अधूरीपतिया / भाग 3 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
(अधूरीपतिया / भाग 3 / कमलेश से पुनर्निर्देशित)
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“ ठीक कहते हो बाबू।”-युवती ने उसकी हां में हां मिलाते हुये कहा- “ उस समय उसके पास पहुंचकर मतिया भौंचंकी खड़ी देखती रह गयी कुछ देर तक, एकाएक जंगल में उस बाबू को इस अवस्था में पाकर। उधर उसकी भेड़ भी कुईं-कुईं करती, सूंघती रही बाबू के सिर को। ”

“ क्या ज्यादा चुटीला हो गया था वह शिकारी?”-अजय में उत्सुकता प्रकट की।

“ हां बाबू! चुटीला तो हो ही गया था, बहुत चुटीला। कुछ देर के सोच-विचार के बाद मतिया ने किसी तरह उसे उठा कर कटीली झाड़ियों से अलग किया। पूरे बदन में झरबेरी के छोटे-छोटे कांटे चुभ गए थे। कपड़े जहां-तहां से काफी फट चुके थे। माथे पर गहरी दरार-सी थी, जहां से रिसरिस कर अभी भी लहू निकल रहा था। कुछ जमा हुआ लहू भी था। गौर से देखने पर मालूम हुआ- सांस धीमी-धीमी चल रही है।”

युवती से कहानी सुनता युवक पुनः गम्भीर हो गया। ऊपर के दांतो से निचला होंठ काटते हुए कुछ देर तक आँखें सिकोड़कर, सोचता रहा, फिर युवती की ओर गहरी नजर डालते हुए पूछा- “अच्छा...पर तुमने तो वताया नहीं कि उस शिकारी की उम्र क्या थी?”

युवक की बात पर युवती मुस्कुरायी। एकबार ऊपर से नीचे तक नजरें दौड़ाई अजय के चेहरे पर- सोचने सी भंगिमा में, जो बार-बार आस्तीन से ही पसीना पोंछे जा रहा था। फिर बोली- “ सो तो बता ही रही हूँ बाबू ! तुम इतना अधीर क्यों हो रहे हो? उस चुटीले शिकारी को युवक ही समझो। उमर तो तुम्हारे ही करीब होगी बाबू- यही कोई बरस-दो बरस छोटा होगा, जितना तुम अभी हो...क्यों ठीक कह रही हूँ न?”-कुछ ठहर कर युवक के आंखों में झांकती हुयी बाली- “...पर कट-काठी से काफी दबंग था, तुमसे दूना नहीं तो ड्योढ़ा तो जरुर रहा होगा। मैं समझती हूं कि यदि वह कस कर फूंक मार दे, तो तुम जैसा आदमी तो पत्ते सा उड़ जाय।”

युवती खिलखिला पड़ी, जब कि युवक का चेहरा न जाने क्यों रुंआसा हो रहा था। उसकी स्थिति देख युवती देर तक हंसती रही, जिससे चिढ़कर युवक को कहना पड़ा- “ इसमें हंसने की कौन सी बात है? तुम चुपचाप कहानी कहती जाओ मतिया की।”

युवती कुछ देर और हंसती रही, फिर बोली- “ बेचारी मतिया थोड़ी देर तक खड़ी सोचती रही कि ऐसे नाजुक वक्त में उसे क्या करना चाहिए...क्या करे..क्या न करे...यह तो सही है कि बेचारा तूफान की चपेट में फंस गया है...छोड़ जाऊँ तो कोई जानवर चट कर जायेगा...या फिर दर्द में दम तोड़ दे...किन्तु करे तो क्या करे...अकेली औरत जात...अगल-बगल कोई सहारा भी नहीं...ऊपर से, सिर पर मडराते फिर से बरसने को बेताब काले घनेरे बादल...घनघोर जंगल...और फिर दिन भी तो....”

इसी तरह सोच-विचार करती मतिया उस युवक के पास ही उकड़ू बैठते हुए, नब्ज टटोली, अपना सिर खुजाती हुयी, फिर कुछ सोचने लगी। अचानक कुछ विचार आया मन में, जिससे खुशी की लहरें दौड़ गयी उसके चेहरे पर, और झट उठ खड़ी हुयी। भेड़ को वहीं छोड़, बढ़ चली एक ओर।

जंगली रहन-सहन की वजह से कुछ जंगली जड़ी-बूटियों के बारे में जरुर जानती थी। कहीं से खोज-खाजकर एक बूटी उखाड़ लायी। हथेली पर मसल-मसल कर रस निचोड़ी, और युवक के खुले मुंह में दो-चार बूंदे टपका दी। बची हुयी सिट्ठी को माथे की फटी दरार में भर कर, अपनी धोती का किनारा फाड़कर, ऊपर से कसकर पट्टी बांध दी, और फिर वहीं पास में एक चट्टान पर इत्मिनान से बैठ गयी। बैठ गयी, सो बैठ गयी। घंटों बैठी रही। बीच-बीच में उसी बूटी को मसल-मसल कर रस टपकाती रही युवक के मुंह में।

