अधूरीपतिया / भाग 4 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
(अधूरीपतिया / भाग 4 / कमलेश से पुनर्निर्देशित)
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अपना हाथ पीछे की ओर ले जाकर थैली उतारने की कोशिश की, किन्तु सफल न हो सका। दर्द के कारण हाथ उठ ही न पाया। लाचार होकर बाबू को मतिया का सहारा लेना पड़ा। अफसोस करता हुआ बोला- ‘ओफ! मैं तो अपनी पीठ पर से बैग भी नहीं उतार पा रहा हूँ, तुम जरा तकलीफ करो ना।’

“मुस्कुराकर मतिया ने कहा- ‘इसमें तकलीफ की क्या बात है बाबू, मैं उतारे देती हूँ।’ कह कर मतिया, बाबू की पीठ से गठरीनुमा सामान उतार कर बाबू के आगे रख दी।

“ ओफ ! अपने को सर्वशक्तिमान समझने वाला इन्सान वास्तव में कितना अशक्त है, जरा सी दुर्घटना ने इतना परवश बना दिया... ।’- शिकारीबाबू ने उदास होकर कहा।

“तो इसे तुम जरा सी दुर्घटना कहते हो बाबू ? तुम तो भारी संकट में पड़ गये हो। इतने चुटीले हो गये हो। सारा वदन कांटों से भरा है, जख्म भी दो-दो...।’- कहती हुयी रुक गयी अचानक। उसे लगा- किसी घायल को उसके सही चोट का अहसास नहीं कराना चाहिए, इससे हिम्मत टूटती है...। – सोच आते ही बात बदल दी। थैली की ओर इशारा करते हुए बोली- “ तो खोलूं इसे?

बाबू ने सिर हिलाया- ‘हाँ, खोलो ना। इसमें रखे कपड़े सूखे होंगे। उन्हें पहन लूँ, फिर चलने की कोशिश करुंगा।’

बाबू के कहने पर मतिया ने बैग खोला, कपड़े निकाले, और उसे पहनने में मदद की।

कपड़े बदल, गीले कपड़ों को बैग में रखकर अपने पीठ पर डाल ली, फिर झुक कर नीचे पड़ा गोंगो उठाकर सिर पर रखा, और लम्बी रस्सी को भेड़ की गर्दन में लपेट, पुचकारती हुई इशारा की आगे चलने को। फिर बाबू की ओर देखती हुई बोली- ‘अब तो कोई दिक्कत नहीं है न बाबू? सूखे कपड़े पहन लिए, अब तो ठण्ढ नहीं लग रही है न?’

“नहीं। ठंढ-वंढ की तकलीफ नहीं है। तकलीफ है सिर्फ कांटों के चुभन की, जो जरा भी हिलने नहीं दे रही है। वैसे छाती में भी हल्की टीस सी हो रही है। मुंह भी सूख रहा है।’- चट्टान का सहारा लेकर, ठीक से खड़ा होते हुए शिकारीबाबू ने कहा।

“पानी पीओगे बाबू ? रुको मैं अभी लाती हूँ। तुम जरा बैठ जाओ, इत्मिनान से।’- कह कर, बाबू का हाथ पकड़ पास ही चट्टान पर बैठा दी। और खुद दोना लिए दौड़ पड़ी नाले की ओर।

थोड़ी देर बाद फिर दोना भर लायी। दोना बाबू को पकड़ाकर, आंचल में बंधी गांठ खोलने लगी- ‘ठहरो बाबू, अभी मत पीना, इसे मुंह में डाल लो, फिर पानी पीना।’

बाबू ने देखा- मतिया के आंचल में कोई मुट्ठीभर भुने हुए महुए थे.जिसे गांठ गोल बाबू की हथेली पर रखती हुयी बोली- ‘लो, इसे खालो बाबू। बड़े ही अच्छी चीज है। पेट भी भरेगा, और ताकत भी होगी।’

“काला-काला भुना हुआ महुआ देख, बाबू की लगी हुयी भूख-प्यास भी भाग गयी। पर, कुछ सोच कर दो-चार दाने मुंह में डाल लिया।

“और लो न बाबू ! देखते क्या हो? उपर से खराब लगने वाली हर चीज अन्दर भी खराब नहीं होती, और अच्छी लगने वाली हर चीज का अच्छा होना भी जरुरी नहीं है...। पहले चखो तो सही...मुंह भर कर...’- कहती हुयी मतिया अपनी मुट्ठी भर कर शिकारीबाबू के मुंह में महुए भर दिये। ना-नुकुर करते हुए उसने भी चबाना शुरु किया, फिर पूरा खा कर, उपर से पानी पीया, और तब मुस्कुराते हुए बोला- ‘वाकई बढ़िया लगा तुम्हारा महुआ।’

