अधूरीपतिया / भाग 15 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
(अधूरीपतिया / भाग 15 / कमलेश से पुनर्निर्देशित)
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धीरे-धीरे मेरी मानसिक स्थिति बिगड़ती गयी, और बनती गयी घर की स्थिति। परिवार का स्नेह और वात्सल्य काफी अधिक बढ़ गया मेरे प्रति। पिता व उनकी उस नयी पत्नी के पास अब समय ही समय था- जब भी होता, दोनों मेरे सिरहाने बैठ, उपदेशों का पिटारा खोल देते। कुछ मेरे कानों में पड़ता, कुछ नहीं भी। मेरी सुख-शान्ति और मनोरंजन का काफी ख्याल रखा जाने लगा। मेरी सेवा के लिए अलग से नौकरानी बहाल कर ली गयी। बिन मांगे चाय के चार-चार प्याले मेज पर आ टपकते, कब फल लेना है, कब दूध, कब नास्ता, कब भोजन, कब विश्राम...सब नियमबद्ध होने लगे, जब कि ये नियम ही मेरे लिए सबसे बड़ा ‘अनियम’ हो रहा था।

कभी पिता समझाते- “ स्वास्थ्य पर ध्यान दो बेटे। दूसरे दर्जे की दौलत यही है।” कभी कहते- “ घर है बेटे, माँ-बाप हैं, सम्पत्ति है। सब कुछ है- जो है सो तुम्हारा ही है। बुढ़ापे में तुम ही तो एकमात्र सहारा हो बेटे...अब मेरा क्या...।”

मुझे समझ न आता, अपने को भी क्या अपना समझने की जरुरत होती है! वह तो अपना होता ही है। चन्द दिनों पहले नौशा बनने वाला बाप इतनी जल्दी बूढ़ा कैसे हो गया ? और परिणाम होता- पिता की बातों का, मोह-जाल का कोई भी तन्तु मुझे बांध न पाता, कुछ भी असर न होता उनकी सहानुभूति और प्रेम-प्रदर्शन का।

माँ का अधिकार मांगने के लिए युवती ने कई बार आँचल पसारे, किन्तु मेरी समझ

से बाहर की बात है कि यह मां है, हो भी सकती है कभी। एक दिन तो क्रोध में यहां तक बक दिया मैंने- बाप की रखैल भी क्या कभी माँ का पवित्र पद पा सकती है? उस दिन से वह कभी सामने आयी भी नहीं। दो-चार दिनों तक पिता भी मुंह फुलाये रहे।

इसी तरह दिन गुजरते रहे। एक रात बड़ी विचित्र घटना घटी। कमरे में आराम से सोया था, बिलकुल गहरी नींद में। बहुत दिनों बाद उस रात आराम से सो पाया था, ऐसी गहरी नींद में। अचानक कुछ आहट पा आँखे खुल गयीं। कमरे में मद्धिम रौशनी थी, कहीं कुछ नजर न आया। किवाड़ ज्यों का त्यों भिड़काया हुआ था। सोचा यूं ही भ्रम हो गया है। फिर महसूस किया कुछ अजीब सा। आंखे खोलने पर कुछ दीखा नहीं।

रौशनी तेज कर दिया, उठ कर। मगर पांच मिनट भी न हुए होंगे कि एक साथ दोनों गुल। बिजली चली गयी थी शायद। लाचार हो, अन्धेरे में ही सोने की कोशिश करने लगा।

आहट फिर महसूस किया, साथ में फुसफुसाहट भी। संदेह हुआ चोर का, फिर ऐसा लगा मानों कमरे में ही कोई चहल कदमी कर रहा हो। जरा गौर करने पर पतली सी आवाज आयी कानों में- ‘ तुम्हें धोखा हुआ है...बहुत बड़ा धोखा...।’ आवाज विचित्र थी। लगाकि दूर किसी घाटियों में टकरा कर आवाज लौट रही हो कानों तक।

कानों में पड़ती आवाज के साथ ही वदन में फुर्ति आगयी। झट उठकर बैठ गया। बैठने पर मालूम पड़ा- आवाज कमरे से बाहर बरामदे में हो रही है। समझ न पा रहा था कि हो क्या रहा है। यह आवाज किसकी थी...कुछ पहचानी हुयी सी...फिर बाहर बरामदे में झांका...कहीं कुछ नहीं..।

पता नहीं अचानक क्या सूझा, अन्धेरे में टटोलकर, कपड़े बदला। खूँटी पर से बन्दूक उतारी, और किवाड़ खोल बाहर आ गया।

बरामदे में कोई चलता हुआ सा लगा। लम्बे डग मारते आगे बढ़ा। बाहर आने पर वह भी आगे-आगे बढ़ता हुआ लगा। मैंने पीछा किया, और आगा-पाछी में घर से बाहर... गली से बाहर...शहर से बाहर ...।

निकला सो निकला ही रहा...दिन-रात के बन्धन और बाधा से ऊपर उठ, पीछा करता रहा...किसका पीछा करता रहा...पता नहीं। यह भी मालूम नहीं कि कहां-कहां घूमा अब तक, कितने दिन घूमा- यह कहना तो और भी मुश्किल है। बस एक ही धुन रही, दिमाग में-मेरा कुछ खो गया है...पाना है उसे...ढूढना होगा जैसे भी हो...।

आज अचानक इस बीराने में तुम्हारी आवाज ने मुझे चौंका दिया। किसी की आवाज सुनकर चौंकने का अवसर बहुत दिन बाद आज मिला। खैर भेट हो गयी तुमसे तो अच्छा ही हुआ। मैं तो खो गया था। तुमने मेरा रास्ता सुझा दिया। मेरा क्या खोया है, यह भी भूल गया था। अब याद आगयी। ढूढने में आसानी होगी।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब तुम इतना कुछ कह गयी, सब जानती ही हो, तो यह भी निश्चित है कि तुम मुझे मेरी मंजिल तक पहुँचा सकती हो, क्यों ! आखिर वहां पहुँच कर ही तो पता चल पायेगा कि क्या सच में मेरे साथ धोखा हुआ है।’

“धोखा तो हुआ ही है बाबू। बहुत बड़ा धोखा। अपना ही अपने को ऐसा धोखा दे सकता है, ओफ जिसकी हद नहीं। ”- युवती कुचली नागिन सी फुफकार रही थी। बाबू हक्का-बक्का, युवती का मुंह देखने लगा। उसे कुछ समझ न आ रहा था कि यह सब क्या मामला है। गुजरे जमाने के सारे विम्ब उसके मानस के परदे पर एक-एक कर आते रहे, और विराट पुरुष के भयंकर शरीर में खोये अर्जुन की भांति वह अपने सही अस्तित्व की तलाश करता रहा। पर कुछ हासिल न हो सका। समझ न सका। आखिर यह रहस्यमयी युवती कौन है, जो मेरे बारे में सब कुछ जानती है। इतने समय के बाद भी अपने को छिपाये हुए है। परिचय देना नहीं चाहती। ओफ! क्या अब भी मेरी मंजिल मिल सकती है? पा सकता हूँ अपने सुख के साम्राज्य को...?’- सोचता हुआ युवक बिखरे बालों को और भी बिखेरने लगा। नोचने लगा। उठ कर पागलों की तरह घूमने लगा। बड़बड़ाने लगा। अचानक उसके दिमाग में कुछ बात आयी...।