“ इसका मतलब है कि बड़ी साहसी थी मतिया, और होशियार भी।”- अजय ने कहा।

“ हां बाबू! ”- सिर हिलाती हुयी मतिया बोली- “ सिर्फ साहसी और होशियार ही नहीं, बल्कि दयालु भी कहो बाबू। कहाँ पाते हो आजकल के लोगों में दया-वया? कोई अनजान मुसाफिर पड़ा कराह रहा हो, तो उसे देखकर कितने लोगों के मन में दया उमड़ती है? तमाशायी की तरह एक नजर देख भर लेते हैं, और नांक-भौं सिकोड़कर अपने रास्ते चल देते हैं। सोचते हैं क्यों वखत बरबात करें किसी और के लिए। लोगों को समय का मोल केवल तभी समझ आता है, जब दया-ममता खरज करने की बारी आती है, बाकी समय तो...किन्तु हम जंगली लोगों को समय का यह मोल मालूम नहीं है। अपना हो या परया, जान हो या अनजान, आदमी हो या जानवर, दुःख-दर्द किसी का देखा नहीं जाता, और चट जुट जाते हैं मदद को। क्या ही अच्छा होता ऐसे ही सोच वाले सभी होते...।”

“ हां-हां, क्यों नहीं। मानव-धर्म तो यही है, किन्तु धर्म-अधर्म की बात सोचना-समझना और फिर उसे समय पर व्यवहार में लाना बहुत कम ही लोग जानते हैं। तुम ठीक ही कह रही हो, तमाशबीन भर होते हैं लोग। दूसरे की मदद करना तो दूर, ऊपर से चाव लेने में महिर। बहुत लोग तो ऐसे होते हैं, जो औरों की विपत्ति में भी आनन्द महसूस करते हैं। यह भूल जाते हैं कि कभी ऐसी आफत उन पर भी आसकती है। काश ! ऐसा होता, पराये दर्द की पीड़ा हरकोई को महसूस होता...।”- युवक भाउकता वश बहुत सी बातें कह गया।

युवती चुप बैठी, उसे निहारते हुए सोचती रही- क्या कोई कह सकता है कि यह पागल या भुल्लक्कड़ इन्सान है? कुछ देर तक उसकी बातें सुनती रही, और सोचती रही उसीके बारे में , फिर बोली- “ तुम भी तो गियान वाली बहुत सी बातें कर लेते हो बाबू, किन्तु अपने बारे में तुम्हारी अकल कहां चरने चली जाती है?”

इसके उत्तर में अजय कुछ बोला नहीं। युवती का मुंह देखते हुए मुस्कुरा भर दिया।

“ तुम धरम-करम की बात करते हो बाबू । मैं पढ़ी-लिखी तो नहीं हूँ, ये धरम-वरम क्या होता है, मैं नहीं जानती, पर इतना जरुर जानती हूँ कि ये सब पढ़ुओं की पोथी की चीज नहीं है। धरम तो आदमी के अन्दर में होता है। आदमी के भीतर में भी एक आदमी होता है...”- अपने हृदय पर हाथ रखती युवती बोली- “ आदमी को देख कर आदमी के मन में दया न उपजे, प्रेम न उमड़े, फिर क्या वह आदमी ही है? दो हाथ, दो पैर, आँख, नाक, कान, मुंह सब कुछ है, आदमी की तरह जिन्दा भी है- सांस ले रहा है, परन्तु भीतर का आदमी बिलकुल मर गया है...”- थोड़ा ठहर कर युवती फिर बोली- “ खैर, छोड़ो बाबू! अभी हमलोग इसका निपटारा करने थोड़े जो बैठे हैं। हमें तो तुम्हें मतिया की कहानी सुना कर अपनी पतिया लिखवाली है।”

“ ठीक कह रही हो। उधर बेचारे चुटीले शिकारी बाबू की जान पर आ बनी है। बेचारी मतिया सुनसान जंगल में अकेली बैठी उसकी सेवा-सुश्रुषा करने में लगी है, और इधर हम दोनों धर्म-अधर्म की व्याख्या कर रहे हैं।छोड़ो ये सब, सुनाओ मतिया की कहनी, कि आगे क्या हुआ। ”- अजय जरा गम्भीर होकर बोला।

“ हां, इस समय दूसरी बात नहीं होनी चाहिए। हमलोग अपनी ही बात करें तो अच्छा है।”- भेड़ के बदन पर हाथ फेरती युवती ने कहा- “ हां, तो मैं कह रही थी कि मतिया को वहां बैठे-बैठे काफी देर हो गयी। सूरज सिर से नीचे उतरने लगा। घबराई सी मतिया फिर एक बार बूटी का रस निचोड़कर युवक को पिलाई, और लम्बी सांस खींच होंठों ही होठों में कुछ बुदबुदायी।