“इसीलिए तो कही कि पूरा खालो।’- मतिया ने पुनः कहा।

“खा-पीकर, थोड़ा दुरुस्त हुए शिकारी बाबू, तब आगे की यात्रा शुरु हुयी। बाबू ने बताया कि अब बिना सहारे के भी उठ सकता हूँ, चल सकता हूँ। हालांकि दर्द अभी गया नहीं था, इतनी जल्दी जा भी कैसे सकता है, किन्तु पानी से नयी ताजगी मिली।

बाबू के हाथ से बाकी महुए वापस लेकर, मतिया फिर से अपने फटे-कटे आंचल में सहेज ली, और बोली, “चलो, अब तो चला जाय।”

“हाँ, चलना ही चाहिए। बहुत देर हो रही है। किसी प्रकार धीरे-धीरे चलना भी है।”- बाबू ने सिर हिलाकर हामी भरी, और मतिया की ओर अपना हाथ बढ़ाया।

“चलो बाबू ’- अपने ओर बढ़े हुए शिकारीबाबू के हाथ को थामती हुयी कहा मतिया ने, और दोनों चल पड़े। दो-चार कदम के बाद ही बाबू ने अपना हाथ मतिया के हाथ से छुड़ाकर, उसके कंधे पर रख दिया, जिससे अधिक सहारा मिलने लगा, और चलने में सुविधा होने लगी।

“मतिया ने देखा, भेड़ पहले ही कुछ दूर रास्ते पर आगे बढ़, एक झुरमुट के पास खड़ा हो गया, जैसे कोई इन्सान, पीछे से आने वाले को मुड़ कर देखता हुआ इन्जार कर रहा हो।

“ कुछ दूर तक दोनों ही चुपचाप चलते रहे। किसी ने कुछ कहा-पूछा नहीं। क्यों कि लगता है दोनों के दिमाग में अपने-अपने ढंग की बातें चक्कर काट रहीं होंगी। आते हुए अन्धेरे को देखकर, जंगल सुनसान पड़ता जा रहा था। परिन्दे भी चुपचाप वापस अपने रैन- वसेरे की ओर कूच कर रहे थे। शायद सबको जल्दबाजी ही थी घर पहुँचने की। पर चांद को अभी जल्दबाजी नहीं लग रही थी।

“कुछ रास्ता तय होने के बाद बाबू ने पूछा - ‘घने जंगल से निकलने के लिए अभी और कितना चलना पड़ेगा?’

“जंगल तो सब करीब-करीब घना ही है बाबू, जो काफी दूर तक फैला हुआ है, ये कहो कि सही रास्ते पर पहुँचने के लिए कितना चलना पड़ेगा। फिर अपने हाथ से इशारा करती मतिया ने बतलाया- ‘ओ देखो बाबू! वो जो साखू का बड़ा-सा दरख्त दीख रहा है न, वहां से थोड़ी दूर पर भेलवा का पेड़ मिलेगा, उससे कुछ आगे जाने पर बिजना के तीन पेड़ एक साथ खड़े मिलेंगे, उससे जरा सा आगे जाने पर एक बरसाती नाला मिलेगा, जिसे पार करने पर ही चौड़ी पगडंडी मिलेगी, जो दायीं ओर मेरे गांव तक चली जाती है, और बायीं ओर कस्बे का रास्ता है।’

‘वहां से तुम्हारा गांव कितनी दूर है ? ’- पूछा बाबू ने। उसकी ललाट पर उभर आयी सिकुड़न उसकी भीतरी घबराहट को जता रही थी, जिसे भांपते हुए मतिया ने कहा, ‘उस नाले के पार जाने पर, मेरे गांव पहुँचने में कोई घड़ी भर समय और लगता है, पर इस चाल से नहीं, जो हम चल रहे हैं। खैर कोई बात नहीं, हिम्मत करो।यही समझो कि आधी से थोड़ी ही अधिक दूरी और चलना रह गया है हमलोगों को। घबराने की कोई बात नहीं है। इतनी दूर जब चले आये हैं, तो घर तक किसी तरह पहुँच ही जायेंगे।’

“सो तो है ही। भगवान की कृपा कहो, अभी तक दर्द ज्यादा परेशान नहीं किया, फिर भी चिन्ता इस बात की है कि अब तो बिलकुल ही अन्धकार हो गया है। उस मोड़ तक पहुँचते-पहुँचते हाथ को हाथ सूझना भी कठिन हो जायेगा। तिस पर कहती हो कि उतना और आगे जाना है...।’

“शिकारीबाबू की चिन्तातुर बात सुन मतिया मुस्कुराई, और बोली- ‘ इतना घबरा क्यों रहे हो बाबू! मरदजात ठहरे, घबराने से कैसे काम चलेगा? उस मोड़ तक ही चलने में ज्यादा परेशानी है। उसके आगे गाढ़े अन्धेरे में भी चलने में अधिक तकलीफ नहीं होगी। नाला पार होते ही पगडंडी पर चड़ जायेंगे, फिर देखना अन्धेरा है कि उजाला...।”

“मतिया की आशाभरी बात सुन, शिकारीबाबू मन ही मन बुदबुदाया- ‘लगता है, वहाँ कोई लालटेन लिए बैठा होगा...’