यदि मेरे साथ सही में धोखा हुआ है, जैसा कि उस रात अन्धेरे में आहट मिली,

आवाज सुनायी पड़ी, और आज यह युवती भी कह रही है- यह सब सही है तो निश्चित है कि मतिया कहीं भागी नहीं है। आज भी मेरी प्रतीक्षा में आँखें बिछाये गुजरिया के जंगलों में भेड़ लिए घूमती होगी। हाय मेरी मतिया तुझे कहाँ ढूढूँ ?- -उसके मुंह से निकल पड़ा। फिर पलटकर युवती की ओर हाथ जोड़, गिडगिड़ाकर बोला- “कृपा करके मुझे गुजरिया जाने का रास्ता बतला दो...गुजरिया जाने का..यही है मेरी मंजिल...मैं पता लगाऊँगा...हाय मेरी मतिया..हाय मेरी मतिया... हाय मेरी मंजिल....।”

“अधीर मत होओ बाबू ! अधीर मत होओ। ”- युवती समझाने लगी, “ गुजरिया जाने का समय अब गुजर चुका है बाबू । अब नहीं रही वहां तुम्हारी मतिया। नहीं रही बाबू... भूल जाओ, अब गुजरिया जाने की बात...भुला दो उस बेगुनाह भोली लड़की को, जिसने तुम्हें प्यार किया...बेचारी नहीं जानती थी कि पापी संसार में प्रेम जैसी पवित्र चीज की कीमत बस इतनी ही है...तड़पन ही उसका उपहार है...मतिया तुम्हारी है बाबू, तुम्हारी ही रहेगी... पर तुम उससे मिल नहीं सकते...न वह तुम्हारी प्रतीक्षा ही गुजरिया में बैठी कर रही होगी अब...किन्तु फिर भी वह तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही है मारी-मारी फिरती हुई...यहाँ-वहाँ.. सारे ज़हां...।”

युवती की हर बात नये रहस्य और आशंका को जन्म दे रही थी। युवक समझ न पा रहा था, आखिर यह कहना क्या चाहती है- वह प्रतीक्षा नहीं कर रही है गुजरिया में और प्रतीक्षा कर भी रही है मारी-मारी- क्या मतलब है इसका?— सोचता हुआ युवक खीझ उठा। आवेश से भर कर फिर चीखा- “ फिर तुम बतलाती क्यों नहीं ? पहेली पर पहेली बुझाये जा रही है सिर्फ । मतिया मेरी है, और मेरी ही रहेगी सदा, फिर भटक क्यों रही है ? किसने उसे मजबूर कर रखा है मुझसे मिलने में ? भटक रही है तो कहाँ, क्यों, कैसे ? दुनियां भी कहीं भी हो तो उसे ढूढ़ निकालूँगा। तुमसे सिर्फ इतनी ही आरजू है मेरी कि यदि पता है तुझे तो मेरी मंजिल तक तू पहुँचा दे, या पहुँचने का रास्ता दिखा दे। ”- युवक हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा, युवती के सामने खड़ा होकर।

“मंजिल तक मैं पहुँचा दूं बाबू तुम्हें ? वाह ! अच्छा रहा तुम्हारा वादा। तुम तो मेरे

लिए पतिया लिखने बैठे थे न । मैंने कहा था न कि पतिया पूरी न कर पाओगे।”- युवती मुस्कुरायी।

“क्या पतिया-पतिया रट लगा रखी है ? किसकी पतिया ?”- युवक चीखा।

चट्टान पर रखे कागज और कलम की ओर इशारा करती, युवती बोली- “क्या इसे भी बतलाने की जरुरतहै ? भूल गये मतिया की पतिया...पलटनवां के नाम...क्यों ?”

“तुम मुझे बेकार ही उलझन में डाल रही हो। मतिया की पतिया लिखने का सवाल ही कहाँ रह गया- पलटनवां के नाम, जब कि पलटनवां तुम्हारे सामने बैठा तड़प रहा है मतिया के लिये, और तुम अच्छी तरह जानती हो यदि उसे, फिर पतिया लिखाने की बात क्यों कर रही हो? मतिया को ही मुझसे मिला क्यों नहीं देती, या मुझे बता देती कि वह कहाँ है?”

“छोड़ो बाबू ! फिजूल की बकने की तुम्हारी आदत है। उलझन मैं काहे को पैदा करुंगी, पैदा तो तुम कर रहे हो। बुद्धि से काम नहीं लेते, और खुद को बुद्धिमान भी कहते हो, और मुझपर दोष मढ़ रहे हो। रहने दो बाज आयी मैं तुमसे पतिया लिखाने में। अब मझे पतिया-वतिया लिखानी भी नहीं है। तुम मिल ही गये। सारी बात कह डाली तुमसे। मन हल्का हो गया मेरा..।”- युवती मुस्कुरा पड़ी। उसकी मुस्कान तीर सा बेध गयी युवक को जो साबित हो चुका था कि वही पलटनवां है, जिसके नाम अनजान युवती पतिया लिखवाना चाह रही थी।

युवक यानी पलटनवां एकाएक तड़प सा उठा। झपटकर उठा ली अपनी बन्दूक, और सीधे युवती की ओर निशाना साधते हुए रोष पूर्वक बोला- “सो सब बातें न बनाओ। मैं कुछ और नहीं चाहता। बहुत कहानी सुना चुकी तुम, और सुन चुका। तुमने वादा किया था मेरी मंजिल बतलाने का। तुमने कहानी में उलझाकर मेरा समय बरबाद किया। अब या तो मतिया का पता बतलाओ कि वह इस समय कहाँ भटक रही है, या फिर मेरी गोली खाओ।”

युवक पलटनवां का गुस्सा देख युवती फिर मुस्कुरायी। चट्टान से उठकर, खड़ी हो गयी। हड़बड़ी में उठने के कारण, उसके सीने से आँचल सरक कर नीचे जा गिरा। ऐसा उसने जानबूझ कर किया या गलती से हो गया, पर उसका परिणाम पलटनवां के लिए संदेह का नया दरवाजा खोल दिया। निशाना साधे बन्दूक की पकड़ बिलकुल ढीली पड़ गयी। वह एकाएक चमक सा उठा।

“हेंऽऽऽ यह क्या मामला है- यह जंजीर तुम्हारे गले में ? ”- युवक के लिए बड़े ही आश्चर्य की बात हो गयी। जंजीर पहचाना हुआ सा लगा।

