ने के लिए...।”- उसका जवाब सुन मैं सन्नाटे में आ गया। सिर झन्ना उठा। उसका कहना अभी जारी ही था- “....संयोग वश इसी बीच आप मिल गये, भूले-भटकते, दौलतदार, एक खूबसूरत नवजवान होनहार...फिर मौके से क्यों चूकती ! प्यार का नाटक खेली, और आपने सच्चा प्यार समझ लिया। वचन दे दिया शादी के लिए। उसकी तो मुराद पूरी हो जाती। किसी और की हरामी औलाद के आप बाप कहलाते। उसे खोयी आब़रु मिलती, सिर उठाकर बड़े खानदान की बहु कहलाती। मगर भगवान को शायद यह अन्याय मंजूर न था। संयोग से आपको पुराना अखवार मिल गया, और इज्ज़त बचाने का मौका दे दिया ईश्वर ने...।”- आकाश की ओर हाथ उठाकर उसने कहा।
“आखिर वहां जाने पर मुलाकात भी हुयी या नहीं ? ” - मेरे पूछने पर कहा उसने- “ मुलाकात हो ही जाती तो क्या उस हरामजादी चुड़ैल को घसीट कर लिए न आता!”
“आंखिर वह है कहाँ- पता नहीं लगाया तुमलोगों ने ?”
“ लगाया, बहुत लगाया मुन्नाजी। इसी में तो इतना वक्त लग गया। ”- सिर हिलाकर कहा उसने- “ वहां पहुंचने पर पहले तो कुछ अतापता ही न चल पाया। बहुत खोजबीन करने पर मालूम चला कि दस-बारह दिन इन्तजार करती रही थी वह आपके आने का। फिर निराश होकर कहीं भाग गयी। आखिर पाप का कीड़ा कब तक छिपा रहता ? गांव वालों को भी कुछ सक-सुभा होगया था। काफी हो-हल्ला मचा। जान से मारने की तैयारी होने लगी। इसी बीच मौका देख एक रात भाग खड़ी हुयी।”
“ तो ऐसी कहानी गढ़ी उन चाण्डालों ने ?”- पलटनवां बाबू के मुंह से मतिया की बदनामी की कहानी सुन, ढोंके पर बैठी युवती के नथुने क्रोध के मारे फड़कने लगे-“ ओफ! दुनियां में कैसे-कैसे नीच-कमीने लोग होते हैं बाबू ! ”
“क्यों बात कुछ और है क्या ? क्या यह झूठी खबर दी गयी थी मुझे ?”- युवती के मुंह से मतिया और पलटनवां की कहानी सुनता युवक चौंकते हुए पूछ बैठा।
“झूठ और सच का निपटारा करने तो बैठी ही हूँ । ”-कहती हुयी युवती जरा गम्भीर होकर बोली- “ पहले तुम कह जाओ बाबू ! अपनी बात पूरी करो- क्या हुआ आगे ? ”
युवती के पूछने पर युवक तिलमिला सा गया। भूली यादें सामने आकर नाचने सी लगी। वापस आ, समाचार सुनाने में आदमयों का भयभीत होना, हकलाना, आवाज कांपना, थमना, सबकुछ का वजह साफ झलकने लगा। युवती की बातें नये संदेह को जन्म दे गयी। जरा ठहर कर कहा- “ तो सुन ही लो पूरी बात। आखिर कुछ होना रह नहीं गया था। पिता को फिर एकबार मौका मिला, किन्तु इस बार फटकारा नहीं, डांटा नहीं, सिर्फ व्यंग्य किया, जो फटकार और डांट से भी तीखा लगा। घनी मूंछों में मुस्कान छिपाये हुए बोले- “ कहता था न, अभी तक तुम्हारा बचपना गया नहीं है। प्यार करना और उसमें सफल होना इतना आसान समझे हो ! ठेस लगने पर लोग जमीन ताक कर चलने की आदत डालते हैं, पर तुम हो कि अभी आसमान ही झांक रहे हो।”
मैं मौन खड़ा था, पिता का भाषण सुनता हुआ। दिमाग में बवण्डर सा उठ रहा था। कुछ समझ न आया क्या करूँ, कहाँ जाऊँ। दिल के एक कांटे को निकालने के लिए दूसरे का सहारा लिया, वह भी अटक गया। चुभन दोहरी हो गयी। मुंह से आह निकल पड़ी- हाय मतिया ! तुमने भी दगा दी...।
पिता सपत्निक समझाने बैठे। एक बार, दो बार, चार बार नित्यप्रति कई दिनों तक यह क्रम चलता रहा। मैं विवेक हीन हो रहा था। कौन क्या कह रहा है, इसका जरा भी असर दिमाग पर न हो पा रहा था। आगे क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, इस घर में ही इसी तरह पड़ा रहूँ, जिन्दगी गुजार दूँ- तड़प-तड़पकर या फिर आत्महत्या कर लूँ- लाख सोचने पर भी कुछ पल्ले न पड़ रहा था।