“बाबू की बात को मतिया पूरी तरह सुन तो न सकी, किन्तु बोली- ‘यहाँ जंगल कुछ ज्यादा घना है बाबू । रास्ता भी ठीक से दिखायी नहीं देता। मगर वहाँ पगडंडी काफी चौड़ी है। गाछ भी कुछ दूर-दूर पर हैं, ऊंचाई भी है पगडंडी की, तिस पर भी आज लगता है आठम का चांद होगा, जिसे सीधे सिर पर ही होना चाहिए। अभी घने जंगल की वजह से पता नहीं चल रहा है।’

“ऊपर सिर उठाकर, सघन डालियों के बीच से नीले साफ आसमान को देखने की कोशिश करती हुयी मतिया बोली, ‘लगता है बाबू कि आसमान में ज्यादा बादल भी नहीं है, नहीं तो अब तक और अन्धेरा हो जाता। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि घने बादल छाये रहने पर दिन-दोपहर-सांझ सब अमावश की रात की तरह ही नजर आता है।’

“मतिया की बात से बाबू को कुछ आशा बंधी। बायां हाथ तो मतिया के कंधे पर था, दायां हाथ अपनी छाती पर फेरते हुए बोला, ‘ हां, हां, आसमान बिलकुल साफ है। आज अष्टमी का ही चांद है, आधे यौवन पर- यह खुशी की बात है। आधी रात तक तो रौशन रहना ही चारों ओर। रास्ता भी किसी प्रकार आधा तय किया ही जा चुका है; किन्तु कभी- कभी यहाँ दर्द, कुछ टीस सी हो जा रही है, खास कर जब ऊँचा-नीचा पैर पड़ रहा है। मुंह फिर सूखने लगा है। इतना ही चला हूँ, और थकान ऐसा लग रहा है कि दस-बीस कोस का सफर हुआ हो।’

“घबराओ मत बाबू ! थोड़ी और हिम्मत बांधो। अब नाला अधिक दूर नहीं है। वहां पहुँच कर जी भर पानी पी लेना ।एक दफा और पिला दूंगी बूटी को भी। थोड़ी देर सुस्ता भी लोगे, तब चलेंगे आगे।’ – शिकारीबाबू को धीरज बंधाती मतिया ने कहा- ‘पगडंडी पर पहुँच जाने के बाद आधी रात को भी घर पहुँचेंगे तो कोई बात नहीं। किस तरह का कोई डर-भय नहीं है अब। मगर बेसी देर ठहरुंगी नहीं वहां, कारण कि हर रोज दिन रहते ही, घर पहुंच जाया करती थी। आज पहली बार है जो इतनी देर हो गयी है इधर ही। नानी बेचारी राह देखती होगी। जरा भी देर हुई कि रो-रोकर सारा जंगल सिर पर उठा लेगी...’

“मतिया की बात पर, बीच में ही छेड़ते हुए बाबू ने पूछा, ‘तो यहां तुम्हारा ननिहाल है क्या? नाम क्या है गांव का ?’

“ननिहाल समझो या ददिहाल, जो भी है यही है बाबू। इतनी उमर तो यहीं हो गई।’ मतिया अपने सिर पर से गोंगो उतार आगे-आगे चलती भेड़ की पीठ पर रखती हुयी बोली- चल, ले चल इसे भी। फिर बाबू की ओर देखकर मुस्कुरा दी- बेचारी भेड़ बहुत मदद करती है।

“भेड़ तो मदद करती ही होगी, किन्तु तुमने अपने ननिहाल का नाम नहीं बताया।’- आगे दुलक-दुलक कर चलती भेड़ को देखते हुए बाबू ने फिर टोका।

“ओ ! गांव का नाम?’- मतिया फिर मुस्कुरा उठी-‘ मेरे ननिहार-ददिहाल का नाम है गुजरिया।’

“गुजरिया...गुजरिया!...बड़ा ही प्यारा सा नाम है- नाम को दोहराते हुए बाबू ने कहा, ‘गुजरिया यानी सबका गुजारा हो सकता है यहां तेरे इस प्यारे से गांव में...क्यों?’- मतिया के गांव का बखान करते हुए कहा बाबू ने कुछ चौंकते हुए, ‘अरे हां, इतनी देर से चल रहा हूँ तुम्हारे साथ और तुम्हारा नाम भी नहीं पूछा और न स्वयं ही बतलाया अपना नाम।’