“ कांटों में उलझकर बाबू का कोट फट चुका था। भीतर कमीज भी थोड़ा फट ही गया था। कमीज के भीतर, काले घने रोंयेदार चौड़ी छाती पर चमकती पीली सी जंजीर में गोल सी कोई चीज बंधी लटक रही थी। गौर से देखने पर पता चला कि वह कोई तस्वीर है, जो सांस लेने-छोड़ने के साथ-साथ ऊपर-नीचे हो रही है; किन्तु काफी गौर करने पर भी उस तस्वीर को पहचान न सकी। शक्ल न हनुमान से मेल खा रही थी, और न रहमान से। एक बार जी में आया कि गोलक को उलट कर देखे, उस तरफ भी कुछ है क्या, किन्तु तुरन्त विचार बदल गया।

“काफी देर तक इसी उहापोह में सिर झुकाये चुप बैठी सोचती रही- अब भी होश न आया तो क्या करेगी...ढलते सूरज का कब तक भरोसा...थोड़ा और ढला नहीं कि गया पहाड़ी की आड़ में...चांद की रोशनी कितना मददगार होगी, जबकि सूरज ही भरपूर उजाला नहीं दे पाता घनघोर जंगल में...।

“मतिया की बेचैनी का अन्दाजा लगाया जा सकता है। भेड़ को भी लगता है इसका अन्दाजा लग रहा था, क्यों कि अनबोलता जीव होते हुए भी बार-बार बाबू के सिर के पास अपना थुथुना छुलाती- पालतू कुत्ते की तरह कुईं-कुईं करते मतिया के पास आ बैठती।

“देर से चिन्ता में बैठी मतिया का ध्यान अचानक टूटा, बाबू के हिलते होंठ देखकर। झट समीप में सट गयी। शिकारी बाबू के मुंह के पास अपना कान सटाकर सुनने की कोशिश की, किन्तु कुछ पता न चला। सिर्फ होंठ का फड़फड़ाना देखती रही, साथ ही देखा- बाबू के होंठ सूख रहे हैं...सांस भी पहले से कुछ तेज हो आयी है।

“ मन में विचार आया, हो सकता है गला सूख रहा हो। पानी का ध्यान मन में आते ही बिजली सी झट उठ खड़ी हुई। झरबेरी के बगल में ही सौगौन का पेड़ था। डाल झुकाकर दो-तीन पत्ते तोड़ी, और दोना बनाती चल पड़ी एक ओर। जंगल की रानी ठहरी। चप्पा-चप्पा छाना हुआ था। दौड़ कर गयी पास ही बहते बरसाती नाले के पास, और दोना भर लायी, साथ ही अपनी आंचल का छोर भी गीला कर ली।”

“ अब लगता है शिकारी बाबू की जान निश्चित ही बंच जायेगी, मतिया की कृपा से।”-युवक अजय ने अपना सिर हिलाते हुए, सामने बैठी कहानी सुनाती हुयी युवती को देखते हुए कहा।

“ जान तो बचनी ही है बाबू उस शिकारी बाबू की। मतिया सी दयावान के हाथों भी जान कैसे न बचेगी...?”- कहती हुयी युवती मुस्कुरायी और हाथ उठाकर ढीले हो आये अपने जूड़े को ठीक करने लगी। अजय उसे एकटक निहारे जा रहा था। न जाने कुछ घंटों के मिलन ने ही अजीब सा आकर्षण पैदा कर दिया था उसके दिल में युवती के प्रति। आकुल दग्ध हृदय में अजीब सी शीतल फुहार पड़ने लगी थी। मतिया की रोचक कहानी सुनाती युवती की ओर ललचायी नजरों से देखता रहा। बीच-बीच में कभी ध्यान आ जाता स्वयं का, तब जरा विकल होकर सोचने लगता- ‘ओफ, कहां भटक गया हूँ...मंजिल मिलेगी भी या नहीं...मंजिल है कहां...क्या...कैसा...कौन...?’

इस बार पहले की अपेक्षा गहरे सोच में देख, मुस्कुराती हुयी युवती ने पूछा, “ क्यों बाबू ! क्या सोचने लगे...कहींकुछ..?”

“कुछ नहीं, यूं ही...”- अन्यमनस्क सा, अजय ने कहा, “ कभी-कभी कुछ याद आजाती है बीते हुए समय की, किन्तु काफी जोर देने पर भी समझ नहीं पाता हूँ कि क्या हो गया है मुझे। लगता है कुछ बहुत ही कीमती चीज मेरी खो गयी है...क्या खो गयी है...कैसे खो गयी है...कब खो गयी है...कह नहीं सकता। ”

अजय की स्थिति पर अफसोस जाहिर करती हुयी युवती बोली, “ तुम्हारी बातों से मुझे आश्चर्य भी होता है बाबू, और चिन्ता भी। तुम्हारी शकल-सूरत, वेशभूषा, उमर सब कुछ देखकर तुम पर दया आती है। क्या करूँ, औरत का दिल जो ठहरा, तुम मर्दों की तरह कड़ा तो हो नहीं सकता।”

फिर थोड़ा समझाती हुयी बोली, “ तुम ठीक से याद करने की कोशिश करो बाबू। मन थिर करके विचारो, शायद कुछ काम की बात सूझ जाये। इस तरह पागलों सी हरकत करोगे, तो कैसे काम चलेगा? तुम्हें न तो ठीक से अपना नाम याद है, और न घर-वार ही। जाना कहाँ चाहते हो- यह भी बतला नहीं सकते। ऐसी स्थिति में कोई चाह कर भी तुम्हारी सहायता कैसे कर सकता है?”