“क्यों, नहीं होना चाहिए क्या?”- युवती फिर मुस्कुरायी। कुछ पल पूर्व उसके चेहरे पर उठी वनावटी भय की रेखायें मिट चुकी थी अब।

“इस जंजीर को तो मैंने विदा होते वक्त मतिया को पहनाया था...तुम...तुमने कहां से पाया इसे...?”- युवक का क्रोध फिर भड़क उठा। बन्दूक पकड़ी मुट्ठी फिर कस गयी। निशाना सीधा हो गया। घोड़ा दबने ही वाला था, कि उधर युवती कड़क उठी।

“शान्त हो जाओ बाबू मेरे, शान्त हो जाओ। इस तरह बात-बात में क्रोध को क्यों खर्च करके बरबाद कर रहे हो, इसे सम्भाल करके रखो, हो सकता है कभी जरुरत पड़ जाय। मैं पहले ही कह चुकी हूँ, फिर दुहरा रही हूँ- बुद्धि पर भरोसा करो, उससे काम लो। क्रोध से बुद्धि को ढको नहीं। तुम्हें अपनी ताकत या कहें अपनी इस बन्दूक कही जाने वाली लाठी पर जितना भरोसा है, उतना अपनी सगी बुद्धि पर नहीं। ”— मुस्कुराती हुयी युवती फिर से ढोंके पर बैठ गयी। उसका कहना अभी जारी था- “ शान्त होकर, बुद्धि लगाकर सोचोगे तो सारी बात समझ में आ जायेगी । यह भी मालूम चल जायेगा कि यह जंजीर मेरे गले में कैसे आयी...सही आयी या गलत आयी। मगर तुम तो सिर्फ क्रोध में अन्धे हो रहे हो।”- जरा ठहर कर युवती ने पूछा- “मतिया को तुम उजाले में भी सैंकड़ों बार देखे होओगे, या कि जंजीर पहनाते समय, ढिवरी की रौशनी में ही सिर्फ देख पाये थे ?”

युवक फिर भड़का- “क्या बकबक लगा रखी हो, तुम जान चुकी हो कि मतिया के

साथ जंगल-पहाड़, नदी-झरना सब घूमा, महीनों साथ रहा, फिर सूरज की रौशनी और ढिबरी की बात करती हो जाहिलों की तरह।”

“जाहिल तुम लग रहे हो बाबू । सच कहो, क्या तुम मतिया को ठीक से पहचानते हो ? यदि मतिया तुम्हें मिल जाय, जिससे बेइन्तहा मुहब्बत करते हो, इतनी बेसबरी से ढूढ़ रहे हो, तो क्या सही में पहचान लोगे ? जरा ठण्ढें दिमाग से सोंच कर बतलाओ बाबू । क्रोध थूक दो।”

“फिर फालतू की बात। मैंने कहा न, और जैसे भी हो तुम भी जानती हो- मतिया मेरी जान है, उसने ही मेरी जान बचायी है। उसके साथ, उसके गांव में महीनों गुजारा हूँ। नाच-गान में साझीदार रहा हूँ। शंकरदेव को साक्षी मानकर अंगूठी पहनाया हूँ। जिसके वियोग ने मुझे पागल से भी बदतर बना दिया, क्या उस मतिया को मैं पहचान नहीं पाऊँगा? जंजीर पहनाते समय भले ही रौशनी ढिबरी की रही हो, इससे क्या फर्क पड़ता है।”

“मैं फिर दावे के साथ कह सकती हूँ कि तुम मतिया को नहीं पहचानते हो बाबू, बिलकुल नहीं पहचानते हो।”- युवती ने आवेश में कहा- “तुम मतिया के रुप को पहचानते हो, उसके मांसल देह को पहचानते हो, परन्तु मतिया को नहीं पहचानते। यदि मतिया को सही में पहचानते होते तो आज इस जंजीर को मेरे गले में देख कर चौंकते नहीं, और न बन्दूक का निशाना साधते।”

“तो क्या तुम मतिया ही हो ? ऐसा कैसे हो सकता है ? क्या मेरी आँखे फूट गयी हैं, या ‘माड़ा’ छा गया है ? क्या मैं सही में पागल हो गया हूँ, जो अपनी प्राणप्यारी को भी नहीं पहचान पा रहा हूँ ?”- युवती की ओर गौर से देखते हुये युवक ने कहा, और धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगा।

“नहीं बाबू नहीं। न तो तुम्हारी आँखें फूटी हैं, न इनमें माड़ा छाया है, और तुम पागल ही हो। समय का फेर है बाबू ! बस समय का फेर है, जिसने बुद्धि वाली आँखें छीन ली हैं तुम्हारी। मैंने कहा न कि तुम सिर्फ मतिया के मांसल देह को पहचानते हो, रुप को पहचानते हो।”

जरा पास आकर युवक ने गौर किया, फिर बोला- “ साफ कहती क्यों नहीं, क्या तुम वही मतिया हो...वही मतिया...मेरी प्राणेश्वरी...नहीं..नहीं...यह कैसे हो सकता है...मेरी आँखें इतना धोखा कैसे खा सकती हैं...मेरे कान इतने दगाबाज कैसे हो सकते हैं, जो अपनी प्रिया के मधुर कोकिल स्वर को पहचान न पा रहे हों....? आह! वह मधुर रागिनी...वह विरह गीत...वह...नृत्य...।” युवक की विचित्र हालत हो रही थी। कभी आगे बढ़ता, कभी पीछ मुड़ जाता, कभी उठ कर खड़ा हो जाता, कभी बैठ जाता। कभी घुटने के बल, कभी घुटनों पर हाथ रख कर, झुककर युवती का मुंह निहारने लगता।

“मधुर रागिनी, विरह गीत सब याद है, पर मतिया का असली चेहरा याद नहीं है, याद है सिर्फ उसका खोल...बाहरी खोल...क्यों बाबू यही बात है न ?”-युवती व्यंग में बोली, जिसे सुनकर युवक की उलझन और बढ़ गयी।

“मैं कैसे कहूँ कि मुझे याद नहीं है मतिया ! मतिया तो मेरे रग-रग मे समायी हुयी है। रोम-रोम में मतिया का प्यार बसा है। लहू की हर बूंद में, दिल की हर धड़कन में, सांस के हर कण में मतिया ही मतिया है...।”

“ऐसा यदि होता तो खोजने-पहचानने में इतनी दिक्कत न होती बाबू।”

“पूछ तो रहा हूँ, क्या तुम वही मतिया हो, जो रुप-श्रृंगार बनाने में माहिर है ? फिर कोई नया रुप बनाकर मुझे, मेरे प्यार की जांच करने तो नहीं आयी हो ?”- कहता हुआ युवक थोड़ा और समीप गया। बुदबुदाते हुए- “ इस लड़की की हर बात बड़ी अजीब हो रही है, कुछ समझ नहीं आरहा है।”