“मतिया मुस्कुरायी। कंधे पर सरक आये ढीले जूड़े को जरा सम्हालने के बाद वोली- ‘ मौका ही कहां मिला बाबू, न तो तुमने पूछा और ना मैंने बतलाया। हमने भी तो अभी तक कुछ पूछ-पाछ नहीं किया तुमसे कि किस गांव या शहर से आये हो, क्या नाम है... खैर, चलो अब नाले पर पहुंच कर, पानी पी, इत्मीनान से थोड़ी बातें- पूछ-पाछ हो जायेंगी, और जरा आराम भी कर लोगे। मुझे भी तुम्हारे नाम-गाम की हड़बड़ी नहीं है। अब तो तुम चल ही रहे हो, हमारे घर, बतियाते रहना ना रात भर बैठकर।’

“मतिया ने ऐसी लम्बी बांध दी कि बाबू चुप हो गया। किसी दूसरी ही धुन में खो गया। नाम पूछने का ध्यान ही न रहा। चुपचाप सिर झुकाए रास्ता नापता रहा।

कल-कल की मधुर आवाज कानों में पड़कर बतला रही थी कि नाला अब बिलकुल पास में ही है। आवाज सुन कर शिकारी बाबू ने कहा- ‘अरे, हमलोग बहुत जल्दी ही पहुंच गये नाले के पास। पानी कितना होगा इसमें?’

‘पानी ज्यादा नहीं है बाबू। यही कोई घुटने से थोड़ा ऊपर तक।’- थोड़ा झुकती हुयी, हाथ अपनी जांघ पर रखती मतिया ने नाले के पानी का अन्दाजा बताया, फिर जरा ठहर कर हाथ ऊपर उठा गीजिन की एक डाल तोड़ती हुई बोली, ‘नाले की दूरी तो उतनी ही है बाबू जितनी पहले थी, परन्तु बातों में मशगूल रहे इस कारण पता नहीं चला।’

‘पता चला या न चला, मैं तो चला ही।’-बाबू ने कहा, जिसे सुन मतिया हँस पड़ी, और गीजिन का डंडा बाबू के हाथ में पकड़ाती हुयी बोली- ‘इसे पकड़ लो बाबू! नाले में उतरने में सहारा होगा। रास्ता कुछ गड़बड़ है। पानी के भीतर छोटे-छोटे ढोंके हैं, पांव फिसलने का डर रहता है अनजान आदमी को। हम तो आदी हैं- रोज का काम है इसके आर-पार आना-जाना।’

“मतिया के हाथ से डंडा लेते हुए बाबू ने कहा, ‘ चलो यह भी हुआ, रोगी और चुटीला तो था ही, अब बूढा भी हो गया- तुमने हाथ में डंडा थमा दिया।’- बाबू के इस बात पर दोनों एक साथ हँसने लगे।मतिया अधिक खिलखिलाकर हंसी, किन्तु शिकारी बाबू सीने के दर्द के कारण जोर से हँस भी न पा रहा था। फिर भी हंसी में हरारत दूर हो गयी।

दोनों नाले में उतरने लगे। पानी के पास खड़े होकर, पहले बाबू ने अपनी पतलून ऊपर जांघों तक समेटी, फिर जूता उतार कर उठाने लगा, जिसे रोकती हुई मतिया ने कहा- ‘इसे छोड़ दो बाबू , तुम सिर्फ डंडा लेकर चलो। इसे मैं लिए लेती हूँ।’ और अपनी धोती थोड़ा ऊपर समेट, एक हाथ में बाबू का जूता उठा, दूसरे हाथ से बाबू को सहारा देती हुई, बढ़ चली पानी में। पीठ पर गोंगो लादे, भेड़ पहले ही उछलकर, उस पार जा, अपना बदन झटकारने लगी थी।

नाला पार किया बाबू ने डंडे और मतिया के सहारे। जब थोड़ा बाकी रहा, तो झुक कर चुल्लु भरना चाहा, जिसे रोकती हुयी मतिया, हाथ में पकड़ें जूते को ऊपर, पानी से बाहर फेंकती हुयी बोली, ‘जरा ठहर जाओ बाबू! तब पानी पीना।’

हाथ धोकर, आंचल में बंधी गांठ खोल महुआ निकालकर बाबू को देने लगी, जो कमर झुकाये चुल्लु में पानी भरने के लिए खड़ा था।

‘फिर दो-चार दाना खालो बाबू ! हरारत एकदम मिट जायेगी।’-मतिया के कहने पर बाबू ने कुछ दाने लिए, और अपने मुंह में धरकर, चुल्लु भरकर पानी पीने लगा। मतिया खड़ी देखती रही।

जी-भर कर पानी पीया बाबू ने, और पानी से बाहर आ, पतलून ठीक की, जूता पहना, और तब इत्मिनान से एक पत्थर पर बैठते हुए मतिया की ओर देखकर पूछा, ‘अब क्या इरादा है- बैठने का या चलने का?’