“ छोड़ो मेरी चिन्ता।– झल्लाकर अजय बोला- “ जब सुधरना होगा, खुद ब-खुद सुधर जायेगा। हो सकता है इसी तरह ठोकर खाते-खाते कुछ याद आ जाए।”- फिर संयत हो, युवती की आँखों में आँखें डाल कर झांकते हुए-से पूछा, जिसकी पुतलियों में उसका अपना ही बिम्ब बार-बार नजर आरहा था- “खैर, मुझे तो मेरा अता-पता याद नहीं, तुम्हारा घर कहाँ है...क्या इधर ही कहीं आस-पास..? ”- इधर-उधर हाथ का इशारा करते हुए युवक ने पूछा।

“ तुम भी क्या पूछते हो बाबू ! जंगलियों का कहीं घर-वार हुआ करता है? भेड़-बकरी चराना, लकड़ी काटना-तोड़ना, जंगली कन्द-मूल-फल से गड्ढा भर लेना, चलते-चलते थक जाने पर किसी पेड़ की डाल या किसी चट्टान पर ही पसर जाना...यही तो जिंदगी है हम सब की।”- मुस्कुराती हुयी युवती ने कहा, जिसकी बातों का युवक को यकीन न आया। फलतः बोल पड़ा- “ क्या बात करती हो, जंगलों में रहने वाले लोग क्या घर नहीं बसाते, उनके बीबी-बच्चे, मां-बाप नहीं होते क्या?”

“ होते है। सब होते हैं बाबू ! घर भी, बीबी भी, बच्चे भी, मां-बाप भी, किन्तु...।”

“ किन्तु क्या? कहो न, चुप क्यों हो गयी ?”- अजय ने आश्चर्य प्रकट किया।

“ किन्तु-विन्तु कुछ नहीं बाबू ! बीबी होने का सवाल ही नहीं, क्यों कि मैं खुद ही औरत हूँ। बच्चे कोई जरुरी नहीं कि सब को हो ही। रहे मां-बाप, उनका भी कोई जरुरी नहीं कि हर समय मौजूद ही रहें। थे कभी। अब नहीं हैं। दोनों में कोई नहीं रहा। ”

युवती की बात पर युवक बोला- “ औरत का सबसे बड़ा सहारा तो होता है उसका मर्द। क्या तुम्हारी...?”- युवक कह ही रहा था कि बीच में रोक दिया युवती ने अपने जोरदार शब्दों से- “ अब तुम बहुत बातें पूछने लगे हो बाबू! अपने बारे में तो कुछ कहते नहीं, और मेरी बातें सब जान लेने को बेताब हो रहे हो।”

“ अधिक नहीं पूछूंगा, बस इतना भर बतला दो, क्या तुम्हारी शादी हो गयी?”

“ कभी-कभी तुम्हारी अक्ल कहाँ चरने चली जाती है बाबू? क्या...”- युवती कुछ और कहना चाह रही थी, किन्तु थोड़ा ठहर गयी, अचानक कुछ सोचकर। इस बीच युवक के चेहरे पर बनती भावनाओं के चित्रों को गौर से देखने की कोशिश करती रही। फिर बोली- “ मेरी निजी बातों में इतना दखल क्यों दे रहे हो बाबू? अपनी तो एक नहीं कहते, और मेरी सारी बातें मुझसे उगलवा लेना चाह रहे हो। मैं तुम्हारी किसी बात का जवाब देने को मजबूर थोड़े जो हूँ।”

युवती ने देखा, उसकी बातों का जोरदार असर युवक पर हुआ है। इस तरह कोरे जवाब की आशा उसे जरा भी न थ। कुछ देर तो चुप रहा, उदास सा मुंह लटकाए हुए, फिर एकाएक जोश में आकर बोल उठा, “ अच्छा बाबा, लो मैं कान पकड़ता हूँ। गलती हो गयी । अब नहीं पूछूंगा कुछ तुम्हारे बारे में।”- युवक ने अपना दोनों कान पकड़ते हुए कहा- “ जब मुझे मेरी सारी बातें याद आ जायेंगी, और तुम्हें बतला दूंगा, तब तुम भी बतलाना-सुनाना अपनी राम-कहानी। अभी तो जो सुना रही हो, सो ही सुनाओ। वह कोई कम जरुरी और मजेदार थोड़े जो है।”