इस बार युवती मुस्कुरायी, पर गम्भीर भी बनी रही।अपने होंठों को कुछ खास अन्दाज में सिकोड़ी, जो बाबू को जाना-पहचाना सा लगा, फिर बोली- “हाँ बाबू ! मैं वही मतिया हूँ, जिससे तुमने वादा किया था, जिसे तुमने वचन दिया था, जिसे तुमने अंगूठी पहनायी थी, जिसे तुमने जंजीर पहनायी थी, जो तुम्हारे इन्तजार में आँखे बिछाये रही। मगर वह मतिया हूँ जिसे तुमने कभी देखा नहीं, जिसे अब पहचानने से इन्कार कर रहे हो। मैं वही मतिया हूँ, परन्तु अब तुम्हारी रह कर भी तुम्हारी नहीं हूँ। मुझे तुमपर पूरा अधिकार है बाबू, पर तुम्हारा मुझ पर कोई अधिकार न रहा अब...।”

युवती अपने को मतिया कह रही है, मगर उसकी रहस्यमय बातें समझ से परे हैं। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है ! अधिकार-अनधिकार का सवाल क्यों? क्या इस पर किसी और ने अधिकार कर लिया...क्या किसी और की हो गयी...फिर अपना अधिकार ज्यों का त्यों क्यों कह रही है...?- अनिश्चय में उलझन स्वाभाविक था। युवक फिर खीझ उठा।

“तुम्हारी बातें सच में अजीब है। ऐसा कैसे हो सकता है- मुझे जरा भी विश्वास नहीं होता, कि तुम वही मतिया हो। वह रुप..वह रंग...कुछ भी तो नहीं। तुम किसी तरह उस मतिया के गले से जंजीर हड़पने में सफल हो गयी हो, वे सारी गुप्त बातें भी जान गयी हो, और अब खुद को मतिया कहकर मेरा प्यार पाना चाह रही हो।”- क्रोध और झल्लाहट में युवक ने कहा, जिसे सुनकर युवती का चेहरा कुछ बदरंग पड़ गया, क्षणभर के लिए। मानों इस लांछना का बहुत दुःख हुआ हो उसे।

होंठ काटती हुयी, नजरें घुमार, युवक की ओर देखी, फिर उदास, धीमी आवाज में बोली- “नहीं बाबू, नहीं। तुम्हारा इल्ज़ाम गलत है। न तो मैंने इस जंजीर को किसी से छीना है, और न गुप्त बातें ही जानी-सुनी है किसी से, किन्तु तुम्हरा सच्चा प्यार पाने की लालसा जरुर है मेरे मन में, परन्तु पा नहीं सकती— यह भी तय है। और यह भी तुमने ठीक ही कहा बाबू कि न वह रुप है, न वह रंग...।”

युवती की बातों से युवक की उलझन घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही थी। कुछ सोच-समझ न पाने के कारण, सिर झुका कर, शिला पर पहले की भांति शान्त बैठ गया, और बांयी कनपटी में अंगुली से ठोकर मारते हुए होंठ चबाने लगा।

“सोचते क्या हो बाबू ! तुम्हारे लाख सोचने पर भी हल मिल न सकेगा। ”

“तो फिर तुम्हीं क्यों नहीं सुलझा देती, कहो तो पैर भी पड़ लूँ।”- युवक को शिला से उठकर अपनी ओर लपकेते देख, युवती सकपका गयी।

“अरेऽरेऽरेऽ...यह क्या, बैठो बाबू ! पैर मेरा पकड़कर पाप न चढ़ाओ!”

हाथ के इशारे से युवक को बैठे रहने का संकेत किया। युवक बैठ गया। युवती हँस कर बोली- “ कभी तो बाबू तुम इतने नरम हो जाते हो कि पैर पकड़ने लगते हो, और कभी इतने गरम कि बन्दूक तानने लग जाते हो। सच में क्रोध के हाथों अपनी बुद्धि को बंधक रख छोड़े हो। तुम्हें अपनी बन्दूक-गोली पर जितना भरोसा है, उसका हजारवां भाग भी मेरी बातों पर नहीँ। सच पूछो तो तुमने अभी मतिया की पूरी कहानी सुने ही कहां हो। पूरी बात अभी जाने ही कहां हो। यदि यह जान जाते कि तुम्हारे वापस जाने के बाद मतिया के साथ क्या हुआ, कैसा हुआ, क्यों हुआ, तो इन सारे सवालों का जवाब, खुद-ब-खुद मिल जाता बाबू ; और इतनी उलझन में पड़ने की जरुरत भी न होती।”

“तो फिर जल्दी से सुनाती क्यों नहीं मेरी मतिया की पूरी कहानी, यदि तुम्हें मालूम ही है? आंखिर तुम्हें मिल क्या रहा है, मुझ अभागे को इतना तड़पाने में?”- युवक ने हाथ जोड़कर निवेदन किया।

“बतलाने का मौका दो तब न बाबू ! तुम तो दूसरा ही पचरा गाने लगते हो, कभी बन्दूक तानते हो, कभी कुछ...।”-जरा ठहरकर युवती बोली- “ठीक है, अब जरा ध्यान से, धीरज रखकर सुनो मेरी बातें।”-युवती ने आगे कहा- “उस दिन तुम चले गये, सो चले गये, मगर के दिल में, अरमानों के अनगिनत दीप जला गये, जिसकी रखवाली अपना आँचल पसार कर वह करती रही। तुम्हारी याद में उसका सब कुछ भूल सा गया। ऐसा लगा, मानों मतिया का सिर्फ शरीर ही पड़ा रह गया गुजरिया में, उसका मन-प्राण तो बाबू तुम्हारे साथ ही चला गाया। जाते वक्त तुमने कहा था- घर पहुँचने में तीन-चार दिन लगते हैं। चार दूना आठ, और फिर उसके दो-तीन दिन बाद से ही राह देखने लगी। बड़ी देर तक भेड़ लिए उस नाले पर बैठी रहती, जिधर से रास्ता है कस्बे का। सूरज भाग जाता पहाड़ों में, तब घर लौटती। नानी टोकती, क्यों इतनी देर लगा देती है आजकल, पर, बेचारी क्या कहती कि क्यों देर लगा रही है रोजदिन। इसी तरह एक दिन इन्तजार करती, बुरी तरह भींग गयी वारिश में। गोंगो ले जाना भूल गयी थी। भींगती रही और बैठी रही। इन्तजार करती रही। सोचती रही- बाबू भी भींगता हुआ आयेगा, यदि रास्ते में होगा। उस दिन मतिया खूब भींगी, खूब, जिसका नतीजा हुआ कि रास्ते में ही जोरों का बुखार चढ़ आया। किसी तरह कांपती-हांफती घर पहुंची।