‘मुझे बैठने का विचार थोडे जो है बाबू। मैं तो एक सांस में सारा जंगल घूम आऊँ। वो तो फिकर सिर्फ तुम्हारे कारण हो रही है...।’- मुस्कुराती हुई मतिया बोली, और अपनी समेटी हुयी धोती ठीक करने लगी।

‘मुझे भी कोई खास जरुरत अब नहीं लग रही है, बैठने-सुस्ताने की। प्यास लगी थी, इस कारण सुस्ती-सी लग रही थी। पानी पीने से अब बढ़िया लग रहा है। दर्द भी काफी कम हो गया है। तुमने तो ऐसी बूटी पिलायी जो डाक्टरी दवा को भी मात दे गयी। अब तकलीफ बदन में चुभे कांटों का सिर्फ है।’- पत्थर पर से उठकर, खड़ा होते हुए शिकारीबाबू ने कहा।

‘अरे हां, याद आयी, बूटी फिर एक दफा पिलानी थी न। बातों में हम तो भूल ही गए।’-कहा बाबू ने तो मतिया को भी ध्यान आया। ‘परन्तु साथ में तो रखी नहीं हो।’

‘बूटियां तो एक से एक पड़ी हैं बाबू इन जंगलों में, मगर सवाल है सिर्फ पहचानने का इन नायाब चीजों को, और उन पर भरोसा करके काम में लाने की बात है।’- इधर-उधर देख कर मतिया ने एक बूटी उखाड़ी, और हाथों पर मसलकर, बाबू को पिलादी। फिर बोली- ‘तुम तो जानते होओगे बाबू ! बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में लोग नेजे और खंजरों से घायल होते थे, और रात भर में ही जड़ी-बूटियों के बदौलत फिर से चंगे होकर, सबेरा होते ही दहाडने लगते थे।’

‘बात बिलकुल सही कह रही हो। इन बूटियों के गुण और प्रयोग से हमारे कई ग्रन्थ भरे पड़े हैं। बूटियों का विज्ञान हमारे देश में काफी पुराना है। हमारे यहां के बुजुर्ग जंगलों में रहकर बूटियों का प्रयोग भलीभांति जानते थे। अपने अनुभव और ज्ञान का भारी भंडार पुस्तकों में रख छोड़ा है महर्षियों ने। मगर अफसोस कि आज इसे बूढ़ा सिद्धान्त कहकर ठुकरा रहे हैं हम। जैसा कि हम देखते हैं, बूढ़ों की बातें कुछ अटपटी जरुर लगती हैं, पर हमारी नासमझी के कारण। उनकी बातों-सिद्धान्तों में काफी दम होता है। इस बूढ़े वैद्यक में कुछ कड़वापन जरुर है, पर परिणाम मीठा है, जिसकी तुलना अन्य कोई क्या कर सकता है?’

मतिया की जरा सी बात पर बाबू ने भाषण ही दे डाला।

‘ठीक कह रहे हो बाबू! ये बूटियां बहुत ही कारगर हैं, और मैं जहां तक समझती हूँ सस्ती भी हैं। सुनते हैं पहले के लोगों को ऐसी भी बूटी मालूम थी, जो मरे हुए को जिन्दा कर सके।’- कहा मतिया ने, जिसकी बात का जवाब बाबू ने मुस्कुराकर दिया, ‘तुमने सही सुना है। कई जगह इन बूटियों की कहानियां मिलती हैं। राम-रावण की लड़ाई में मेघनाथ का मारा हुआ शक्ति बाण लगने के कारण जब लक्ष्मण मूर्छित होकर गिर पड़े थे। जरा भी आश न थी उनके जीवन की, तब सुखेन वैद्य के कहे पर, भक्त हनुमान ने संजीवनी बूटी लाकर पिलायी थी उन्हें, और एक तरह से कहें तो लक्ष्मण का पुनर्जन्म ही हुआ था। कहते हैं- उस बूटी के गाछ तले प्रकाश होता रहता था। यही उस बूटी की पहचान है। यही कारण था कि रावण ने उस पूरे पर्वत पर ही रौशनी की व्यवस्था करवा दी थी, ताकि हनुमान को बूटी ढूढ़ने में देर लगे, और इधर लक्ष्मण के प्राण-पखेरु उड़ जायें। परन्तु जानती हो, भक्तराज हनुमान तो बल-बुद्धि के खान ठहरे। जोश में आकर पूरा पहाड़ ही उखाडकर हथेली पर उठा लाये।’