युवती मुस्कुराती हुयी बोली, “ मैं तो हर बार यही कहती हूँ बाबू कि पहले मतिया की दिलचस्प कहानी ही सुन लो। अपनी याददाश्त ठीक करलो, फिर जी भरके मेरी कहानी भी सुन लेना।”

“ अच्छा बाबा, कहो न, जो कहना चाहती हो।”- इतना कहकर, अजय दोनों हथेलियों की अंजली सी बनाकर, उस पर अपनी ठुड्डी टेक कर, चुप बैठ गया।

युवती कहने लगी- “ हां, तो मैं कह रही थी कि नाले से पानी ले आयी दोना भरकर, तब उसे जमीन पर रख, पत्ते की चमची सी बना धीरे-धीरे बाबू के मुंह में डालने लगी। एक दो चमची पिलाने के बाद ध्यान आया कि कहीं कंठ में सरक न जाये, इस तरह सोये में पानी पिलाने से, अतः अपना बायां हाथ उसके गर्दन के नीचे धीरे-धीरे ले गयी, और बड़े ही आहिस्ते से सिर को थोड़ा ऊपर उठायी, और तब पानी पिलाने लगी। घुट-घुट की आवाज के साथ पानी गले से उतरने लगा। बीच-बीच में एक दो बार मुंह भी चलाया बाबू ने। यहां तक कि थोड़ी ही देर में पूरा दोना खाली हो गया।

“ मतिया ने फिर से बाबू को पहले की तरह सुला दिया, और बिजना के पत्ते से मुंह पर हवा करने लगी, जो वहीं चट्टान के पास ही हवा के झोंके में टूट कर गिरा पड़ा था।

“ हवा करती, पत्ता झलती रही, और आश लगाये बैठी रही कि कब बाबू की आँखें खुलती हैं...कब वह कुछ बोलेगा...पूछेगा...बतायेगा...। सोचती रही- किसका लाल है...कैसे इस बीराने में आकर चुटीला हो गया...खैर कहो कि समय पर पहुंच गयी...जान बंच गयी, नहीं तो पता नहीं क्या हाल होता...दर्द से छटपटा कर पानी के बिना दम तोड़ देता... किसी दरिन्दे की खुराक...।

“ मतिया अभी सोच ही रही थी कि शिकारी बाबू के होंठ फिर फड़फड़ाये। शायद फिर पानी मांग रहा है, सोचा मतिया ने। परन्तु इस दफा पानी देने के वजाय, पहले से लायी गयी बूटी का रस निचोड़कर दो-तीन बूंदें टपका दी बाबू के खुले मुंह में। बाबू ने जीभ चलाई, होठों को चाटा, और आँखें भी थोड़ी सी खुल गयी। झट मतिया ने अपने आंचल का छोर, जिसे पानी लाते समय नाले से भिगोती आयी थी, बाबू की आंखों पर आहिस्ते-आहिस्ते फेरने लगी। आँखें फिर बन्द होगयी, किन्तु अधिक देर तक बन्द न रही, तरंत ही खुल गयीं, और इस बार अधूरी नहीं वरन, पूरी आंखें अच्छी तरह खुलीं। गर्दन तो न हिली। आँखें ही इधर-उधर घुमाकर चारों ओर का मुआयना किया। बगल में घुटने टेके चिन्तित बैठी एक अनजान औरत नजर आयी, और उसके बगल में दिखी एक भेड़।

“आंखें फिर बन्द होगयीं, परन्तु मतिया के दिल में आशा की किरण रौशन कर गयी। खुशी का सोता बहा गयी। मतिया की खुशी का ठिकाना न रहा। मतिया की खुशी में उसके पालतू प्रिय भेड़ ने भी साथ दिया- अपने गले में बंधी घंटी टुनटुनाकर, साथ ही प्यार से सूंघने लगी कभी मतिया को कभी चोटिल पड़े शिकारी बाबू को। मतिया ने भेड़ को गोद में दबाकर, प्यार जताया, पुचकारा, और उसके कान में मुंह सटाकर कुछ बुदबुदायी भी, मानों वे एक दूसरे की भाव-भाषा समझ रहे हों। फिर मतिया सोचने लगी- अबकी दफा बाबू जब आँखे खोलेगा...पूछेगा कुछ जरुर...।

“ सूरज काफी नीचे उतर आया था। पेड़ की फुनगियों पर सूरज की चमकती लाल किरणें चिड़ियों सी आकर बैठ गयी थी। दिन फूटते ही अपने घोसले छोड़, दाने-पानी के जुगाड़ में गयी चिड़ियों का झुण्ड अब धीरे-धीरे वापस आने लगा था अपने रैन बसेरे में।

“ मतिया सोचने लगी- घने जंगल में अपने काम पर निकले इक्केदुक्के लोग भी धीरे- धीरे अपने बसेरे की ओर चले जा रहे होंगे। थोड़ी देर में पूरा जंगल खाली हो जायेगा आदमियों से...रह जायेंगं तो सिर्फ जंगली खूंखार जानवर, और उनके बीच एक चुटीले अनजान मुसाफिर के साथ...ओफ! क्या किया जाय अब....?