“....दो दिन बुखार में पड़ी रही। नानी कहती थी- तुम बुखार में भी हमेशा बड़बड़ाती रहती थी, न जाने क्या-क्या। सिर्फ यही समझ पायी थी बाबू ! लौट आओगे न ? तीसरे दिन सारे वदन में दाने निकल आये। फिर वे दाने भी दाने न रहे, बढ़ते-बढ़ते फफोले जैसे हो गये। नानी भाग कर दादू को बुला लायी। देखते ही दादू घबरा उठे- अरे यह तो माताजी हैं।”

“ऐंऽ..मतिया को भयंकर चेचक हो गया था मेरे जाने के बाद? ”- युवक चौंक कर खड़ा हो गया। गौर से देखा युवती की ओर, जिसके पूरे वदन पर चेचक के गहरे-गहरे दाग थे। ये दाग ही अबतक युवक के मन में आकर्षण के बावजूद क्षोभ, घृणा और संदेश के कारण बन रहे थे। उसने अफसोस जाहिर करते हुये कहा- “ तो अब आयी बात समझ में। ओफ! इतनी देर से सही में मेरी आँखें फूटी हुयी थी। अब जरा भी शक की गुंजायस नहीं। निश्चित ही तुम मतिया ही हो...वही मतिया...मेरी मंजिल..मेरी...।”- चौंककर खड़ा, युवक एकाएक लपका बाहें पसार कर, सामने बैठी युवती की ओर, “ मतिया! मेरी रानी!...।”

युवती इस स्थिति को शायद पहले से ही भांप चुकी थी। ज्यों ही युवक चौंका, उसी क्षण वह चट्टान से उठ खड़ी हो गयी। युवक को आगे बढ़ता देख, दो-चार पग पीछे होकर, लगभग चीख उठी- “ होश में रहो बाबू होश में। मतिया को देखकर मदहोश मत होओ। पहले तुम मेरी पूरी बात तो सुन लो, फिर आगे बढ़ना। अभी तो तुम बन्दूक तान रहे थे, मेरे सीने पर, और अब लिपटने को आतुर हो रहे हो।”

युवक आगे बढ़ा, युवती फिर कड़की- “ मैं कहती हूँ, वहीं चुप खड़े रहो, आगे मत बढ़ो।”

आगे बढ़ता युवक रुक गया। फैली बांहे पसरी ही रही। मतिया समा न सकी। युवक गिड़गिड़ा कर बोला, ” मुझे माफ कर दो मतिया, माफ कर दो। सच में मैंने तुम्हें इस दशा में पहचाना नहीं। तुम ठीक कहती हो- मैं मतिया को नहीं, बाहरी खोल को पहचानता हूँ, मांसल देह को पहचानता हूं, असली मतिया को नहीं...। आह मेरी मतिया...मेरी प्राणेश्वरी ...चेचक ने तुम्हारे चेहरे ही नहीं, पूरे शरीर को इस कदर बदल दिया है कि मैं क्या, कोई भी शायद ही पहचान सके। तुम्हारी आवाज भी तो पहले जैसी नहीं है...फिर मेरे पहचानने का सवाल...मुझे दोष न दो मतिया...माफ कर दो....।”

“मैंने कहा था न बाबू, तुमने उस रुपवती मतिया को पहचाना है, उसीसे प्रेम किया है, उस जवानी से, उस खूबसूरती से, उस देह से, मतिया से नहीं....असली मतिया को पहचानते होते तो इस कदर धोखा न खाते, जो घंटो से तुम्हारे सामने बैठी है, और उसे पहचानने से इनकार कर रहे हो। ऊपर से झूठा इलज़ाम भी लगा रहे हो। मंजिल पर पहुँच कर भी मंजिल ढूढ़ रहे हो।”- कहती हुयी युवती खड़ी ही रही। युवक अधीर, बच्चे की तरह आगे बढ़ा। युवती फिर दो पग पीछे सरक गयी, और कड़क कर बोली- “मैं फिर कहती हूँ, वहीं रुक जाओ, अभी मेरी बात पूरी नहीं हुयी है। सुन लो पहले, जान लो सबकुछ, फिर आगे बढ़ने न बढ़ने की सोचना।”

“मुझे और न तड़पाओ मतिया। पहले ही बहुत तड़प चुका हूँ। आजाओ मेरी बाहों में। कहानी तो बाहों में समेटने के बाद भी सुनी जा सकती है, सोची जा सकती कि आगे क्या करना है। सच में मैं बाहरी सौन्दर्य पर मंडराता रहा...।”

युवती मुस्कुरायी- “जिस रुप को तुमने चाहा, प्यार किया, वह तो अब रहा नहीं बाबू। फिर इतने अधीर क्यों हो रहे हो? और सच पूछो तो तुम अभी जान ही कहां पाये हो कि तुम्हारे साथ क्या धोखा हुआ, किसने दिया धोखा...।”

“नहीं मतिया नहीं। अब रुके रहना मेरे बस की बात नहीं। पहले मेरी बाहों में समा

जाओ, फिर आगे की बाते होंगी। धड़कते, बेताब दिल को सुकून मिल जाय, फिर बाहों में पड़ी-पड़ी सुनाती रहना, जितना सुनाना हो। फिर मैं कुछ न कहूँगा, टोकूंगा।”

“परन्तु यह असम्भव है बाबू ! बिलकुल असम्भव। पहले तुम्हें मेरी बातें सुननी ही होंगी।”- निराश हो युवक धब्ब से नीचे जमीन पर ही बैठ गया, जो कि अबसे पहले ढोंके पर बैठा हुआ था।

“यही जिद है तुम्हारी तो सुना डालो जल्दी, संक्षेप में ही।”

“थोड़ा ही तो रह गया है।”-युवती बैठी नहीं। खड़ी-खड़ी ही कहने लगी- “हां, तो मैं चेचक की बात कह रही थी...सप्ताह भर तक उसी हालत में पड़ी रही। गले से दूध भी जाना दूभर हो गया। किसी तरह दादू के उपचार, नानी की सेवा, और बाबा शंकरदेव की दुआ से बारहवें दिन ठीक हुयी... कुछ-कुछ खाने-पीने लगी। घाव धीरे-धीरे भरने लगे। मगर क्या भरे, समझो कुछ नहीं भरा, बस यही समझो कि घाव के छेद से रिसता हुआ पानी सूख गया, और मक्खियों का भिनभिनाना कम हो गया। वदन को कपड़े से ढांप, बाहर ही ढाबे में पड़ी रहती। गोरखुआ सुबह-शाम आकर घंटो बैठता। गान्ही बाबा और सुराज की बातें सुनाकर जी बहलाता, मेरा और अपना भी। कभी तुम्हारी याद करके, आंसू की बूंदे गिराता, और निराश होकर कहता- बाबू नहीं आयेगा क्या मतिया ! कहा था मां से भेंट कर, तुरत आजाने को। आज तीन सप्ताह हो गये। मैं जाऊँ क्या पता लगाने ?