‘ऐं बाबू! जब पूरा पहाड़ ही लंका के मैदान में पहुँच गया, तब तो हमारे देश में रही न होगी यह बूटी?’- मतिया ने आँखें तरेर कर आश्चर्य पूर्वक पूछा।

‘ऐसी भी क्या बात है, क्या एक ही पहाड़ पर यह नायाब बूटी उगती होगी? बूटियों का खान तो हमारा हिमालय पर्वत है, और भी बहुत से पहाड हैं जहाँ तरह-तरह की जड़ी- बूटियां पायी जाती हैं। हमें हर हाल में इन जंगलों और पहाड़ों की रक्षा करनी चाहिए। एक सच्चे देशवासी का पावन कर्तव्य है यह। नदियां, जंगल, पहाड़- ये ही न रहेंगे तो फिर हमारा क्या होगा, कैसे रह पायेगी सुख से ये मानव जाति या कहो कोई भी प्राणी!’

‘तुम ठीक कहते हो बाबू ! मुझे भी याद आरही है, एक बार नानी अपने भेड़ के लिए घास ले आयी थी। रात में उठा कर जब मैं उसे देने गयी तो देखती क्या हूँ कि घास की दो-तीन जड़ें अजीब सी चमक रही है। मैं तो उसे कोई जहरीली घास समझकर बाहर फेंक आयी। कहीं इसे खाकर मेरी प्यारी भेड़ मर न जाये...।’

‘मतिया की बात सुन बाबू हँसने लगा- वाह रे घास, और वाह रे तेरी प्यारी भेड़।’-फिर जरा रुक कर बाबू ने पूछा- ‘ क्या तुम अब भी उस घास को पहचान सकती हो?’

‘पहचानती हूँ बाबू, अच्छी तरह पहचानती हूँ। उसके बाद जब भी घास लाती, उस घास को चुन-चुन कर अलग फेक देती। ठहरो तुम्हें भी पहचनवा दूंगी।’

मतिया की बात पर बाबू को थोड़ी उत्सुकता हुई, और अफसोस भी- ‘काश ! वह बूटी- संजीवनी बूटी फिर से मिल जाती। खैर, अभी तो कहीं से ढूढकर दर्द मिटाने वाली बूटी ले आओ। एक बार और पी लूँ, फिर चला जाय।’- बाबू की बात पर मतिया मुस्कुरा दी।

‘अभी लाती हूँ बाबू! बहुत है आसपास में भरी पड़ी है ये बूटी- दरद वाली।’- कहती मतिया पगडंडी के बगल में एक गाछ की ओर चली गयी, जहाँ हल्का सा उजाला था। चाँद बिलकुल सिर पर था, किन्तु थोड़ी-थोड़ी बदली होने के कारण चांदनी हो न पा रही थी।

गाछ के पास मतिया ने दो-चार घासों को उलट-पुलट कर देखा, फिर एक छोटे से पौधे की कुछ ताजी पत्तियां तोड़ लायी।

‘लो बाबू ! यह रही वही बूटी। लो, पीलो।’-हथेली पर मसलकर, रस निकालती हुयी मतिया बोली। बाबू ने थोड़ा रस पीया, और तब कहा, ‘अब तो चला जाय न?’

‘चलो न बाबू। चलना ही तो है।’-कहती हुई आगे बढ़कर बाबू का हाथ पकड़ने लगी।

‘छोड़ो अब। तुम्हारी कृपा से सहारे की खास जरुरत नहीं रही अब। थोड़ी-बहुत कसर भी है, सो इस लाठी से पूरी हो जारही है।’-नीचे पड़ी लाठी को उठाते हुए बाबू ने कहा, ‘अब तुम इत्मिनान से बातें करते हुए चल सकती हो।’

बाबू की बात सुन मतिया भी चल पड़ी, बिना सहारा दिये। बगल में ही बाबू भी चलने लगा धीरे-धीरे लाठी टेकता हुआ।

कुछ देर चुप चलने के बाद, एकाएक उसे याद आया। मतिया की ओर देख कर कहा शहरी बाबू ने- ‘अरे हां, तुमने अपने गांव का नाम तो बतलाया, मगर अपना नाम...।’

‘बतलाऊँगी बाबू ! बतलाऊँगी। अब तो तुम मेरे यहां चल ही रहे हो। सब कुछ जान जाओगे।’

‘चल तो रहा ही हूँ। जानकारी भी होगी ही, किन्तु नाम बतलाने में हर्ज क्या है? आखिर तुम्हें पुकारने के लिए कोई नाम तो चाहिए न?’- बाबू ने उसका नाम जानने पर जोर दिया।