“मतिया सोच ही रही थी कि शिकारी बाबू ने आँखें खोलीं, होंठ हिले, फड़फड़ाये। आवाज भी निकली, जिसे वह ठीक से समझ न पाया, कारण कि आवाज में थोड़ी घरघराहट थी। कम्पन था। उसने सोचा किसी भीतरी भाग की गडबड़ी के कारण ऐसा हो रहा है...।

“आवाज फिर निकली। इस बार की आवाज पहले से थोड़ी तेज थी, फिर भी मतिया अपना कान उसके मुंह के पास सटा दी। कांपती सी आवाज सुनाई पड़ी- मैं कहां हूँ?”

अजय चुप बैठा सुनता रहा। थोड़ा दम लेकर युवती फिर कहने लगी- “ मतिया के कानों में शिकारी बाबू की आवाज गयी तो जरुर, किन्तु ‘मैं कहां हूँ’का ठीक मतलब बेचारी समझ न पायी। हालांकि इतना जरुर समझ गयी कि यह शहरी बाबुओं की बोली बोल रहा है। आवाज बिलकुल साफ होती तो समझ भी जाती।

“हां, यह भी एक विकट समस्या हो गयी, भाषा न समझ पाना- एक दूसरे की। खैर अब जान बच गयी तो भाषा की समस्या कोई बड़ी बात नहीं। ”- अजय ने कहा युवती की ओर देखते हुए, जो भेड़ की रस्सी को अपनी अंगुलियों में लपेटती हुयी, कहानी सुनाये जा रही थी।

“हां, उसके लिए ज्यादा क्या परेशानी हो सकती है।”- रस्सी ढीली करती हुयी युवती बोली- “वैसे भी मतिया इतनी भोली न थी, जो कुछ जानती-बूझती ही न हो। उसकी भी एक बड़ी वजह थी।”

“क्या वह कुछ पढ़ी-लिखी भी थी ?” – अजय ने मतिया के सम्बन्ध में कुछ विशेष जानने की उत्सुकता प्रकट की।

“गंवार मतिया बेचारी पढ़ी-लिखी क्या रहेगी बाबू ?”- युवती ने कहा- “ किन्तु एक होशियार का सहारा मिल गया था उसे। मतिया के गांव में गोरखुआ सबसे काबिल आदमी माना जाता था। वह अक्सर ही पास के कस्बे में जंगली सामान लेकर बेचने जाया करता था। धीरे-धीरे वह शहरी बाबुओं की बहुत सी बातें सीख लिया था। गांव आकर, वहां की बातें लोगों को समझाया बतलाया करता। कस्बे से वापस आने पर सभी- औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े उसे घेर कर सिहोर-गाछ तले बैठ जाते। दुनियां भर की बातें पूछते रहते। गोरखुआ उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश करता। उसकी चाह थी कि उसका गांव तरक्की करे, हर कोई समझदार हो जाये। ”

“मतिया उस बैठक में ज्यादा दिलचस्पी लिया करती। गोरखुआ ने ही एक दिन गान्ही बाबा की बात बतलायी लोगों को- बहुत दूर का रहने वाला एक आदमी है, जो हम लोगों की तरह ही भगौना पिहिनता है। हाथ में लाठी लिए सब जगह घूमता फिरता है। सुनते हैं कि वह सुराज लाने की तैयारी में जुटा है...।

“मतिया ने आश्चर्य से उससे सुराज के बारे में पूछा था। गोरखुआ ने उसे समझाया था कि सुराज क्या होता है, कैसे आता है, और कैसे चला जाता है। सुराज नहीं रहने से क्या नुकसान होता है, और रहने से क्या फायदा...। इस तरह की बहुत सी बातें समय-समय पर बतलाया करता था गोरखुआ।

“मतिया की बहुत पटती थी- गोरखुआ से, इस कारण वह भी उसे बहुत मानता था। जब भी कस्बे से आता, सबसे पहले मतिया के पास ही जाता, और ताजी-ताजी बातें सुनाया करता। इस प्रकार घोर जंगल में रह कर भी मतिया बहुत कुछ जान-सीख गयी थी बाहर की बातें। एक दो दफा गोरखुआ उसे कस्बा घुमाने भी ले गया था अपने साथ।

“इधर कुछ दिनों से गोरखुआ उसे शहरी बाबुओं की बोली के बारे में बतला रहा था। आज वही सीख काम आयी मतिया को। थोड़ा बहुत जोड़-तोड़ कर मतिया अर्थ लगाने लगी, शिकारी बाबू के मुंह से निकली आवाज का।