“नहीं गोरखु अभी कुछ दिन और देख लो। बाबू अपनी बात का धनी है। वचन का पक्का है, मुझे भरोसा है- वह जरुर आयेगा। भूलेगा नहीं हमलोगों को।– इसी तरह की बातें होती रहती। कभी मन घबराने लगता तो रोने लगती। बेचारा गोरखु समझाता- ‘रोओ मत मतिया, रोने से क्या होना है। बाबू ने कहा है तो जरुर आयेगा।’ नानी भी घबरा रही थी। गांव वाले कुछ का कुछ कह रहे थे, जिससे बेचैनी और बढ़ रही थी।

“...सोचते-विचारते तेइस दिन हो गये। उसी दिन की बात है। दोपहर का समय था। नानी सुबह ही निकल गयी थी जंगल की ओर। हमेशा की तरह गांव के बाकी लोग भी अपने-अपने काम पर निकल गये थे। मैं अकेली ढाबे में चटाई पर पड़ी थी। बगल में खूंटे से बंधी भेड़ घास चर रही थी। जब से मेरा बाहर निकलना बन्द हुआ था, उस अभागिन को भी खूंटे से ही बंधा रहना पड़ा।

“...खाना तुरत खायी थी, वदन में सुस्ती लग रही थी। आंखें बन्द किये नींद के इन्तजार में थी, तभी कानों में आवाज आयी, “कौन सोया है ?” आंखें खुली तो झट उठ बैठी। देखती हूँ कि दो बाबू ढाबे के बाहर खड़े हैं। देखने में शहरी मालूम पड़े। पहरावा कोई खास अमीराना नहीं था। उम्र भी कोई ज्यादा नहीं, यही कोई गोरखुआ के बराबर रहा होगा। उन्हें देख कर मन में उत्सुकता जगी।

“क्या बात है, किसे खोज रहे हैं आपलोग ?”- मेरे पूछने पर एक ने कहा- “ गुजरिया गांव यही है न? ”

“हां बाबू यही तो है। क्यों, क्या बात है ? किससे मिलना है? ”- पूछती हुयी मैं उठकर खड़ी हो गयी।

“ओफ मिला तो सही। लगता था...।” – कहता हुआ उनमें एक बाबू अचानक सम्भल गया, दूसरे के इशारे पर। बात बदल कर बोला- “ यहीं एक जरुरी काम है। यहां पर एक लड़की रहती है, जिसका नाम ....।” फिर दूसरे के चेहरे पर देखा। बात दूसरे ने पूरी की-“लड़की का नाम मतिया है।”

“मतिया ! क्यों बाबू मतिया से क्या काम है ?”-अपना नाम उनके मुंह से सुन चौंक पड़ी मैं। हो न हो पलटनवांबाबू का ही कुछ संदेशा लाये होंगे ये दोनों। चहकती हुयी बोली- “मतिया तो मेरा ही नाम है बाबू । आओ भीतर आओ ढाबे में। कहो क्या बात है?”

मेरे मुंह से मेरा नाम सुन, एक दूसरे को फिर देखा दोनों ने। एक ने कहा- “बड़ी खुशी हुयी तुमसे मिलकर। असल में हमलोग बाबू के साथ आये हैं।”

“तब...क्या हुआ...कौन बाबू..कहां रह गया वह बाबू?”- मैं हड़बड़ा गयी।

“वही बाबू, क्या कहती हो तुम उसे पलटनवां...याद आया नाम....।”- एक ने कहा।

“तो क्या हुआ मेरे पलटनवां बाबू को, जब साथ आ रहे थे...?”- मैंने घबराकर पूछा।

“हुआ कुछ नहीं। तुम इतना घबराओ मत। बाबू ठीक से हैं। उधर आकर नाले पर बैठे हैं, तुम्हारे इन्तजार में। हमलोगों को तुम्हें लिवा लाने को भेजा है।”

मैं खुशी से नाच उठी, किन्तु आश्चर्य हुआ कि इतनी दूर से आकर, बाबू यहां न आकर, उधर नाले पर क्यों बैठा है !

मेरे चेहरे के भाव को शायद समझ गये वे दोनों। बिना कुछ पूछे ही बोले- “तुमसे कुछ जरुरी मसविरा करनी है। हमलोगों के यहां रिवाज है कि शादी तय हो जाने के बाद, बिना वारात लिये दुल्हा दुल्हन के गांव में नहीं जाता, और वारात लाने से पहले तुमसे मिलना भी जरुरी है, इसीलिए आकर उधर नाले के पास इन्तजार कर रहा है, गांव से बाहर ही।”

बारात लाने की बात सुन कर मैं लाल पड़ गयी लाज के मारे। खुशी से पागल सी हो गयी। कुछ सूझा नहीं। यह भी भान न रहा कि मेरे ससुराल से ये लोग पहली बार आये हैं, मेरे यहां। इनका स्वागत-सत्कार करना चाहिए। ये भी भूल गयी कि मैं इतनी बीमार हूँ। चल-फिर नहीं सकती। खुशी में इतनी बेसुध हो गयी कि चट खोली खूंटे से भेंड़ को, और चल दी उनके साथ- ‘तो आपलोग जल्दी चलें, बाबू को बहुत इन्तजार नहीं कराना चाहिए।’

मेरे कहते ही उन दोनों ने एक-दूसरे से आंखें मिलायी। शायद कुछ बातें भी हुयी आँखों ही आँखों में, और चलते हुए कहा एक ने- “हां-हां, चलो, वहीं ले चलने तो आया हूँ।”

दोनों बाबू चल पड़े। मैं भी उनके साथ धीरे-धीरे चलने लगी, भेड़ की रस्सी थामें। मन में ऐसी उमंग भर गयी थी मानों पैरों में पंख होते तो उड़कर चल दी होती। उनके साथ धीरे-धीरे चलने में ऊब हो रही थी। लगता था जल्दी पहुंच जाऊँ बाबू के पास, लिपट पड़ू अपने पलटनवां बाबू से, मगर नाले की दूरी लगता है कि बढ़ गयी थी उस दिन।

मन में तरह-तरह की बातें सोचती लम्बे-लम्बे डग भरती चल रही थी। बीच-बीच में उन लोगों से कुछ पूछ-जान भी लेती। कभी कुछ वे ही कह पूछ लेते। पहुँचने में देर जरुर हो रही थी, पर मेरा मन तो पहले ही नाला पार होकर ढूढ रहा था अपने पलटनवां बाबू को।

अन्त में नाला आया। उन दोनों बाबुओं के साथ भेड़ को लिए मैं भी नाले के पार आयी। थोड़ा आगे बढ़ी तो उन लोगों ने कहा- “यहीं तो चट्टान के पास बैठे रहने को कहा था, किधर निकल गये? ” फिर आवाज लगाने लगे- वो अमरेश बाबू ओ बाबू आ गयी तुम्हारी मतिया रानी।”

मैं भी चिल्लाई- आगयी हूँ पलटनवां बाबू, आगयी मैं।

मेरा चिल्लाना था कि चट्टान के उस पार से दो आदमी और निकल कर बाहर आये। लिबास उन दोनों जैसा ही था। अन्तर सिर्फ यही कि वे जरा इनसे ज्यादा तगड़े थे। मूंछें भी बड़ी-बड़ी ऐंठी हुयी थी। आंखें लाल-लाल अंगारों सी, सूरत कुछ काली, जिसे जान बूझ कर कुछ अधिक काला बनाया गया था- ऐसा मुझे लगा।

“मैं भी आगया हूँ।”- कहा उन दोनों नये आने वालों ने एक साथ, तौ मैं चौंक पड़ी। खुशी भय में बदल गयी। गौर से देखते हुए बोली- तुमलोग कौन हो?