‘इतनी बेसबरी है, तो कहे दे रही हूँ। नाम तो आखिर कहने-पुकारने के लिए ही होता है न। मेरा नाम मतिया है। नानी मुझे इसी नाम से पुकारती है। वैसे कोई-कोई मुझे सोनुआं भी कहते हैं।’- मुस्कुराती हुयी मतिया बाबू का हाथ पकड़कर बोली, ‘कहो, कैसा लगा मेरा नाम ? तुम मुझे मतिया कहोगे या सोनुआँ? ’

‘मैं तो मतिया ही कहूँगा। ओह ! कितना प्यारा नाम है यह- मतिया...मतिया!...’- दो-तीन बार भुनभुनाकर बाबू ने कहा, और मतिया का हाथ आहिस्ते से दबाकर बोला, ‘मति यानी बुद्धि यानी दिमाग...मतिया यानी बुद्धिमती...होशियार...चालाक...ओह ! नाम के मुताबिक तुम्हें बुद्धिमान और चालाक होना ही चाहिए।’

‘छोड़ो भी बाबू ।’- झटके से अपना हाथ छुड़ाती मतिया, बाबू की बात काटती हुयी बोली- ‘हम गंवार जंगलियों के नाम का कोई अरथ-वरथ नहीं होता बाबू, जिसे जो मन आया कह कर पुकार लिया। वैसे तुम्हारा नाम क्या है बाबू? तुम इधर...’

मतिया कह ही रही थी कि तभी सामने से जलते मसाल की तेज रौशनी में कई लोग इधर ही आते हुए नजर आए। शहरी बाबू उन्हें देखकर चौंकते हुए बोला- ‘अरे वो मतिया, वो देखो तो वे सब कौन लोग चले आरहे हैं इधर? कोई चोर-डाकू तो...ओफ ! मेरी बन्दूक भी...।’- बाबू अपनी कमर टटोलने लगा, जहाँ गोलियों का पट्टा बंधा था, परन्तु कंधे पर बन्दूक तो नदारथ थी।

बाबू की बात सुन मतिया खिलखिलाकर हँस पड़ी, ‘डर गये न ? चोर उच्चके तो शहरों में हुआ करते हैं बाबू । हम वनवासियों में चोर-डाकू नहीं हुआ करते। है ही क्या हमलोगों के पास ? और कौन किसकी क्या चोरी करेगा ?’

‘तो क्या गांव वाले ही किसी काम से इधर चले आ रहे हैं?’- भयभीत शिकारी बाबू, आते हुए लोगों की ओर देखता हुआ बोला।

‘गांव वाले तो आ ही रहे हैं। और जहाँ तक मुझे उम्मीद है, हमारी ही खोज हो रही है। कह नहीं रही थी मैं, जरा भी देर हुई कि नानी रो-रोकर सारा जंगल गुंजा देगी। इतनी देर क्या कभी बाहर रही हूँ मैं अकेली कभी?’- मतिया कह ही रही थी कि मसाल की रौशनी और पास आगयी। मसाल की रौशनी में आबनूसी चमकते चेहरों को बाबू ने भी देखा- चार-पांच आदमी चले आरहे हैं। एक के हाथ में मसाल है, जिसकी लपटों की तेज रोशनी अगल-बगल के झाड़-झंखाड़-झुरमुटों में भी घुस-घुस कर कुछ ढूढ़ना चाह रही थी, क्योंकि सब कुछ रौशन हो रहा था। बाकी लोगों के हाथों में तीर-कमान और बरछे थे। मतिया के दिलाशा दिलाने पर भी बाबू के पसीने छूट रहे थे। उसे यही लग रहा था कि तीर-धनुष सहित वनवासी आकर क्षण भरमें ही उसे घेर लेंगे...बाबू अपने बचाव का उपाय सोच ही रहा था, तभी मतिया ने कहा- ‘ओ देखो बाबू ! आगे-आगे जो मसाल लिए चला आ रहा है, वही मेरे गांव का सबसे काबिल दबंग जवान गोरखुआ है। उसके बगल दायीं ओर सोहनु काका, और बायीं ओर भिरकू काका हैं। पीछे आरहे दोनों- डोरमा और होरिया है।’

मतिया के कहने पर बाबू को ढाढ़स हुआ। उसे विश्वास हो गया कि निश्चित ही उसकी खोज में ही चली है यह टोली। मतिया कह रही थी और बाबू आने वाले लोगों के चेहरों को गौर से देख रहा था।

थोड़ी ही देर में सभी बिलकुल करीब आ गये। यहाँ तक कि उन लोगों ने भी पहचान लिया, जिस मतिया की खोज में शाम से ही कजुरी नानी बेहाल थी, वह चली आरही है।आगे- आगे पीठ पर गोंगो लादे मतिया की भेड़ भी चली आरही है। उसके पीछे मतिया भी नजर आयी उन लोगों को।मगर मतिया के साथ ये लाठी टेके कौन है- कोई शहरी बाबू?-देखने वाले चकित हुए।

पास आते ही मसाल ऊपर करके गोरखुआ ने पूछा- ‘ ये के हेके रे सोनुआँ तोंय संग?’