“बाबू के मुंह से आवाज फिर निकली- ‘मैं कहाँ हूँ...?’ इस बार की आवाज पहले से अधिक तेज और साफ थी, साथ ही इशारा भी किया उसने अपने हाथ उठाकर।

“मैं का मतलब ‘मोंय’ तो समझ ही गयी, थोड़ा जोर देने पर कहां हूँ का मतलब भी समझ गयी। मतिया समझ गयी कि बाबू कह रहा है- ‘मोंय कोन ठहर आ ही?’ और फिर जोड़-जाड़ कर बाबू की बातों का जवाब भी दे डाली- ‘हो तो बाबू तुम बीच जंगल में, तबियत कैसी है तुम्हारी?’ जिसके जवाब में बाबू ने कहा था कि वह ठीक है, पर बोलने में थोड़ी दिक्कत हो रही है। उसकी बात को मतिया समझ गयी, और फिर उसका जवाब सोचने लगी। इसी तरह तोड़-जोड़कर, कुछ सही, कुछ गलत बातें चलने लगी।

“मतिया ने पूछा- दर्द कहाँ है बाबू ? जिसके जवाब में शिकारीबाबू ने एकबार गौर से निहारा मतिया के चेहरे को। फिर अपने माथे पर हाथ फेरा और छाती सहलाते हुए बोला- ’वैसे तो पूरे बदन में दर्द है- सुई सी चुभ रही है, मगर माथे और सीने में दर्द ज्यादा है।’

“सिर थोड़ा सा फट गया है बाबू —मतिया ने उसे बताया—पूरे बदन में झरबेरी के नुकीले छोटे-छोटे कांटे चुभे हुए हैं। सीने में भी कहीं कटा-फटा है क्या ?’- कहती हुयी मतिया शहरीबाबू की कमीज का निचला हिस्सा, जिस पर एक मात्र लगे बटन को खोल कर, ऊपर सरकायी, और देखने लगी। इस क्रम में गले की जंजीर का गोल लोलक उलट गया। मतिया ने देखा- लोलक के दूसरे तरफ भी एक तस्वीर है, जो किसी अधेड़ उम्र औरत की है। तस्वीर छोटी जरुर थी, पर मुसौवर की कारीगरी का अनमोल नमूना पेश कर रही थी। तस्वीर बहुत ही खूबसूरत और साफ बनी थी।

“बाबू ने जंजीर को एक ओर सरकाते हुए नीचे की ओर इशारा किया, ‘यहां भी दर्द है।’ जिसे मतिया ने गौर से देखा, दायीं ओर पसली की हड्डी के पास पत्थर का एक टुकड़ा चुभा हुआ है, जिससे होकर खून अभी भी रिस रहा है। उसे देखते ही चट, चुटकी से पकड़ कर खट से खींच ली बाहर। पत्थर के टुकड़े का बाहर निकलना था कि खून का एक छोटा सा फौव्वारा सा छूटा, और ऊपर झुकी मतिया के सांवले-सलोने चेहरे को रंग गया।

“आह ! बहुत दर्द...’- बाबू के मुंह से एक कराह निकली और आँखें बन्द हो गयी।

“बूटी थोड़ी और पड़ी हुयी थी, उसे मसल कर मतिया ने झट से उस रिसाव वाले गड्ढे में ठूंस दिया, और ऊपर से अपनी धोती का टुकड़ा फाड़कर लपेट दी। मतिया का लगभग आधा आंचल फट कर शिकारीबाबू के बदन से लिपट चुका था। शेष से मतिया ने अपने चेहरे पर पड़े खून के धब्बों को मिटाया, और खाली दोना उठाकर, चल पड़ी फिर नाले की ओर।

“थोड़ी देर में उधर से लौटी- पानी से भरा दोना, और एक और बूटी लिये हुए। बाबू अभी तक आँखें बन्द किये हुए ही पड़ा हुआ था। पहले मतिया ने पानी के दो-चार छींटे उसके चेहरे पर मारा, फिर बूटी का रस नचोड़कर मुंह में टपका दी।

“पानी का छींटा और बूटी के रस ने इस बार, पहले की तुलना में जल्द और ज्यादा असर दिखाया। बाबू ने झट आँखें खोल दी।

“अब कैसा है बाबू ?’- रुआंसी हो, घुटने के बल बगल में बैठी मतिया ने पूछा।

“ठीक लग रहा है कुछ-कुछ। उस समय टुकड़ा निकालने के समय बहुत दर्द हुआ था। गश आ गया था लगता है, किन्तु अब तो ठीक लग रहा है। बोलने में सिर्फ तकलीफ हो रही है। सीने का दर्द भी कुछ कम लग रहा है, परन्तु बदन में सुई सी चुभन में जरा भी कमी नहीं आयी है ’- आहिस्ते-आहिस्ते, कुछ कह कर, कुछ इशारे में बाबू ने अपना हाल जताया।

“धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा बाबू ! घबराने की कोई बात नहीं है जरा भी।’