मेरा पूछना था कि वे दोनों गरज उठे- तुम्हारा बाप !

इसके साथ ही मैंने देखा- दोनों ने अपनी कमर से लम्बा-लम्बा नेजा निकाला, बिलकुल चमचमाता हुआ नेजा, और एक साथ टूट पड़े मुझ पर। मैं डर कर चीख उठी। भागने लगी। तभी पहले आये में से एक ने धर दबोचा। डर के मारे बेचारी भेड़ मिमियाने लगी थी। साथ आये दूसरे बाबू ने क्रोध में आकर उसे भी धर दबोचा, और उठाकर पटक दिया झटके से सामने की चट्टान पर। बेचारी भेड़ एक मार में छटपटाकर दम तोड़दी। मैंने देखा उसके मुंह और नाक के छेदों से लहु का कतरा बाहर निकल कर फैल गया है। प्यारे भेड़ की यह दुर्दशा देख मेरा कलेजा कांप उठा, लगा कि फट पड़ेगा। किन्तु क्या होना था- उसे तो फटना ही था।

भेंड़ को पटक, छुट्टी पा वह खड़ा तमाशा देखने लगा। एक ने मुझे कस कर पकड़ लिया, छटपटा भी न सकी। दूसरे ने अंधाधुंध गोदना शुरु किया मेरे जिस्म को उस नेजे से। फिर सबसे पहले पैर काटे, फिर हाथ काटा, और अन्त में धीरे-धीरे रगड़ कर गर्दन...लगता था औजार भोथरा गया हो...गर्दन पर नेजा फेरते हुए मेरे चेहरे पर थूक कर कहा था उसने, जो होश खोने से पहले, जरा सी गयी आवाज कानों में- ‘हरामजादी प्रेम भी करने बैठी थी तो बाबू से...अपना चेहरा तो देख लिया होता....।’

“ओफ बन्द करो, बन्द करो इस कहानी को, मुझसे सुना नहीं जाता...।”- अपने कानों को बन्द करता हुआ युवक चीख उठा।

“कहानी तो खत्म ही हो गयी बाबू ! खत्म हो गयी मतिया और खत्म हो गयी उसकी कहानी भी। नेजे से जमीन खोदकर वहीं गाड़ दिया शैतानों ने। मारते वक्त ही एक ने चमकती अंगूठी निकाल ली थी, किन्तु कपड़ों के भीतर छिपा होने के कारण इस जंजीर पर शायद नजर न गयी उनकी, और मेरे साथ ही दफन होगया यह लोलक भी।”- कहानी पूरी करती युवती का ध्यान युवक की ओर गया। युवक लुढ़क पड़ा था एक ओर। शायद उसे गश आ गया था, किन्तु उसे गिरा देखकर भी युवती आगे बढ़कर उठाने की कोशिश न की। चुप खड़ी देखती ही रही।

थोड़ी देर में युवक को होश आया। हड़बड़ाकर उठ बैठा। हांफते हुए बोला- “तो क्या मतिया मर ही गयी ? मार ही डाला उन चाण्डालों ने ?”- युवक की आवाज कांप रही थी। गला भर आया था। वदन में थरथराहट हो रही थी। चट्टान पकड़ कर उठने की कोशिश की, पर उठ न सका।

“हां बाबू मार ही डाला दुष्टों ने तुम्हारी मतिया को। इतने के बाद भी क्या तुम्हें संदेह ही रह गया है ? ”- आंचल सम्भालती युवती बोली।

“मतिया जब मर ही गयी तो तुम कौन हो ?”- युवक चीखा। युवती मुस्कुराती, खड़ी रही।

“मैं कहती थी न बाबू ! पहले पूरी कहानी सुन लो, फिर लिपटने की बात करना।”

युवक पत्थर की मूर्ति की तरह जड़ बना, उसे देखता रहा, फिर उठने की कोशिश की। लगता था- युवती की बातें उसके कानों में पड़ ही न रही हों।

एकाएक उठकर खड़ा हो गया। दोनों हाथ फैला, युवती की ओर दौड़ा- “ नहीं...ऐसा नहीं होसकता...मतिया मर नहीं सकती..तुम यह झूठ कह रही हो...मुझे सताने के लिए...क्यों कि मैंने आने में देर किया...मुझे और परेशान न करो रानी...आ जाओ...समा जाओ मेरी बाहों में...।

युवक को आगे बढता देख, युवती सम्भल गयी। जल्दी से पीछे खिसक गयी, युवक अधीर होकर और आगे बढ़ा झपटकर- “माफ करदे मतिया माफ कर दे मुझे...।सही में मैंने पहचाना नहीं था तुझे...।”- वह बकता रहा, युवती ने जरा भी ध्यान न दिया उसके बकवास पर। देखी कि अब नहीं मानेगा, झपट कर पकड़ ही लेगा, तब पीछे खिसकना छोड़, उसी ओर मुड़कर भागने लगी। युवक भी पूरी रफ्तार से पीछा करने लगा। झाड़-झंखाड़ की परवाह किये वगैर युवती भागती रही। युवक भी भागता रहा पीछे-पीछे- “मतिया...मेरी मतिया...।”

युवती की आवाज आयी- “ मेरे पीछे मत भागो पलटनवां बाबू ! मतिया अब तुम्हें नहीं मिल सकती कभी नहीं...।”

“नहीं रह सकता तुम्हारे बगैर...नहीं रह सकता मतिया...नहीं रह सकता..रुक जाओ ...ठहर जाओ...समा लेने दो अपनी प्यासी बाहों में...।”- अधीर होकर चिल्लाता युवक पीछे भागता ही रहा। झाड़ियों में फंस कर कपड़े चिथड़े-चिथड़े हो गये। वदन लहु-लुहान हो गया, पर इसकी परवाह किये वगैर उसका भागना जारी रहा मतिया के पीछे। उसे दीख रही थी सिर्फ अपनी मंजिल जो पास रह कर भी दूर थी।