गोरखुआ की बात सुन मतिया मुस्कुराकर बोली, ‘ तोंय पूछ नऽ के हेके। मोंय बूझलों आमर मन के पाहन हेके।’

‘पाहन हेके? ’- कहता हुआ गोरखुआ आगे बढ, सिर झुकाकर प्रणाम किया, फिर बहुत ही नम्र होकर बोला- ‘ कहाँ से आना हो रहा है बाबू?’

गोरखुआ के साथ-साथ बाकी लोगों ने भी सिर झकाया। बाबू ने भी हाथ जोड़कर नमस्ते कहा, फिर बोला, ‘ आया तो था इधर ही जंगल में शिकार खेलने। बनैले सूअर का पीछा करते रास्ता भटक गया। इसी बीच भारी तूफान उठा और समेट लिया अपने चपेट में। उधर एक चट्टान पर से पांव फिसला, और बोरियों की तरह नीचे लुढ़कता चला आया... भगवान की कृपा कहो कि, ये बेचारी ...’- मतिया की ओर इशारा करते हुए कहा- ‘अचानक कैसे पहुँच गयी। इसके बदौलत मेरी जान बची, नहीं तो पता नहीं आज क्या हाल होता...।’

‘होना क्या था बाबू ! मौत के सिवा दूसरा क्या होता ऐसी हालत में?’-मसाल नीचे जमीन पर टिकाते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘ इस बीहड़ जंगल में, वो भी इस खराब मौसम में तिस पर भी अकेले शिकार के लिए घुसने का साहस ही दुःसाहस है बाबू। हमलोग यहां के रहने वाले हैं, फिर भी उस पहाड़ी के उधर...’-दायीं ओर मसाल उठाकर इशारा करते हुए कहा- ‘अकेला जाने की हिम्मत नहीं...।’

‘हुयी थोड़ी नादानी जरुर है हमसे।’- गोरखुआ की ओर देखते हुए बाबू ने सिर हिलाकर कहा, ‘दरअसल मैं कल्पना भी नहीं पाया था कि आगे का जंगल इतना बीहड़ होगा। दूसरी बात यह कि सुबह जब निकला था तो मौसम भी खराब नहीं था, सो निकल पड़ा। रही बात साथी-संगी की, तो हर जगह साथी कहाँ ढूढ़ता फिरुँ? जीवन के लम्बे सफर में अच्छा साथी भी तो बड़े भाग्य की बात है...।’

बाबू कह ही रहा था कि मतिया बोल उठी- ‘ तो अब हमलोगों को चलना चाहिए। बातें तो रास्ते भर हो सकती हैं। यहाँ खड़े होकर बातें करना और उधर नानी की बेचैनी बढ़ाना....।’

मतिया के कहने पर सब एकसाथ बोल पड़े- ‘ हां-हां, चलना ही चाहिए।’

मसाल ऊपर उठा, आगे बढ़ते हुए गोरखुआ ने मतिया की देखकर पूछा, ‘आखिर इतनी देर कहां लगा दी? तूफान तो कब का थम चुका था।’

‘ देऽऽर?’- शब्द पर जोर देते हुए बाबू ने कहा-‘यह कहें कि बहुत सबेरे हम यहां पहुँच गये। मतिया की सेवा का फल कहें और बूटी का चमत्कार...ये न होती तो न जाने क्या होता...मौत या फिर किसी दरिन्दे का भोजन...।’- मतिया की ओर देखकर नम्रता पूर्वक कहा, और लाठी टेककर चलने को उत्सुक हुआ। बाकी लोग भी साथ-साथ बढ़ चले। साथ चलती, मुस्कुराती हुयी मतिया बोली-‘ मेरी सेवा का क्या कहते हो बाबू ! हाँ, बूटी का भले ही बखान कर सकते हो, जिसकी बदौलत इतनी जल्दी दर्द में राहत मिली।’

इतना कहकर मतिया ने पूरी बातें गोरखुआ को बतला गयी- कैसे खुद तूफान में फंसी, कैसे भेड़ ने यहां तक पहुँचाया, बाबू पर नजर पड़ी....आदि सारी बातें।

‘जैसा कि सोनुआँ कह रही है बाबू , मालूम चलता है कि चोट गम्भीर है। पेट में पत्थर चुभना, कोई मामूली बात थोडे जो है।’- डोरमा ने कहा मतिया की बात पर गौर करते हुए।

‘ऐसा करते हैं, बाबू को कंधे पर उठा लेते हैं। धीरे-धीरे चलने में देर भी हो रही है, और इनको तकलीफ भी।’- होरिया ने कहा।