“ठीक तो हो ही जायेगा, पर तुम्हें देखने से लग रहा है कि तुम ज्यादा घबरायी हुई हो।’- बाबू ने मतिया के चेहरे पर देखते हुए कहा।

“हां बाबू ! घबरा तो जरुर रही हूँ, मगर इसलिए नहीं कि तुम्हारी तवियत ज्यादा खराब है, वल्कि इसलिए कि देख रही हूँ कि आप अभी उठकर चल सकने लायक नहीं हुए हैं।’-चिन्तित हो मतिया बोली।

“पहले से तो काफी अच्छा महसूस कर रहा हूँ, पर उठ कर चल भी सकूंगा या नहीं- इसमें संदेह है।’- दोनों हाथों से जमीन का सहारा लेकर उठने की कोशिश करते हुए शिकारी बाबू ने कहा।

“इसी बात की बैचैनी मुझे भी हो रही है बाबू। देखते नहीं, सूरज ढल रहा है- पहाड़ों के बीच जा छुपा है।’- बाबू की पीठ और गर्दन को अपने हाथ का सहारा देती मतिया ने कहा।

“मतिया की बात सुन, सम्हल कर बैठते हुए बाबू ने हाथ उठाकर अपनी कलाई देखी, जिसपर घड़ी बंधी थी, किन्तु कांच टूटा हुआ था और सूइयां भी गायब थी। घड़ी बन्द पड़ी थी। ‘अच्छा फेरा है।’- लम्बी सांस छोडते हुए शिकारी बाबू ने कहा, ‘तुम कौन हो? कहाँ रहती हो? ये कौन सी जगह है?’

“यहीं मेरा घर है बाबू, पास में ही- कोई दो घड़ी भर का रास्ता होगा। इधर जंगल में ही भेड़ चराने आया करती हूँ। आज बारिश में फंस गयी। बारिश खतम हुयी तो इधर आ निकली.संयोग से..।

“दो घड़ीऽ.ऽ..का रास्ता है?’- बाबू ने घड़ी पर जोर देते हुए पूछा।

“हाँ बाबू ! ज्यादा दूर नही है, किन्तु इस हालत में जब कि दो पग चलना मुश्किल है तुम्हारे लिए, मैं सोचती हूँ तो घबराहट होने लगती है कि कैसे जा पाओगे?’- चिन्तित हो, मतिया ने कहा।

“बात तो चिन्ता की जरुर है। किसी तरह आज तुम्हारे...।” - बाबू कह ही रहा था कि मतिया बीच में ही बोल उठी- “ अच्छा तो होता बाबू कि किसी तरह आज मेरी झोपड़ी तक पहुंच जाते, वहां कुछ और दवा-दारु का इन्तजाम हो जाता, फिर बिलकुल ठीक हो जाने पर ....।”- थोड़ा ठहर कर फिर बोली- “ मगर सवाल है कि...चलने का...चल कैसे पाओगे?”

“अपने माथे पर हाथ फेरते हुए शिकारी बाबू ने कहा- ‘ना भी चल पाऊं, फिर भी तो कुछ करना ही पड़ेगा। यहां पड़े-पड़े...। ओफ! घनघोर जंगल...चमकती बिजली...डूबता सूरज...कुछ तो सोचना ही होगा उपाय आखिर....’

“ सोचना तो पड़ेगा ही बाबू! ”- उसकी छाती पर डोलते लोलक को निहारती मतिया ने कहा- ‘ तो ऐसा करो ना बाबू! तुम मेरा कंधा पकड़ लो, या मैं तुम्हारी बांह पकड़ लेती हूँ। किसी तरह धीरे-धीरे चलने की कोशिश करो। कम-से-कम यहां से थोड़ी दूर उस रास्ते तक...’-हाथ के इशारे से बतलाती हुयी मतिया ने कहा- ‘ होसकता है, उधर से कोई आता-जाता दीख जाय..।’

“ठीक है, ऐसा ही करता हूँ।”- कहते हुए शिकारी बाबू ने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाया। मतिया ने उसे पकड़ते हुए, दूसरे हाथ का सहारा उसकी पीठ में देते हुए बाबू को खड़ा कर दिया।

“मगर एक बात और है बाबू , तुम्हारे सभी कपड़े तो भींगे हुए हैं। इस हालत में तो सरदी लग जायेगी। पहाड़ी इलाके में सरदी का असर ज्यादा होता है।’- बाबू की पीठ पर हाथ फेर, भींगे कपड़ों पर इशारा करती मतिया ने कहा।जिसके जवाब में शिकारी बाबू ने उसे यह कहकर निश्चिन्त किया कि इसकी कोई चिन्ता न करो। पीठ पर बंधी गठरीनुमा थैली की ओर इशारा करते हुए बाबू ने कहा- ‘इसमें कुछ कपड़े है, जो बरसात में भींगने पर भी गीले नहीं हुए होंगे।’