हाथ हिलाती, अस्त-व्यस्त कपड़े सम्भालती युवती भी भागी जा रही थी।साथ में भेड़ भी उसी रफ्तार से भाग रहा था। युवक की हालत पर उसे जरा भी रहम न था। आवाज गूंज रही थी जंगल में पहाड़ों से टकरा-टकरा कर- “वापस चले जाओ पलटनवां बाबू..वापस चले जाओ...मतिया अब नहीं मिलेगी तुम्हें...नहीं मिलेगी...।”

युवती की बातों का कुछ भी असर युवक पर न हो रहा था। हांफता, चिल्लाता, दौड़ता भागा जा रहा था, पकड़ने को अपनी प्राणप्यारी मतिया को- “मतिया...मेरी मतिया...मेरी रानी...आजाओ मेरी बांहों में...समा जाओ मेरी बांहों में...।”

युवती भागती रही, युवक पीछा करता रहा।

सच कहा गया है- इन्सान को अन्धा बनाने वाली बहुत सी चीजें हैं दुनियां में। भविष्य की रंगीन कल्पना और प्यार की कसक-चसक भी एक उपादान है, और उसने युवक को इस कदर जकड़ रखा है कि पथ का कोई भी अवरोध उसे दीख न रहा है, सूझ न रहा है। उसकी बेचैन अन्धी आँखें आगे भागती चली जा रही युवती पर टिकी है। समीप में क्या है, यह दीख न पा रहा है। हृदय की हर धड़कन, फेफड़े के प्रत्येक आकुंचन-प्रकुंचन से मात्र एक ही स्वर निकल रहा है- मतिया...मतिया...।

आगे एक बड़े से रोड़े से टकराया। भागते पांव उलझ गये एक जंगली लता से, मानों पांव पकड़कर लता निवेदन कर रही हो- मत जाओ बाबू! आगे मत जाओ। नहीं मिल सकती मतिया अब तुम्हें। नहीं मिल सकती तुम्हें तुम्हारी मतिया, क्यों कि तुममें और उसके बीच एक अथाह दूरी बन गयी है...एक गहरी खाई बन गयी है, जिसे तुम अपने प्यार की प्यास से पाट नहीं सकते। अशरीरी और शरीरी का फर्क आ गया है। इन दोनों का आपस में मिलन कैसे हो सकता है...क्यों कर हो सकता है...वस्त्रहीन को वस्त्रवान कैसे छू सकता है...मुक्त और बद्ध का साम्य कैसा...अबाध का बाध से मिलना कैसा...उसकी गति अबाध है, तुम्हारी गति सीमित...।

किन्तु इसका न ज्ञान युवक को है, और न विश्वास ही। उसे तो सिर्फ लग रहा है- मतिया उसकी मंजिल है, जो भागी जारही है, नाराज होकर। उसे पकड़ना है, मनाना है, वांहों में भरलेना है...दुनियां के हर बन्धन को तोड़कर, समेट लेना है, अपने आप में, परन्तु सबसे बड़ा बन्धन- मोह और मोह का आधार यह पांच भूतों वाली काया, भूत-वद्ध कैसे पाये अशरीरी को !

भागते युवक को रोड़े की ठोकर लगी। मानों उसने भी दुत्कार कर कहा- मूर्ख! अब भी चेत। समझ दुनियां को...इस क्षणभंगुर संसार को, जिसे तूने अपना समझ रखा है! जिसकी एक क्षुद्र प्राणी को प्राणेश्वरी समझ लिया है....किन्तु जानदार इन्सान की बातें जब इन्सान को समझ नहीं आती तो बेजान रोड़े की क्या परवाह करता ?

नतीजा हुआ- धड़ाम की तेज आवाज, और इसके साथ ही पैरों में उलझी लता में उलझ कर गिर पड़ा औंधे मुंह। प्यार में अन्धे इसी प्रकार गिरा करते हैं। चट्टान से संघर्ष में खोपड़ा पराजित हुआ। खून का फब्बारा छूटा...मुंह से आह निकली—मतिया!रुक जा...।

भागती युवती सही में रुक गयी। लहु-लुहान लथपथ युवक अब भी संघर्ष करता रहा जीवन से। उठने की कोशिश करता रहा, चट्टान का सहारा लेकर। अजीब है आदमी भी, जिसने धराशायी किया, उसी का सहाराउठने के लिए भी !

युवती कुछ दूर खड़ी उसका तड़पना देखती रही- “कह रही थी न बाबू ! पीछा मत करो। मुझे तुम नहीं पा सकते । मैं जहां हूँ वहां पहुँचने की कोशिश बेकार है।”

युवती की मधुर आवाज, कानों में पड़कर संजीवनी सा काम किया। तड़फड़ाता युवक चट उठ खड़ा हुआ। कातर नजरें दूर खड़ी युवती पर गयी। सिर से बहता रक्त अब नीचे आकर रंगने लगा था पूरे शरीर को, जिस पर प्यार का पक्का रंग पहले से ही चढ़ा हुआ था। एकबार देखा, गौर से उस युवती को, और पैरों में फिर गति आगयी। युवक फिर भागने लगा। उसे आता देख, युवती ने चीख कर कहा- “खबरदार, रुक जाओ वहीं, अब आगे मत बढ़ो।” किन्तु युवक कब मानने वाला था उसकी बात। आज दुनियां की हर ताकत ताकतहीन होरही है, उसे रोकने में।

युवक ने देखा- युवती दो डग आगे बढ़, जरा ठहरकर एकाएक छलांग लगा गयी हवा में ऊपर उठकर...। वह भी दौड़कर वहीं पहुँचा। पहुंचकर देखा- ऊँची चट्टान बिलकुल ढलवी, चिकनी, और उसके नीचे चौड़ा, गहरा, भयानक बरसाती नाला, किन्तु पुरुष किस मामले में नारी से कम समझे खुद को...जब वह छलांग लगा चुकी, तो यह भी क्यों नहीं...सोचा पल भर, और, नजरें घुमा इधर-उधर देखने लगा। दीखा तो कुछ नहीं, पर आवाज आयी- “नहीं मानोगे पलटनवां बाबू ! ”

और उसके साथ ही युवक ने छलांग भरी। छलांग लम्बी जरुर थी, पर इतनी नहीं कि भारी-भरकम मिट्टी के देह को भी नाले के उस पार पहुँचा सके, हवा वाली देह के देखा-देखी...। छपाकऽऽऽ...की आवाज हुयी और गिर पड़ा मिट्टी का ढेला नीचे खड्ड में। गहरे नाले में एक बार जोरों की खलबलाहट हुयी, मानों कोई दौड़ लगा रहा हो, और फिर गम्भीर मधुर आवाज गूंज उठी- “ नहीं माने न पलटनवां बाबू ! आ ही गये...मतिया...! पलटनवां बाबू ! मतिया!...पलटनवां बाबू ! देर तक नाले की कलकलाहट को भेदकर गूंजती रही खिलखिलाहट... मतिया...! पलटनवां बाबू ! मतिया!...पलटनवां! मतिया...! पलटनवां बाबू ! मतिया!...पलटनवां!...